Wednesday, October 28, 2009

मराठी सियासत के नए ध्वजवाहक राज

राज ठाकरे महाराष्टï्र विधानसभा चुनाव में न केवल मराठी हितों के नए ध्वजवाहक के रूप में उभरे हैं बल्कि उन्होंने इस मामले में बाल ठाकरे की विरासत को शिवसेना के हाथ से पूरी तरह हथिया लिया है। इन चुनाव के परिणाम बताते हैं कि मुंबई महानगर में राज ठाकरे की पार्टी महाराष्टï्र नवनिर्माण सेना दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है जबकि यह मराठी बहुल क्षेत्र शिवसेना का गढ़ रहा है। इतना ही नहीं, मुंबई के आसपास के क्षेत्रों में भी शिवसेना को जबर्दस्त आघात लगा है। यों तो उनकी पार्टी मनसे को कुल 13 सीटों पर ही जीत हासिल हुई है और किंग मेकर बनने का उनका सपना पूरा नहीं हो सका है लेकिन उनकी सबसे बड़ी सफलता यही है कि उनमें लोग बाल ठाकरे का अक्स देख रहे हैं। इसकी झलक पिछले लोकसभा चुनाव में भी देखने को मिली थी जब उनके दल को मिले वोट- प्रतिशत के कारण भाजपा- शिवसेना गठबंधन न केवल मुंबई की सभी सीटें खो बैठा था बल्कि उसे समूचे महाराष्टï्र में भी भारी नुकसान उठाना पड़ा था। मनसे के गठन के बाद से ही राज का एक सूत्री कार्यक्रम मराठी भाषियों में घर कर बैठी अन्याय एवं उपेक्षा की भावना को राजनीतिक रूप से भुनाना था और इसके लिए उन्होंने तमाम तरह के टोटके किये। मसलन जया बच्चन के एक समारोह में हिन्दी में भाषण देने के मामले में अमिताभ बच्चन की फिल्मों के बहिष्कार का आह्वïान करने वाले राज ने अपने कदम तभी वापस खींचे जब जया और अमिताभ बच्चन ने माफी मांग ली। बिहारियों के प्रमुख पर्व छठ पूजा को ड्रामा बताकर उन्होंने भले ही बिहारियों तथा उनके तमाम नेताओं विशेषत: लालू यादव की नाराजी मोल ले ली हो लेकिन यह उनका रणनीतिक कदम ही था जिसका उद्देश्य मराठी मानुष की सहानुभूति हासिल करना था। इतना ही नहीं, वे बिहारियों के खिलाफ हिंसक आंदोलन छेडऩे तक बाज नहीं आए जिसके लिए उन्हें गिरफ्तार भी होना पड़ा।इतिहास साक्षी है कि मराठी बहुल इस राज्य में मराठियों के साथ होने वाले अन्याय के प्रतिकार के नाम पर बाल ठाकरे ने शिवसेना का गठन किया था और अपने आग्नेय तेवर के कारण वे मराठी हितों के सबसे बड़े रक्षक के रूप में उभरे थे लेकिन हाल के वर्षों में शिवसेेना ने अपना रुख एवं स्वर बदल लिया और मराठी हितों की रक्षा के स्थान पर हिंदू हितों की रक्षा की आवाज बुलंद करनी शुरू कर दी। इससे मराठियों में शिवसेना के प्रति निराशा का भाव पैदा होना स्वाभाविक था। इस बीच बाल ठाकरे की राजनीतिक विरासत को लेकर शिवसेना में नेतृत्व की जो खींचतान मची उसमें बाजी उद्धव ठाकरे के हाथ रही और इसकी प्रतिक्रियास्वरूप राज ठाकरे ने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना नामक अलग पार्टी का गठन किया और मराठियों की कथित उपेक्षा के खिलाफ उग्र आंदोलन छेड़ दिया जिसका परिणाम यह हुआ कि मराठी मानुष जो कभी दिलो जान से बाल ठाकरे के नेतृत्व में आस्था रखते थे, राज ठाकरे के प्रति आकर्षित हो गए। बाल ठाकरे के पुत्र और शिवसेना के कार्यकारी अध्यक्ष उद्धव ठाकरे को अपने ही चचेरे भाई राज ठाकरे से जो चुनौती मिली, वह कतई अस्वाभाविक नहीं थी क्योंकि राज ठाकरे के पास नेतृत्व क्षमता नैसर्गिक ही थी।14 जून 1968 को जन्मे राज ठाकरे, जिनका बचपन का नाम स्वराज था, मराठी संस्कृति एवं मराठी हितों के प्रति अपनी अटूट प्रतिबद्धता के साथ ही अपने सामाजिक सरोकार के कारण शिवसेना में भी अपनी खास पहचान रखते थे। उन्होंने पूर्व में पुणे की पहाडिय़ों में शहरी गतिविधियों के खिलाफ आंदोलन चलाया था जिसका उद्देश्य इसके पर्यावरण की रक्षा करना था। इसी दिशा में आगे बढ़ते हुए उन्होंने 2003 में 76 लाख पेड़ लगाने का संकल्प लिया हालांकि यह लक्ष्य पूरा नहीं हो सका। 14 जून 1996 को उन्होंने शिव उद्योग सेना का गठन किया जिसका उद्देश्य मराठियों को स्वरोजगार दिलाना था। उनके साथ कई विवाद भी जुड़े रहे हैं। मसलन उन्होंने पार्टी की आर्थिक हालत को सुधारने के लिए 1996 में अंधेरी स्पोट्र्स कांप्लेक्स में माइकल जेक्सन का कंसर्ट कराया था जो काफी विवादास्पद रहा। इसी तरह किनी हत्याकांड में उनके और उनके समर्थकों पर भी आरोप लगे थे लेकिन बाद में वे उससे मुक्त हो गए। 21 जुलाई 2005 को उन्होंने शिवसेना के नेता व पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर जोशी के पुत्र उन्मेष के साथ मिलकर कोहिनूर मिल नं. 3 की 5 एकड़ भूमि का 421 करोड़ में सौदा किया जिसमें वे विवादों के दायरे में आए। बाल ठाकरे से राज का दोहरा रिश्ता है। वे बाल ठाकरे के छोटे भाई श्रीकांत ठाकरे के पुत्र हैं वहीं बाल ठाकरे की पत्नी से राज का मौसी का रिश्ता भी रहा है। अपने पिता की तरह ही वे भी कार्टूनिस्ट तथा पेंटर हैं। जब उनसे पूछा गया कि वे राजनीति में न होते तो क्या होते तो राज का उत्तर था कि वे पहले डिस्ने कार्टून नेटवर्क में काम करने के इच्छुक रहे हैं। भले ही उनका यह सपना पूरा नहीं हो सका हो लेकिन उन्होंने महाराष्टï्र की राजनीति में अपनी महत्वाकांक्षाओं के लिए भावनात्मक विभाजन की ऐसी रेखाएं खींच दी हैं जिससे वे संभवत: प्रदेश में अपना कद बढ़ाने में सफल हो जाएं लेकिन महाराष्ट्र एवं विशेषत: मुंबई की विशिष्ट पहचान जरूर खतरे में पड़ जाएगी।
-सर्वदमन पाठक

Tuesday, October 27, 2009

पुलिस हिरासत में मौत?

