Monday, December 31, 2012


कब थमेगी यह दरिंदगी?
-सर्वदमन पाठक

दिल्ली में पेरा मेडिकल की छात्रा के साथ बस में हुई गैैंग रेप की घटना पर देश गुस्से से उबल रहा है। इस पैशाचिकता की हद तक भयावह बलात्कार केखिलाफ दिल्ली से लेकर देश के कोने कोने में विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला चल रहा है। संसद ने भी इस बलात्कार की घटना पर रोष जताया है और इसके आरोपियों को फांसी की सजा की मांग की है। पीडि़त लड़की अभी भी अस्पताल में गंभीर अवस्था में है। उसके दो आपरेशन हो चुके हैैं लेकिन उसे अभी भी खतरे से बाहर नहीं कहा जा सकता। यह एक ऐसा हादसा है जो हमारी रूह को झकझोर देने के लिए काफी है। इस दुखद घटना पर सरकार एवं प्रशासन के खिलाफ लोगों की नाराजी पूरी तरह उचित ही है क्योंकि बस में दस किलोमीटर की दूरी तक हैवानियत का यह कृत्य चलता रहा और लड़की और उसका दोस्त मदद के लिए चिल्लाते रहे। इस दौरान कई पुलिस नाकों से भी वह बस गुजरी लेकिन सभी जगह पुलिस नदारद थी। इतना ही नहीं, वह बस काफी समय से अवैध रूप से चल रही थी लेकिन संभवत: पैसे की वसूली के चलते पुलिस एवं प्रशासन की जानबूझकर बरती जाने वाली लापरवाही के कारण उस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई और अंतत: यह बस बलात्कारियों की दरिंदगी में इस्तेमाल हो गई। यह पहला अवसर नहीं है जब हमारी राष्ट्रीय राजधानी में किसी लड़की की इज्जत को तार तार किया गया है। यदि यह कहा जाए कि आजकल दिल्ली बलात्कारियों और अपराधियों की राजधानी बन गई है तो कतई अतिशयोक्ति नहीं होगी लेकिन दिल्ली सरकार और प्रशासन इस दिल दहला देने वाली घटना के बाद ही जागी है और अपराधियों पर नकेल कसने के लिए कोशिश कर रही है। यदि पिछली घटनाओं से सबक लेकर पहले से ही सतर्कता बरतती तो मानवता को शर्मसार करने वाली यह वारदात रोकी जा सकती थी। जहां तक बलात्कारों का सवाल है, दिल्ली ही नहीं, समूचे देश में ऐसी घटनाएं आए दिन होती हैैं लेकिन संभवत: उन पर इतनी चर्चा इसलिए नहीं होती क्योंकि वे देश की राजधानी में नहीं घटतीं। आंकड़ों के हिसाब से कई राज्यों में दिल्ली से कहीं ज्यादा यौन अपराध होते हैैं। ये वे आंकड़े हैैं जो बाकायदा नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के पास दर्ज हैैं। लेकिन यह हमारी सियासी विरादरी का पाखंड ही है कि दिल्ली की घटना पर तो वे टीवी चैनलों के सामने काफी जोर शोर से इसकी निंदा करते हैैं और विरोध प्रदर्शन में काफी बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते हैैं लेकिन उनके अपने दलों द्वारा शासित राज्यों में होने वाली बलात्कार की घटनाओं को रोकने के लिए वे कोई कारगर प्रयास नहीं करते । दरअसल हमारे सामाजिक वातावरण में जो गिरावट आ रही है, यह उसी का दुष्परिणाम है। हम स्त्री को आजकल हाड़ मांस के इंसान के बदले कमोडिटी समझने लगे हैैं और इसीलिए उसके दुख दर्द से हमारा कोई वास्ता नहीं रहता। हम उसे सिर्फ विलासिता की वस्तु मानकर उसके साथ व्यवहार करते हैैं। टीवी चैनल पर परोसा जाने वाला सांस्कृतिक प्रदूषण इसे लिए काफी हद तक जिम्मेदार है।
जहां तक इस तरह की घटनाओं की रोकथाम का सवाल है तो सिर्फ पुलिस या सरकार इसे नहीं रोक सकती। इसके लिए हमें सिविल डिफेन्स प्रणाली तथा कम्युनिटी पुलिलिंग की व्यवस्था लागू करनी होगी जो इसमें सहयोग कर सके। लेकिन सबसे बड़ी जरूरत समाज की सोच में बदलाव करने तथा परिवार मेंं स्त्री की प्रतिष्ठा को पुनस्र्थापित करने की है क्योंकि इस समस्या की जड़ वही है।
 शर्म के ये आंकड़े
नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार बलात्कार की घटनाओं में तेजी से इजाफा हुआ है। 1971 में बलात्कार के कुल 2043 मामले रिकार्ड किये गए थे जबकि 2011 में इनकी संख्या बढ़कर 24206 हो गई। 2012 के आंकड़ों का जिक्र करें तो राज्यों में मध्यप्रदेश में बलात्कार के सर्वाधिक 3406 मामले रिकार्ड किये गए जबकि साक्षर माने जाने वाले राज्य पश्चिमी बंगाल का इस बदनामी के आंकड़े के हिसाब से दूसरा स्थान रहा जहां 2363 बलात्कार के मामले दर्ज किये गए। इसके बाद बलात्कार सर्वाधिक मामले उत्तरप्रदेश और राजस्थान में रहे। रिकार्ड के हिसाब से उनका संख्या क्रमश: 2042 और 1800 रही।
केंद्र शासित राज्य दिल्ली में 507 मामले तथा मुंबई में 117 मामले रिकार्ड हुए। 1911 में बच्चों के अपहरण और बलात्कार के कुल 9398 मामले सामने आए। ब्यूरो के अनुसार देश मेंं 1953 से बलात्कार के मामलों में 749 फीसदी वृद्धि हुई है।

