Wednesday, September 30, 2009

मौत की त्रासदी पर प्रशासन की आपराधिक चुप्पी

भोपाल में संघ द्वारा आयोजित शस्त्र पूजन कार्यक्रम के दौरान गोली चलने से स्वयंसेवक की मौत एक ऐसी त्रासद घटना है जो अपने पीछे कुछ अनसुलझे सवाल छोड़ गई है। इस घटना की निष्पक्ष जांच के जरिये इन सवालों का उत्तर खोजा जाना निहायत जरूरी है। दरअसल इस घटना से जुड़ी तमाम परिस्थितियां इसे संदेह के दायरे में ला खड़ा करती हैं। जहां तक शस्त्र पूजन का सवाल है तो इस आयोजन में शस्त्रों की मौजूदगी कोई अनहोनी बात नहीं है लेकिन अभी तक जो बातें सामने आ रही हैं उसके अनुसार जानलेवा गोली एक गैरलायसेंसी रिवाल्वर से चली थी। घटना के समय मौजूद कुछ लोगों के अनुसार यह पिस्तौल एक भाजपा नेता की है इसका खोखा भी घटनास्थल से बरामद हुआ है। सवाल यह उठता है कि आखिर आयोजन मेें इतने अधिक लोगों के मौजूद होने के बावजूद घायल स्वयंसेवक को अस्पताल पहुंचाने में देरी कैसे हुई । मृतक स्वयंसेवक के पुत्र ने खुद आशंका व्यक्त की है कि उसके पिता की मौत हादसा नहीं बल्कि हत्या है। पुलिस इसकी तफ्तीश में जानबूझकर इन तथ्यों की अनदेखी क्यों कर रही है। स्थापना दिवस होने के कारण दशहरे का आरएसएस के लिए विशेष महत्व है और इसीलिए संघ देश भर में इस अवसर पर शस्त्र पूजन एवं पथ संचलन का आयोजन करता है। इस वर्ष भोपाल में पथ संचलन एवं शस्त्र पूजन को मनाने के लिए काफी जोर शोर से तैयारी की गई थी। संभवत: यह पहला अवसर था जब झीलों की नगरी में शस्त्र पूजन एवं पथ संचलन के लिए बाकायदा पोस्टर लगाये गए थे। इस आयोजन में परंपरागत गरिमा की अपेक्षा दिखावट को ज्यादा प्राथमिकता दी गई थी जिसका सबसे बड़ा कारण यह था कि प्रदेश में संघ इस माध्यम से अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना चाहता था। चूंकि भाजपा संघ की राजनीतिक शाखा ही है अत: यह स्वाभाविक ही है कि संघ के इस शक्ति प्रदर्शन को राज्य की भाजपा सरकार का पूरा पूरा समर्थन था। इसका यह संकेत तो स्पष्टï था कि राजधानी में अन्य वर्षों की तुलना में इस बार पथ संचलन एवं शस्त्र पूजन अधिक धूमधाम से होने वाला था फिर आखिर पुलिस ने इसके लिए दोषरहित सुरक्षा प्रबंध क्यों नहीं किये। इतना ही नहीं, उक्त घटना के बाद भी पुलिस काफी देर हो जाने पर हरकत में आई। इस घटना को घटे इन पंक्तियों के लिखे जाने तक डेढ़ दिन का समय बीत चुका है लेकिन पुलिस अभी तक कमोवेश हाथ पर हाथ धरे ही बैठी है मानो कार्रवाई के पहले सरकार के इशारे का इंतजार कर रही हो। जाने क्या बात है कि पुलिस के पास कर्तव्य निष्ठïा के रूप में जो रीढ़ की हड्डïी होने चाहिए वह आजकल गायब ही दिखती है और वह सरकार के सामने नतमस्तक नजर आती है। इस मामले में पुलिस की चुप्पी यही कुछ बयान करती है। यदि पुलिस का यही हाल कायम रहा तो यह तय ही लगता है कि उक्त घटना में पुलिस की जांच सरकार एवं सरकारी दल के नेताओं के बचाव के इर्द गिर्द ही घूमेगी और इसी सर्किल में कहीं उसका निष्कर्ष बिंदु आ जाएगा।
-सर्वदमन पाठक