संवैधानिक प्रावधान के अनुसार तो पुलिस पर लोगों की जान माल की रक्षा की जिम्मेदारी होती है लेकिन वह बार बार इसके ठीक विपरीत आचरण करती नजर आती है। राज्य सरकार की नाक के नीचे राजधानी भोपाल में पुलिस हिरासत में मौत की खबर इसी हकीकत को रेखांकित करती है। इस त्रासद हादसे के चश्मदीद गवाहों के बयान पर गौर करें तो यही बात स्पष्टï रूप से उभर कर सामने आती है कि पुलिस ने दो बेगुनाह युवकों को लूट के इल्जाम में धर दबोचा और अपराध कबूल करवाने के लिए उनकी इस बेरहमी से पिटाई की कि बाद में एक युवक ने दम तोड़ दिया। अपनी परंपरा के अनुसार अब पुलिस यह कहानी गढऩे में जुटी है कि उसने तो पूछताछ के बाद ही उसे छोड़ दिया था और वह अपनी मौत मर गया। इसके लिए पुलिस उन तमाम हथकंडों का इस्तेमाल कर रही है जिसके लिए वह जानी जाती है। मसलन मृतक युवक के साथी पर दबाव बनाया जा रहा है कि वह पुलिस द्वारा गढ़ी जा रही कहानी की तस्दीक कर दे। अन्य चश्मदीदों पर भी दबाव की पुलिसिया रणनीति अपनाई जा रही है। एसपी ने खुद डीजी को पत्र लिखकर इसकी न्यायिक जांच कराने की सिफारिश की है लेकिन संभावना यही है कि इसकी प्रशासनिक जांच की घोषणा कर इस घटना से उठे जन आक्रोश को शांत कर दिया जाए और पुलिस की दोषमुक्ति का रास्ता भी साफ कर दिया जाए क्योंकि यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि प्रशासनिक जांच आम तौर पर पुलिस को बरी करने के सरकारी तौर तरीके के तौर पर ही जानी जाती रही है। पुलिस हिरासत में मौत का यह कोई पहला मामला नहीं है। दरअसल पुलिस हिरासत में मौत आए दिन अखबारों एवं प्रिंट मीडिया की सुर्खियों में रहती है और पुलिस उसके बाद कमोवेश ऐसी ही कहानी गढ़ती नजर आती है जैसी कि इस मामले में गढ़ी गई है। न्यायालय कई बार ऐसे निर्देश दे चुकी है कि पुलिस अपनी कार्यशैली में चारित्रिक बदलाव लाए ताकि उसका चेहरा मानवीय नजर आए और लोग भय खाने और उससे दूर भागने के बदले उसे सहयोग करें लेकिन पुलिस आज भी उतनी ही खूंखार नजर आती है जितनी कि वह पहले थी। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि पुलिस आज अपराधियों से गठजोड़ जैसी चारित्रिक गिरावट और खूंखार चेहरे के कारण अपराधों की रोकथाम वाली एजेंसी की अपनी पहचान खो बैठी है और आम तौर पर अपराधियों की तरह ही व्यवहार करती नजर आती है। एक बेगुनाह को शारीरिक यंत्रणा देकर मौत के घाट उतार देना ऐसे ही अपराध की श्रेणी में आता है। ऐसे अपराध को प्रश्रय देना या इसमें शामिल अपराधियों को बचाने के प्रयास करना भी उससे कम बड़ा अपराध नहीं है। अत: इसकी निष्पक्ष जांच होनी चाहिए और दोषी पुलिसकर्मियों को उनके किये की सजा अवश्य मिलनी चाहिए । उन्हें जांच के जरिये बचाने का कोई भी प्रशासनिक अथवा सरकारी प्रयास नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन पुलिस के चेहरे पर लगी अमानवीयता की कालिख तो तभी दूर होगी जब पुलिस के आचरण में आवश्यक सुधार किया जाए और उन्हें मानवीयता के सांचे में ढाला जाए। देश की शीर्ष अदालत ने कभी कहा था कि पुलिस बल अपराधियों का संगठित गिरोह बन गया है। देखना यही है कि पुलिस अपने इस बदनुमां धब्बे को धोने और अपनी कर्तव्यपरायण छवि बहाल करने के लिए कोई संकल्पशीलता का परिचय देती है या सब कुछ यों ही चलता रहता है।
-सर्वदमन पाठक

Friday, October 23, 2009

कही- अनकही

महाराष्टï्र में अच्छी सरकार देने में कांग्रेस-राकांपा गठबंधन जितना असफल रहा है, प्रभावी विपक्ष की भूमिका निभाने में भाजपा शिवसेना गठबंधन उससे कहीं ज्यादा असफल रहा है। अब मेरी पार्टी मनसे बताएगी कि अच्छा विपक्ष क्या होता है और विधानसभा में सरकार के गलत कार्यों का कड़ा प्रतिरोध कैसे किया जाता है।
राज ठाकरेअध्यक्ष, महाराष्टï्र नवनिर्माण सेना
क्या कहना चाहते हैं राज ठाकरे?
शिवसेना-भाजपा गठबंधन की पराजय विपक्ष की प्रभावी भूमिका निभाने में उसकी असफलता के कारण ही हुई है और सरकार विरोधी वोटों के बंटवारे के जरिये कांग्रेस राकांपा को पुन: सत्ता में आने में मदद करने का मनसे पर लगाया जा रहा आरोप पूरी तरह निराधार है। दरअसल शिवसेना- भाजपा गठबंधन के प्रति जनता का अविश्वास उसकी हार का सबसे बड़ा कारण है।
क्या सोचते हैं लोग?
मराठी मानुष के हितों की रक्षा के लिए ही शिवसेना का गठन किया गया था और इस प्रक्रिया में बाल ठाकरे महाराष्टï्र में मराठी मानुष के सबसे बड़े हित-रक्षक बनकर उभरे थे लेकिन पिछले कुछ वर्षों में उनके इस तेवर में थोड़ी शिथिलता आ गई है। बाल ठाकरे के उत्तराधिकारी की लड़ाई में शिवसेना की कमान उद्धव ठाकरे को सौंपे जाने के बाद राज ठाकरे ने नई पार्टी मनसे का गठन कर इसे कट्टर मराठी समर्थक चेहरा देने की भरसक कोशिश की है। स्वाभाविक रूप से इसी कारण शिवसेना के मराठी वोट बैंक का विभाजन हो गया और सत्तारूढ़ गठबंधन को इससे जीत में मदद मिली लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि जबर्दस्त एंटी इंकम्बेन्सी के बावजूद भाजपा शिवसेना प्रदेश के वोटरों को अपनी ओर आकर्षित करने में बुरी तरह असफल रही है और अपनी इस नाकामी के लिए विपक्ष के रूप में उसकी प्रभावक्षीणता भी कम जिम्मेदार नहीं है। अच्छा यही होगा कि विपक्ष अब आत्मचिंतन करे कि आखिर वह सरकार की तमाम नाकामियों के बावजूद लगातार तीन विधानसभा चुनाव कैसे हार गई। वक्त के तकाजे के अनुरूप रणनीति में बदलाव ही उसकी दुर्गति को दूर कर सकता है, क्षुद्र दोषारोपण नहीं।

Thursday, October 22, 2009

हादसे से सबक लें

भोपाल का प्रतिष्ठित नानके पेट्रोल पंप गत दिवस आग की लपटों में जलकर स्वाहा हो गया। यह घटना इतने आकस्मिक रूप से घटी कि देखते ही देखते यह पेट्रोल पंप राख के ढेर में तब्दील हो गया और कोई भी युक्ति इस अनहोनी को टाल नहीं सकी। यह आग इतनी भयावह थी कि इसमें पेट्रोल टैंक के साथ ही लगभग आधा दर्जन वाहन भी जल गए और आधा दर्जन फायर ब्रिगेड पौन घंटे तक जूझने के बाद ही इस आग पर काबू पा सके। गनीमत यह रही कि इस आग से पेट्रोल पंप के आसपास के आवासों तथा उनमें रहने वाले लोगों को कोई क्षति नहीं पहुंची। लेकिन इस दुर्घटना ने यह सवाल उछाल दिया है कि क्या इस पेट्रोल पंप पर सुरक्षा के पर्याप्त सुरक्षा प्रबंध थे और क्या भोपाल में पेट्रोल पंपों के लिए पर्याप्त सुरक्षा मानक पूरे किये गये हैं।जहां तक नानके पेट्रोल पंप में हुई अग्रि दुर्घटना का सवाल है, यह तो व्यापक जांच के बाद ही पता चल पाएगा लेकिन फिर भी शुरुआती जानकारी के अनुसार इसमें भी सुरक्षा के समुुचित प्रबंध नहीं थे। यह पंप अपनी गुणवत्ता के लिए कभी काफी प्रतिष्ठित रहा है लेकिन इस पंप में सुरक्षा के सिलसिले में खामियां थीं। पंप में जिस तरह से अर्थिंग की व्यवस्था होनी थी, वह नहीं की गई थी। व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो भोपाल में कमोवेश सभी पेट्रोल पंप असुरक्षित हैं क्योंकि इनकी सुरक्षा के मापदंड पूरे करने के नाम पर सिर्फ कागजी खानापूरी की गई। मसलन पेट्रोल पंप बस्ती से थोड़ा दूर रहना चाहिए लेकिन भोपाल में जितने भी पेट्रोल पंप हैं उनमें से संभवत: इक्का दुक्का पेट्रोल पंपों में इस मापदंड का पालन किया गया है। इसी तरह पेट्रोल पंप पर किसी भी अग्रि दुर्घटना से निपटने के लिए वहां नौ किलोग्राम क्षमता के फोम वाले कम से कम 10 अग्रि शमन यंत्र मौजूद रहना चाहिए और इसके अलावा 50 लीटर फोम से भरी ट्राली की मौजूदगी भी सुरक्षा शर्तों में शामिल है लेकिन कभी भी इसकी छानबीन की जरूरत महसूस नहीं की जाती कि पेट्रोल पंपों के मालिक इन शर्तों का पालन कर रहे हैं या नहीं। जब प्रशासन ही इस बात की परवाह नहीं करता कि पेट्रोल पंपों में सुरक्षा शर्तों का पालन हो तो फिर पेट्रोल पंप संचालक भी इसमें स्वाभाविक रूप से ढील दे देते हैं हालांकि यह ढील उनके लिए कभी भी नुकसानदेह हो सकती है।नानके पेट्रोल पंप पर हुए हादसे को इस मामले में एक सबक के तौर पर लिया जाना चाहिए और प्रशासनिक अधिकारियों एवं पेट्रोल कंपनियों के अफसरों को विभिन्न पेट्रोल पंपों पर गहन छानबीन कर यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनमें किसी भी हादसे से निपटने के लिए पर्याप्त सुरक्षा प्रबंध हों और जो पंप संचालक इन सुरक्षा मापदंडों का पालन न करें उनका पेट्रोल पंप का लायसेंस रद्द करने की कार्रवाई की जाए क्योंकि उनकी लापरवाही कभी भी नागरिकों के जान माल के लिए खतरा बन सकती है।
-सर्वदमन पाठक