जनास्था जगाता जुडीशियल एक्टिविज्म
सर्वदमन पाठक

वास्तविक मायने में यह साल जुडीशियल एक्टिविज्म के नाम रहा। भ्रष्टाचार तथा स्वेच्छाचारिता में डूबी सरकार से निराश- हताश लोगों को जुडीशियल एक्टिविज्म के जरिये न्यायपालिका ने यह भरोसा दिलाया कि वह देश के लोगों की उम्मीदों को मुरझाने नहीं देगी।
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जब देश के इतिहास में सबसे बड़े भ्रष्टाचार के मामलों में समुचित न कार्रवाई न होने से देश के लोगों में सरकार के प्रति आक्रोश का ज्वार उमड़ रहा था तब उच्चतम न्यायालय ने इन मामलों में कानून और न्याय के प्रभावी अमल की कमान अपने हाथों में ली और सत्ता सुख भोग रहे मंत्रियों सहित तमाम शक्तिशाली आरोपियों को जेल का रास्ता दिखाकर लोकतंत्र के प्रति लोगों की ध्वस्त होती आस्था को पुन: स्थापित करने में अहम भूमिका निभाई। न्यायपालिका ने विभिन्न चर्चित मामलों में सरकार की ढिलाई के मद्देनजर खुद पहल करते हुए समुचित अदालती तथा कानूनी कार्रवाई कर सरकार को भी आइना दिखाया। इतना ही नहीं, प्रदूषण, रैगिंग तथा आनर किलिंग जैसे सामाजिक सरोकारों से जुड़े मामलों में भी उसने कई ऐसे फैसले दिये जो भविष्य के लिए नजीर बन गए। जनांदोलनों को दबाने के लिए बलप्रयोग तथा झूठे मुकदमे लादने की कशिश पर भी न्यायपालिका ने सरकार को सवालों के कटघरे में खड़ा किया और इस तरह लोकतांत्रिक विरोध को कुचलने की सरकार की प्रवत्ति पर अंकुश लगाने की पहल की। न्यायपालिका ने धर्म पर आधारित आरक्षण के जरिये चुनावों की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को अनैतिक तरीके से प्रभावित करने के सरकारों को इरादों को भी अपने फैसले से निष्प्रभावी कर दिया।
इस साल लोगों में भरोसा जगाने वाले जो बड़े फैसले अदालतों ने किये हैैं, वे इस बात के परिचायक हैैं कि अब न्यायपालिका देश को चिंतित करने वाले मामलों में सरकार के पूर्वाग्र्रहपूर्ण रुख को देखते हुए इनकी न्याय प्रक्रिया को अंजाम तक पहुंचाने के लिए खुद पहल कर रही है। यदि यह कहा जाए कि सरकार पर न्यायपालिका का अविश्वास इस कदर बढ़ गया है कि न्यायपालिका को उन कार्यों को भी हाथ में लेना पड़ रहा है जो मूलत: सरकार की जिम्मेदारियों से जुड़े हैैं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस साल कई मामलों में न्यायपालिका ने जुडीशियल एक्टिविज्म का परिचय देते हुए असाधारण परिस्थितियों के अनुसार असाधारण कार्यवाही की और लोगों को भरोसा दिलाया कि सरकार की अनिच्छा के बावजूद लोगों की न्याय की आस को पूरा किया जाएगा। इन महत्वपूर्ण मामलों का ब्योरा इस प्रकार है:
टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाला: यह देश के इतिहास का संभवत: यह सबसे बड़ा घोटाला था जिसमें कैग की रिपोर्ट के अनुसार देश को लगभग 1 लाख 75 हजार करोड़ का घाटा होने का अनुमान लगाया गया था। इसके बावजूद केंद्र सरकार की इच्छाशक्ति के अभाव मेेंकछुआ चाल से इसकी जांच का काम  
चलता रहा। इससे लोगों में उपजी गहन निराशा की भावना को देखते हुए
उच्चतम न्यायालय ने इस अभूतपूर्व महाघोटाले में फरवरी में जो फैसला दिया वह अपने आप में अनूठा था। शीर्ष अदालत ने केंद्रीय मंत्री के पद पर बैठे शक्तिशाली नेताओं को जेल के सींखचों के पीछे भिजवाने के साथ ही उन्हें अपील के अधिकार से भी वंचित कर दिया। उच्चतम न्यायालय ने सभी अदालतों को निर्देश दिया कि इस मामले से जुड़े मुकदमे न तो सुने जाएं और न ही इन पर कोई आदेश पारित किया जाए।
कसाब को फांसी: देश को दहला देने वाले 26-11 के मुंबई हमले के दोषी पाकिस्तानी नागरिक कसाब को सर्वोच्च न्यायालय ने फांसी की सजा सुना कर एक नजीर पेश की। स्वातंत्र्योत्तर भारत के न्यायिक इतिहास में यह पहला ही अवसर था कि किसी विदेशी को सुप्रीम कोर्ट के आदेश से फांसी पर लटका दिया गया, वह भी इतने गोपनीय तरीके से कि जिसकी भनक सत्ता प्रतिष्ठान पर काबिज शीर्ष हस्तियों तक को नहीं लगी।
कैसा देशद्रोह: कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी पर सिर्फ कार्टूनों की वजह से देशद्रोह का मुकदमा दायर करने वाली पुलिस को अदालत ने काफी कड़ी फटकार लगाई। सारे देश का ध्यान खींचने वाले इस मामले में बंबई उच्च न्यायालय ने पुलिस को खासी फटकार लगाई और उससे सवाल किया कि आखिर क्यों असीम त्रिवेदी पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया जा रहा है। पुलिस ने अदालत के तेवर देखकर अंतत: असीम पर से देश द्रोह का मुकदमा वापस ले लिया।
मुस्लिम आरक्षण रद्द किया: उच्चतम न्यायालय ने मुस्लिमों को आरक्षण संबंधी कानून रद्द कर सरकार को जबर्दस्त झटका दिया। चुनावों में मुस्लिमों का समर्थन पाने के इरादे से लाए गए साढ़े चार फीसदी मुस्लिमों को आरक्षण देने संबंधी प्रस्ताव पर अदालत ने पूछा कि साढ़े चार फीसदी मुस्लिमों को आरक्षण देने से क्या इस कौम का भला हो जाएगा। उसने सरकार से यह भी पूछा कि आखिर यह साढ़े चार फीसदी का आंकड़ा उसने कैसे निकाला। सुप्रीम कोर्ट ने उत्तरप्रदेश सरकार के उस आदेश को भी रद्द कर दिया जिसमें प्रोन्नति में आरक्षण का प्रावधान है। मायावती सरकार द्वारा अपने वोट बैैंक को टारगेट करते हुए किए गए इस प्रावधान पर अदालत ने कहा कि जब तक यह नहीं तय हो जाता कि अन्य वर्गों का पदोन्नति में प्रतिनिधित्व कितना है, इस आरक्षण को मंजूरी नहीं दी जा सकती।
आदर्श हाउसिंग घोटाला: अदालत के कड़े रुख के कारण सीबीआई ने अदालत में इस मामले में जो आरोप पत्र पेश किया, उसके कारण महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को इस्तीफा देना पड़ा और इसके छींटे विलास राव देखमुख पर भी पड़े। इसमें कई वरिष्ठ सैन्याधिकारियों पर भी कार्रवाई हुई जो अपने आप में एक मिसाल है।
सहारा पर नकेल: सुप्रीम कोर्ट ने आर्थिक मामलों से जुड़े भी कुछ प्रकरणों में आम आदमी के हितों के मद्देनजर महत्वपूर्ण फैसले दिये मसलन सहारा समूह द्वारा करोड़ों निवेशकों से वसूले गए 24000 करोड़ रुपए वापस करने का महत्वपूर्ण फैसला देकर अदालत ने छोटे तथा मंझौले निवेशकों के हितों की रक्षा का भरोसा दिलाया। उधर अदालत ने सरकार को वोडाफोन कंपनी के 1100 करोड़ रुपए वापस करने का आदेश दिया। सरकार ने यह राशि वोडाफोन द्वारा विदेश में किये सौदों पर कर लगाकर वसूली थी।

