Friday, January 22, 2010

शिवराज का हाकी-प्रेम

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह आजकल हाकी-प्रेम में गिरफ्तार हैं। अभी चंद दिन पहले ही राष्टï्रीय हाकी में खिलाडिय़ों के बगावती तेवर से उमड़े संकट को दूर करने के लिए उन्होंने आर्थिक मदद की पेशकश की थी और अब महिला हाकी खिलाडिय़ों की नाराजी ने उन्हें फिर मदद का मौका उपलब्ध करा दिया है। उन्होंने भी इसका फायदा उठाते हुए अब महिला हाकी टीम के लिए आर्थिक सहायता की घोषणा कर दी है। कभी राष्टï्रीय खेल के रूप में प्रतिष्ठिïत हाकी के पुनरुद्धार की यह पहल निश्चित ही काबिले तारीफ है और इसके लिए मुख्यमंत्री को बधाई दी जानी चाहिए। सच तो यह है कि क्रिकेट की चमक दमक और उसकी आक्रामक मार्केटिंग के सामने देश में अन्य खेलों की पूछ परख कम हो गई है। इस तथ्य का प्रमाण यह है कि जहां क्रिकेट खिलाड़ी करोड़ों और अरबों में खेल रहे हैं वहीं हाकी खिलाडिय़ों को अपनेे वेतन तथा भत्ते को लेकर शिविर के बहिष्कार जैसा अतिरेकपूर्ण कदम उठाने को विवश होना पड़ रहा है। हाकी इंडिया के पदाधिकारियों का व्यवहार हालात को और भयावह बना रहा है। यह तो कलमाडी की समझदारी तथा मध्यप्रदेश सहित कई सरकारों एवं कारपोरेट घरानों के सहायता के आफर का कमाल था कि खिलाडिय़ों के तेवर नरम पड़े और खिलाड़ी कामनवेल्थ खेल के शिविर में शामिल होने को तैयार हो गए। अब महिला हाकी खिलाडिय़ों की बगावत पर भी शिवराज सिंह का दिल पिघल गया है और उन्होंने मदद की पेशकश कर दी है। मध्यप्रदेश को शिवराज की इन पेशकश के कारण देश में जो वाहवाही मिल रही है, वह भी इस अच्छी सोच का ही प्रतिसाद कहा जा सकता है। कलमाडी पूर्व में शिवराज ंिसंह को हाकी के सहायता की पेशकश के लिए धन्यवाद दे चुके हैं। लोगों की अपेक्षा है कि शिवराज ंिसंह अब इस मामले में जुबानी जमाखर्च से आगे बढ़ें और इस सहायता की पेशकश को ठोस रूप प्रदान करें तो शायद उन्हें लोगों की ज्यादा दुआएं मिलेंगी। चर्चा यह है कि मायावती सहित विभिन्न सरकारों एवं कारपोरेट घरानों ने अपनी सहायता राशि के चैक भी हाकी इंडिया को दे दिये हैं लेकिन मध्यप्रदेश का सहायता राशि का चेक हाकी इंडिया तक नहीं पहुंच पाया है। शिवराज सरकार यदि वास्तव में यह चाहती है कि देश की हाकी एक बार विश्व में अपनी साख कायम करे और पुन: हाकी का स्वर्णयुग लौटे तो वह इस दिशा मेें अपनी भूमिका अदा करते हुए यह सुनिश्चित करे कि सहायता राशि का चेक शीघ्रातिशीघ्र जारी हो और हाकी इंडिया तक पहुंच जाए ताकि वह अपने खिलाडिय़ों से किये गए वेतन तथा भत्ते संबंधी वायदों को पूरा कर सके। इसके साथ ही शिवराज सिंह भोपाल की हाकी के भी उन्नयन के लिए इसमें दखल करें। हमारे उपमहाद्वीप में भोपाली शैली की हाकी खेली जाती है लेकिन हाकी के मक्का कहे जाने भोपाल में सिर्फ सियासत के कारण यह खेल ह्रïास की ओर है। यदि भोपाल की हाकी का उद्धार किया जाना है तो इसके लिए सबसे पहले हाकी में चलने वाली क्षुद्र सियासत को रोकना वक्त का तकाजा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि मुख्यमंत्री इस मामले में भी अपनी भूमिका निभाएंगे।
-सर्वदमन पाठक

Wednesday, January 20, 2010

धरने पर मंत्री

किसी मंत्री द्वारा अपनी ही सरकार की नाकामी के खिलाफ आवाज उठाने के साहस का प्रदर्शन एक असाधारण घटना है लेकिन पारस जैन ने यह साहस कर दिखाया है। उज्जैन की एक नजदीकी सड़क की दुर्दशा से कुपित पारस जैन ने धरने पर बैठकर सनसनी फैला दी। उन्हें यह गुस्सा इसलिए आया क्योंकि एक जैन मुनि को खराब सड़क के कारण तकलीफ उठानी पड़ी। मंत्री की इस नाराजी से घबराये संबंधित विभागीय अधिकारियों ने फौरन ही इस सड़क को दुरुस्त करने के लिए कवायद शुरू कर दी है और संभव है जल्द ही यह सड़क पूरी तरह दुरुस्त हो जाए और मंत्री का गुस्सा शांत हो जाए। यह उनकी धार्मिक निष्ठïा ही थी जिसके कारण एक जैन मुनि के कष्टïों पर उनके मन को ठेस लगी और वे धरने पर बैठने के लिए भावनात्मक रूप से विवश हो गए। हमारा देश धर्म प्रधान देश है और यह घटना इस बात का प्रमाण है कि हमारी र्धािर्मक आस्थाएं हमारे लिए सर्वोपरि हैं। उक्त मंत्री भी इस मामले में अपवाद नहीं हैं। अत: मंत्री के उक्त कदम को नाटक की संज्ञा देना कतई उचित नहीं है। लेकिन जहां तक सड़कों का सवाल है, सड़कें तो पूरे प्रदेश की ही खस्ताहाल हैं और आम आदमी को उन पर प्रतिदिन गुजरते हुए कितनी ही तकलीफों का सामना करना पड़ता है। भोपाल की सड़कें इस दुर्दशा का जीता जागता प्रमाण हैं। राजधानी के मोहल्ले तो आजकल ऐसे लगते हैं मानो वे राजधानी नहीं बल्कि दूर दराज इलाके में स्थित किसी देहात का हिस्सा हों। सड़कों पर होने वाली जानलेवा दुर्घटनाओं के लिए सड़कों की दुर्दशा भी काफी हद तक जिम्मेदार है। इतना ही नहीं, टूटी फूटी सड़कें प्रदेश के विकास को भी प्रतिकूल रूप से प्रभावित करती हैं। कालांतर में इससे लोगों में खुशहाली लाने के राज्य सरकार के वायदे भी प्रभावित होते हैं। यह कोई रहस्य नहीं है कि सड़कों की बदहाली के लिए सरकार ही जवाबदेह है जिसका कि उक्त मंत्री भी एक हिस्सा हैं। सवाल यह है कि उक्त मंत्री क्या कभी सड़कों के कारण आम जनता को होने वाले कष्टïों से भी इतने व्यथित हुए हैं। दलील दी जा सकती है कि मंत्रिमंडल सामूहिक जिम्मेदारी के तहत कार्य करता है और किसी मंत्री द्वारा धरने जैसा कदम उठाकर अपनी ही सरकार को धर्मसंकट में डालना इस सामूहिक जिम्मेदारी की अवहेलना है। लेकिन इसके साथ ही जनता के कष्टïों का निवारण भी तो सरकार की सामूहिक जिम्मेदारी है। क्या कभी तमाम मंत्री आम जनता कोबदहाल सड़कों से होने वाले कष्टïों से निजात दिलाने के लिए ऐसी ही संकल्पबद्धता दिखाते हैं जैसी कि पारस जैन ने एक जैन मुनि के कष्टïों को महसूस करते हुए दिखाई है। यह भी तो आखिर जन-धर्म ही है फिर ये जनता के रहनुमा उनकी तकलीफों की अनदेखी कैसे कर सकते हैं। होना तो यह चाहिए कि सुविधाजनक सड़कों के निर्माण द्वारा प्रदेश की परिवहन एवं यातायात व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए राज्य सरकार अभियान चलाए ताकि प्रदेश के औद्योगीकरण का मार्ग प्रशस्त हो सके।
-सर्वदमन पाठक