आतंक पर अंकुश वक्त का तकाजा

यह कोई रहस्य नहीं है कि प्रदेश का मालवा अंचल काफी समय से अपराधियों की शरणस्थली में तब्दील हो गया है। इतना ही नहीं, आतंकवाद के तार भी इस क्षेत्र से जुड़े पाए गए हैं। एटीएस एवं सीबीआई द्वारा विभिन्न आतंकवादी वारदातों के सिलसिले में यहां मारे जा रहे छापे इसका जीता जागता प्रमाण हैं। इन छापों का संबंध मडगांव बम विस्फोट से है जिसमें कथित रूप से सनातन संस्था का हाथ बताया जाता है। इसके पहले भी यहां ऐसे अन्य विस्फोटों के सिलसिले में यहां जांच पड़ताल एवं धरपकड़ की जा चुकी है जिसका वास्ता कुछ हिंदू संस्थाओं से है। इसमें चिंतनीय तथ्य यह है कि राज्य की सत्तारूढ़ पार्टी से जुड़े लोगों से इस मामले में पूछताछ हुई है। मसलन गत दिवस जिन लोगों को पूछताछ के दायरे में लिया गया है, उनमें मध्यप्रदेश के एक मंत्री का करीबी राजनीतिक कार्यकर्ता भी शामिल बताया जाता है। वैसे इस क्षेत्र में हो रही आतंकवाद विरोधी कार्रवाइयों को सिर्फ सांप्रदायिक चश्मे से देखना उचित नहीं है। पूर्व में इस क्षेत्र में सिमी से जुड़े कार्यकर्ताओं को भी पकड़ा गया था जिनमें सिमी के कई शीर्ष पदाधिकारी शामिल थे। इसके भी पहले मुंबई बम कांड के सुराग इस क्षेत्र से जुड़े पाए गए थे। दरअसल यह क्षेत्र पिछले कुछ सालों में सांप्रदायिक घृणा एवं विद्वेष की राजनीति का शिकार हो गया है और क्षेत्रीय परिदृश्य इसे ही अभिव्यक्त करता है। लेकिन इसके लिए सिर्फ राजनीति ही नहीं बल्कि प्रशासन भी कम जिम्मेदार नहीं है। पिछले लगभग पौने दो दशक से यदि मालवा अंचल सांप्रदायिक विद्वेष की भट्टïी में जलता रहा है तो उसका एक बड़ा कारण यह भी है कि प्रशासन राजनीतिक आकाओं अथवा माफिया सरगनाओं के सामने शरणागत होकर अपने वास्तविक कर्तव्य को ही तिलांजलि दे बैठा और इसी वजह से उसने समाज के इन अपराधियों पर शिकंजा कसने में कोई खास रुचि नहीं दिखाई। जब भी उन सामाजिक अपराधियों पर कार्रवाई हुई तो उसके पीछे भी प्रशासनिक अफसरों की कर्तव्य परायणता नहीं, बल्कि राजनीतिक इच्छाशक्ति ही ही काम कर रही थी, भले ही इसमें वैचारिक पूर्वाग्रह का भी हाथ हो। यह सच है कि इन दिनों देश में जो आतंकवादी वारदातेें हो रही हैं, उनके पीछे पड़ौसी देश द्वारा निर्यातित आतंकवाद जिम्मेदार है और इन आतंकवादी वारदातों के कारण ही देश में सांप्रदायिक भावनाएं भड़क रही है लेकिन आतंकवाद को किसी धर्म अथवा संप्रदाय विशेष से जोड़कर नहीं देखा जा सकता। आतंकवादी सिर्फ आतंकवादी होते हैं, वे हिंदू, मुसलमान, सिख या ईसाई नहीं होते अत: सरकार को भी उससे इसी नजरिये से निपटना चाहिए। जहां तक मध्यप्रदेश की बात है, इसे इसकी फितरत के कारण शांति का टापू भी कहा जाता है। सांप्रदायिक विद्वेष एवं उसके फलस्वरूप होने वाली हिंसा से इसकी यह पहचान तो खतरे में पड़ती ही है, इसके विकास पर भी काफी बुरा असर पड़ता है अत: इस वातावरण में बदलाव वक्त का तकाजा है और इसके लिए राज्य सरकार एवं प्रशासन को ठोस कदम उठाना चाहिए ताकि प्रदेश एवं विशेष तौर पर मालवा अंचल के लिए सुकून से रह सकें एवं प्रदेश के विकास में अपनी अहम हिस्सेदारी कर सकें।
-सर्वदमन पाठक