Wednesday, December 19, 2012

 कच्ची उमर में खून का जुनून
सर्वदमन पाठक

रायसेन के बरेली कस्बे में एक स्कूली छात्रा द्वारा मामूली विवाद पर अपनी दोस्त को जिंदा जला डालने की वारदात ने लोगों को सिहरा कर रख दिया है। एक ही कालोनी में आसपास रहने वाली इन छात्राओं के बीच कुछ हजार रुपयों की चोरी को लेकर कुछ समय से विवाद अवश्य चल रहा था लेकिन इस विवाद का अंजाम इतना भयावह होगा, यह तो कोई सोच भी नहीं  सकता था। आरोपी किशोरी ने खुद यह स्वीकार किया है कि उसपर  तथा उसके परिजनों पर चोरी का इल्जाम लगाए जाने से वह काफी गुस्से में थी। घटना की इस पृष्ठभूमि से यही अनुमान लगाया जा सकता है कि संभवत: आरोपों से परिवार की प्रतिष्ठा पर लगे आघात के कारण  वह बदले की आग में जल उठी और उसने यह कदम उठा लिया। हालांकि आग से झुलसी छात्रा ने इससे इंकार किया है। बहरहाल कोई किशोर वय की बच्ची ऐसी बात से अपना दिमागी संतुलन इस हद तक खो देगी और अपनी ही दोस्त को केरोसिन डालकर आग के हवाले कर देने जैसी दर्दनाक मौत देने की कोशिश पर आमादा हो जाएगी, यह कल्पना ही कंपकंपी पैदा कर देने वाली है। अभी यह जानकारी नहीं मिली है कि क्या उक्त आरोपी किशोरी के परिवार की कोई आपराधिक पृष्ठभूमि है लेकिन इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि उसके दिमाग के किसी न किसी कोने में मनोवैज्ञानिक विकृति के बीज पहले से ही मौजूद रहे हों जिसकी वजह से उसके दिमाग में यह शैतानी ख्याल आया और सुनियोजित तरीके से इसे अंजाम देने में उसके हाथ भी नहीं कांपे। सामान्य रूप से परिष्कृत वातावरण में पले बढ़े बच्चे ऐसी जघन्य वारदात का दुस्साहस नहीं कर सकते। वैसे पिछले कुछ समय से स्कूली छात्रों  द्वारा जघन्य अपराधों में लिप्त होने की घटनाएं बढ़ रही हैैं। मनोवैज्ञानिकों के लिए यह एक चिंता का विषय है कि आखिर पढऩे लिखने की छोटी उमर में अपराधों की ओर उनका रुझान क्यों बढ़ रहा है। उत्तेजना के अतिरेक में बहकर ऐसे अपराधों को अंजाम दे देना छात्रों के व्यवहार में पनप रहे गंभीर असंतुलन का परिणाम है और इसके लिए आज का माहौल ही अधिक  जिम्मेदार है। दरअसल आर्थिक मजबूरियों की वजह से माता पिता अपनी व्यासायिक जिम्मेदारियों में इतने मशगूल रहते हैैं कि बच्चों की परवरिश पर ध्यान नही दे पाते। इतना ही नहीं, सांस्कृतिक अवमूल्यन के इस दौर में परिवार के भीतर भी माहौल तेजी से बिगड़ रहा है जिसकी वजह से बच्चों के मानस पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है और वे अपराध के रास्ते पर चल निकलते हैैं। दर्शकों में सनसनी तथा उत्सुकता पैदा करने के लिए फिल्मों तथा टीवी सीरियलों की विषय वस्तु में अपराध-कथाओं का खासा समावेश किया जा रहा है। किशोरों का कच्चा मन इनसे स्वाभाविक रूप से प्रभावित होकर अपराध की ओर प्रवृत्त हो जाता है। दरअसल अधिक से अधिक संसाधन जुटाने तथा आधुनिकता के नाम पर क्लब कल्चर जैसी पाश्चात्य जीवन शैली को अपनाने की अंधी दौड़ में हम उन किशोरों की अनदेखी कर रहे हैैं, जो देश के कल के नागरिक हैैं। यही अनदेखी किशोरों के कच्चे मन पर गहरा प्रतिकूल मनोवैज्ञानिक प्रभाव छोड़ रही है और इसके परिणाम स्वरूप वे अपराधी मानसिकता के शिकार हो रहे हैैं। हम यदि किशोर वय के बच्चों को संगीन जुर्म की गली में जाने से रोकना चाहते हैं तो हमें उनके पारिवारिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक परिवेश को परिष्कृत करना होगा।