Tuesday, January 19, 2010

राहुल का मिशन यूथ

युवाओं की हिस्सेदारी के जरिये देश की राजनीति में सार्थक बदलाव लाने के अपने राष्टï्रव्यापी अभियान के नवीनतम पड़ाव में राहुल गांधी ने मध्यप्रदेश के युवाओं को अपनी सादगी एवं साफगोई से अभिभूत कर दिया। प्रदेश के तमाम बड़े शहरों के युवाओं से रूबरू होते हुए उन्होंने विभिन्न सवालों एवं शंकाओं के जो भी उत्तर दिये उनमें इतनी पारदर्शिता थी कि युवा उनके शब्दों के जरिये उनके दिल में झांक सकते थे। उनके बयानों में किसी राजनीतिज्ञ की धूर्ततापूर्ण वाकपटुता नहीं बल्कि आम हिंदुस्तानी के मन में पल रही बेचैनी ही झलक रही थी। उन्होंने यह स्वीकारने में कोई गुरेज नहीं किया कि गांधी नेहरू परिवार का सदस्य होने के कारण वे शार्टकट से ही ऐसी राजनीतिक बुलंदियों पर पहुंच सके हैं, जो सामान्य तरीके से राजनीति में दाखिल होने वाले युवाओं के लिए संभव नहीं होती। राहुल गांधी ने अपने इस दौरे में प्रदेश के युवाओं को यह संदेश देने की पुरजोर कोशिश की कि सियासत की बुराइयों के लिए सिर्फ वर्तमान राजनीतिक ढांचे एवं वर्तमान राजनीतिज्ञों को कोसने से कुछ नहीं होगा बल्कि युवकों को खुद ही राजनीति में आकर इन विकृतियों को दूर करने के संकल्पबद्ध प्रयास करने होंगे। जब एक छात्र ने उनसे पूछा कि उन्हें राजनीति में आने से क्या फायदा होगा तो उन्होंने राजनीति के अपने नजरिये को स्पष्टï करते हुए कहा कि मेरी सियासत में व्यक्तिगत फायदे के लिए स्थान नहीं है। राहुल ने जहां एक ओर यह स्वीकार किया कि उनकी पार्टी भी कुछ गलत लोगों को चुनाव में टिकिट दे देती है वहीं दूसरी ओर उन्होंने यह कहकर युवाओं के दिल को झकझोर दिया कि आखिर ऐसे प्रत्याशियों को पराजित कर आप अपनी लोकतांत्रिक जिम्मेदारी क्यों नहीं निभाते।उन्होंने युवाओं को राजनीति में आने की खुली दावत देते हुए कहा कि अच्छे एवं प्रतिभाशाली युवकों के लिए युवक कांग्रेस के दरवाजे खुले हुए हैं और उन्हें इसके लिए किसी सहारे की कोई जरूरत नही है। दरअसल अब युवक कांग्रेस में मनोनयन से पद भरने का युग खत्म हो चला है और चुनाव प्रक्रिया नियमित कर दी गई है जिसके कारण पार्टी में शामिल होने वाले नए युवाओं को भी उच्च पदों पर पहुंचने का मौका मिल सके। एनएसयूआई एवं युवक कांग्रेस में अपराधियों को मौजूदगी पर उन्होंने दो टूक कहा कि उनकी कोशिश तो यही है कि अब कम से कम कांग्रेस में अपराधियों को प्रवेश न मिल पाए। उन्होंने अपने मध्यप्रदेश दौरे में अपने ईमानदारी भरे बयानों से युवकों के दिल में जगह बनाने में कुछ कामयाबी अवश्य हासिल की है हालांकि युवाओं के कांग्रेस से जुड़ाव की उनकी मुहिम की सफलता कांग्रेस की खुद की छवि ,कार्यशैली और उसके नेतृत्व में चल रही केंद्र सरकार की उपलब्धियों पर भी निर्भर करेगी।
-सर्वदमन पाठक