Tuesday, October 20, 2009

नक्सलवाद पर अंकुश जरूरी
आंध्र प्रदेश, पश्चिमी बंगाल, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ तथा महाराष्ट्र में कहर बरपा कर देने वाले लाल आतंक नक्सलवाद ने अब मध्यप्रदेश में भी अपनी दस्तक दे दी है। बालाघाट जिले में 50 नक्सलवादियों के दाखिल होने की खबर इसका स्पष्टï संकेत है। यह खबर कोई कागजी अनुमान पर नहीं बल्कि पुलिस को मिले निश्चित सुराग पर आधारित है। इससे यह शक पुख्ता होता जा रहा है कि मध्यप्रदेश जो काफी पहले से नक्सलवादियों के रोडमेप में था, अब उनके ठिकानों में तब्दील होने जा रहा है। स्वाभाविक रूप से ये नक्सलवादी छत्तीसगढ़ तथा पड़ौसी राज्यों में सख्ती बरते जाने के बाद बालाघाट में घुसपैठ कर चुके हैं। वैसे मध्यप्रदेश में नक्सलवादियों की हलचल पहली बार नहीं हुई है। छत्तीसगढ़ तथा महाराष्टï्र के नक्सल प्रभावित इलाके से सटा होने के कारण बालाघाट में जब तब नक्सलवादियों की हलचलों की जानकारी मिलती रही है। कुछ माह पूर्व ही ऐसे समाचार मिले थे कि नक्सलवादी इन क्षेत्रों के बैठकें लेकर उन्हें अपने रंग में रंगने की कोशिश कर रहे हैं। जिले के सीमावर्ती क्षेत्रों में नक्सलवादियों द्वारा आगजनी तथा हिंसा की छुटपुट खबरें तो कई बार सुनी गई हैं लेकिन इन पर प्रशासन ने उतनी तवज्जो नहीं दी जितनी कि अपेक्षित थी। दरअसल प्रदेश में कांग्रेस सरकार के शासनकाल में उनके आतंक को शासन-प्रशासन काफी हद तक नजरंदाज करता रहा। उनके खिलाफ जो भी कार्रवाई उस समय की गई, वह महज औपचारिकता ही थी। इसका परिणाम यह हुआ कि उनके हौसले बुलंद होते गये और इसकी परिणति राज्य के मंत्री लिखीराम कांवरे की हत्या जैसी भयावह वारदात में हुई। इसके बाद सरकार को अपनी गलती का अहसास हुआ और उसने नक्सलवाद के खिलाफ सख्त रुख अख्तियार किया। यह कहना गलत नहीं होगा कि सरकार तमाम कोशिशों के बावजूद नक्सलवाद को पूरी तरह काबू करने में असफल रही है और उसका सबसे बड़ा कारण यही है कि आम तौर पर वे ग्रामीणों तथा आदिवासियों के शोषण के खिलाफ संघर्ष की बात करके उन्हें भरोसे में ले लेते हैं और ये उनकी ढाल बन जाते हैं। संभव है कि पहले कभी नक्सलवाद सरकारी अफसरों एवं जमींदारों के शोषण के खात्मे के लक्ष्य को हासिल करने के लिए सशस्त्र संघर्ष का जरिया रहा हो, हालांकि यह भी लोकतांत्रिक सिद्धांतों के खिलाफ है, लेकिन अब तो इसमें अपराधी तत्वों का समावेश हो गया है और यह आतंक फैलाकर जबरिया वसूली करने के साथ ही तमाम तरह के अपराधियों के शरणस्थल के रूप में तब्दील हो गया है। भोपाल में कुछ साल पहले जिन नक्सलवादियों की धरपकड़ की गई थी, उनके पास से बरामद दस्तावेज से बंदूक बनाने की फेक्टरी के सबूत मिले थे। मध्यप्रदेश में अभी हाल ही में शहडोल में कुछ नक्सलवादियों को गिरफ्तार किया गया था और उन्होंने प्रदेश में नक्सलवादी गतिविधियों के बारे में कुछ सुराग भी दिये थे। हो सकता है कि नक्सलवादियों की बालाघाट में घुसपैठ प्रदेश में नक्सलवाद के विस्तार की उनकी रणनीति का ही एक हिस्सा हो। इस संभावना के मद्देनजर राज्य सरकार द्वारा एक सुविचारित रणनीति के तहत नक्सलवाद पर अंकुश लगाने की मुहिम छेड़ी जाए। नक्सलवाद पर शिकंजा कसने केेेेेे लिए राज्यों के साथ मिलकर केंद्र द्वारा छेड़ी जाने वाली संयुक्त कार्रवाई में मध्यप्रदेश भी हिस्सेदारी के लिए पहल करे तो इस दिशा में एक सार्थक कदम होगा।
-सर्वदमन पाठक

Monday, October 19, 2009

कब्रबिज्जू नहीं, कद्रदान बनिये

भारत ऐसा देश है जहां जिंदा लोगों से ज्यादा मुर्दों की चर्चा होती है, उन्हें लेकर वैचारिक टकराव होता है, राजनीतिक रस्साकशी होती है, किसी इतिहास पुरूष की मूर्ति तोड़ी जाती है तो किसी धर्म ग्रंथ का पन्ना नोंचा जाता है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बावजूद कृतियों पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है । मूलत: इतिहास जीवी होने के कारण हम वर्तमान की चुनौतियों को सीधे स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं । इसके विपरीत दुनिया के अधिकांश देशों ने अतीत के तमाम बोझ को उतार फेंका है । उनके लिये वर्तमान ही सर्वस्व है । यही वजह है कि पश्चिम का कोई विचारक विचारधाराओं के अंत की घोषणा करता है तो दूसरा इतिहास के अंत की उद्भावना उछालता है । इतिहास का रथ ऐसे दावे-प्रतिदावों को रौंदता हुआ आगे बढ़ता रहा है । इतिहास एक निहायत ही उलझी हुई गुत्थी है, अनगिनत टुकड़ों में बंटी पहेली है, अपने-अपने चश्मे से काल खंडों को देखने, नायकों व खलनायकों को आंकने की प्रक्रिया है, समय के साये के पीछे भागने की मृगतृष्णा है जो विचारधारा के साथ बंधने पर कुदृष्टि की शक्ल अख्तियार कर वितंडावाद को बढ़ावा देती है । कुछ लोग तो महज चकल्लस के खातिर भी समय-असमय इतिहास एवं पुराणों से जुड़ा कोई भी मुद्दा गरमा देते हैं । इतिहास के साथ यह विसंगति प्रारंभ से है कि वह अपनेे समय के राजा-महाराजाओं व बादशाहों और सम्राटों के हाथों की कठपुतली रहा है । अत: उसे सच्ची-झूठी गाथाओं का पुलिंदा कहा जाता है । जिसका राज होता है, इतिहास उसके पीछे चलता है । जब केन्द्र में भाजपा सत्ता में थी तब इतिहासकारों का एक ऐसा जत्था उठ खड़ा हुआ जिसने पांच हजार साल के विराट भारतीय इतिहास के अनेक चरणों को सांस्कृतिक श्रेष्ठता का स्वर्णकाल घोषित कर हिन्दू दृष्टि व परंपरा का खुलकर प्रशस्ति किया । दूसरी ओर वामपंथी और उनके धर्म निरपेक्षतावादी हमसफर हिंदू दृष्टि को संकीर्ण, दकियानूस, कालातीत बताते हुये उसके अंतर्विरोधों पर लंबे समय से प्रहार करते रहे हैं । इतिहास लेखन में ये दोनों धाराएं आपस में टकराती रही हैं । इसके नतीजतन स्कूलों के पाठ्यक्रमों को बार-बार बदला गया है । इतिहास के बारे में यह कथन काफी मशहूर है कि जिस तरह युद्ध का मामला पूरी तरह सेनापतियों के हवाले नहीं किया जा सकता उसी प्रकार इतिहास लेखन पर भी पेशेवर इतिहासज्ञों का एकाधिकार स्वीकार नहीं किया जा सकता । इसलिये अकादमिक इतिहासकारों के साथ ही गैर अकादमिक मगर अध्ययनशील लोग भी इतिहास के यक्ष प्रश्नों से जूझते हैं तथा कभी-कभी ऐसी कालजयी कृतियां समाज को सौंप देते हैं जिनसे हमारी समझ के क्षितिज विस्तृत हो जाते हैं । स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी जन नायक और आधुनिक भारत के निर्माता पं. जवाहरलाल नेहरू की पुस्तक 'डिस्कवरी ऑफ इंडियाÓ इसी श्रेणी में आती है । उन्होंने जेल में रहते हुये यह ग्रंथ लिखा था । इसी तरह लोकमान्य इतिहास की आर्यों के मूल स्थान संबंधी मान्यताएं और 'गीता रहस्यÓ जैसी अनमोल कृति भी कारावास की अनूठी देन हैं । नेहरू तो उस विरली श्रेणी में आते हैं, जिन्होंने इतिहास केवल लिखा ही नहीं, बल्कि इतिहास रचा भी । अपनी बौद्धिक ऊंचाई, गहरी भाव भूमि व मोहक भंगिमाओं के बल पर न सिर्फ गांधीजी के सबसे चहेते हो गये बल्कि भारतीय जनता के भी सबसे लाड़ले नेता साबित हुये । जब स्वाधीन भारत में सत्ता के नेतृत्व का सवाल उठा तो बगैर किसी विरोध के उन्हें देश की बागडोर सौंप दी गयी । हालांकि इस स्थापना को लेकर देश में आम सहमति है कि अगर सरदार पटेल प्रधानमंत्री की कुर्सी पर होते तो भारत कहीं अधिक सशक्त राष्टï्र के रूप में उभरता । सरदार ज्यादा समय तक जीवित नहीं रहे । उनके परिदृश्य से हटते ही नेहरू का सरकार और पार्टी पर एकाधिकार कायम हो गया । साथ ही चल पड़ा व्यक्ति पूजा का सिलसिला, जो सीधे लोकतंत्र की आत्मा पर आघात पहुंचाता है तथा जिसकी चपेट में कई छोटे और बड़े दल आ गये हैं । इन तमाम बिन्दुओं पर काफी कुछ लिखा जा चुका है, किन्तु जिसे लेकर सबसे ज्यादा दहकते द्वंद्व हुये हैं वह है - भारत विभाजन में गांधी, जिन्ना, पं. नेहरू और पटेल की भूमिका । यह सही है कि जिन्ना ने अपने सार्वजनिक जीवन की शुरूआत धर्मनिरपेक्षता के साथ की थी । जब यह पाया कि कांग्रेस में नेतृत्व के शीर्ष स्तर पर पहुंचना मुमकिन नहीं है तो घोर मौका परस्त बनकर मुस्लिम लीग का दामन थाम लिया, उसके नेतृत्व को पीछे खिसकाकर सर्वेसर्वा हो गये । पाकिस्तान का नारा उछालकर मुस्लिम समाज में सांप्रदायिक अलगाव की जबरदस्त ज्वाला धधका दी । अंग्रेजों के लिये भारत को खंडित करने का इससे बेहतर मौका और क्या हो सकता था ? उनकी तरफ से कुछ ऐसी कूटनीतिक चालें चली गयीं कि लपटें और तेज हो गयीं । कांग्रेसी नेताओं ने विभाजन को टालने की हर संभव कोशिश की । गांधीजी ने यहां तक कहा दिया कि जिन्ना एकीकृत भारत के प्रधान मंत्री बन जाएं मगर उसे बांटे नहीं । सरदार पटेल ने गांधीजी पर दबाव डाला कि ऐसी आत्मघाती बातें नहीं करें । उधर नेहरू पर यह आरोप लगता रहा है कि वे लार्ड माउंटबेटन के इतने प्रभाव में थे कि बंटवारे के सुझाव पर तत्परतापूर्वक अपनी मुहर लगा दी । इन सब मुद्दों को लेकर बहसें होती रही हैं इसमें एक अजीबोगरीब आयाम कोई दो वर्ष पूर्व उस समय जुड़ गया जब भाजपा के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवानी ने जिन्ना की प्रशंसा करते हुये उसे खुल्लमखुल्ला धर्मनिरपेक्षतावादी कह दिया । इसे लेकर राजनीतिक भूचाल आ गया । नाराज संघ के निर्देश पर भाजपा का अध्यक्ष पद छोडऩा पड़ा । इसे दुस्साहस कहा जाए या अकादमिक उन्मेष कि हाल में भाजपा के वरिष्ठ नेता व पूर्व विदेश मंत्री जसवंतसिंह ने भारत विभाजन को लेकर एक भरा-पूरा ग्रंथ प्रकाशित कर दिया । उसमें उसी जिन्ना राग को गूंथ दिया जिसके कारण आडवानी को दंडित होना पड़ा था । इस बार पार्टी और संघ दोनों के तेवर और अधिक कड़े हो गये और बिना ''अपील, दलील और वकीलÓÓ के जसवंतसिंह को पार्टी से बाहर कर दिया गया । अभिव्यक्ति के स्वतंत्रता के पक्षधरों ने जसवंत का जरूर साथ दिया । उनका कहना था कि अकादमिक मामले अकादमिक स्तर पर ही निबटाये जाने चाहिये, तर्क का जवाब तर्क से दिया जाना चाहिये । राजनीति को इससे अलग-थलग रखा जाना चाहिये । मगर भाजपा उन्हें क्षमा करने को तैयार नहीं हुई । इस सारे प्रकरण में फिर भी यह सवाल तो उठता ही है कि जो दोहरी भूमिका को अंजाम देते हैं, राजनीति में सक्रिय रहते हैं और लेखन में भी प्रवृत्त रहना चाहते हैं, उन्हें क्या ऐसे विवादों में पडऩा चाहिये जो तरह-तरह के तनावों में जी रहे देश की चेतना को एक और विवाद में झोंक दे । इस मामले में मौलाना आजाद से सबक सीखा जाना चाहिये जिन्होंने अपने सीने में दबाये अप्रिय प्रसंगों को अपनी मौत के तीस साल बाद उजागर करने की हिदायत दी थी । भारत विभाजन को लेकर चाहे गांधी को गुनहगार घोषित किया जाए या नेहरू और पटेल को कोसें, असल जिम्मेवार तो जिन्ना ही थे, इसपर दो राय कैसे हो सकती हैं? जिन्ना ने नफरत का एक ऐसा तूफान खड़ा कर दिया कि उसकी शर्तों को मानने के अलावा कोई चारा ही नहीं था । इसलिये भारत विभाजन का दोषी कौन, यह बहस बेमतलब है । सच तो यह है कि हम अपने इतिहास पुरूषों व जन नायकों के कद्रदान न होकर कब्रबिज्जू हो गये हैं । जिस तरह कब्रबिज्जू कब्रस्तान में दफनायी गयीं लाशों को कुतरने की फिराक में लगा रहता है, वैसे ही हम भी अपने इतिहास पुरूषों की छवियों पर खरौंचें पैदा करते रहते हैं, उनकी कमियों के तिल को ताड़ बनाने का प्रयास करते हैं । गांधी जैसे युग पुरूष पर कीचड़ उछालने से बड़ी क्या कोई और बेतुकी बात हो सकती है? उनकी महानता उतनी ही निर्विवाद है जितनी सागर की गहराई व हिमालय की ऊंचाई । हमारी आज की राजनीति और इतिहास के छुद्र लेखक कभी गांधी को आंबेडकर से लड़ाते हैं, कभी नेहरू की पटेल से कुश्ती कराते हैं, कभी जिन्ना के जिन्न के पीछे पड़ जाते हैं । जितना ये नेता अपने जीवन काल में नहीं लड़े उससे ज्यादा उन्हें अब 'लड़ायाÓ जा रहा है । इतिहास में जब तक सनसनीखेज मसाला ढूंढने, सुर्खियां बटोरने की दुष्प्रपृत्ति रहेगी तब तक मरने के बाद भी हम अपने महापुरूषों को, चैन से सोने नहीं देंगे । किसी ने सही कहा है - ''जिनके नाम इतिहास में दर्ज नहीं हैं, वे सचमुच सौभाग्यशाली हैं। मदनमोहन जोशी वरिष्ठ पत्रकार