Tuesday, December 18, 2012


तोमर का ताज, नए दौर का आगाज

सर्वदमन पाठक

मध्यप्रदेश भाजपा अध्यक्ष पद पर नरेंद्र सिंह तोमर की ताजपोशी के साथ ही भाजपा की प्रादेशिक राजनीति में एक बड़ी तब्दीली की इबारत बखूबी लिख दी गई। यह शायद भाजपा में ही संभव था कि इतनी महत्वपूर्ण घटना को बिना किसी विरोध अवरोध के अंजाम दे दिया गया हालांकि इसकी आकस्मिकता से सब चकित जरूर रह गए। प्रदेश की सियासत की नाड़ी पर हाथ रखे रहने का दावा करने वाले पत्रकारों के लिए इसे एक नाकामी ही माना जाएगा कि दो दिन पहले तक उन्हें भी इसकी भनक तक नहीं लगी। इतना ही नहीं, पूर्व पत्रकार और भाजपा के निवर्तमान अध्यक्ष प्रभात झा के लिये भी यह बदलाव किसी अप्रत्याशित घटना जैसा ही आश्चर्यजनक रहा। यदि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व कुछ ठान ले तो फिर इसके विरोध की गुंजायश काफी कम होती है इसलिए इस मामले में भी विरोध का कोई सवाल ही नहीं था लेकिन प्रभात झा ने तोमर की ताजपोशी के समय जिस तरह से अपनी वेदना जताई, वह भी चुनाव के तौर तरीके के प्रति उनके विरोध प्रदर्शन का ही एक तरीका था। उन्होंने अपने संबोधन में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह पर जिस तरह से निशाना साधा, उससे उनकी बेचैनी का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता था। उन्होंने इस चुनाव में बरती गई गोपनीयता की तुलना पोखरन परमाणु विस्फोट से कर अपनी नाखुशी का इजहार कर दिया हालांकि उन्होंने नवनिर्वाचित अध्यक्ष नरेंद्र सिंह तोमर की तारीफ कर प्रगट रूप से अपनी भावनाओं में संतुलन लाने का प्रयास भी किया। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने यह दर्शाने की कोशिश की कि यह संगठन का फैसला था और इसमें उनकी कोई भूमिका नहीं थी लेकिन यह वास्तविकता अब सबके सामने है कि शिवराज सिंह ने एक निश्चित रणनीति के तहत खुद ही इस परिवर्तन की पटकथा लिखी थी। बहरहाल इसके परिणामस्वरूप अब प्रदेश भाजपा को तोमर के रूप में एक सक्षम तथा चतुर राजनीतिक व्यूहरचनाकार नेतृत्व मिला है जिसमें अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनावों के मद्देनजर वक्त के तकाजों को समझते हुए रणनीति बनाने और उसे अमलीजामा पहनाने की क्षमता है। मुख्यमंत्री के साथ उनके रिश्ते पारस्परिक भरोसे के कितने ऊंचे पायदान पर हैैं, यह उनके चुनाव से ही स्पष्ट हो जाता है। अत: उम्मीद की जा सकती है कि चुनावी तैयारी के इस अहम दौर में सत्ता एवं संगठन के इन दोनों शीर्ष नेतृत्वों के बीच भरपूर तालमेल बना रहेगा। यह पद ग्र्रहण करने के पहले तक तोमर भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव थे। इस नाते उनकी भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी सहित तमाम राष्ट्रीय नेताओं से जो फाइन ट्यूनिंग रही है, वह प्रदेश के विभिन्न कार्यक्रमों और नीतियों के साथ  केंद्रीय नेतृत्व के सहयोग और समन्वय में अवश्य ही मददगार होगी।
इसमें कोई शक नहीं है कि प्रदेश भाजपा अध्यक्ष के रूप में प्रभात झा का कार्यकाल भी उपलब्धियों से भरा रहा है। नगरीय निकायों सहित कई चुनावों में भाजपा को विजयश्री दिलाने में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही है लेकिन उनका पार्टी के प्रति उनका ज्यादा बड़ा योगदान यह रहा है कि वे भ्रष्टाचार के खिलाफ काफी मुखर रहे हैं। संगठन की विभिन्न बैठकों में तो उन्होंने सरकार को भी भ्रष्टाचार से सचेत करने की कोशिश की है जो संभवत: भाजपा के एक वर्ग को रास नहीं आई। इसके अलावा राजनीति में सबको खुश रखने वाली 'साफ्टनेसÓ की जरूरत होती है लेकिन इसके विपरीत विभिन्न मुद्दों पर 'एरोगेंसÓ की हद तक उनकी आग्र्रही प्रवृत्ति भी लोगों को रास नहीं आई जिसका खमियाजा उन्हें भुगतना पड़ा। यदि यह कहा जाए कि स्वाभिमानी पत्रकार का उनका तेवर उनकी सियासत की राह की बाधा बन गया तो गलत नहीं होगा।
कल्पना के कनकौवे उड़ाने में माहिर कुछ राजनीतिक विश्लेषक यह संदेह जता रहे हैैं कि मुख्यमंत्री के इशारे पर संगठन में शीर्ष स्तर पर फेरबदल का यह सिलसिला कहीं प्रदेश को गुजरात की तर्ज पर तो नहीं ले जाएगा जहां नरेंद्र मोदी के सामने भाजपा संगठन की कोई अहमियत ही नहीं रह गई है लेकिन वास्तविकता इसके विपरीत है। शिवराज सिंह काफी 'डाउन टू अर्थÓ हैैं और वे सर्वसमावेशी नेतृत्व में भरोसा रखते हैैं। उनकी हर यात्रा तथा कार्यक्रम में संगठन को पर्याप्त महत्व दिया जाता है। उन्होंने अपने चारों ओर पाखंड की कोई दीवार नहीं बनाई है। यही कारण है कि वे दलीय कार्यकर्ताओं के लिए सहज रूप से सुलभ हैैं। वैसे भी काडर आधारित संगठन होने के नाते भाजपा में व्यष्टि को समष्टि की इकाई के रूप में ही महत्व दिया जाता है। इसलिए राजनीतिक विश्लेषकों की उक्त धारणा का कोई आधार नहीं है। बहरहाल इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि आगामी विधानसभा चुनाव में प्रदेश की सत्ता एवं संगठन के नेतृत्व की मिली जुली रणनीति काफी महत्वपूर्ण रोल अदा करने वाली है जिसकी पृष्ठभूमि इस चुनाव के जरिये तैयार कर ली गई है।