Monday, January 18, 2010

युवा राजनीति के सुपरस्टार राहुल गांधी

राहुल गांधी इन दिनों देश की युवा राजनीति के सुपरस्टार बनकर उभरे हैं। उन्होंने अपनी अनूठी राजनीतिक शैली से देश की राजनीति की दिशा एवं दशा बदलने की जो संकल्पबद्धता प्रदर्शित की है, उसकी वजह से वे देश के लोगों के दिल में अपने लिए विशिष्टï जगह बनाने में सफल हुए हैं। देश को करीब से समझने के अपने भारत दर्शन अभियान के तहत राहुल अमेठी और रायबरेली से निकलकर बुंदेलखंड की सूखी धरती, छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों, सांप्रदायिकता से झुलसते उड़ीसा और कर्नाटक, भाजपा के दुर्ग गुजरात, वाम मोर्चे के गढ़ प.बंगाल के अलावा मध्यप्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, राजस्थान, केरल, तमिलनाडु सब जगह गए। कभी दलित के घर में रोटी खाई, तो कभी किसी गरीब की झोपड़ी में रात बिताई। राहुल के इन कामों का देश के कुछ प्रमुख नेताओं ने मजाक उड़ाने में कोर कसर नहीं छोड़ी। किसी ने उन्हें बच्चा कहा तो किसी ने उनके नहाने के साबुन तक पर कटाक्ष किया, लेकिन राहुल अपनी अग्निपरीक्षा में खरे उतरे और खामोशी से जनता के दिल में गहरे उतरते चले गए।राहुल गांधी ने हर मोर्चे पर कमोवेश यह भरोसा जगाया कि वे अपने करिश्मे से कांग्रेस को नई चमक और नए तेवर दे सकते हैं जिससे कालांतर में एक बार फिर कांग्रेस देश के कोने कोने में खुद को स्थापित कर सकती है।दरअसल गरीबों के इर्द गिर्द अपनी सियासी व्यूहरचना की। उन्होंने इनके दुख दर्द में हिस्सेदारी को अपनी राजनीति का प्रमुख उपकरण बनाया। यह देश की राजनीति की उस परंपरागत शैली से बिल्कुल अलग था जो चुनाव में येन केन प्रकारेण वोट कबाड़कर कुर्सी हासिल करने और फिर अपने स्वार्थ में डूब जाने के लिए ही जानी जाती है। राजनीतिक विरोधियों ने इसे पावर्टी टूरिज्म की संज्ञा तक दे डाली लेकिन यह वास्तविकता की ओर पीठ कर चलने जैसी कवायद ही थी क्योंकि देश में चारों ओर राहुल के जज्बे की तारीफ हो रही है।राजनीतिक नजरिये में बदलाव की इस पहल का चौतरफा परिणाम सामने आ रहा है। उत्तरप्रदेश में जहां कांग्रेस पराभव के चरम पर पहुंच चुकी थी, राहुल के दौरों और समाज के निचले तबके से तादात्म्य स्थापित करने के प्रयासों के कारण कांग्रेस को यह अहसास हो चला है कि उसके पुराने दिन लौट सकते हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में उनकी चौतरफा मोर्चेबंदी के कारण ही कांग्रेस सपा जैसी पार्टियों के साथ आकर खड़ी हो गई दिखती है। उप्र की मुख्यमंत्री मायावती तो राहुल के दौरों से इतनी घबरा गई हैं कि उनके पूर्व निर्धारित दौरों तक में सरकार ने जब तब अवरोध खड़े करने की कोशिश की है। यही हाल बिहार का है जहां कांग्रेस की दुर्गति के लिए जिम्मेदार लालू यादव के साथ अपना गठबंधन भंग कर राहुल ने पार्टी को अपनी दम पर चुनाव मैदान में उतारा। इसका परिणाम यह हुआ कि अब कांग्रेस वहां अपना खोया हुआ आत्मविश्वास पुन: हासिल कर चुकी है। पंजाब एवं मध्यप्रदेश में भी लोकसभा चुनाव में राहुल फैक्टर का असर साफ नजर आया जहां कई बुजुर्ग नेताओं को कांग्रेस के युवा प्रत्याशियों को पराजित कर दिखाया।राहुल गांधी का यह करिश्मा कोई आकस्मिक घटना नहीं है। उन्होंने राजनीति में अभी तक का सफर पुख्ता कदमों से तय किया है। 19 जून 1970 को जन्मे तथा मार्डन स्कूल नई दिल्ली, दून स्कूल में अपनी स्कूली शिक्षा और उसके बाद हार्वर्ड विश्वविद्यालय, रालिन्स कालेज फ्लोरिडा, ट्रिनिटी कालेज केम्ब्रिज से उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले राहुल ने राजनीति में हड़बड़ी में कदम नहीं उठाए। कुछ समय तक प्रसिद्ध मेनेजमेंट गुरु माइकल पोर्टर में सेवाएं देने वाले श्री राहुल गांधी ने जनवरी 2004 तक राजनीति में प्रवेश के सवालो को नकारते रहे लेकिन अपनी मां एवं कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के साथ विभिन्न सभाओं एवं फोरम पर शिरकत कर देश के राजनीतिक तेवर का जायजा लेते रहे। फिर माहौल को अपने अनुकूल पाकर मार्च 2004 में सबको चौंकाते हुए उन्होंने अमेठी से लोकसभा चुनाव लडऩे का ऐलान कर दिया और अपनी बहन प्रियंका के सहयोग से यह चुनाव एक लाख से अधिक वोटों से जीतने में कामयाब रहे। तभी उन्हें कांग्रेस में प्रमुख भूमिका दिये जाने की मांग उठने लगी थी लेकिन उन्होंने कांग्रेस की कार्यशैली से पूरी तरफ वाकिफ होने और कांग्रेस कार्यकर्ताओं का विश्वास अर्जित करने के बाद ही 24 सितंबर 2007 को कांग्रेस महासचिव का पद संभाला। यह कोई रहस्य नहीं है कि वे खुद मंत्री पद स्वीकारने का प्रधानमंत्री का आग्रह अस्वीकार कर चुके हैं। इससे यह बात साफ हो ही जाती है कि उनमें भी अपनी मां सोनिया गांधी की तरह ही पदलिप्सा लेशमात्र नहीं है। यह बात अलग है कि देश उन्हें नए नेता के रूप में देख रहा है। उनकी सोच यही रही है कि राजनीति मेें युवाओं को बढ़ावा दिये जाने से ही राजनीतिक वातावरण सुधर सकेगा और उन्होंने इसे कार्य रूप में भी परिणित कर दिखाया। उन्होंने समूचे देश में युवा एवं प्रतिभावान लोगों के सहारे कांग्रेस को आगे ले जाने का बीड़ा उठाया है। ज्योतिरादित्य सिंधिया, जतिन प्रसाद एवं सचिन पायलट जैसे युवा नेता राहुल गांधी की टीम का हिस्सा हैं जो साफ सुथरी एवं ईमानदार छवि के लिए जाने जाते हैं। उनकी युवा शक्ति पर आधारित तथा गरीबों के दुख दर्द को महसूस करने एवं उन्हें दूर करने का जज्बा रखने वाली राजनीति का जादू निश्चित ही देश पर बखूबी चल रहा है लेकिन राहुल के नेतृत्व के आगे चुनौतियां भी कम नहीं हैं। देश में सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती महंगाई उनकी सबसे बड़ी चुनौती है। भारत के पड़ौसियों की बदनीयती भरी नीतियों विशेषत: आतंकवाद से समुचित तरीके से न निपट पाने के कारण भी देश के लोगों में आक्रोश बढ़ रहा है। क्या राहुल गांधी अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर महंगाई पर नियंत्रण तथा आतंकवाद पर शिकंजा कसने के लिए सरकार को प्रेरित कर पाएंगे। उनकी सफलता इस सवाल के उत्तर पर भी काफी हद तक तय करेगी।
-सर्वदमन पाठक