Friday, September 25, 2009

अपसंस्कृति रुके, प्रदर्शन नहीं

मुख्यमंत्री की इस राय को सकारात्मक नजरिये से देखा जाना चाहिए कि प्रदर्शन के दौरान पुतला दहन की परंपरा खत्म की जानी चाहिए क्योंकि यह विरोध प्रदर्शन का असभ्यतापूर्ण तरीका है। वैसे मुख्यमंत्री का यह विचार राजनीतिक विरादरी के लिए थोड़ा आश्चर्यजनक है क्योंकि आजकल तो बिना पुतला दहन के विरोध प्रदर्शन को आव्हानकर्ता राजनीतिक दल अधूरा ही मानते हैं। शिवराज सिंह के बयान से सबसे ज्यादा आश्चर्य तो भाजपा कार्यकर्ताओं को हुआ है जिनकी पुतला दहन की लंबी चौड़ी परंपरा रही है। आज भाजपा प्रदेश में सत्ता सुख भोग रही है तब भी उसके नेता एवं कार्यकर्ता किसी न किसी बहाने से अपना यह शौक पूरा कर ही लेते हैं। आजकल भी मूल्यवृद्धि के विरोध के बहाने वे केंद्र में सत्तारूढ़ सरकार के नेताओं के पुतले जलाने में मशगूल हैं। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान खुद भी इसके गवाह रहे हैं। अब राज्य में विपक्ष में बैठी कांग्रेस अपने विरोध प्रदर्शन को धारदार बनाने के लिए पुतला दहन का सहारा ले रही है । सच तो यह है कि विरोध का राजनीतिक कर्मकांड पुतला दहन के बिना अधूरा ही माना जाता रहा है। लेकिन मुख्यमंत्री की इस दलील में निश्चित ही काफी दम है कि पुतला दहन से जनता पर कोई असर नहीं पड़ता बल्कि यह विरोधी पक्ष के नेताओं का अपमान करने की सियासी अपसंस्कृति का ही परिचायक है। लेकिन इसका यह मतलब यह कतई नहीं निकाला जाना चाहिए कि विपक्ष को सरकार की नीतियों एवं फैसलों के खिलाफ उग्र विरोध प्रदर्शन का अधिकार नहीं है बल्कि विरोध प्रदर्शनों को रोकने की कोई भी कोशिश अलोकतांत्रिक कही जा सकती है। खुद भाजपा जब विपक्ष में थी तो वह किस हद तक उग्र प्रदर्शन करती थी यह उसे नहीं भूलना चाहिए। गौरतलब है कि आजकल विरोध प्रदर्शन करने वालों को सरकार की शह पर पुलिस तंत्र की बेइंतहा निर्ममता का शिकार होना पड़ता है, यह हाल के कई आंदोलनों में देखने को मिला है। इतना ही नहीं, भाजपा कार्यकर्ता भी इन विरोध प्रदर्शनों के विरोध में सड़क पर उतर आते हैं और उन्हें रोकने के बजाय पुलिस उन्हें बाकायदा संरक्षण देती है। सवाल यह भी है कि भाजपा को आज ही वे सभी आदर्श और नैतिक विचार सूझ रहे हैं जिनकी विपक्ष में रहते भाजपा ने कभी भी परवाह नहीं की। दरअसल प्रदेश की जनता के मन में जो असंतोष है, उन्हें व्यक्त करने के लिए ही वह विरोध प्रदर्शन के अधिकार का इस्तेमाल करती है। इसे राजनीतिक पूर्वाग्रह से देखना अविवेकपूर्ण है। लेकिन इन विरोध प्रदर्शनों में शिष्टïता की सीमा नहीं लांघी जानी चाहिए। इस दृष्टिï से यदि सभी राजनीतिक दलों में सहमति बनती है तो पुतला दहन पर स्वैच्छिक रोक लगाई जा सकती है।
-सर्वदमन पाठक