Thursday, December 13, 2012


 अन्नदाता की मौतों पर राजनीति

सर्वदमन पाठक

यह विडंबना ही है कि किसान एक बार फिर राजनीति की बिसात पर मोहरे की तरह इस्तेमाल हो रहा है। मध्यप्रदेश विधानसभा में किसानों की खुदकुशी पर सरकार को घेरने का कांग्र्रेस का प्रयास और सत्ता पक्ष द्वारा इसका प्रतिकार इसी तरह की राजनीति का हिस्सा है। सदन में प्रश्नकाल के दौरान सरकार द्वारा दिया गया जवाब इस राजनीति की वजह बन गया है। इस जवाब में सरकार ने स्वीकार किया है कि राज्य में पिछले आठ माह में 655 किसानों तथा 886 कृषि मजदूरों ने खुदकुशी की है। प्रकारांतर से कहा जाए तो सरकारी आंकड़ों के अनुसार राज्य में प्रतिदिन आठ किसान और कृषि मजदूर मौत को गले लगा रहे हैैं। विपक्ष का आरोप है कि किसानों के प्रति सरकार की संवेदनहीन नीतियों के कारण वे खुदकुशी करने को मजबूर हो रहे हैैं वहीं सरकार का दावा है कि इनकी खुदकुशी की वजह कृषि संबंधी परेशानियां नहीं हैं, बल्कि वे अन्य कारणों से आत्महत्या कर रहे हैैं। विधानसभाध्यक्ष ईश्वरदास रोहाणी ने किसानों की खुदकुशी को व्यवसाय से न जोड़े जाने की बात की जिसका यही निहितार्थ था कि इस मामले को राजनीति से जुड़ी निर्मम बहस से बाहर निकालने तथा इसे मानवीय पहलू से देखने की जरूरत है लेकिन उनकी इस समझाइश को सत्ता एवं विपक्ष दोनों ने ही अनसुना कर दिया।
यदि तथ्यों के प्रकाश में अन्नदाताओं की मौतों का विश्लेषण किया जाए तो विरोधाभासी दृश्य उभरकर सामने आता है। सरकार ने अपने कार्यकाल में किसानों के हित में कई योजनाएं एवं कार्यक्रम चलाए हैैं। किसानों को ब्याजमुक्त ऋण जैसे कई कार्यक्रम इसके गवाह हैैं। सरकार का दावा है कि पिछली कांग्र्रेस सरकार की तुलना में उसने किसानों को काफी सुविधाएं मुहैया कराई हैैं। लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है। राज्य सरकार की योजनाओं का उद्देश्य भले ही किसानों की मदद करना हो लेकिन इनमें जमकर भ्रष्टाचार हुआ है और इसी वजह से इन योजनाओं का लाभ किसानों को समुचित रूप से नहीं मिल पाया है। किसानों के लिए आवंटित भारी भरकम राशि का एक बड़ा हिस्सा भ्रष्ट अफसरों तथा भ्रष्ट नेताओं की जेब में चला गया और इसका परिणाम यह हुआ कि किसानों पर बदकिस्मती का साया ज्यों का त्यों बना रहा। इतना ही नहीं, फसलों के मौसम में किसानों को कम बिजली मिलने से वे अपेक्षा से काफी कम फसल ही ले सके। नकली बीज और खाद की आपूर्ति में भारी किल्लत ने उनकी परेशानियों को दुगना कर दिया। चूंकि किसानों की पूरी अर्थव्यवस्था कृषि पर ही निर्भर करती है और अच्छी फसलों की आशा में वे कर्ज ले लेते हैैं इसलिए फसलों की बर्बादी से उन पर विपत्ति आना स्वाभाविक ही था। अवसाद की ऐसी ही स्थिति उनकी खुदकुशी का कारण बनी हो, इस संभावना से पूरी तरह इंकार नहीं किया जा सकता।
यह सही है कि प्रदेश के किसानों में असंतोष की एक लहर सी उठती देखी जा रही है और विपक्ष किसानों के इस असंतोष को भुनाने में जुटा हुआ है। किसानों की खुदकुशी का मुद्दा उछालने के पीछे भी उसकी यही रणनीति काम कर रही है लेकिन राज्य सरकार इस संवेदनशील मामले से जिस संवेदनहीन तरीके से निपटने की कोशिश कर रही है, वह उसके लिए आत्मघाती ही है। किसानों की खुदकुशी की यदि समुचित जांच की जाए तो उसके कारणों का पता लगाया जा सकता है और कृषि संबंधी कारणों से जिन किसानों की मौतों की बात जांच में उजागर होती है उन्हें मुआवजा देकर सरकार कुछ हद तक किसानों की सहानुभूति हासिल कर सकती है। इससे किसान पुत्र मुख्यमंत्री की छवि तो निखरेगी ही, ग्र्रामीण क्षेत्रों में सरकार के पक्ष में वातावरण बनाने में भी मदद मिलेगी। अच्छा यही होगा कि किसानों को राजनीतिक मोहरे के रूप में इस्तेमाल करने के बदले सत्ता और विपक्ष उनकी पीड़ाओं पर मरहम लगाने तथा उनकी मुश्किलों को हल करने के लिए मिलजुल कर सार्थक प्रयास करे।

Wednesday, December 5, 2012


असुरक्षित नागरिक और बेखौफ अपराधी


सर्वदमन पाठक

भोपाल के व्यस्ततम इलाकों में से एक स्टेट बैैंक चौराहे के सामने स्थित बिजली दफ्तर में कैश काउंटर पर बैठी महिला की दिन दहाड़े हत्या तथा कैश की लूट इस बात की परिचायक है कि राज्य में कानून व्यवस्था की स्थिति कितनी भयावह है। दरअसल राज्य सरकार भले ही प्रदेश में अमन चैन के कितने ही दावे करे लेकिन यह हकीकत उससे भी छिपी नहीं है कि राज्य में अपराधियों के हौसले कितने बुलंद हैैं। राज्य को इस असुरक्षा के माहौल में पहुंचाने के लिए राज्य की पुलिस ही सबसे ज्यादा जिम्मेदार है जो आए दिनों होने वाली अपराधों की गंभीर वारदातों के बावजूद अकर्मण्यता का लिहाफ ओढ़े रहती है। इस मामले में भी पुलिस का ऐसा ही संवेदनहीन रवैया देखा जा रहा है और संभवत: इसी वजह से पुलिस को अभी तक इस मामले में कोई महत्वपूर्ण सुराग हाथ नहीं लग पाया है। बिजली वितरण कंपनी ने हत्या से शोकाकुल परिवार को दो लाख से ऊपर का मुआवजा तथा मृतका का परिजनों में किसी को नौकरी देने का वादा करके उनके आंसू पोंछने की कोशिश अवश्य की है लेकिन इस हत्या से यह सिद्ध हो गया है कि वहां सुरक्षा के पर्याप्त प्रबंध नहीं थे। सच तो यह है कि अपने कर्मचारियों को सुरक्षा प्रदान करने में विद्युत वितरण कंपनी की नाकामयाबी के कारण ही हत्या की यह घटना घटी है। इस घटना से राजधानी की पुलिस की कार्यशैली भी संदेह के कटघरे में आ गई है क्योंकि यह हत्या जिस स्थान पर हुई वह कोहेफिजा थाने से मुश्किल से दो सौ मीटर की दूरी पर है। अपराधी इस वारदात को अंजाम देकर फरार हो गया लेकिन पुलिस को इसकी भनक तक  नहीं लगी। जब पुलिस थाने के अत्यंत ही करीब  स्थित दफ्तर में अपराधी इतनी सनसनीखेज वारदात को अंजाम देकर आराम से बच निकलते हैैं तो फिर अन्य स्थानों की सुरक्षा व्यवस्था कितनी लचर होगी, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है।
पुलिस एवं प्रशासन की लापरवाही की यह कोई अकेली मिसाल नहीं है बल्कि राजधानी सहित संपूर्ण प्रदेश में जघन्य अपराधों की बाढ़ सी आ गई है और पुलिस के चेहरे पर शिकन तक नहीं है। पुलिस केइस निकम्मेपन को लेकर राज्य सरकार की क्षमता पर भी प्रश्न चिन्ह लग रहे हैैं क्योंकि राज्य में कानून व्यवस्था बनाए रखना राज्य सरकार की बुनियादी जिम्मेदारी है। पुलिस की यह अमानवीय संवेदनहीनता दरअसल कई तरह के संदेह उत्पन्न करती है। पुलिस और अपराधियों की सांठगांठ कोई छिपा हुआ तथ्य नहीं है। इसी वजह से कई बार काफी पुख्ता प्रमाण होने के बावजूद पुलिस संगीन जुर्म के अपराधियों के खिलाफ या तो मामला दर्ज नहीं करती और अगर उसे मजबूरन मामला दर्ज करना भी पड़ा तो इतनी कमजोर धाराएं लगाती है कि अपराधी अदालत से छूट जाते हैैं। इसकेअलावा कई बार राजनीतिक दबाव के चलते पुलिस अपराधियों के खिलाफ मामला दर्ज नहीं कर पाती हालांकि ऐसे मामले सरकार की बदनामी का सबब बनते हैैं।
अपराधों में बेतहाशा इजाफे के कारण राज्य में अमन चैन के सरकार के दावों की असलियत सामने आ गई है। इससे नागरिकों को यह महसूस हो रहा है कि वर्तमान सरकार के राज्य में उनका जीवन सुरक्षित नहीं है। राज्य में तीसरी बार सत्ता सिंहासन हासिल करने की उम्मीद कर रही सरकार के लिए यह अच्छा संकेत नहीं है। राज्य सरकार यदि अपनी हेट्रिक सुनिश्चित करना चाहती है तो उसे राज्य में शांति एवं सुरक्षा का वातावरण बनाना ही होगा।