Friday, January 15, 2010

नगरीय चेतना की प्रशंसनीय पहल

मध्यप्रदेश के सभी नगर निगम क्षेत्रों में नागरिकों का कर्तव्य चार्टर लागू किये जाने की पहल इस बात का प्रमाण है कि शिवराज सरकार तमाम राजनीतिक दबाव के बावजूद इन बड़े नगरों में नगरीय चेतना विकसित करने के प्रति संकल्पबद्ध है। नगरों के बिगड़ते माहौल के कारण आज यह जरूरी हो गया है कि लोग एक नागरिक के रूप में अपनी जिम्मेदारी का अहसास करें और इस चार्टर के जरिये यह उद्देश्य पूरा हो सकता है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि जितनी तेजी से शहरों का औद्योगीकरण हो रहा है, उतनी ही तेजी से ग्र्रामों से शहरों की ओर जनसंख्या का स्थानांतरण भी हो रहा है। एक ओर तो उद्योगों में तेजी से हो रहे इजाफे से शहरों का पर्यावरण बिगड़ रहा है और दूसरी ओर शहरी आबादी पर ग्र्रामीण आबादी के बढ़ते दबाव के कारण शहरों में गुणात्मक परिवर्तन भी आ रहा है। ग्र्रामों में ऐसी कई सुविधाओं का अभाव होता है, जिनके बिना शहरों का काम ही नहीं चल सकता। ग्र्रामों में गगनचुंबी अïट्टालिकाएं नहीं होतीं, आबादी का घनत्व काफी कम होता है और खुली जगह काफी ज्यादा होती है जिसके कारण वे सीमित जगह में अपनी गुजर बसर नहीं कर सकते। उनकी जीवन शैली भी ऐसे ही वातावरण से तादात्म्य स्थापित कर लेती है लेकिन शहरों में आने पर उन्हें बिल्कुल ही अलग परिस्थितियों से रूबरू होना पड़ता है। इन परिस्थितियों में खुद को ढालने की चुनौती उनके सामने होती है। एक वर्ग अवश्य ही ऐसा होता है जो अपने को शहरों के अनुरूप ढाल लेता है लेकिन इन स्थानांतरित लोगों की एक बड़ी आबादी इतनी जल्दी एवं इतनी कुशलता से नई परिस्थितियों के अनुरूप नहीं ढल पाती जिसके कारण शहरों में एक तरह का असंतुलन उत्पन्न हो जाता है। नगरीय चेतना का यह अभाव शहरों में सांस्कृतिक विकृतियों को जन्म देता है। यातायात एवं परिवहन नियमों की अनदेखी शहर की एक बड़ी समस्या है। इसके अलावा अस्वच्छता भी शहरों की एक बड़ी समस्या है। दरअसल शहरों की आबादी लगातार बढऩे से इतने बड़े पैमाने पर वेस्टेज निकलता है कि धीरे धीरे शहर गंदगी के ढेर में तब्दील होते जा रहे हैैं। अत: शहरों में स्वच्छता के लिए सख्त प्रावधान वक्त का तकाजा है। उक्त चार्टर में अस्वच्छता पर जो दंड के प्रावधान किये जा रहे हैैं, वे इसी उद्देश्य से प्रेरित हैैं। इस दृष्टि से यह एक प्रशंसनीय पहल है लेकिन इसमें कुछ प्रावधान ऐसे भी हैैं जिनसे यह संकेत मिलता है कि नगर निगमों की कई जिम्मेदारियों को भी नागरिकों के सिर मढ़ा जा रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि लोगों में नगरीय चेतना जगाने में यह चार्टर मील का पत्थर साबित होगा और लोग शहरों को स्वच्छ एवं सेहतमंद बनाने के लिए खुद इस चार्टर का समर्थन करेंगे लेकिन इसे नगर निगमों की जवाबदेही को शिथिल करने का बहाना नहीं माना चाहिए ताकि इसकी सार्थकता का लोगों को अहसास हो सके।
-सर्वदमन पाठक

Wednesday, January 13, 2010

देशहित के खिलाफ है हाकी का विवाद

क्या कहते हैं हाकी इंडिया के अध्यक्ष एके मट्टू
हाकी इंडिया के पास खिलाडियों को देने के लिए पैसे नहीं हैं जबकि खिलाडियों के लिए पैसा देश से बडा हो गया है। खिलाड़ी लालची हो गये हैं। उन्हें देशहित में खेलना चाहिए। यदि 48 घंटों के अंदर उन्होंने अपना बहिष्कार वापस नहीं किया तो उन्हें निलंबित भी किया जा सकता है।
क्या कहना चाहते हैं वे?
हाकी इंडिया के पास कोष की इतनी अधिक कमी है कि वह अपने खिलाडिय़ों को उनके वेतन भत्ते तक देने की स्थिति में नहीं है लेकिन खिलाडिय़ों द्वारा इस मांग को लेकर हाकी इंडिया के खिलाफ बगावती तेवर अपना लेना और विश्व कप की तैयारी के लिए लगाए गए प्रशिक्षण शिविर का बहिष्कार कर देना कतई उचित नहीं है। खिलाडिय़ों का यह रवैया खेल के हित में नहीं है। इससे खेल से जुड़ी हमारी राष्टï्रीय प्रतिष्ठïा को क्षति पहुंच रही है जो किसी भी आर्थिक लाभ-हानि से ऊपर है।
क्या सोचते हैं लोग? हाकी इंडिया के अध्यक्ष का यह बयान उनके पद की गरिमा के अनुरूप नहीं है। यदि देश की प्रतिष्ठïा के लिए जी जान लगाकर खेलने वाले हाकी खिलाड़ी अपने उन वेतन भत्तों तक के लिए मोहताज हैं जो कि उनका हक है तो इसके लिए हाकी इंडिया अपनी जवाबदेही से कैसे बच सकती है। यदि हाकी इंडिया ïूके पास खिलाडिय़ों को देने के लिए पैसा नहीं है तो इसके लिए हाकी इंडिया की बदइंतजामी और अक्षमता को ही दोष दिया जा सकता है, खिलाडिय़ों को नहीं। यह आश्चर्यजनक है कि एक ओर तो खिलाड़ी अपनी ओर से अपने खर्च पर ही विश्व कप में खेलने की पेशकश कर रहे हैं और दूसरी ओर खेल इंडिया धमकी की भाषा का इस्तेमाल करते हुए उन्हें 48 घंटों के अंदर बहिष्कार वापस लेने, वरना निलंबन झेलने की चेतावनी दे रही है। क्रिकेट को धर्म तथा क्रिकेट खिलाडिय़ों को भगवान मानने वाले देश में अन्य खेलों विशेषत: हाकी के प्रति हमारे कारपोरेट जगत एवं सरकारों के सौतेले रवैये की यह पराकाष्ठïा ही है कि इसके खिलाडिय़ों के वेतन भत्ते के लिए संघ के पास पैसे नहीं है। हाकी के पराभव के लिए हमारा यह रवैया भी काफी हद तक जिम्मेदार है। यदि हम एक बार फिर हाकी के स्वर्णयुग की ओर लौटना चाहते हैं तो हमें हाकी के प्रति हमारे रुख पर यथाशीघ्र आत्मचिंतन करना चाहिए और इसके पुनरुत्थान के लिए समुचित संसाधन जुटाने के लिए संकल्पबद्ध होना चाहिए। इस दिशा में शिवराज सिंह चौहान की राष्टï्रीय हाकी को गोद लेने की पेशकश अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू है और उम्मीद की जानी चाहिए कि अन्य संस्थाएं भी ऐसे ही प्रस्ताव लेकर आगे आएंगी।
सर्वदमन पाठक