Thursday, September 24, 2009

बिजली का करंट

इन दिनों ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली कटौती को लेकर उग्र आंदोलनों का एक सिलसिला चल पड़ा है। इन आंदोलनों को किसानों के गुस्से के उमड़ते ज्वार के रूप में देखा जा रहा है। तमाम सुरक्षा प्रबंधों के बावजूद इन आंदोलनकारियों के उत्तेजना में कोई कमी नहीं आई है। दरअसल बिजली कटौती ने उनके कृषि कार्यों को बुरी तरह से प्रभावित किया है और उनकी फसल के चौपट होने का खतरा पैदा हो गया है। उनके खेतों को पर्याप्त पानी न मिलने से फसलें पकने के पहले ही सूख चली हैं। किसानों की पूरी जिंदगी ही कृषि पर टिकी है इसलिए उनका गुस्सा स्वाभाविक ही है। हाल की बारिश के बावजूद खेतों में सिंचाई के लिए समुचित पानी नहीं मिल पा रहा है क्योंकि उनके सिंचाई पंप बिजली के बिना बेमानी हो गये हैं। सरकार खुद इस मामले में काफी चिंतित है लेकिन बिजली उत्पादन एवं बिजली आपूर्ति में काफी बड़ा अंतर होने के कारण वह भी काफी हद तक लाचार है। उसके लिए यह दूबरे और दो आषाढ़ जैसी स्थिति है क्योंकि एक तरफ तो राज्य में बिजली की उत्पादन क्षमता ही काफी कम है और दूसरी ओर राज्य के बिजली संयंत्रों में अलग अलग कारणों से उनकी क्षमता के अनुरूप भी उत्पादन नहीं हो पा रहा है। राज्य सरकार इसका दोष कांग्रेस नीत केंद्र सरकार को दे रही है। उसकी दलील है कि बिजली संयंत्रों को पर्याप्त कोयला न मिलने से इनमें बिजली उत्पादन क्षमता के अनुरूप नहीं हो पा रहा है। उधर कांग्रेस नेता इसका सारा दोषारोपण राज्य सरकार पर करते हैं। कांग्रेस का कहना है कि कुप्रबंधन के कारण ही इन बिजली संयंत्रों में क्षमतानुसार उत्पादन नहीं हो रहा है। राज्य में लगातार चल रहे बिजली संकट को कांग्रेस एक राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल कर रही है। प्रदेश में बिजली संकट पर हो रहे तमाम आंदोलनों के पीछे कांग्रेस की रणनीति ही काम कर रही है।कांग्रेस को यह बखूबी मालूम है कि बिजली संकट पर लोगों की नाराजी जन असंतोष को किस तरह भड़का सकती है। आखिर कांग्रेस सरकार तो बिजली संकट पर लोगों की नाराजी की बलि ही चढ़ गई थी। कांग्रेस अब वैसी ही स्थिति राज्य की भाजपा सरकार के लिए निर्मित करना चाहती है और इसी उद्देश्य से वह सारे राज्य में बिजली संकट पर लोगों के गुस्से को हवा दे रही है। इसे महसूस करते हुए राज्य सरकार भी रणनीति बनाने में जुट गई है। मुख्यमंत्री ने खुद ही इस सिलसिले में राज्य के बिजली अधिकारियों की बैठक ली है और उन्हें किसानों को बिजली उपलब्ध कराने के निर्देश दिये हैं। बिजली अधिकारियों का कहना है कि वे किसानों को दिन में 11 से 12 घंटे बिजली देने की कोशिश में जुटे हैं लेकिन मुख्यमंत्री वास्तविकता के धरातल से जुड़कर इसका हल निकालना चाहते हैं और इसी वजह से बिजली की उपलब्धता के वर्तमान हालात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने अधिकारियों से किसानों को कम से कम 6 घंटे बिजली आपूर्ति करने के लिए कहा है। इससे यह तो सिद्ध हो ही गया है कि राज्य में बिजली की स्थिति आज भी पहले की अपेक्षा किसी भी तरह से बेहतर नहीं है। राज्य सरकार यदि यह चाहती है कि बिजली संकट पर वह कांग्रेस की तरह व्यापक जन असंतोष का शिकार न हो तो उसे बिजली उत्पादन की गति बढ़ाने की दिशा में तेजी से प्रयास करने होंगे और स्वाभाविक रूप से इसमें उसे निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी तेजी से बढ़ानी होगी। इसके लिए अकेले उसके प्रयासों से काम नहीं चलेगा और उसे केंद्र से टकराव के बदले सहयोग की नीति अपनानी होगी।
-सर्वदमन पाठक