Monday, December 3, 2012

ये पब्लिक है, सब जानती है
सर्वदमन पाठक

 हालांकि अभी मध्यप्रदेश विधानसभा के  चुनाव लगभग एक साल दूर हैैं लेकिन लगता है कि प्रदेश में चुनावी मौसम अभी से दस्तक देने लगा है। सियासी दांवपेंचों में आई तेजी इसी वास्तविकता की ओर संकेत कर रही है। चाहे विपक्ष हो या फिर सत्तारूढ़ दल दोनों ही चुनावी रंग में रंगते नजर आ रहे हैैं। मसलन प्रमुख विपक्षी दल कांग्र्रेस ने पिछले चुनाव के बाद पहली बार किसान सम्मेलनों के बहाने विपक्ष के रूप में अपनी सक्रियता का अहसास कराया है। संदेश स्पष्ट है कि कांग्र्रेस किसानों के असंतोष को भुनाने के लिए यह कदम उठाने जा रही है। उधर सरकार को भी यह अहसास है कि किसानों के भीतर घुमड़ रहे असंतोष के चलते चुनावी जंग में उसे काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है इसलिए वह भी अपने ढंग से इससे निपटने की रणनीति बनाने में जुट गई है। यह सर्वविदित है कि राज्य में इस समय बिजली और सड़क की समस्या से लोगों विशेषत: किसानों का जीना मुहाल है। बिजली की घोषित-अघोषित कटौती के कारण न केवल खेती किसानी, बल्कि रोजमर्रा की जिंदगी में भी किसान बिजली कटौती के झटकों से बेजार हैं। चूंकि खेती पर ही उनकी समूची अर्थव्यवस्था टिकी है, और बिजली कटौती का सर्वाधिक प्रभाव खेती पर पड़ा है, इसलिए उनकी पूरी अर्थव्यवस्था ही गड़बड़ा गई है। इससे सरकार के प्रति उनकी नाराजगी स्वाभाविक ही है। राज्य मंत्रिमंडल की अनौपचारिक बैठक में मंत्रियों द्वारा इन समस्याओं पर दर्शाई गई बेचैनी इसी का प्रमाण है। भले ही सरकार के पास इसका कोई फौरी हल न हो लेकिन उसने इन मुद्दों पर खुद को निर्दोष बताने तथा पूरा का पूरा दोष केंद्र सरकार के सिर मढऩे की पूरी-पूरी तैयारी कर ली है। इस सिलसिले में राज्य मंत्रिमंडल की अनौपचारिक बैठक में तय किया गया है कि पूरा मंत्रिमंडल प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मुलाकात कर प्रदेश के साथ किये जा रहे भेदभाव की शिकायत करेगा। सोची समझी रणनीति के तहत राज्य सरकार प्रधानमंत्री से कहेगी कि केंद्र की भेदभावपूर्ण नीतियों के चलते कोयले की अपर्याप्त आपूर्ति के कारण राज्य को पर्याप्त बिजली उपलब्ध नहीं हो पा रही है। इसके कारण किसानों को राज्य समुचित मात्रा में बिजली उपलब्ध कराने में खुद को असमर्थ पा रहा है। इसी प्रकार राज्य में सड़कों की बदहाली का ठीकरा भी केंद्र के सिर फोडऩे की तैयारी है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने जिस तरह से कैबिनेट की अनौपचारिक बैठक में राष्ट्रीय राजमार्गों की बदहाली के लिए केंद्र सरकार को जिम्मेदार ठहराया है, उससे यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि प्रधानमंत्री से मुलाकात में राष्ट्रीय राजमार्गों की बदहाली को भी पुरजोर तरीके से उठाया जाएगा। इस कवायद का उद्देश्य यही है कि राज्य की जनता को यह समझाने की कोशिश की जाए कि राज्य में सड़कों की बदहाली तथा बिजली संकट के लिए केंद्र सरकार ही जिम्मेदार है। वैसे अपने ऊपर मंडराने वाले किसी भी संकट के लिए केंद्र सरकार को उत्तरदायी ठहराना राज्य सरकार का पुराना फंडा है। इसका प्रमाण यही है कि खुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह बिजली संयंत्रों को अपर्याप्त कोयला आपूर्ति के खिलाफ धरने पर बैठ चुके हैैं।
लेकिन यक्ष प्रश्न यही है कि राज्य सरकार की इस मासूमियत पर जनता कितना भरोसा करेगी। बहरहाल सरकार एवं विपक्ष को यह भलीभांति समझ लेना चाहिए कि अब जनता उनकी चालबाजियों से वाकिफ हो चुकी है और अब लोगों की समस्याओं के हल के ईमानदार प्रयास ही उन्हें संतुष्ट कर सकेंगे, महज शिगूफेबाजी नहीं।
ये पब्लि· है, सब जानती है