Tuesday, January 12, 2010

भेदभाव पर हिंसा

करोंद मंडी मेें दुकानों के लिए प्लाटों की नीलामी को लेकर व्यापारियों में सुलग रही असंतोष की आग आखिर सोमवार को भड़क ही उठी। नीलामी को लेकर व्यापारियों की हड़ताल के दौरान हुए पथराव और पुलिस लाठीचार्ज से समूचे मंडी क्षेत्र तथा उसके आसपास के क्षेत्रों में जबर्दस्त अफरातफरी मच गई। व्यापारियों में इस भेदभावपूर्ण नीलामी को लेकर कितना गुस्सा था, इसका अंदाजा इससे ही लगाया जा सकता है कि उन्होंने दो दर्जन दोपहिया वाहनों तथा कई चार पहिया वाहनों को आग के हवाले कर दिया, इतना ही नहीं, सरकार के प्रतिनिधि के रूप में वहां पहुंचे पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष बाबूलाल भानपुरा पर भी अपना गुस्सा निकालते हुए उनके ऊपर पथराव किया गया और उनकी कार को आग लगा दी गई। इस आक्रोश की आंच से पुलिसकर्मी भी नहीं बचे जिनमें से एक तो गंभीर हालत में अस्पताल में भर्ती कराया गया है। दरअसल इसे प्रशासनिक विवेकहीनता की पराकाष्ठïा ही कहा जा सकता है जिसकी परिणति इस व्यापक हंगामे में हुई। आखिर ऐसा क्या कारण था कि प्रशासन ने अनाज व्यापारियों के लिए तो प्लाट की कीमत 22 रुपए प्रति वर्गफुट तय की लेकिन सब्जी व्यापारियों के लिए यह कीमत 251 रुपए प्रति वर्गफुट तय की गई। प्रशासन की दलील है कि अनाज व्यापारियों को प्लाटों की नीलामी एवं सब्जी व्यापारियों को प्लाटों की नीलामी के बीच के अंतराल में इनका बाजार मूल्य काफी बढ़ गया है। सवाल यह उठता है कि प्रशासन ने दोनों ही वर्ग के व्यापारियों के लिए पहले ही सुनियोजित तरीके से एक साथ नीलामी कराने का फैसला क्यों नहीं लिया और साथ साथ यह नीलामी क्यों नहीं कराई ताकि दोनों व्यापारियों को कम रेट पर प्लाट उपलब्ध हो जाते। प्लाटों की नीलामी में एक ओर तो उनकी क्षमता का ध्यान नहीं रखा गया और दूसरी ओर अब उनके स्वाभाविक दावे की अनदेखी की जा रही है। व्यापारियों का दावा है कि प्रशासन ने यह चाल कुछ बाहरी व्यापारियों को लाभ पहुंचाने के लिए चली है। अंदरूनी सूत्र बताते हैं कि यह नीलामी सिर्फ वर्तमान सब्जी व्यापारियों तक सीमित नहीं है बल्कि इसमें बेरोजगारों तथा अन्य लोगों को भी नीलामी में लाभ पहुंचाने की कोशिश की जा रही है। इस मामले में शर्तें भी इतनी सख्त कर दी गई हैं कि उनकी व्यावहारिकता पर सवालिया निशान लग गया है। संभवत: अन्य लोगों को लाभ पहुंचाने के लिए ही प्रशासन ने इतने हठ का परिचय दिया कि यह जानते हुए भी कि व्यापारी काफी गुस्से में हैं और इस मामले में आरपार के संघर्ष का मन बना चुके हैं, उसने हंगामे के पहले नीलामी रोकने की समझदारी नहीं दिखाई। सरकार को इस हंगामे से कुछ सबक सीखना चाहिए और अपनी हठधर्मिता छोड़कर सब्जी व्यापारियों का विश्वास हासिल करना चाहिए तभी इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाना चाहिए अन्यथा किसी भी अनहोनी की पूरी जिम्मेदारी उसी पर होगी।
-सर्वदमन पाठक

Friday, January 8, 2010

कही -अनकही

क्या कहते हैं अमर सिंह
मैंने स्वास्थ्य संबंधी कारणों से समाजवादी पार्टी के तमाम पदों से इस्तीफा दे दिया है और इसमें कोई राजनीति नहीं है। दरअसल लोकसभा चुनाव में पार्टी का प्रचार कर मैंने गलती की है, मैंने अपने ही जीवन से खिलवाड़ किया है। अब मैं तनावमुक्त जीवन जीना चाहता हूं। मैं अब इस्तीफा वापिसी का मुलायम सिंह का अनुरोध नहीं मानूंगा।
क्या कहना चाहते हैं वे?
समाजवादी पार्टी पर मुलायम सिंह के परिजनों का कब्जा तथा उनके इशारे पर पार्टी में हो रहा अपमान उनके लिए असहनीय है और वे किसी भी हालत में अपने इस अपमान को बर्दाश्त करने वाले नहीं है। यह इस्तीफा इसी की अभिव्यक्ति है। अब गेंद मुलायम सिंह के पाले में है। वैसे उन्होंने यह घोषणा अवश्य की है कि वे इस्तीफा वापस नहीं लेंगे। लेकिन पहले की तरह वे एक बार फिर अपना इस्तीफा वापस से सकते हैं बशर्ते कि पार्टी में मुलायम सिंह यादव अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर उनका सम्मान बहाल कर सकें।
क्या कहते हंै लोग?
दरअसल देश की राजनीति में अमर ंिसंह को गंभीरता से नहीं लिया जाता। इतने लंबे राजनीतिक जीवन के बाद भी जन नेता के रूप में उनकी कोई पहचान नहीं है बल्कि उनके विरोधी तो उन पर राजनीतिक दलाल होने का आरोप लगाते नहीं थकते। समाजवादी पार्टी में भी उनकी भूमिका पूंजीपतियों और पार्टी के बीच सेतु की ही रही है और इसके कारण पार्टी का समाजवादी चरित्र भी काफी हद तक शिथिल हुआ है। पार्टी के वर्तमान हालात के लिए इसे भी कम जिम्मेदार नहीं माना जा सकता। राज बब्बर, आजम खां एवं बेनी प्रसाद वर्मा जैसे कद्दावर नेता भी अमर सिंह के कारण ही पार्टी छोडऩे पर मजबूर हुए। इसके साथ ही यह भी सच है कि पार्टी पर इन दिनों मुलायम सिंह यादव के परिजनों का ही कब्जा हो गया है जो अमर सिंह के तौर तरीकों को पसंद नहीं करते। इसी वजह से पार्टी में उनके रसूख में भारी गिरावट आई है। अमर सिंह का इस्तीफा उनकी प्रेशर टेक्टिक्स का ही हिस्सा हो सकता है ताकि पार्टी में वे पुनप्र्रतिष्ठिïत हो सकें। मुलायम सिंह का उनके प्रति जो साफ्ट कार्नर है उसे देखते हुए एक बार फिर उनकी यह चाल कामयाब हो सकती है बशर्ते कि उनमें परिवार-मोह जुनून की हद तक न पहुंच गया हो।
-सर्वदमन पाठक