Tuesday, September 22, 2009

मस्त अफसर, त्रस्त जनता

भोपाल में भाजपा पदाधिकारियों की बैठक में हुई हंगामेदार चर्चा से पार्टी हैरान है। इस बैठक में कई पार्टी नेताओं ने यह कहकर सनसनी फैला दी कि प्रदेश मेें नौकरशाही तथा प्रशासनिक मशीनरी इस कदर हावी है कि जनता त्रस्त हो गई है। हर तरफ जिस तरह से चौथ वसूली के आरोप इस बैठक में लगाए गए वे राज्य सरकार की कार्यप्रणाली पर ही प्रश्रचिन्ह लगाने जैसे ही हैं। यह बात अलग है कि कल जोर शोर से आरोप लगाने वाले नेता आज अपनी ही बातों का खंडन करते नजर आए लेकिन यह सिर्फ अपना चेहरा बचाने की कवायद ही है। यह कोई रहस्य नहीं है कि राज्य के भाजपा पदाधिकारियों एवं कार्यकर्ताओं का एक बड़ा वर्ग लगातार प्रशासनिक मशीनरी की कारगुजारियों की शिकायत करता रहा है। इनमें कुछ अवश्य ही असंतुष्टïों की विरादरी के सदस्य हो सकते हैं लेकिन कई अन्यों की शिकायतों में निश्चित ही दम है। यह वास्तविकता है कि राज्य में इन दिनों प्रशासनिक अमला पूरी तरह बेकाबू नजर आ रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार का उस पर कोई नियंत्रण ही नहीं रह गया है। सिर्फ आम जनता ही प्रशासनिक अधिकारियों से परेशान नहीं है बल्कि राज्य सरकार के मंत्री तक आला अफसरों की मनमानी पर दुखी हैं। कई मंत्रियों ने खुले तौर पर इन हालात पर नाराजगी एवं निराशा जताई है।राज्य सरकार के नीतिगत फैसलों पर भी आला अफसर व्यवधान खड़ा करने से बाज नहीं आते। विभिन्न जिलों में पुलिस अपनी चौथ वसूली में लगी है और इसका परिणाम यह है कि अपराधी खुले घूम रहे हैं और अपराध की दर में लगातार इजाफा हो रहा है। जुर्म करने वालों पर नियंत्रण न होने से आम आदमी का जीना दूभर हो गया है। आम अपराधों में ही नहीं यौन अपराधों मेें भी प्रदेश में काफी वृद्धि हुई है जिसकी पुष्टिï विभिन्न स्वतंत्र एजेंसियों के आंकड़े भी करते हैं। दबंगों एवं समृद्धों द्वारा कमजोर लोगों पर अत्याचार में भी काफी इजाफा हुआ है। अब वक्त आ गया है कि इस पर सख्ती से अंकुश लगाया जाए ताकि लोगों को पुलिस एवं प्रशासन के अन्याय से मुक्ति मिल सके। राज्य में दूसरी बार भाजपा को लोगों ने इसी भरोसे पर जनादेश दिया है ताकि वह लोगों के कल्याण की अपनी नीतियों एवं वायदों को अमलीजामा पहना सके। यदि प्रशासन का रुख असहयोगपूर्ण रहेगा तो फिर वह किस तरह से अपनी नीतियों का क्रियान्वयन सुनिश्चित कर सकेगी। राज्य सरकार से लोग राज्य के विकास एवं उनकी जिंदगी से जुड़ी गतिविधियों में सरकार से सार्थक सहयोग की अपेक्षा करते हैं और राज्य सरकार की कई योजनाओं में इसकी झलक साफ दिखाई देती है लेकिन एक मात्र शर्त यही है कि इन योजनाओं का लाभ धरातल पर भी दिखे और इस मामले में प्रशासन की बड़ी भूमिका है अत: राज्य सरकार को प्रशासन के चेहरे में इस तरह से बदलाव करना चाहिए कि प्रशासन उसके साथ कदम से कदम मिलाकर चले। इतना ही नहीं, राज्य के लोगों को यह भी अहसास हो कि वे कानून के राज्य में रह रहे हैं।
सर्वदमन पाठक

Thursday, September 17, 2009

मान्यता पर मंडराता खतरा

