Thursday, April 25, 2013

 मप्र भी शर्मसार है चाइल्ड रेप के कलंक से
प्रसंगवश
सर्वदमन पाठक
पांच साल की मासूम बच्ची से बलात्कार की पैशाचिक घटना पर एक बार फिर दिल्ली दहल उठी है। इस घिनौनी हरकत पर लोगों में गुस्से का ज्वार फूट पड़ा है और लोग सड़कों पर उतर आए हैैं। इस मामले में पुलिस के संवेदनहीन रवैये को लेकर लोगों में खासी नाराजी है और इसी वजह से पुलिस आयुक्त को हटाए जाने की मांग करते हुए प्रदर्शन का सिलसिला भी चल पड़ा है। दिल्ली में बलात्कार की इतनी ज्यादा घटनाएं पिछले दिनों हुई हैैं कि अगर इसे रेप केपिटल कहा जाए तो कतई अतिशयोक्ति नहीं होगी। शहरों में दिल्ली रेप के मामले में जितनी कुख्यात है, राज्यों में मध्यप्रदेश की वही स्थिति है। दिल्ली में पैशाचिक दुष्कर्म की शिकार नन्हीं बच्ची का इलाज कर रहे एम्स के डाक्टरों की यह रिपोर्ट थोड़ी राहत भरी है कि उसकी हालत लगातार सुधर रही है और एक सप्ताह में वह लोगों से बात करने की स्थिति में हो जाएगी लेकिन मध्यप्रदेश में सिवनी जिले के घंसौर में दुष्कर्म की शिकार बच्ची , जिसे बेहतर इलाज के लिए जबलपुर से नागपुर ले जाया गया था, अभी भी वेंटिलेटर पर है और चिंताजनक बात यह है कि उसके मस्तिष्क ने काम करना बंद कर दिया है जो उसकी अत्यंत ही नाजुक स्थिति का संकेत देता है। इसी तरह छिंदवाड़ा के तामिया नामक स्थान पर दुष्कर्म की शिकार हुई चार वर्ष की बच्ची की हालत भी नाजुक बनी हुई है। दिल्ली रेप कांड के दोनों आरोपियों को पकड़ लिया गया है लेकिन मध्यप्रदेश में दोनों मामले पुलिस की नाकामी की कहानी कहते हैैं। घंसौर कांड का आरोपी पुलिस की पकड़ से बाहर है। तामिया पुलिस की अमानवीयता का यह आलम है कि तीन घंटे तक खून से लथपथ बच्ची को लिए उसकी मां पुलिस के सामने गिड़गिड़ाती रही लेकिन पुलिस उसकी रिपोर्ट लिखने में आनाकानी करती रही। इस घटना का आरोपी बाद में गिरफ्तार कर लिया गया है लेकिन खरगौन जिले के झिरनिया गांव में छह साल की बच्ची से दुष्कर्म कर उसको मौत के घाट उतार देने वाला चाचा अभी भी पकड़ा नहीं जा सका है। दरअसल महिलाओं के यौन उत्पीडऩ के मामले में मध्यप्रदेश के माथे पर कलंक के टीके की तरह चिपका हुआ एक नंबर छूटने का नाम ही नहीं ले रहा है। एशियन सेंंटर फार ह्यïूमन राइट्स की ताजा रिपोर्ट तो मध्यप्रदेश के लिए शर्म की पराकाष्ठा ही हैै जिसके द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार 2001 से 2011 तक चाइल्ड रेप के सबसे ज्यादा 9465 मामले मध्यप्रदेश में दर्ज किये गए हैैं।
गौरतलब है कि दिल्ली के दिसंबर में हुए सामूहिक रेप कांड के बाद देश भर में जो विरोध और गुस्से की अभूतपूर्व लहर उठी थी, उसके बाद केंद्र की ही तर्ज पर  मध्यप्रदेश ने भी इनकी रोकथाम के लिए महिला हेल्पलाइन सहित कई कदमों की घोषणा की थी लेकिन अमल के स्तर पर अभी भी हालत बहुत ही निराशाजनक है। राज्य सरकार को इस बात पर मंथन करना चाहिए कि उसने महिलाओं के आर्थिक तथा सामाजिक उत्थान के लिए कई