रोशनी पर सभी का बराबर हक

दीपावली बेशक एक ऐसा पर्व है जिसके पीछे कुछ परंपराएं एवं कथाएं जुड़़ी हैं लेकिन सच तो यह है कि मन के आंगन में खुशियों के दीप जलानेेे का ही नाम दीपावली है। इसके लिए यह कतई जरूरी नहीं है कि आप किसी धर्म विशेष के अनुयायी हों या फिर एक खास विधि से इसे मनाएं। यह लक्ष्मी पूजन का पर्व है और यह प्रतीकात्मक रूप से समृद्धि की कामना को दर्शाता है। यह कहा जाता है कि लक्ष्मी जी देवों एवं दानवों के बीच किये गये समुद्र मंथन में निकली थीं और देवों को उनकी कृपा हासिल हुई थी। हम भी अपनी समृद्धि के मामले में समुद्र मंथन की प्रक्रिया से लगातार गुजरते रहते हैं और हमारी समृद्धि का उद्देश्य जितना पावन होता है, हम पर लक्ष्मी की कृपा उतनी ही ज्यादा होती है। प्रकारांतर से यह त्यौहार लक्ष्मी की उपासना का पर्व तो है ही, हमारे आंगन द्वारे, हमारे आवास के साथ ही हमारे तन मन को उजाले से जगमग करने का भी अवसर है। व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो लक्ष्मी पूजन की परंपरा वाला यह देश अमेरिका जैसी विश्व की सबसे बड़ी ताकत का दीवाला निकाल देने वाली विश्वव्यापी मंदी के बावजूद आर्थिक रूप से कोई खास प्रभावित नहीं हुआ। वह अपनी बचत की आदत के कारण दीवाली का जश्र उतने ही उत्साह और निष्ठïा से मना रहा है जैसा कि पारंपरिक रूप से मनाता आया है। यह जश्र हमारे आंतरिक उल्लास का परिचायक है जो किसी भी हालत में बरकरार रहता है। इन दिनों हमारे आटोमोबाइल तथा इलेक्ट्रानिक उद्योगों सहित संपूर्ण औद्योगिक क्षेत्र में आया उछाल का माहौल इसकी कहानी खुद ही बयान करता है। हमारे बाजारों में उपभोक्ताओं की भीड़ उमड़ रही है तो हमारे उद्योगपति भी इस चुनौती का सामना करने के लिए कमर कस चुके हैं। यह औद्योगिक उफान इसी तथ्य को रेखांकित करता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था औद्योगिक देशों के आर्थिक हड़कंप से कमोवेश मुक्त रहकर अपनी मुश्किलों का निदान खोजने में सफल रही है। वैसे इस हकीकत से इंकार नहीं किया जा सकता कि यह स्थिति हाल में उभरे नव धनाढ्य वर्ग के कारण बनी है। लेकिन एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है जो आर्थिक रूप से अपेक्षाकृत विपन्न हुआ है। यह असंतुलन सरकार की नीतियों के कारण धीरे धीरे खतरनाक रूप धारण करता जा रहा है। इस असंतुलन के दूर करने के लिए समुचित प्रयास किया जाना वक्त का तकाजा है। सभी को खुशियों की सौगात मिले, दीपावली पर यह संकल्प लिया जाना जरूरी है। हमारे पड़ौस या हमारी बस्ती के कुछ घरों में दिया तक न जले और कुछ प्रासाद एवं गगनचुंबी अट्टïालिकाएं रोशनी से नहाते रहें, यह हमारी मानवता को भी चुनौती है। हम यदि समृद्धि के सातवें आसमान में सैर कर रहे हैं तो यह हमारा सौभाग्य और कर्म का मिला जुला लेखा जोखा हो सकता है लेकिन हमें दूसरों के जीवन में पसरे अंधेरे को भी दूर करने का प्रयास करना चाहिए, इतना ही नहीं, हम अपने मन में घर किये कलुष एवं वैमनस्य के अंधेरेे को भी निकाल बाहर करें, तभी हमारा दीपावली मनाना सार्थक हो सकेगा।
-सर्वदमन पाठक