यह मध्यप्रदेश के लिए अत्यंत ही शर्म की बात है कि चिकित्सा शिक्षा के क्षेत्र में हमारी हालत देश के छोटे-छोटे राज्यों से भी गई गुजरी हो गई है। देश में गिने चुने मेडिकल कालेजों को एमसीआई की सूची से बाहर रखा गया है, उनमें सर्वाधिक पांच मेडिकल कालेज मध्यप्रदेश के ही हैं। तात्कालिक रूप से इसका खमियाजा इन मेडिकल कालेज से एमबीबीएस करने वाले उन डाक्टरों को भुगतना पड़ रहा है जो सीबीएसई से प्री-पीजी की परीक्षा देना चाहते हैं क्योंकि इस वर्ष भी प्री-पीजी की परीक्षा के लिए भरे जाने वाले फार्म में प्रदेश के इन पांचों मेडिकल कालेजों का कोड नहीं दिया गया है। स्वाभाविक रूप से ये डाक्टर फिलहाल फार्म नहीं भर सकते क्योंकि फार्म में कालेज का कोड भी भरना होता है। वैसे इसका एक दूरगामी परिणाम यह भी हो सकता है कि इन कालेजों से एमबीबीएस करने वाले डाक्टरों की मान्यता पर भी संकट मंडरा सकता है लेकिन इसके बावजूद राज्य के चिकित्सा शिक्षा विभाग के अफसरों के चेहरे पर पछतावे के कोई चिन्ह नजर नहीं आते। पिछले वर्ष की तरह से इस बार भी राज्य के चिकित्सा शिक्षा विभाग ने एमसीआई की मान मनौव्वल शुरू कर दी है और संभव है कि शासन- प्रशासन की काफी लानत मलानत के बाद अंतत: इन डाक्टरों को फार्म भरने की अनुमति मिल जाए लेकिन फिर भी एमसीआई की मान्यता बहाल हुए बिना राज्य से एमबीबीएस करने वाले डाक्टरों के भविष्य पर लगा प्रश्रचिन्ह हटना संभव नहीं है। एमसीआई के इस फैसले से यह तो स्पष्टï हो ही गया है कि प्रदेश के मेडिकल कालेज सुविधाओं की दृष्टिï से एमसीआई द्वारा तय किये गये उन मापदंडों पर खरे नहीं उतरते जो मेडिकल कालेजों की मान्यता के लिए अनिवार्य होती हैं। गौरतलब है कि अभी एक दो माह पहले प्रदेश में जूनियर डाक्टरों की जंगी हड़ताल हो चुकी है। मेडिकल कालेजों के अस्तित्व पर मंडराते संकट के कारण उनमें अपने केरियर के प्रति उपजी चिंता इस हड़ताल का प्रमुख कारण था। हड़ताल की समाप्ति के लिए राज्य सरकार एवं जूनियर डाक्टरों के बीच जो समझौता हुआ था उसमें यह शर्त भी शामिल थी कि एमसीआई के मापदंडों के अनुरूप राज्य के मेडिकल कालेजों में सभी सुविधाएं मुहैया कराई जाएंगी ताकि इन मेडिकल कालेजों की एमसीआई की मान्यता बहाल हो सके लेकिन अभी तक इस दिशा में कोई ठोस प्रयास नहीं किये गये हैं। न तो चिकित्सा महाविद्यालयों में समुचित सुविधाएं उपलब्ध हो पाई हैं और न ही पर्याप्त शिक्षण स्टाफ ही नियुक्त हो पाया है। ऐसा नहीं है कि यह मेडिकल शिक्षा की यह दुर्गति इस सरकार की देन है लेकिन इतना तो तय है कि इस सरकार ने भी मेडिकल कालेजों को स्तरीय सुविधाएं और समुचित संख्या में प्रोफेसर उपलब्ध कराने के बारे में कोई संकल्पशक्ति प्रदर्शित नहीं की है। इसका परिणाम यही हुआ है कि आज भी चिकित्सा महाविद्यालय की एमसीआई मान्यता पर तलवार लटक रही है। इससे डाक्टरों में भी निराशा का माहौल बना हुआ है। सरकार को यदि वास्तव में प्रदेश के लोगों की सेहत का ख्याल है तो उसे डाक्टरों की यह निराशा दूर करने के लिए मेडिकल कालेजों को एमसीआई मान्यता की बहाली के लिए यथाशीघ्र समुचित कदम उठाना चाहिए और इस मामले में लापरवाही बरतने वाले अधिकारियों पर कार्रवाई करनी चाहिए।
-सर्वदमन पाठक