कदम उठाये हैैं जिनकी सारे देश में सराहना हो रही है लेकिन आखिर क्या कारण है कि महिलाओं और बच्चियों के यौन उत्पीडऩ की घटनाओं पर अंकुश लगाने में सरकार लगातार नाकामयाब हो रही है। सरकार की यह दलील कुछ हद तक सही हो सकती है कि आम तौर पर बच्चियों के यौन शोषण तथा बलात्कार में उनके करीबी रिश्तेदारों या परिचितों का हाथ होता है इसलिए इन्हें रोकना काफी मुश्किल होता है लेकिन पुलिस तथा प्रशासन द्वारा इस तरह की घटनाओं के प्रति बरती जाने वाली आपराधिक उदासीनता भी ऐसी घटनाओं को जाने अनजाने में बढ़ावा ही देती है। मध्यप्रदेश में यौन उत्पीडऩ के डरावने आंकड़े इसी हकीकत को दर्शाते हैैं। इस समय चाइल्ड रेप के खिलाफ सारे देश में गुस्से का सैलाब आ गया है। मौके की नजाकत को भांपते हुए शिवराज सरकार को पुलिस तथा प्रशासन को ऐसे मामलों में तत्परतापूर्वक कार्रवाई करने के सख्त निर्देश देने चाहिए और इस मामले में ढिलाई बरतने वालों पर सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए। इसके अलावा सरकार को खुद ऐसे घृणित अपराधों के खिलाफ वातावरण बनाने के लिए एक गहन तथा व्यापक अभियान चलाना चाहिए तथा सामाजिक तथा सांस्कृतिक संगठनों को भी इसके खिलाफ गतिशील करना चाहिए ताकिहमारी नारी पूज्या संस्कृति को कलंकित करने वाले असभ्यता के इन अंधेरों पर विजय पाई जा सके।  

जंग लगे हथियारों से चुनावी जंग कैसे लड़ेगी कांग्र्रेस ?
सर्वदमन पाठक
 मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव में जहां एक ओर भाजपा लगातार तीसरी बार सत्ता सिंहासन हासिल करने के लिए ऐड़ी चोटी का जोर लगा रही हैै, वहीं दूसरी ओर सत्ता की मृगतृष्णा में दस साल से भटक रही  कांग्र्रेस येन केन प्रकारेण राज्य विधानसभा की चुनावी जंग के लिए अपने जंग लगे हथियारों पर एक बार फिर धार चढ़ाने में जुट गई है। पिछले कुछ समय से जनसंघर्ष के नाम पर किये जा रहे छुटपुट तथा निहायत ही प्रभावहीन आंदोलनों के बाद अब कांग्र्रेस चुनावी व्यूहरचना के लिए अपने युवराज राहुल गांधी की ओर आशाभरी नजरों से देख रही है। इसी उम्मीद की बेल को परवान चढ़ाने की शुरुआती कड़ी में बुधवार को राहुल गांधी के सानिध्य में चिंतन बैठकों का आयोजन हुआ जिसमें पार्टी के सांसदों, विधायकों तथा पदाधिकारियों ने हिस्सा लिया। चौदह जिलों के प्रतिनिधियों की उपस्थिति में इस बैठक में पार्टी की खूबियों और कमजोरियों पर चर्चा हुई। कार्यकर्ताओं से राहुल गांधी का सीधा संवाद इस बैठक का आकर्षण था। बैठक में पार्टी को मजबूत करने तथा चुनावी तैयारियों के लिए कमर कसने के तौर तरीकों पर चिंतन होना था लेकिन जैसा कि अनुमान था, यह बैठक चिंतन बैठक के बदले चिंता बैठक में तब्दील हो गई। एक दशक से सत्ता का वनवास झेलते झेलते जिस पार्टी का संगठन इस कदर लुंज पुंज हो चुका हो कि चुनावी तैयारियों के लिए उसे कार्यकर्ताओं को टोटा पड़ा हो, उस पार्टी का चिंतित होना स्वाभाविक ही है।