Wednesday, January 6, 2010

निर्लज्जता की पराकाष्ठïा

यह साल गुजरते गुजरते भी ऐसी घटना का साक्षी बन गया जो निर्लज्जता की पराकाष्ठïा ही थी। देश के बहुचर्चित राजनीतिक नेता तथा आंध्र प्रदेश के राज्यपाल नारायण दत्त तिवारी राज्य के ही एक स्थानीय चैनल द्वारा किये गए स्टिंग आपरेशन में कुछ नाजनीनों के साथ निर्वस्त्र अवस्था में पकड़े गए। चैनल पर इसकी क्लिपिंग कुछ देर तक दिखाई जाती रही और बदनामी के छींटे पर पड़ते रहे। कुछ समय बाद भले ही अदालती आदेश के बाद उक्त चैनल ने इस क्लिपिंग का प्रसारण बंद कर दिया लेकिन इससे राज्यपाल पद की प्रतिष्ठïा जो आघात लगा है उसकी भरपाई होना काफी मुश्किल है। वैसे यह पहला अवसर नहीं है जब राज्यपाल के पद पर उंगलियां उठी हैं। राज्य सरकार से टकराव को लेकर तो कई बार राज्यपाल विवादों में रहे हैं। कुछ मामलों में चारित्रिक कारणों को लेकर भी राज्यपाल संदेह के दायरे में रहे हैं लेकिन नारायण दत्त तिवारी का मामला सबसे शर्मनाक है। इस घटना की गंभीरता इस हकीकत को देखते हुए और बढ़ जाती है कि श्री तिवारी काफी बुलंद राजनीतिक शख्सियत के रूप में जाने जाते रहे हैं। वे चार बार उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे हैं और एक बार तो वे प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचते पहुंचते रह गए थे। उन्होंने दावा किया है कि इस क्लिपिंग में कोई सच्चाई नहीं है और ये उनको फंसाने के लिए रचा गया एक फिल्मी नाटक था। उनका कहना है कि वे इसे अदालत में चुनौती देने का मन बना रहे हंै लेकिन अभी तक उन्होंने यह कदम नहीं उठाया है। उनके काफी करीबी व्यक्ति का इस मामले में हाथ बताया जाता है जो उनकी नस नस से वाकिफ है। वैसे उन पर चारित्रिक आरोप कोई पहली बार नहीं लगे हैं, बल्कि पहले भी उनके चरित्र को लेकर उंगलियां उठती रही हैं।यही कारण है कांग्रेस पार्टी ने भी उनका बचाव करने में कोई रुचि नहीं दिखाई और उन्हें आनन फानन में यह संकेत दे दिया कि राजभवन से विदा लेने के अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं है। राजभवन से रुखसत होने के बाद भी उनकी निंदा और चटखारों का दौर जारी है। इस विशेष मामले की सच्चाई को तो तकनीकी तरीके से ही परखा जा सकता है लेकिन आम तौर पर राज्यपालों से जुड़ा विवाद कयासों पर आधारित होता है, उसका सबसे बड़ा कारण यही है कि राजभवन की गतिविधियों में पारदर्शिता नहीं होती। बहरहाल इस तरह की घटनाओं के मद्देनजर यह वक्त का तकाजा ही है कि राजभवन की गतिविधियों को पारदर्शी बनाया जाए। आजकल राजभवन जिस तरह से पूर्वाग्रहपूर्ण राजनीति में लिप्त हो जाते हैं या उसके शिकार हो जाते हैं, उसे देखते हुए तो यह निहायत जरूरी हो गया है।
-सर्वदमन पाठक

जनहित के प्रति प्रतिबद्धता शिवराज सरकार की सबसे बड़ी चुनौती

नए साल के आगाज के साथ ही शिवराज सरकार जन विश्वास की कसौटी पर खरे उतरने के लिए कुछ ज्यादा ही सचेत हो गई है। सत्ता के चाल, चरित्र और चेहरे को और साफ सुथरी छवि प्रदान करने की कोशिशों में अचानक आई तेजी इस हकीकत को ही बयां करती है। इस सिलसिले को शुरू करते हुए मुख्यमंत्री ने साल के शुरुआती दिनों में ही आनन फानन में विभिन्न विभागों के कार्यकलापों की समीक्षा की और तमाम आला अफसरों को यह संदेश देने की कोशिश की कि जनता के हित के खिलाफ कोई भी प्रशासनिक ढिलाई बर्दाश्त नहीं की जाएगी। अब पार्टी की शीर्ष पंक्ति के नेता वेंकैया नायडू इसी सिलसिले में मंत्रियों की क्लास लेने की तैयारी में हैं। यह सही है कि ईमानदार शासन एवं प्रशासन राज्य की बेहतरी के लिए जरूरी है और इस दृष्टिï से यह कवायद स्वागत योग्य है लेकिन यह भी उतना ही सच है कि मुख्यमंत्री अथवा नायडू के ये प्रयास तभी परवान चढ़ सकते हैं जब मंत्रियों एवं आला अफसरों में भी इन प्रयासों का सार्थक असर हो। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि मुख्यमंत्री की ईमानदार छवि के कारण ही भाजपा राज्य में दुबारा सत्ता में लौटी है और इसी विश्वसनीयता को बनाए रखने के लिए उनमें जनहित की नीतियों एवं कार्यक्रमों को अमलीजामा पहनाने के लिए समुचित बदलाव लाने का संकल्प साफ झलकता है। उक्त मुहिम इसी की परिचायक है लेकिन सवाल यही है कि क्या उनके पास ऐसे मंत्रियों एवं अफसरों की टीम मौजूद है जिनमें भी ऐसी ही ईमानदारी और संकल्पबद्धता हो। फिलहाल तो नौकरशाही की जो तस्वीर नजर आती है, वह प्रशासनिक दृष्टिï से ज्यादा उत्साहजनक नहीं है। अफसरों एवं प्रशासनिक अमले में फैला भ्रष्टïाचार ऐसा रोग है जो राज्य को सेहत को बेहतर बनाने तथा इसे खुशहाली का टानिक देने की सरकार की तमाम कोशिशों को निगल रहा है और इसके बावजूद सरकारी आंकड़ेबाजी से सरकार को भ्रमित किया जा रहा है।अफसरों की समीक्षा बैठक भर से काम चलने वाला नहीं है बल्कि जब तक ईमानदार अफसरों को पुरस्कृत करने तथा बेईमान अफसरों को दंडित करने का अभियान नहीं चलेगा तब तक राज्य की प्रगति में बेईमान अफसरशाही रोड़ा बनी रहेगी।प्रशासन से सरकार के कार्यक्रमों के क्रियान्वयन को सुनिश्चित कराने के लिए मंत्रियों में प्रशासनिक क्षमता तथा ईमानदारी का होना पहली शर्त है। यदि वल्लभ भवन में मंत्रियों की उपस्थिति पर नजर डाली जाए तो यह बात साफ हो जाती है कि अधिकांश मंत्री तो इस प्रशासनिक मुख्यालय में तभी आते हैं जब उनके किसी परिचित, रिश्तेदार या राजनीतिक साथी, सहयोगी की फाइलें निपटानी होती हैं। फिर वे आला अफसरों पर नियंत्रण कैसे करेंगे। इतना ही नहीं, कई बार तो मंत्रियों एवं आला अफसरों में भ्रष्टïाचार के मामले मेें मिलीभगत होती है। कौन नहीं जानता कि कई मंत्रियों पर पिछले वर्षों में भ्रष्टïाचार के गंभीर आरोप लग चुके हैं और उनमें से अधिकांश आज मंत्रिमंडल में हैं। क्या सरकार एवं सत्तारूढ़ पार्टी ऐसे मंत्रियों पर नकेल कसने के लिए तैयार है ताकि जनता के प्रति जवाबदेह ईमानदार शासन -प्रशासन का मार्ग प्रशस्त हो सके।
-सर्वदमन पाठक