Wednesday, September 16, 2009

रूसिया की मौत पर उठे कुछ अनुत्तरित सवाल

भोपाल विकास प्राधिकरण के सीईओ मदनगोपाल रूसिया की मौत पर रहस्य का साया अब भी यथावत है और इस मौत ने हमारे सामने ऐसे कुछ सवाल उछाल दिये हैं जो शासन- प्रशासन की चुप्पी के कारण अभी तक अनुत्तरित ही हैं। अपनी दिल्ली यात्रा के बाद ट्रेन से भोपाल लौटते समय वे किस तरह आगरा के पास एक गड्ढïे में जा गिरे, यह ऐसी गुत्थी है जो सुलझने के बदले और उलझती जा रही है। प्रकरण की गंभीरता को देखते हुए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा है कि निष्पक्ष जांच द्वारा इस मामले में दूध का दूध और पानी का पानी किया जाएगा और मध्यप्रदेश एवं उत्तरप्रदेश की पुलिस इसकी छानबीन में जुटी है लेकिन चूंकि रूसिया भाजपा विधायक जितेंद्र डागा के साथ दिल्ली गये थे और उन्हीं के साथ वे भोपाल लौट रहे थे इसलिए इस मामले में लोगों के शक की सुई उन्हीं की ओर घूम रही है। इस शक की एक अहम वजह यह भी है कि भोपाल विकास प्राधिकरण अपनी योजनाओं के लिए विद्यानगर की कुछ जमीन का अधिग्रहण करना चाहता था जिसमें विधायक डागा की करीब पांच एकड़ जमीन भी शामिल थी। डागा की इस मामले को लेकर रूसिया से तकरार चल रही थी और जानकार सूत्रों की बातों पर यदि यकीन किया जाए तो उनके मुताबिक कुछ दिन पूर्व डागा ने रूसिया को धमकी भी दी थी। सुना तो यह भी जाता है कि राजनीति में डागा की सबसे बड़ी खैरख्वाह सुषमा स्वराज ने इस जमीन का अधिग्रहण नहीं किये जाने का अनुरोध करते हुए एक पत्र भी लिखा था। सवाल यह है कि जब रूसिया एवं डागा के बीच तनातनी चल रही थी तब रूसिया को उनके साथ दिल्ली जाने की क्या आवश्यकता थी। क्या उनपर सरकार एवं प्रशासन का कोई दबाव था जिसके तहत उन्हें डागा के साथ दिल्ली जाना पड़ा। बीडीए के सूत्र बताते हैं कि रूसिया की दिल्ली यात्रा का उद्देश्य उक्त योजना के बारे में सुप्रीम कोर्ट के एक सीनियर एडवोकेट की कानूनी सलाह लेना था तब डागा का साथ जाना तो यही इंगित करता है कि बीडीए सरकार के दबाव में इस योजना में ऐसा कुछ फेरबदल करना चाहता था जिससे डागा को राहत मिले और यह सब डागा की उपस्थिति में हो। इतना ही नहीं, डागा का खुद का बयान उन्हें संदेह के दायरे में ला खड़ा करता है। उनका कहना है कि रात 10.00 उन दोनों ने ट्रेन में साथ साथ खाना खाया और उसके बाद वे सोने चले गए, फिर उनकी नींद भोपाल स्टेशन में ही खुली। उन्होंने रूसिया की शायिका के पास उनका बेग तथा जूते देखे और उन्हें लगा कि रूसिया शायद बाथरूम गये होंगे। लेकिन उन्होंने इस मामले में उनकी कोई खोज खबर लेने की जरूरत नहीं समझी और वे सीधे अपने घर चले गए। उनके इस बयान में ऐसे सूत्र मौजूद हैं जिनसे शक की उंगली उनकी ओर बरबस ही उठ जाती है। डागा की यह थ्योरी बिल्कुल ही अविश्वसनीय है क्योंकि कोई भी यात्री जूते पहनकर बाथरूम जाता है, न कि जूते उतारकर। यदि वे रूसिया के साथ दिल्ली आ जा सकते थे, बीडीए की गोपनीय फाइल पर विधिसम्मत राय लेते वक्त रूसिया के साथ हिस्सेदारी कर सकते थे, ट्रेन में साथ साथ खाना खा सकते थे तो आखिर क्या कारण था कि उन्होंने रूसिया की गैरमौजूदगी के बारे में उनके परिजनों को सूचित करने की जरूरत भी नहीं समझी। उनका यही आचरण संदेह को जन्म दे रहा है। एक संदेह यह भी है कि उक्त योजना से उठे विवादों के कारण भारी तनाव एवं दवाब से गुजर रहे बीडीए सीईओ रूसिया ने इससे निजात पाने के लिए खुदकुशी कर ली हो या फिर पैर फिसल जाने के कारण वे ट्रेन से गिर पड़े हों। यदि इसी पहलू पर विचार किया जाए तो फिर मन में यह विचार कौंधना लाजिमी है कि आखिर उनपर ऐसा कौन सा दबाव था जो जानलेवा बन गया। इस त्रासद घटना से उनके परिजनों, परिचितों, मित्रजनों तथा बीडीए कर्मचारियों में कितना गुस्सा है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनकी शवयात्रा और उनकी अंत्येष्टिï के दौरान भी यह गुस्सा फूटता रहा। विश्रामघाट पर मौजूद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह को भी इस नाराजी से रूबरू होना पड़ा। इस गुस्से को शांत करने के लिए सरकार को खुद यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इस मामले की निष्पक्ष जांच हो और इसमें दोषी पाए जाने वाले किसी भी व्यक्ति को समुचित सजा दी जाए। इतना ही नहीं, इस तरह की घटना की पुनरावृत्ति को रोकने के लिए इस बात के पुख्ता प्रबंध किये जाएं कि शहर के विकास की योजनाओं में राजनीतिक नेताओं एवं भूमाफियाओं की दखलंदाजी बंद हो ताकि अपने मन मुताबिक वे इन योजनाओं में फेरबदल का दबाव न बना सकें। यदि ऐसा नहीं हो सका तो फिर या तो ये विकास योजनाएं भूमाफियाओं एवं राजनीतिक नेताओं की बलि चढ़ जाएंगी या फिर रूसिया जैसे काबिल अफसरों की जिंदगी दांव पर लगती रहेगी।
-सर्वदमन पाठक