सर्वदमन पाठ·

हालां·ि अभी मध्यप्रदेश विधानसभा ·े  चुनाव लगभग ए· साल दूर हैैं ले·िन लगता है ·ि प्रदेश में चुनावी मौसम अभी से दस्त· देने लगा है। सियासी दांवपेंचों में आई तेजी इसी वास्तवि·ता ·ी ओर सं·ेत ·र रही है। चाहे विपक्ष हो या फिर सत्तारूढ़ दल दोनों ही चुनावी रंग में रंगते नजर आ रहे हैैं। मसलन प्रमुख विपक्षी दल ·ांग्र्रेस ने पिछले चुनाव ·े बाद पहली बार ·िसान सम्मेलनों ·े बहाने विपक्ष ·े रूप में अपनी स·्रियता ·ा अहसास ·राया है। संदेश स्पष्ट है ·ि ·ांग्र्रेस ·िसानों ·े असंतोष ·ो भुनाने ·े लिए यह ·दम उठाने जा रही है। उधर सर·ार ·ो भी यह अहसास है ·ि ·िसानों ·े भीतर घुमड़ रहे असंतोष ·े चलते चुनावी जंग में उसे ·ाफी मुश्·िलों ·ा सामना ·रना पड़ स·ता है इसलिए वह भी अपने ढंग से इससे निपटने ·ी रणनीति बनाने में जुट गई है। यह सर्वविदित है ·ि राज्य में इस समय बिजली और सड़· ·ी समस्या से लोगों विशेषत: ·िसानों ·ा जीना मुहाल है। बिजली ·ी घोषित-अघोषित ·टौती ·े ·ारण न ·ेवल खेती ·िसानी, बल्·ि रोजमर्रा ·ी जिंदगी में भी ·िसान बिजली ·टौती ·े झट·ों से बेजार हैं। चूं·ि खेती पर ही उन·ी समूची अर्थव्यवस्था टि·ी है, और बिजली ·टौती ·ा सर्वाधि· प्रभाव खेती पर पड़ा है, इसलिए उन·ी पूरी अर्थव्यवस्था ही गड़बड़ा गई है। इससे सर·ार ·े प्रति उन·ी नाराजगी स्वाभावि· ही है। राज्य मंत्रिमंडल ·ी अनौपचारि· बैठ· में मंत्रियों द्वारा इन समस्याओं पर दर्शाई गई बेचैनी इसी ·ा प्रमाण है। भले ही सर·ार ·े पास इस·ा ·ोई फौरी हल न हो ले·िन उसने इन मुद्दों पर खुद ·ो निर्दोष बताने तथा पूरा ·ा पूरा दोष ·ेंद्र सर·ार ·े सिर मढऩे ·ी पूरी-पूरी तैयारी ·र ली है। इस सिलसिले में राज्य मंत्रिमंडल ·ी अनौपचारि· बैठ· में तय ·िया गया है ·ि पूरा मंत्रिमंडल प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मुला·ात ·र प्रदेश ·े साथ ·िये जा रहे भेदभाव ·ी शि·ायत ·रेगा। सोची समझी रणनीति ·े तहत राज्य सर·ार प्रधानमंत्री से ·हेगी ·ि ·ेंद्र ·ी भेदभावपूर्ण नीतियों ·े चलते ·ोयले ·ी अपर्याप्त आपूर्ति ·े ·ारण राज्य ·ो पर्याप्त बिजली उपलब्ध नहीं हो पा रही है। इस·े ·ारण ·िसानों ·ो राज्य समुचित मात्रा में बिजली उपलब्ध ·राने में खुद ·ो असमर्थ पा रहा है। इसी प्र·ार राज्य में सड़·ों ·ी बदहाली ·ा ठी·रा भी ·ेंद्र ·े सिर फोडऩे ·ी तैयारी है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने जिस तरह से ·ैबिनेट ·ी अनौपचारि· बैठ· में राष्ट्रीय राजमार्गों ·ी बदहाली ·े लिए ·ेंद्र सर·ार ·ो जिम्मेदार ठहराया है, उससे यह अनुमान लगाना ·ठिन नहीं है ·ि प्रधानमंत्री से मुला·ात में राष्ट्रीय राजमार्गों ·ी बदहाली ·ो भी पुरजोर तरी·े से उठाया जाएगा। इस ·वायद ·ा उद्देश्य यही है ·ि राज्य ·ी जनता ·ो यह समझाने ·ी ·ोशिश ·ी जाए ·ि राज्य में सड़·ों ·ी बदहाली तथा बिजली सं·ट ·े लिए ·ेंद्र सर·ार ही जिम्मेदार है। वैसे अपने ऊपर मंडराने वाले ·िसी भी सं·ट ·े लिए ·ेंद्र सर·ार ·ो उत्तरदायी ठहराना राज्य सर·ार ·ा पुराना फंडा है। इस·ा प्रमाण यही है ·ि खुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह बिजली संयंत्रों ·ो अपर्याप्त ·ोयला आपूर्ति ·े खिलाफ धरने पर बैठ चु·े हैैं।
ले·िन यक्ष प्रश्न यही है ·ि राज्य सर·ार ·ी इस मासूमियत पर जनता ·ितना भरोसा ·रेगी। बहरहाल सर·ार एवं विपक्ष ·ो यह भलीभांति समझ लेना चाहिए ·ि अब जनता उन·ी चालबाजियों से वा·िफ हो चु·ी है और अब लोगों ·ी समस्याओं ·े हल ·े ईमानदार प्रयास ही उन्हें संतुष्ट ·र स·ेंगे, महज शिगूफेबाजी नहीं।
टूटती देह की बंदिशें
सर्वदमन पाठक