Wednesday, October 14, 2009

आत्मघाती आस्था

मुरैना जिले के सांवरिया गांव में एक साधु का आत्मदाह रोंगटे खड़े कर देने वाली घटना है। हैरत की बात तो यह है कि इस घटना के दौरान पुलिस मौजूद थी लेकिन वह पूरी तरह से मूकदर्शक बनी रही। दरअसल यह घटना धर्म के नाम पर बनाई गई ऐसी अवैज्ञानिक धारणा का परिणाम है जिससे उपजी मनोवैज्ञानिक विकृतियां आत्मघात की हद तक जा सकती हैं। उक्त साधु को भी यह गलतफहमी हो गई थी कि वह खुद को अग्रि को समर्पित कर मोक्ष प्राप्त कर लेगा। यह घटना पुलिस की निष्क्रियता एवं अकर्मण्यता को भी रेखांकित करती है क्योंकि उक्त साधु ने यह कदम अकस्मात ही नहीं उठाया बल्कि वह पूरे गांव में घूम घूम कर इसकी घोषणा करता रहा। पुलिस को भी इसके बारे में अग्रिम रूप से जानकारी थी और पुलिस को वहां भेजा भी गया था लेकिन पुलिस ने इस दिल दहला देने वाले हादसे के रोकने के लिए कुछ नहीं किया। एक पुलिस अधिकारी ने प्रेस कांफ्रेस में इस घटना को महाराज जी के समाधि लेने जैसा कदम बताते हुए इसे महिमामंडित करने का प्रयास किया। इससे यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि पुलिस भी साधु से चमत्कृत थी और इसी वजह से उसने इसे रोकने की इच्छाशक्ति नहीं दिखाई। इस पूरे मामले पर राज्य सरकार की प्रतिक्रिया भी कम आश्चर्यजनक नहीं रही। गृहमंत्री जगदीश देवड़ा ने तो इस पर जो प्रतिक्रिया दी, वह सरकार की संवेदनशीलता पर ही प्रश्र चिन्ह लगा गई। उन्होंने दोषी पुलिसकर्मियों पर सख्त कार्रवाई की घोषणा करने के बदले इसे जांच का विषय बताकर जाने अनजाने में इसकी गंभीरता को कम करने का प्रयास किया है। संभवत: प्रदेश की सत्ता पर काबिज पार्टी का धार्मिक रुझान भी इसका एक कारण हो सकता है। लेकिन इस घटना के समय साधु को रोकने के बदले उसकी जय जयकार करने वाली भीड़ को भी इस मामले में कम दोषी नहीं माना जा सकता जो आस्था के नाम पर भावनाओं के ऐसे ज्वार में बह रही थी जिसका वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं था। यह आत्मदाह भी सती प्रकरण जैसा ही मामला है जो भीड़ के मनोविज्ञान पर आधारित है। पुलिस ने कई बार सती होने की घटना अथवा उसके प्रयास पर आपराधिक प्रकरण दर्ज कर कानून सम्मत कार्रवाई की है और दिग्विजय सरकार के शासनकाल में तो सती होने संबंधी एक दो प्रकरणों पर पूरे गांव पर सामूहिक जुर्माना भी लगाया गया था तब इस मामले में पुलिस ने सख्ती के साथ कार्रवाई क्यों नहीं की, यह समझ से परे है। पुलिस का यह तर्क गले नहीं उतरता कि कार्रवाई करने पर भीड़ के हिंसक होने का खतरा था। भीड़ की हिंसा का भय दिखाकर यदि पुलिस अपने कर्तव्य से मुंह मोड़ ले तो फिर ऐसी पुलिस पुलिस के नाम पर धब्बा ही है। राज्य सरकार को इस मामले की गंभीरता को महसूस करते हुए फर्ज न निभाने वाले पुलिस कर्मियों पर तो समुचित कार्रवाई करनी ही चाहिए, उन लोगों पर भी सामूहिक रूप से कार्रवाई होना चाहिए जो जय जयकार करने वाली भीड़ का हिस्सा बनकर परोक्ष रूप से इस घटना को अंजाम देने में मदद कर रहे थे।
-सर्वदमन पाठक

Tuesday, October 13, 2009

जन सुनवाई का दर्द

इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि राज्य में पुलिस प्रशासन द्वारा आम लोगों की शिकायतों को दूर करने के लिए शुरू की गई जन सुनवाई अब जन- हताशा तथा कई प्रकरणों में जन-यातना का कारण बन गई है। जन सुनवाई में फरियादी के रूप में आने वाले लोगों में आनुपातिक दृष्टि से काफी कम फीसदी लोग इतने भाग्यशाली होंगे जिनकी समस्या का संतोषजनक निदान हुआ है और जन सुनवाई से राहत महसूस कर रहे हैं जबकि अधिकांश फरियादियों का अनुभव इसके ठीक विपरीत है। यह फोरम आजकल रसूख एवं रुतबे वाले लोगों का हथियार बन गया है। इस फोरम में लोग बड़ी उम्मीद के साथ विभिन्न स्तरों पर होने वाले अन्याय की शिकायत लेकर आते हैं। यह शिकायत आम तौर पर या तो ऐसे अपराधियों के खिलाफ होती है जो धन बल तथा बाहुबल के दम पर उनके अधिकारों का हनन करते हैं या फिर उनकी शिकायत उन पुलिस अधिकारियों व कर्मचारियों से होती है जो अन्याय करने वाले का ही साथ देते हैं। इन फरियादियों को आशा रहती है कि आला पुलिस अफसर तो कम से कम उनको सताने वाले अपराधियोंं अथवा उन्हें प्रश्रय देने वाले पुलिस कर्मियों के खिलाफ समुचित कार्रवाई कर उन्हें न्याय दिलाएंगे लेकिन उन्हें इनके दर से भी निराश लौटना पड़ रहा है। न्याय मिलना तो दूर, उन्हें दूबरे और दो आषाढ़ जैसी स्थिति से रूबरू होना पड़ रहा है। शिकायत के बाद एक ओर तो अपराधियों का गुस्सा और भड़क उठा है, वही दूसरी ओर उन्हें अपराधियों की संरक्षणदाता पुलिस का भी कोप-भाजन बनना पड़ रहा है। बड़े जोर शोर से शुरू हुई जन सुनवाई की मुहिम असफलता के किस मोड़ पर पहुंच गई है इसके गवाह स्वयं सरकार के आंकड़े हैं। इन आंकड़़़ों के अनुसार जन सुनवाई में कुल 78 हजार शिकायतें आई हैं जिनमें से कुल 10 से 12 हजार शिकायतों का ही निराकरण हो सका है। यदि यह कहा जाए कि बाकी शिकायतकर्ता इस जन सुनवाई में शिकायत करके पछता रहे हैं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। कई मामलों में तो शिकायतकर्ताओं के साथ यह खिलवाड़ हो रहा है कि जिन पुलिस अफसरों के खिलाफ पक्षपात अथवा लापरवाही की शिकायत है, उन्हें ही जांच का जिम्मा सौंप दिया गया है। जब आरोपी ही जांचकर्ता बन जाए तो यह कल्पना करना मुश्किल नहीं है कि जांच का परिणाम क्या होगा और शिकायतकर्ता का क्या हश्र होगा। इस जन सुनवाई का सबसे बड़ा दोष यही है कि शिकायत की जांच के आदेश दे दिये जाने के बाद उसका क्या हश्र हुआ इसकी मानीटरिंग की कोई व्यवस्था नहीं है इसलिए इसमें दिये गए तमाम आदेश धूल खा रहे हैं और बेचारा शिकायतकर्ता अपनी किस्मत को रो रहा है। दरअसल जन सुनवाई अपने आप में एक अच्छी पहल है लेकिन उसकी सबसे बड़ी कमी यही है कि इसके फालो अप एक्शन की कोई कारगर व्यवस्था नहीं है। यदि सरकार जन सुनवाई की सफलता चाहती है तो उसे यह पहल उपरोक्त दोषों से मुक्त करनी होगी वरना यह पीडि़तों के खिलाफ अपराधियों एवं पुलिस के गंठजोड़ का एक और बहाना बन कर रह जाएगी।
सर्वदमन पाठक