Tuesday, September 15, 2009

Thursday, September 10, 2009

शिक्षक के नाम पर कलंक

अभी कुछ दिनों पहले शिक्षक दिवस पर देश में शिक्षकों का प्रशस्ति गान एवं सम्मान किया गया और भारतीय संस्कृति के परिवेश में शिक्षकों की महत्ता को रेखांकित किया गया। इस दिन भोपाल एवं लखनऊ में उन पर लाठीचार्ज किये जाने की चौतरफा निंदा की गई। नई पीढ़ी को सही दिशा दिखाने वाले पथप्रदर्शक के रूप में उसकी महिमा को कम करके नहीं आंका जा सकता लेकिन हाल के कुछ महीनों मेें शिक्षकों ने कुछ ऐसे कृत्य किये हैं उससे उनकी इस छवि को जबर्दस्त धक्का लगा है। इस सिलसिले में कटनी के एक गांव में हुई ताजा घटना इसी सिलसिले की एक कड़ी मानी जा सकती है। इस घटना में नशे में धुत्त एक शिक्षक ने दूसरी कक्षा के छात्रों को नग्रावस्था में नाचने को मजबूर किया और एक छात्र ने जब इसे मानने से मना कर दिया तो उसके साथ शिक्षक ने अप्राकृतिक कृत्य करने की कोशिश की। उस गांव के लोगों की बात माने तो यह उसकी अकेली ऐसी हरकत नहीं थी बल्कि वह पहले भी छात्रों को पिकनिक के बहाने जब तब घुमाने ले जाता रहा है और उनसे अश्लील हरकतें करने की कोशिश करता रहा है। यह बात अलग है कि शिक्षक के डर से छात्रों को इसका भंडाफोड़ करने की हिम्मत नहीं हो पाई। प्रदेश एवं देश के विभिन्न हिस्सों में कुछ माहों से ऐसी घटनाएं आती रही हैं जो शिक्षकों को शर्मसार करती रही हैं। अभी कुछ दिनों पूर्व ही एक शिक्षक ने अपनी छात्राओं की यूनिफार्म के लिए अपने हाथों से नाप लेने की लज्जास्पद हरकत की थी। छतरपुर में तो एक शिक्षक द्वारा छात्रा के साथ बलात्कार का मामला तक सामने आया है। इन घटनाएं यह प्रदर्शित करने के लिए काफी है कि शिक्षक के एक वर्ग का जबर्दस्त अवमूल्यन हो चुका है। इन शिक्षकों ने अपने कारनामों से अपनी शिक्षक विरादरी को ही कलंकित कर दिया है। वक्त का तकाजा है कि शिक्षकों की पुरानी प्रतिष्ठïा को पुनस्र्थापित करने के लिए इनके चयन प्रणाली में आमूल चूल परिवर्तन किया जाए और ऐसे लोगों को शिक्षक के अहम पद पर नियुक्त किया जाए जो सांस्कृतिक दृष्टिï से इसकी गरिमा का निर्वाह कर सकें। शिक्षकों के तौर तरीकों एवं आचरण का लगातार मूल्यांकन किया जाना चाहिए और यदि मूल्यांकन में चारित्रिक दृष्टिï से कुछ भी संदेहास्पद पाया जाए तो ऐसे शिक्षकों पर सख्त से सख्त कार्रवाई की जाए। इसमें शिक्षकों को कोई आपत्ति नहीं होना चाहिए क्योंकि इन संदिग्ध चरित्र वाले शिक्षकों से समूचे शिक्षक जगत को अपमानित होना पड़ता है।
-सर्वदमन पाठक

Wednesday, September 9, 2009

बिजली संकट से फूटता गुस्सा

बिजली कटौती को लेकर लोगों का संयम टूटता जा रहा है। विभिन्न स्थानों पर हो रहे हिंसक प्रदर्शन इस हकीकत को ही बयां करते हैं। स्वाभाविक रूप से विपक्षी दलों ने इस मुद्दे को लपक लिया है और अधिकाधिक राजनीतिक लाभ भुनाने के लिये उन्होंने इन आंदोलनों की बागडोर थाम ली है। चूंकि इन आंदोलनों से जन भावनाएं जुड़ी हैं इसलिए ये आंदोलन कई बार सब्र की सीमा तोड़ देते हैं। आंदोलन लोगों का लोकतांत्रिक अधिकार है इसलिए आंदोलन के औचित्य को कतई नकारा नहीं जा सकता लेकिन जब आंदोलन हिंसक हो उठते हैं तो फिर इसके औचित्य पर सवालिया निशान लग जाता है। वैसे भी किसी भी सरकार को यह बात रास नहीं आती कि ऐसे जनांदोलनों का लाभ विपक्ष को मिले और वह येन केन प्रकारेण इन आंदोलनों को कुचलने के लिए बेचैन रहती हैं। आंदोलन में हिंसा से इसका मूल उद्देश्य पराजित हो जाता है क्योंकि ऐसे आंदोलनों को हिंसा का बहाना लेकर बलप्रयोग से तुड़वा देना पुलिस के लिए आसान हो जाता है। राजगढ़ में बिजली कटौती के खिलाफ जन प्रदर्शन कर रहे प्रदर्शनकारियों पर पुलिस लाठीचार्ज ऐसी ही घटना है। प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह सहित कई कांग्रेस कार्यकर्ता इस प्रदर्शन के दौरान हुए पथराव एवं पुलिस लाठीचार्ज में घायल हो गए। पुलिस का दावा है कि दिग्विजय सिंह पथराव में घायल हुए हैं लेकिन खुद दिग्विजय सिंह एवं कांग्रेस कार्यकर्ता इसके लिए पुलिस लाठीचार्ज को जिम्मेदार मानते हैं। फिलहाल यह कहना तो मुश्किल है कि इनमें किसकी बात में सच्चाई है लेकिन दिग्विजय सिंह जैसे नेता की अगुआई में हो रहे प्रदर्शन के दौरान पथराव एवं लाठीचार्ज की घटनाएं और उनका घायल होना प्रशासन की अक्षमता एवं असफलता का ही प्रमाण है। पुलिस एवं अन्य प्रशासनिक मशीनरी सतर्कता बरतती तो ये घटनाएं टाली जा सकती थीं। सरकार एवं प्रशासन यह कहकर दोषमुक्त नहीं हो सकता कि उनकी लाठी नहीं बल्कि पथराव से कांग्रेस नेता एवं कार्यकर्ता घायल हुए हैं। विद्युत कटौती पर आंदोलनों का यह सिलसिला अब थमनेे की संभावना कम ही है क्योंकि बिजली संकट के फिलहाल बढऩे के ही आसार हैं और आम आदमी का इससे नाराज होने का हक है। सरकार एवं प्रशासन को ऐसे प्रदर्शनों के दौरान संयम का परिचय देना चाहिए। ऐसे प्रदर्शनों को राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति निरुत्साहित होनी चाहिए। इस बिजली संकट को हल करने के लिए सरकार को विपक्ष से सहयोग मांगना चाहिए। प्रदेश में विपक्ष में बैठी कांग्रेस का यह सहयोग इस संकट के हल में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है क्योंकि बिजली परियोजनाओं की स्वीकृति में केंद्र की कांग्रेस नीत सरकार अहम रोल अदा कर सकती है। लेकिन सवाल यही है कि राज्य में बिजली संकट पर जन असंतोष को चुनावी मुद्दा बनाकर चुनाव जीतने वाली भाजपा अपनी ओर से यह हिम्मत जुटा पाएगी?
-सर्वदमन पाठक