Tuesday, January 5, 2010

अस्पताल पर बदनुमा धब्बा

भोपाल मेमोरियल अस्पताल एवं शोध संस्थान के भीतर भोपाल विश्वविद्यालय की शोध छात्रा के साथ सामूहिक बलात्कार इस प्रतिष्ठिïत संस्था के माथे पर एक बदनुमा दाग ही है। इस बलात्कार में संस्था के एक डाक्टर की भी संलिप्तता सामने आई है जो इस घटना का सबसे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण पहलू है। वैसे तो यह संस्थान गैसपीडि़तों को उच्चस्तरीय इलाज उपलब्ध कराने के लिए बनाया गया था और इसकी देखरेख सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश की अध्यक्षता में गठित न्यास द्वारा की जाती है लेकिन पिछले लंबे समय से यह अस्पताल विवादों के घेरे में रहा है। इस अस्पताल में डाक्टरों का उच्चस्तरीय स्टाफ तो अब कुछ ही विभागों में बचा है जबकि अन्य विभागों में लोगों को अपेक्षानुरूप इलाज न मिलने की शिकायतें आम होती जा रही हैं। अब नि:शुल्क चिकित्सा का गैसपीडितों का अधिकार भी शिथिल हो गया है क्योंकि इसमें प्रायवेट मरीजों का इलाज भी होने लगा है। यहां की सुरक्षा व्यवस्था अवश्य ही इतनी सख्त बना दी गई थी कि गैसपीडि़त मरीजों को बहुधा परेशानी हो जाती थी लेकिन इसके बावजूद इस मामले में संस्थान को समझौता गवारा नहीं था। इस घटना के बाद दोषरहित सुरक्षा व्यवस्था का यह भरम भी टूट गया है। जो सुरक्षाकर्मी मरीजों एवं उनके परिजनों से प्रवेश के लिए तमाम तरह की पूछताछ करते हैं, उन्हीं सुरक्षाकर्मियों ने उक्त छात्रा एवं उसके साथ आने वाले पुरुष को कैसे कैंपस में प्रवेश करने दिया, यह बात समझ से परे है। सवाल यह भी है कि इस महिला को शराब पिलाकर उसके साथ सामूहिक दुष्कृत्य किया गया फिर भी इन सुरक्षा कर्मियों को भनक क्यों नहीं लगी। यह घटना जिस तरह से हुई है, उससे यह संदेह होना स्वाभाविक है कि यह कहीं इस उच्च सुरक्षा वाले क्षेत्र में चल रहे किसी सेक्स रैकेट का हिस्सा तो नहीं है। यदि ऐसा है तो फिर वहां न्यास की कार्यक्षमता पर यह एक प्रश्र चिन्ह ही है। क्या न्यास के कर्ताधर्ता बता सकते हैं कि यहां ऐसे डाक्टर की नियुक्ति कैसे हुई जो आगे चलकर संस्था के लिए बदनामी का सबब बन सकता था। क्या नियुक्ति के समय अभ्यर्थियों का समुचित चरित्र सत्यापन सुनिश्चित किया जाता है। दरअसल नियुक्तियों की जिम्मेदारी तो न्यास की ही है फिर वे इसकी जवाबदेही से कैसे बच सकते हैं। इस बात में कितनी सच्चाई है, यह तो अस्पताल प्रबंधन ही बता सकता है लेकिन यह शिकायत आम है कि इस अस्पताल में आजकल असामाजिक तत्वों का खासा दखल हो गया है और ये असामाजिक तत्व इस प्रतिष्ठिïत अस्पताल के वातावरण को दूषित कर रहे हैं। यह घटना भी ऐसे ही वातावरण की परिणति हो सकती है। यदि अस्पताल प्रबंधन इसकी प्रतिष्ठïा की पुनस्र्थापना के प्रति तनिक भी चिंतित है तो उसे तत्काल इस घटना की तह में जाने हेतु समुचित जांच बैठानी चाहिए और इसके लिए दोषी तमाम लोगों पर कार्रवाई करनी चाहिए। अस्पताल को ऐसे वातावरण से मुक्त करने के लिए कारगर उपाय किये जाने चाहिए जो इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जिम्मेदार हैं। साथ ही उन तमाम कर्मचारियों एवं डाक्टरों की सेवाएं समाप्त की जानी चाहिए जिनके अतीत पर संदेह की जरा भी छाया है।
- सर्वदमन पाठक