Monday, October 12, 2009

अपराध है भारत की शान उडऩपरी पीटी उषा का अपमान

भोपाल में चल रही राष्टï्रीय ओपन एथलेटिक्स प्रतियोगिता में कोच के बतौर शामिल होने आई देश के इतिहास की सर्वश्रेष्ठ धाविका पी टी उषा उस समय अचानक सुखियों में आ गई जब उनके आगमन पर आयोजकों ने उनको कोई महत्व नहीं दिया और उनके स्वागत एवं ठहरने की कोई उचित व्यवस्था नहीं की और इस कारण उनकी आंखों में छलछला आए आंसुओं एव उनकी पीड़ा को प्रिंट मीडिया एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया के जरिये सारे देश ने महसूस किया। इस मुद्दे पर हुई मध्यप्रदेश सरकार एवं आयोजकों की आलोचना के बाद उन्हें आलीशान होटल में रुकवा कर तथा उनसे खेद जताकर राज्य सरकार के मंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने समझदारी का परिचय दिया और अपनी सरकार को फजीहत से बचाया। यह एक तरह का अपराध ही था जिसकी जितनी निंदा की जाए, कम है। यह अलग बात है कि पीटी उषा ने बाद में इस मामले को तूल न देकर अपनी अकादमी की बालाओं के परफारमेंस पर ध्यान केंद्रित किया और उनकी अकादमी की पांचों बालाओं को एथेलेटिक्स में पदक हासिल किया। इतना ही नहीं, उन्हीं की अकादमी की ही एक बाला को सर्वश्रेष्ठï एथलीट के खिताब से नवाजा गया। यदि पीटी उषा की उपलब्धियों पर गौर किया जाए तो यह स्पष्टï हो जाता है कि उनका कद देश के किसी भी एथलीट से ऊंचा है।केरल के छोटे से गांव पायोली में 27 जून 1964 को जन्मी पीटी उषा अपने बचपन में काफी बीमार रहा करती थी लेकिन इसके बावजूद उनकी अपनी लगन और प्रतिभा के बल पर प्रायमरी स्कूल के दिनों में ही धााविका के रूप में अपनी धाक जमा ली थी। 1976 में केरल सरकार ने कन्नूर में कन्याओं के लिए स्पोट्र्स डिवीजन की शुरुआत की और जो चालीस बालाएं इसमें चुनी गईं , उनमें 12 वर्षीय पीटी उषा भी शामिल थी। कोच नांबियार के मार्गदर्शन में उषा ने अपना प्रशिक्षण प्रारंभ किया । उषा की मेहनत रंग लाई और 1979 में राष्टï्रीय खेलकूद में उन्होंने व्यक्तिगत चेंपियनशिप हासिल की। 1980 में कराची में आयोजित पाकिस्तान ओपन नेशनल मीट से अंतर्राष्टï्रीय खेलकूद में पदार्पण किया। इस प्रतियोगिता में उन्हें चार स्वर्णपदक प्राप्त हुए। 1982 में सियोल में आयोजित वल्र्ड इनविटेशन जूनियर एथेलेटिक्स मीट जिसे आजकल विश्व जूनियर एथेलेटिक्स चेंपियनशिप कहा जाता है, में उषा ने हिस्सा लिया जिसमें 200 मीटर में स्वर्णपदक तथा 100 मीटर में कांस्य पदक लेकर उन्होंने अपनी प्रतिभा का एक और सबूत दिया। 1982 में भारत में हुए एशियाड में उन्हें 100 एवं 200 मीटर दौड़ में रजत पदक से संतोष करना पड़ा हालांकि कुवैत में इसी वर्ष आयोजित एशियन ट्रेक एंड फील्ड प्रतियोगिता में उन्होंने नए रिकार्ड के साथ 400 मीटर का स्वर्णपदक जीता। उन्होंने इसके बाद अपने परफोरमेंस पर अपना ध्यान केंद्रित किया और 1984 के लास एंजेल्स ओलंपिक में 400 मीटर बाधा दौड़ में वे चौथे स्थान पर रहीं। वे एक सेकेंड के सौंवे भाग से कांस्य पदक से वंचित रह गईं। हालांकि वे भारत की पहली महिला एथलीट बन गईं जो विश्व ओलंपिक की किसी दौड़ में फाइनल में पहुंची हो। उन्होंने उस समय इस प्रतियोगिता में 55.42 सेंकेंड का जो समय निकाला था जिसे आज भी कोई भारतीय महिला एथलीट छू नहीं सकी है।1985 में एशियाई ट्रेक एंड फील्ड प्रतियोगिता में भारत का परफोरमेंस उषा के इर्दगिर्द ही घूमता रहा जहां उन्होंने पांच स्वर्णपदक एवं एक कांस्य पदक हासिल कर अकेले दम पर तिरंगे की शान कायम रखी। इसके अगले वर्ष 1986 में उन्होंने सियोल एशियाड में चार स्वर्णपदक क्रमश: 200 मीटर, 400 मीटर, 4 गुणा 400 रिले एवं 400 मीटर बाधा दौड़ में हासिल कर देश का नाम ऊंचा किया लेकिन एक प्रतियोगिता में दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से 400 मीटर बाधा दौड़ में उनकी एड़ी में चोट लगने की वजह से उनका दौड़ का कैरियर काफी प्रतिकूल रूप से प्रभावित हुआ। इस कारण 1988 के सियोल ओलंपिक में उसका प्रदर्शन अपनी कोई छाप नहीं छोड़ सका।यह उषा की संकल्प शक्ति का ही कमाल था कि उसने अपने शारीरिक कष्टों के बावजूद फिर वापसी की और 1989 में दिल्ली में आयोजित एशियाई ट्रेक एंड फील्ड प्रतियोगिता में चार स्वर्ण एवं दो रजत पदक जीत कर सबको आश्चर्यचकित कर दिया। वे उस समय रिटायरमेंट लेना चाहती थीं लेकिन देश के दबाव पर उन्होंने 1990 के बीजिंग एशियाई खेलों में हिस्सा लिया और पूरी तरह तैयार न होने के बावजूद तीन रजत पदक जीते।1991 में उन्होंने खेल से संन्यास ले लिया और वी विश्वनाथन से विवाह करके गृहस्थी बसा ली लेकिन 1998 में उन्होंने अपनी जबर्दस्त इच्छाशक्ति के बल पर फिर वापसी की और जापान में आयोजित एशियन ट्रेक एंड फील्ड प्रतियोगिता में 200 और 400 मीटर की दौड़ में कांस्य पदक जीत कर दिखाए। इस प्रतियोगिता में अपना ही 200 मीटर का रिकार्ड तोड़कर नया राष्टï्रीय रिकार्ड बनाया।
पीटी उषा को 1983 में अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित किया गया तो 1985 में उन्हें पद्मश्री सम्मान प्रदान किया गया। इसके अलावा उन्हें इंडियन ओलंपिक एसोसियेशन द्बारा स्पोट्र्स परसन आफ द सेंचुरी और स्पोटर््स वीमेन आफ द मिलेनियम का भी प्रतिष्ठïापूर्ण खिताब दिया गया है। जकार्ता एशियाड में उन्हें महानतम एथलीट नामांकित किया गया और 1985 एवं 1986 में उन्हें सर्वश्रेष्ठï एथलीट के लिए विश्व ट्राफी प्रदान की गई। दरअसल उनकी इन स्वर्णिम उपलब्धियों के कारण ही उन्हें गोल्डन गर्ल एवं उडऩपरी के रूप में जाना जाता है। आज भी वे उषा एकादमी के जरिये नवोदित खिलाडिय़ों को ट्रेनिंग दे रही हैं और ये खिलाड़ी देश एवं विदेश में अपनी इस महान प्रशिक्षक का एवं देश का नाम रोशन करेंगी इसकी पूरी उम्मीद नजर आती है।
-सर्वदमन पाठक