जीवनदायिनी झीलों को बचायें

भोपाल की पहचान इसकी झीलों से जुड़ी है और पिछले साल इस पहचान पर मंडराते संकट को सभी ने देखा है। बड़ी झील के करीब से गुजरते किसी भी भोपालवासी के मन में इसके अभूतपूर्व रूप से सिकुड़े स्वरूप को देखकर टीस सी उठती थी। इस वर्ष इंद्रदेव ने पिछले तीन सालों की अपेक्षा ज्यादा मेहरबानी की है और इसके फलस्वरूप झीलें काफी हद तक भरी नजर आने लगी हैं। उम्मीद यही है कि इस बारिश में भोपाल के बड़े तालाब की पुरानी रंगत लौट आएगी लेकिन पिछले वर्ष के जल संकट ने हमें झीलों के महत्व का अहसास बखूबी करा दिया है। यह दुखद ही है कि जो झीलें भोपाल को जीवन देती हैं, नए मास्टर प्लान मेें उनके अस्तित्व पर ग्रहण लगने का पूरा पूरा प्रबंध किया जा रहा है। विशेषत: पुराने भोपाल के लिए जल के सबसे बड़े स्रोत बड़ी झील के आसपास के क्षेत्र को मास्टर प्लान में लो डेंसिटी एरिया घोषित करने के फलस्वरूप यहां आबादी बढऩे एवं भवन निर्माण के विस्तार का रास्ता साफ हो सकता है। यदि ऐसा हुआ तो यह झील के लिए संकट का सबसे बड़ा सबब बन जाएगा। यही वजह है कि झीलों के संरक्षण पर आयोजित परिचर्चा में सभी वक्ताओं ने इसे लेकर अपनी चिंता का इजहार किया है। दरअसल बड़ी झील का लगातार सिकुड़ता स्वरूप सिर्फ अल्पवर्षा ही एक मात्र कारण नहीं है। पिछले तीन दशकों से उन क्षेत्रों में लगातार बस्तियों और इमारतों का निर्माण होता रहा है जो कभी बड़ी झील के जलग्रहण क्षेत्र हुआ करते थे। इसके फलस्वरूप इसका आकार लगातार सिकुड़ता गया है। भले ही कोई भी पार्टी की सरकार रही है लेकिन सरकार, नौकरशाहों, बिल्डरों तथा व्यवसायियों की मिलीभगत के कारण इसपर कभी अंकुश नहीं लग पाया। इसी तरह इसके आसपास की सड़कों पर यातायात भी अनियंत्रित रहा है जिससे इसमें प्रदूषण लगातार बढ़ा है। वर्तमान सरकार इस मामले में कोई अपवाद नहीं है। हाल के वर्षों में झील के संरक्षण की बातें तो काफी जोर शोर से की गई हैं लेकिन हम उल्टी दिशा में ही चलते दिखे हैं। झील में स्टीमर चलाने की योजना इसी अदूरदर्शिता का प्रमाण है जिससे झील में प्रदूषण का फैलना अवश्यंभावी है। अब मास्टर प्लान में बड़ी झील के आसपास के क्षेत्र को कम डेंसिटी का क्षेत्र घोषित करने की योजना इसी सिलसिले की अगली कड़ी है जिससे बिल्डरों तथा भूमाफियाओं की पौबारह हो जाएगी लेेेकिन भोपाल की यह अमूल्य धरोहर का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा।उम्मीद की जानी चाहिए कि राज्य सरकार को सद्बुद्धि आएगी और वह मास्टर प्लान पर पुनर्विचार कर बड़ी झील के आसपास के क्षेत्र को लो डेंसिटी एरिया घोषित करने के बदले इसके जलग्रहण क्षेत्र को खाली कराने की पहल करेगी ताकि यह झील भोपालवासियों के लिए जीवनदायिनी की भूमिका यों ही निभाती रहे।
-सर्वदमन पाठक

Wednesday, September 2, 2009

Tuesday, September 1, 2009