इस बैठक का यह संकेत बिल्कुल स्पष्ट था कि राहुल गांधी पार्टी को मैदानी स्तर पर खड़ा करना चाहते हैैं ताकि वह चुनावी चुनौतियों का सामना करने में समर्थ हो लेकिन बैठक के माहौल से उन्हें यह भली भांति समझ में आ गया होगा कि इस उद्देश्य के रास्ते में कांग्र्रेस के सामने रोड़े ही रोड़े हैैं। इसमें सबसे पहला रोड़ा पार्टी का बदला हुआ चरित्र ही है। दरअसल कांग्र्रेस सूरजमुखी के फूल की मानिंद हो गई है जो सत्ता सूर्य को देखकर ही खिलता है। जाहिर है कि दस साल से सत्ता से दूर कांग्र्रेस पार्टी आजकल निष्ठावान कार्यकर्ताओं की कमी से जूझ रही है। यदि पार्टी योग्य तथा विजयी संभावनाओं वाले प्रत्याशियों का चयन कर उन्हे चुनावी जंग में उतार भी दे तो निष्ठावान कार्यकर्ताओं के अभाव में उनकी जीत की उम्मीदों पर पानी फिर सकता है। पार्टी का दूसरा बड़ा रोड़ा अंदरूनी गुटबाजी की आत्मघाती प्रवृत्ति है। अलग अलग छत्रपों की निष्ठाओं में बंटे प्रदेश कांग्र्रेस के कार्यकर्ता आंतरिक संघर्ष से इस कदर ग्र्रस्त हैं कि विपक्षी पार्टी को हराने के बजाय वे अपनी ही पार्टी के अन्य गुटों के नेताओं को हराने में अपनी शान समझते हैैं।
राहुल गांधी का खुद का नेतृत्व कितना चमत्कारी है, यह कहना काफी मुश्किल है। उत्तरप्रदेश, बिहार तथा गुजरात के चुनावों में कांग्र्रेस की घोर असफलता वहां के कांग्र्रेस संगठनों के मृतप्राय संगठनात्मक ढांचे का ही परिणाम थी इसलिए इन दोनों राज्यों की पराजय का ठीकरा राहुल के सिर फोडऩा उनके साथ अन्याय ही होगा। मध्यप्रदेश में भी कांग्र्रेस संगठन कमोवेश इसी गति को प्राप्त हो गया है इसलिए यहां भी विधानसभा चुनाव में उसकी जीत के लिए पार्टी के संगठनात्मक ढांचे में उत्साह का संचार करने, कार्यकर्ताओं में जीत की अलख जगाने तथा कांग्र्रेस नेतृत्व के चमत्कार की जरूरत होगी। यक्ष प्रश्न यही है कि क्या राहुल गांधी प्रदेश कांग्र्रेस के निराश हताश कांग्र्रेस कार्यकर्ताओं में इस हद तक जान फूंक पाएंगे कि राज्य में कांग्र्रेस की दहलीज पर पहुंच सके। चिंतन बैठक के रूप में उनकी शुरुआती कोशिश पार्टी की उम्मीदों को कितना आगे ले जाती है, यह तो वक्त ही बताएगा।

Wednesday, April 17, 2013

 प्रसंगवश

दृढ़ इच्छाशक्ति के बिना सफल नहीं होगा लोकायुक्त का सुझाव
सर्वदमन पाठक

शिवराज सरकार लगातार दावा करती रही है कि राज्य में नौकरशाही तथा प्रशासनिक मशीनरी में व्याप्त भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए उसने काफी प्रभावी कदम उठाये हैैं। लोकसेवा गारंटी योजना जैसे कदम इसी कोशिश के परिचायक हैैं जिसके दांडिक प्राïवधान काफी सख्त हैैं लेकिन वास्तविकता के धरातल पर ऐसे कदम राज्य के प्रशासनिक भ्रष्टाचार को रोकने में नाकाफी सिद्ध हुए हैैं। राज्य सरकार के प्रत्येक विभाग में सतर्कता अधिकारी की नियुक्ति का राज्य के लोकायुक्त जस्टिस पीपी नावलेकर का सुझाव इसी हकीकत को दर्शाता है। दरअसल लोकायुक्त संगठन भ्रष्ट अफसरों पर कार्रवाई करने में खुद को जिन कारणों से अक्षम पा रहा है, यह सुझाव