भारतीय समाज बहुत तेजी से बदल रहा है। उतनी ही तेजी से समाज के  मूल्य भी बदल रहे हैैं। हर क्षेत्र में महिलाएं अपनी कामयाबी का परचम लहरा रही हैैं और पुरुषों को क्षमताओं के मामले में चुनौती दे रही हैैं। शिक्षा, नौकरी तथा अन्य व्यवसाय में उनकी बढ़ती मौजूदगी इसका प्रमाण है। उन क्षेत्रों में भी, जिन पर कभी पुरुषों का एकाधिकार था, अब महिलाओं का खासा दखल देखा जा सकता है। इसका स्वाभाविक परिणाम यह है कि महिलाओं और पुरुषों के बीच की दूरियां नजदीकियों में बदल रही हैैं। हर महानगर तथा महानगर में तब्दील हो रहे शहरों में शिक्षण संस्थाओं तथा व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में अध्ययन, नौकरी या व्यवसाय करने वाले युवक-युवतियों तथा स्त्री-पुरुषों के लिए समाज एवं परिवार की नैतिकता से जुड़ी बंदिशों तथा परंपराओं का बंधन बेमानी हो चला है। यदि और स्पष्ट तरीके से कहा जाए तो वर्तमान दौर में एक नई संस्कृति करवट ले रही है जहां देह की वर्जनाएं टूट रही हैैं। स्त्री पुरुषों के बीच बढ़ती नजदीकियां सिर्फ  दैहिक हों, यह जरूरी नहीं है। उनमें भावनात्मक प्रगाढ़ता भी हो सकती है लेकिन अंतत: देह का आकर्षण ही उनके भावनात्मक लगाव की अभिव्यक्ति के लिए उत्प्रेरक का काम करता है। पुरुषों एवं स्त्रियों के बीच यौन आकर्षण एक स्वाभाविक सी बात है और जब उन्हें अपने घर-परिवार से दूर स्वछंद वातावरण मिल जाए तो यह यौन आकर्षण सीमाओं का अतिक्रमण करने को बेताब उठता है और फिर भावनाओं का प्रवाह एवं दैहिक जरूरतों को पूरा करने की मजबूरी उनके दैहिक संबंधों का बहाना बन जाती है। न केवल दिल्ली, मुंबई, कलकत्ता जैसे महानगर बल्कि भोपाल जैसे बड़े शहरों में भी होटलों, पार्कों एवं एकांत स्थलों में अक्सर देखा जाने वाला एक दूसरे में समाने की कोशिश करता आलिंगनबद्ध जोडों का हुजूम इसी हकीकत को दर्शाता है। वर्जनाहीन संस्कृति का यह परिदृश्य समाज के ठेकेदारों के लिए चिंता का विषय हो सकता है लेकिन यह आज की सामाजिक हकीकत है, इससे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता।
सवाल यह है कि आखिर इस नई संस्कृति के कारण क्या हैैं और क्या इसे विकृति कहना उचित है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि कई बार महिलाओं को अपनी महत्वाकांक्षाओं की कीमत चुकानी पड़ती है। विशेषत: फिल्मों तथा टीवी तथा फैशन शो जैसे शो बिजनेस में काम करने वाली महिलाओं को तो कई बार सफलता की कीमत लोगों को दैहिक दृष्टि से उपकृत करके चुकानी पड़ती है। लेकिन साथ ही महिलाओं में भी यह प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है कि यदि देह की कीमत पर भी उन्हें सफलता मिले तो उन्हें इसमें कोई आपत्ति नहीं होती। स्वेच्छा से देह का सौदा कर सफलता का शार्टकट अपनाना निश्चित ही एक विकृति कही जा सकती है।
आम तौर पर देखा गया है कि सहकर्मियों तथा सहपाठियों में एक दूसरे के साथ ज्यादा संबंध गुजारने के कारण अंतरंग संबंध विकसित हो जाते हैैं और वे कालांतर में यौन संबंध में तब्दील हो जाते हैैं। महानगरों में तो लिव इन कल्चर भी तेजी से पनप रहा है जिसमें बिना वैवाहिक संबंध के बिना ही पुरुष-स्त्री साथ में रहते हैैं और उनमें सेक्स के संबंध भी होते हैैं। आजकल तो इसे कानूनी मान्यता भी मिल गई है। कई देशों में यह चलन पहले से ही चल रहा है लेकिन हमारे देश में भी अब समाज इसे स्वीकारने लगा है। यह एक तरह का सेक्स का नशा है जिसमें विवाह तथा उससे जुड़ी हुई जिम्मेदारियों से मुक्त रहकर व्यक्ति डूब सकता है।
हो सकता है कि वर्तमान दौर में परिजनों तथा अपने जन्म स्थल से दूर रहने के कारण इन तरीकों से युवक युवतियों की दैहिक तथा भावनात्मक जरूरतें पूरी करने में ये तरीके मददगार सिद्ध होते हों लेकिन सवाल यही है कि क्या इससे विवाह पर आधारित हमारे सामाजिक ढांचा क्षतिग्र्रस्त नहीं होगा और हम धीरे धीरे वर्जनाहीन समाज में तब्दील तो नहीं हो जाएंगे। यदि ऐसा हुआ तो यह भारतीय संस्कृति के क्षरण का ही संकेत होगा।
बॉक्स में
वर्जन
जरूरी नहीं है
माना कि समाज के अपने नियम हैं लेकिन सारे नियमों को स्वीकार करना किसी के लिए भी जरूरी नहीं है। फिर जिंदगी हमारी है तो इसे हमें अपनी मर्जी से जीने का पूरा अधिकार मिलना ही चाहिए।
तान्या सबरवाल
बी कॉम, प्रथम वर्ष
एक्सीलेंस कॉलेज

- सारी जिंदगी रहता है
वर्जनाओं को तोड़कर आगे बढऩे वाले युवाओं को कुछ देर का सुख चाहे मिल जाए लेकिन इसके बदले भविष्य में जो भयावह परिणाम सामने आते हैं, उनका असर सारी जिंदगी रहता है। हवा में उडऩे वाले युवाओं को अपनी सोच बदलकर सामाजिक दायरे में रहना सीखना चाहिए।
विजय प्रताप सिंह
बीई तृतीय वर्ष, मैनिट

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बदलाव अस्थायी है
समाज में लगातार बदलाव हो रहे हैं। इन बदलावों का परिणाम ही है कि आज के युवाओं की सोच बदली है। वे पुराने नियमों का पालन करने में विश्वास नहीं करते। जो नयापन उनकी सोच में देखने को मिल रहा है, वह पानी में उठती तरंगों की तरह है जो कुछ समय के लिए उठती हैं और फिर शांत हो जाती हैं। इसी तरह ये बदलाव भी अस्थायी है।
समाजशास्त्री
ज्ञानेंद्र गौतम
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पश्चिमी देशों की नकल है
हमारे देश में पश्चिमी सभ्यता की नकल करने वाले युवाओं की संख्या अधिक है। वे वहां की हर बात की नकल करना चाहते हैं। पश्चिमी देशों की देखादेखी शादी से पहले सेक्स को वे बुरा नहीं मानते। आज के युवाओं को हर चीज जल्दी पा लेने की आदत हो गई है। वे चाहते हैं कि जो भी चीज वो चाहते हैं, वह फौरन उन्हें मिल जाए इसीलिए नई-नई गर्लफ्रेंड बनाने की इच्छा या सेक्स की चाहत भी वे फौरन पूरा कर लेने में विश्वास रखते हैं। इन आदतों की वजह से ही रिश्ते जितनी जल्दी बनते हैं उतनी ही जल्दी खत्म भी हो जाते हैं।
मनोवैज्ञानिक चिकित्सक
डॉ. काकोली राय