भ्रष्टाचार: और नहीं, अब और नहीं

सन् 2009 बीत चुका है और 2010 का आगाज हो चुका है। नया सूरज उम्मीदों का नया सवेरा लेकर आया है। पिछला साल कई मायनों में मिश्रित संभावनाओं से भरपूर रहा। एक ओर तो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह अपनी ओर से प्रशासन में सक्षमता, ईमानदारी एवं पारदर्शिता लाने के लिए सतत प्रयासरत रहे और इस दिशा में तेज कदम बढ़ाने के लिए उन्होंने जब जब विभिन्न विभागों की समीक्षा कर उनकी कार्यशैली में सुधार लाने की कोशिश की वहीं यह भी सच है कि कमोवेश उनका प्रयास एकाकी ही रहा। उन्हें प्रशासन की ओर सेे समुुचित सहयोग मिलना तो दूर, असहयोग का ही सामना करना पड़ा। इसका सबसे बड़ा कारण यही था कि प्रशासन की खुद की कार्यशैली दोषपूर्ण है। दरअसल यह बात जगजाहिर है कि नौकरशाही में भ्रष्टïाचार का बोलबाला है और इसे छिपाने के लिए ऐसी कार्यशैली आवरण का काम करती है। यही नौकरशाही प्रशासनिक पारदर्शिता की दिशा में मुख्यमंत्री द्वारा उठाये जाने वाले तमाम प्रयासों को नाकाम करती रहती है एवं नौकरशाही के इस कुत्सित कारोबार में अधिकांश प्रशासनिक अमले की मिलीभगत रहती है। लेकिन इसके लिए सिर्फ नौकरशाही को जिम्मेदार मानना गलत है क्योंकि राजनीतिक नेताओं के न्यस्त स्वार्थ भी भ्रष्टï नौकरशाही के लिए मददगार होते हैं। नए साल में सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि प्रशासनिक पारदर्शिता को कैसे सुनिश्चित किया जाए। प्रशासनिक पारदर्शिता सफल सरकार की सबसे बड़ी निशानी है। जन कल्याण से जुड़ी नीतियों एवं कार्यक्रमों के अमल को सुनिश्चित करने के लिए प्रशासनिक पारदर्शिता सबसे पहली शर्त है। आम तौर पर होता यह है कि जन कल्याण के कार्यक्रमों के लिए आवंटित धनराशि का बड़ा हिस्सा नौकरशाह, अफसर प्रशासनिक अमला और नेता डकार जाते हैं और कार्यशैली में पारदर्शिता न होने के कारण अधिकारी फर्जी आंकड़ों से जनता और सरकार को इसकी सफलता के बारे में भरमाने में सफल हो जाते हैं। मुख्यमंत्री खुद ऐसी पृष्ठïभूमि से आये हैं जहां दिली ईमानदारी काफी मायने रखती है और मुख्यमंत्री के रूप में भी उन्होंने अपनी इस दिली ईमानदारी को बरकरार रखा है। लोगों से वायदे करने और उन्हें निभाने में भी वे ईमानदारी के साथ ही प्रयास करते हैं लेकिन उन्हें इस तरह का तंत्र एवं कार्यशैली विकसित करनी होगी जिससे उनकी यह आकांक्षा संपूर्ण शासन- प्रशासन में प्रतिबिंबित हो सके। विडंबना यह है कि प्रशासन में इसका नितांत अभाव परिलक्षित होता है।यक्ष प्रश्र यही है कि आखिर वे कौन से उपाय हैं जो कि मुख्यमंत्री को प्रशासनिक पारदर्शिता के लिए उठाने चाहिए। इसमें सबसे पहला उपाय तो यही हो सकता है कि मुख्यमंत्री खुद ऐसे विश्वसनीय आला अफसरों की टीम बनाएं जिनकी ईमानदारी एवं कार्यनिष्ठïा असंदिग्ध हो और यह टीम प्रशासन की मानीटरिंग करे। खुद मुख्यमंत्री इस टीम से जब तब वास्तविक स्थिति की जानकारी लेते रहें और जरूरत के मुताबिक प्रशासनिक ढांचे में परिवर्तन करते रहें लेकिन सिर्फ इसी से बात नहीं बनने वाली है। इसके लिए योग्य अफसरों को प्रोत्साहित एवं पुरस्कृत करना और भ्रष्टï एवं गैरजवाबदेह अफसरों को दंडित करना भी जरूरी है ताकि प्रशासन में स्पष्टï रूप से यह संदेश जाए कि इस सरकार में सिर्फ ईमानदार अफसरों की ही पूछ परख होगी और भ्रष्टï अफसरों को उनकी करनी का फल भुगतना होगा। इस उपाय के अलावा मुख्यमंत्री को सरकार एवं नौकरशाही को जवाबदेह बनाने के लिए राजनीतिक कदम भी उठाने होंगे। कोई भी प्रशासन जब तक अपनी मनमानी नही कर सकता जब तक कि उसके पीछे राजनीतिक विरादरी का संरक्षण न हो। इसमें कोई शक नहीं है कि प्रदेश के कई प्रभावशाली राजनीतिक नेता जिनमें मंत्रियों, विधायकों एवं सांसदों के अलावा सत्ता एवं विपक्ष में बैठी राजनीतिक पार्टियों के संगठन से जुड़े नेता भी शामिल हैं, अपने फायदे के लिए प्रशासनिक अफसरों के साथ गलबहियां करते हैं और इसलिए भ्रष्टïाचार के बावजूद ये आला अफसर और उनसे जुड़ा सरकारी अमला सुरक्षित रहता है। यदि उनके ऊपर से यह राजनीतिक संरक्षण हट जाए तो स्वाभाविक रूप से उनमें यह भय उत्पन्न हो जाएगा कि या तो उन्हें अपना तौर तरीका बदलना होगा अन्यथा सरकार उन्हें बदलने में देरी नहीं लगाएगी। विशेषत: मंत्रियों पर सरकार को इस मामले में नकेल लगाना होगा। प्रदेश में कई मंत्रियों पर भ्रष्टïाचार के गंभीर आरोप हैं और ये मंत्री अपने स्वार्थ की खातिर नौकरशाही से गंठजोड़ करें तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। मुख्यमंत्री ने पिछले चुनाव के बाद मंत्रियों के रिपोर्ट कार्ड की अच्छी शुरुआत की थी लेकिन यह योजना संभवत: अमल में नहीं आ पाई। इस कारण मंत्रियों पर किसी तरह की जवाबदेही तय नहीं हो पाई। अब नए साल में इस योजना को प्रभावी ढंग से लागू करने का संकल्प मुख्यमंत्री को लेना चाहिए और इस मामले में पार्टी को उनका सहयोग करना चाहिए। सत्तारूढ़ दल के उन मंत्रियों एवं विधायकों पर कड़ी नजर रखी जानी चाहिए जो भ्रष्टïाचार के मामले में संदेह के घेरे में हैं। मुख्यमंत्री के लिए यह सबसे अच्छा विकल्प है कि न केवल वे खुद इनके आर्थिक संसाधनों पर नजर रखें बल्कि उनकी आयकर विवरणी पर भी सतर्क निगाह रखी जाए। यदि पार्टी उनकी चौकसी के लिए कोई आंतरिक व्यवस्था करे तो और भी बेहतर होगा।इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि आजकल राजनीति सेवा के बदले सुविधा का जरिया हो गई है और अन्य राजनीतिक दलों की तरह भाजपा भी इसका शिकार हो चुकी है। इसी वजह से भाजपा सरकारों के प्रभावी मंत्री भी भ्रष्टïाचार के आरोपों में घिर गए हैं। लेकिन मप्र में सबसे अच्छी बात यही है कि मुख्यमंत्री इस मामले में निष्कलंक हैं और उनमें ऐसे मंत्रियों पर अंकुश लगाने के लिए समुचित मनोबल और इच्छाशक्ति दोनों ही हैं। उम्मीद है कि मुख्यमंत्री इसका प्रयोग कर सरकार एवं प्रशासन की जवाबदेही तय करेंगे और उन्हें पारदर्शी बनाएंगे। पार्टी को भी इस विकृति को दूर करने के लिए कुछ कड़वी दवा का इस्तेमाल करना होगा और इन संदिग्ध मंत्रियों को चुनाव में न उतारने का कड़ा फैसला करना होगा ताकि जन हित की कसौटी पर भाजपा खरी उतर सके।
-सर्वदमन पाठक

Monday, January 4, 2010

क्या कहते हंै आमिर खान

यह धारणा निर्मूल है कि थ्री ईडियट के लेखन के श्रेय को लेकर छिड़ी जंग फिल्म की पब्लिसिटी का हिस्सा है जिसका उद्देश्य बाक्स आफिस पर फिल्म की अधिक से अधिक कमाई सुनिश्चित करना है।आमिर खान, प्रमुख अभिनेता, थ्री ईडियट्स क्या आशय है उनका?
आमिर यह कहना चाहते हैं कि उक्त फिल्म दर्शकों को आकर्षित करने की अद्भुत क्षमता के कारण ही बाक्स आफिस पर अत्यधिक कमाई में सफल हो रही है। जहां तक चेतन भगत के उपन्यास पर इसके आधारित होने को लेकर उठे विवाद का सवाल है, यह महज एक संयोग ही है। यह चेतन भगत का खुद का पब्लिसिटी स्टंट है जिसने इस मामले को हवा दे दी है।
क्या सोचते हैं लोग?
फिल्म के रिलीज होने के साथ ही चेतन भगत का विवाद में कूद पडऩा कोई संयोग नहीं हो सकता क्योंकि उन्हें फिल्म प्रोड्यूसर विधु विनोद चोपड़ा अनुबंधित कर चुके थे और चेतन भगत इस अनुबंध के दस लाख रुपए में से नौ लाख रुपए वे ले भी चुके हैं। चैनल पर चेतन भगत तथा विधु विनोद चोपड़ा के बीच जिस नाटकीय अंदाज में यह विवाद सामने आया उससे यही लगता है कि इस नाटक का बखूबी मंचन किया गया है जबकि चेतन भगत बार बार यही कह रहे हैं कि उन्हें चोपड़ा से कुछ भी नहीं चाहिए। यह पहला अवसर नहीं है जब फिल्म प्रसारित होने के ऐन पहले अथवा उसके आसपास ऐसे विवाद सामनेे आए हों और बाद में छानबीन करने पर यही तथ्य सामने आया कि इनमें से अधिकांश विवाद फिल्म की पब्लिसिटी के मकसद से छेड़े गए थे। अत: यदि भविष्य में यही निष्कर्ष निकले तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है। वैसे फिल्म के दर्शकों की निष्पक्ष राय यही है कि चेतन भगत के उपन्यास की पटकथा पर यह फिल्म काफी हद तक आधारित है और इसके बावजूद उन्हें पर्याप्त श्रेय न दिया जाना उनके प्रति अन्याय ही है। लेकिन यदि वे अपेक्षानुरूप आक्रामक नहीं नजर आते तो फिर इससे लोगों को दाल में काला नजर आना स्वाभाविक ही है।
-सर्वदमन पाठक