उनके निवारण के लिए ही दिया गया है। जांच प्रक्रिया का इससे बड़ा मखौल क्या हो सकता है कि जिन अफसर के खिलाफ जांच प्रकरण लंबित हो, वे ही विभागीय स्तर पर जांच करें और उन्हें ही न्यायालय में चालान प्रस्तुत करने की अनुमति देने का अधिकार हो। यह तो कुछ वैसा ही है जैसे किसी अपराध के आरोपी को ही खुद पर फैसला देने का हक मिल जाए। लेकिन मध्यप्रदेश में विभागीय स्तर पर जांच के नाम पर यह गोरखधंधा बखूबी चल रहा है और यह सब उस सरकार की नाक के नीचे चल रहा है जो खुद भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन देने का संकल्प दोहराती रहती है। उदाहरण के तौर पर एपेक्स के अध्यक्ष एवं एमडी के खिलाफ मामले में लोकायुक्त को मात्र इसलिए चालान पेश करने की अनुमति नहीं मिल सकी क्योंकि जिनके खिलाफ प्रकरण दर्ज है, उन्हें ही यह अनुमति देने का अधिकार प्राप्त है। यह एक ऐसी व्यवहारिक अड़चन है जो अन्य विभागों में भी जांच के आड़े आ सकती है। इन परिस्थितियों से निजात पाने के लिए ही लोकायुक्त ने यह सुझाव दिया है। लोकायुक्त का यह मानना है कि इससे प्रक्रिया संबंधी जटिलता दूर हो सकेगी और अपेक्षाकृत कम समय में लोकायुक्त सहित विभिन्न जांच एजेंसियों को जरूरी जानकारी मिल सकेगी। लोकायुक्त ने यह सुझाव केंद्र सरकार की प्रशासनिक व्यवस्था की तर्ज पर दिया है लेकिन इस प्रयोग की सफलता सरकार की संकल्प एवं इच्छाशक्ति पर ही ज्यादा आधारित है। कौन नहीं जानता कि हर विभाग में सतर्कता अधिकारी होने के बावजूद केंद्र की प्रशासनिक मशीनरी में काफी भ्रष्टाचार व्याप्त है। इसका एक दूसरा पहलू यह भी है कि चूंकि प्रशासनिक अधिकारी तथा सत्ता में बैठे राजनेताओं की मिलीभगत भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा कारण है इसलिए अफसरों के भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में राजनीतिक सत्ता की इच्छाशक्ति लगभग शून्य ही होती है। वरना क्या कारण है कि राज्य में भी हर विभाग किसी न किसी मंत्रालय के अधीन है जिनकी बागडोर इनके प्रभारी मंत्रियों के हाथ में ही है लेकिन उसके बाद भी उनमें नियुक्त नौकरशाह अपने उपरोक्त हथकंडों के बल पर अपने खिलाफ जांच को लटकाने में सफल हो जाते हैैं। जस्टिस नावलेकर का सुझाव प्रशासनिक भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की दृष्टि से स्वागत योग्य है लेकिन इसकी सफलता तभी सुनिश्चित हो सकती है जब राजनीतिक सत्ता इस मामले में पर्याप्त इच्छाशक्ति दिखाए। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की मंशा और ईमानदारी पर सवाल भले ही न उठाया जा सके लेकिन वास्तविकता यही है कि राज्य सरकार में अपनी ही योजनाओं पर प्रभावी अमल के लिए जरूरी इच्छाशक्ति का नितांत अभाव है और इसी वजह से लोकसेवा गारंटी योजना जैसी योजनाएं अमल के स्तर पर दम तोड़ रही हैैं। राज्य के सभी विभागों में लोकायुक्त द्वारा सुझाई गई सतर्कता अधिकारियों की नियुक्ति की योजना की सफलता भी सरकार की दृढ़ संकल्पशक्ति के बिना संदिग्ध ही रहेगी।                                   