Friday, October 9, 2009

मिलावटियों पर अंकुश जरूरी

मक्सी रोड पर करोड़ों का नकली घी पकड़े जाने की कार्रवाई एक स्वागत योग्य कार्रवाई है लेकिन इस सिलसिले को लगातार आगे बढ़ाने की जरूरत है। दरअसल प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में नकली घी का जानलेवा कारोबार काफी समय से चल रहा है और प्रशासन के भ्रष्टï अधिकारियों का संरक्षण प्राप्त होने से इन व्यवसायियों पर नकेल नही कसी जा सकी है। यह पहला अवसर नहीं है जब मिलावटियों पर छापा मारा गया है। कुछ माह पहले गुना एवं उसके आसपास के क्षेत्रों में काफी बड़ी मात्रा में नकली खोवा पकड़ा गया था लेकिन संभवत: कुछ प्रभावशाली नेताओं के हस्तक्षेप के कारण मिलावटियों पर कार्रवाई का सिलसिला अंजाम तक पहुंचने के पहले ही थम गया। इसके बाद अभी कुछ दिन पूर्व ही इंदौर में नकली घी का बड़ा स्टाक पकड़ा गया और अखबारों में इस कार्रवाई में हिस्सा लेने वाले अफसरों ने वाहवाही भी लूट ली लेकिन इक्का दुक्का कार्रवाई के बाद कतिपय कारणों से इसमें विराम लग गया। अब फिर से छापामार कार्रवाई हुई है तो लोग पूछ रहे हैं कि छापामार कार्रवाई की यह किश्त भी तो कहीं राजनीतिक एवं प्रशासनिक हस्तक्षेप से रुक नहीं जाएगी। यह कोई रहस्य नहीं है कि यह अवैध कारोबार स्थानीय अधिकारियों की मिलीभगत एवं राजनीतिक संरक्षण के बल पर ही चलता है और इन मिलावटियों द्वारा अपने मुनाफे में से इन अधिकारियों को भी उपकृत किया जाता है। यदि इन मिलावट के इस धंधे पर अंकुश लगाया जाना है तो फिर भ्रष्टाचार के इस कुचक्र को तोडऩा जरूरी होगा। लेकिन इसकेे लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति सबसे पहली शर्त है।सवाल यही है कि राज्य सरकार इस इच्छाशक्ति का प्रदर्शन कर पाएगी। इस मामले में सरकार की परीक्षा की घड़ी करीब ही है क्योंकि दीपावली पर खोवे एवं शुद्ध घी की सबसे ज्यादा खपत होती है। स्वाभाविक रूप से व्यापारी इस अवसर पर अपना नकली स्टाक खपाने की पूरी पूरी कोशिश करेंगे। दिल्ली, मथुरा सहित मध्यप्रदेश के इससे जुड़े सीमावर्ती क्षेत्रों से काफी बड़ी मात्रा मेें खोवा मध्यप्रदेश में बिकने के लिए आता है अत: नकली एवं मिलावटी खोवे की प्रदेश में बिक्री पर अंकुश लगाने के लिए इन क्षेत्रों पर निगाह रखी जानी चाहिए। जहां तक भोपाल की बात है तो यहां दीपावली पर 35 से 50 क्विंटल खोवे की खपत होने की संभावना है जबकि आम तौर पर यह खपत 15 से 20 क्विंटल होती है। यदि इस अवसर पर नकली खोवे एवं नकली घी को शहर में बेचने के मिलावटियों के मंसूबों को नाकाम नहीं किया गया तो फिर शहरवासियों को भी इससे इनकी सेहत पर पडऩे वाले घातक परिणामों का सामना करना पड़ेगा। अत: यह वक्त का तकाजा है कि राज्य सरकार भोपाल सहित सभी जिलों के प्रशासन को पूरी तरह से मिलावटियों के खिलाफ सतर्क रहने के निर्देश दे और वक्त रहते लोगों को मिलावटियों के कहर से बचाये ताकि लोग आनंद के साथ इस ज्योति पर्व को मना सकें। इसके साथ ही मिलावटियों के खिलाफ कार्रवाई को अंजाम तक पहुंचाने के लिए रणनीति बनाई जाए और उसे अमलीजामा पहनाया जाए।
-सर्वदमन पाठक

Wednesday, October 7, 2009

आंसुओं पर राजनीति

भोपाल में अपनी उपेक्षा से दुखी विश्व ख्यातिलब्ध धाविका पीटी उषा के आंसुओं से उठे सैलाब ने राष्टï्रीय ओपन एथलेटिक्स के आयोजन के पहले ही इसकी रंगत फीकी कर दी है। प्रिंट एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया के जरिये इस सनसनीखेज खबर के प्रसारित होने के साथ ही जब उषा के साथ हुए दुव्र्यहार पर चारों ओर आलोचना के स्वर तेज होने लगे तब कहीं जाकर प्रदेश सरकार को सुध आई और लोकनिर्माण मंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने उन्हें मनाकर जहांनुमा होटल में ससम्मान ठहराया। उषा को सबसे बड़ी शिकायत यही थी कि साई के कार्यक्रम में भाग लेने आई इस प्रतिष्ठिïत धाविका को हवाई अड्डï्े पर कोई भी साई अधिकारी लेने नहीं आया और साई होस्टल पहुंचने पर भी उसे कोई तवज्जो नहीं दी गई। इसके लिए बहाना बनाया जा रहा है कि साई को उषा के आने की कोई जानकारी नहीं थी। लेकिन यह बहाना साई के माथे पर लगे कलंक को धोने में सक्षम नहीं है। अब इस समूचे घटनाक्रम पर राजनीति शुरू हो गई है जो इस घटना से ज्यादा शर्मनाक है। राज्य सरकार एवं केंद्र सरकार को तो इस घटना के रूप में ऐसा मोहरा हाथ लग गया है जिसके जरिये एक दूसरे पर सियासी हमले बोले जा रहे हैं। केंद्रीय खेल मंत्री श्री गिल जहां इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना की जवाबदारी राज्य सरकार पर डालकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ रहे हैं तो राज्य सरकार इसे साई की असफलता के रूप में पेश कर यह दर्शाने की कोशिश कर रही है कि वह तो इस मामले में दूध की धुली है और सारा दोष इस केंद्रीय संस्था साई का ही है। सबसे अधिक आश्चर्य तो इस बात का है कि एक वर्ग द्वारा इसका ठीकरा पीटी उषा पर फोड़ते हुए उन्हें ही इस घटना के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। यह वर्ग यही सिद्ध करने में अपनी पूरी ताकत लगा रहा है कि हर कार्यक्रम में व्यवस्था का रोना रोना पीटी उषा की आदत बन गई है और भोपाल में उसका व्यवहार इसी का परिचायक है। संभव है कि उषा व्यवस्था को लेकर कुछ ज्यादा ही संवेदनशील हों और उनकी यह संवेदनशीलता विभिन्न अवसरों पर प्रदर्शित हुई हो लेकिन इससे उनकी उपेक्षा का अपराध तो छोटा नहीं हो जाता। यदि भारत को अंतर्राष्टï्रीय खेलकूद प्रतियोगिताओं में सबसे अधिक पदक दिलाने वाली इस एथलीट को स्वागत को लेकर कुछ पीड़ा है तो इसे हीन मानसिकता के साथ नहीं देखा जाना चाहिए क्योंकि इससे राज्य सरकार या साई को कुछ हासिल होने वाला नहीं है। अभी तक हुई गलतियों का परिष्कार करते हुए उषा के समुचित स्वागत सत्कार की व्यवस्था की जानी चाहिए ताकि उनके गिले शिकवे दूर हो जाएं और आइंदा यह संकल्प लिया जाना चाहिए कि भविष्य में इस तरह की चूक नहीं दोहराई जाएगी। इसके साथ ही दोषी अधिकारियों पर समुचित कार्रवाई भी की जानी चाहिए।
सर्वदमन पाठक