 प्रसंगवश
द्विअर्थी संवादों का शगल
सर्वदमन पाठक

लगता है कि किसी न किसी तरह सुर्खियों में बने रहना राज्य के आदिवासी कल्याण मंत्री विजय शाह का शगल बन गया है। सुखियां बटोरने का उनका यह शगल कुछ ऐसा है कि जो अनायास ही उनकी बदनामी का सबब बन जाता है। वे संभवत: यह कहावत चरितार्थ करते नजर आते हैैं कि बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा। उनकी इस 'शानदारÓ परंपरा का नया प्रमाण 13 अप्रैल को मिला जब झाबुआ में अजा जजा समर कैंप का उद्घाटन करते हुए उन्होंने तरह तरह की अश्लील टिप्पणियां उछाल दीं। अश्लील संवादों की रौ में उन्होंने यह तक कह दिया कि कोई भी शख्स पहली बार का 'वोÓ कभी नहीं भूलता। जब कलेक्टर जयश्री कियावत ने उनके सामने लड़कियों के लिए ट्रेक सूट की मांग रखी तो उन्होंने कहा कि लड़कियों को मस्त टीशर्ट दे दो। इसके साथ ही वे पूछने लगे कि नीचे जो पहना जाता है, उसे क्या कहते हैैं। जब कुछ श्रोताओं की ओर से आवाज आई 'लोअरÓ तो वे शरारत भरे अंदाज में मुस्करा दिये। उन्होंने अपने भाषण में मुख्यमंत्री की धर्मपत्नी को भी लपेट लिया। विजय शाह का बयान शब्दश: यह था ' मैैंने भाभी जी को कहा कि कभी कभी हमारे साथ भी चला करो, भाई के साथ तो रोज जाते हो।Ó इसी तरह वहां मौजूद भाजपा जिलाध्यक्ष निर्मला भूरिया तथा आईटीडीपी की अध्यक्ष निर्मलाभानु भूरिया नाम की दो नेत्रियों की ओर मुखातिब होते हुए वे बोले कि मुझे अभी अभी पता चला कि झाबुआ में एक के साथ एक फ्री है। 
अश्लील, द्विअर्थी तथा गैरजिम्मेदाराना बयानबाजी उनकी पुरानी आदत है जो छूटने का नाम नहीं लेती। मसलन अभी चंद दिनों पहले ही वे यह कहकर मीडिया की सुर्खियों में आ गये थे कि सरकार बच्चियों की सुरक्षा की गारंटी नहीं ले सकती, उन्हें अपनी सुरक्षा की गारंटी खुद लेनी होगी। खंडवा के एक कार्यक्रम में तो वे अश्लील नृत्य में ठुमके लगाने लगे जिसकी वजह से इलेक्ट्रानिक तथा प्रिंट मीडिया में उनकी खासी किरकिरी हुई थी। लेकिन उनकी ताजा अश्लील तथा द्विअर्थी बयानबाजी से यही प्रतीत होता है कि उनके लिए बदजुबानी की लत कुछ ऐसी आतिश है जो बुझाए नहीं बुझ रही।
उन्हें शायद इस बात का अहसास नहीं है कि उनके इस गैरजिम्मेदाराना आचरण से राज्य सरकार तथा भाजपा को शर्मनाक हालात का सामना करना पड़ता है। इस बार तो उन्होंने मुख्यमंत्री की धर्मपत्नी का नाम लेकर हद ही कर दी है। उनके बयान की सीडी मंत्रालय पहुंच चुकी है और उनपर कार्रवाई की तलवार लटकने लगी है। विजय शाह को अपनी गलतियों का अहसास अवश्य हुआ है और वे जहां तहां सफाई देते घूम रहे हैैं। वे मुख्यमंत्री के सामने भी जल्द ही पेश होकर अपनी सफाई रखने वाले हैैं लेकिन अश्लील तथा आपत्तिजनक शब्दों का तीर उनके तरकश से चल चुका है और विपक्ष ने उनकी इस बयानबाजी को आधार बनाते हुए सरकार पर निशाना साध लिया है। विपक्ष ने मौके की नजाकत को भांपते हुए मुख्यमंत्री से विजय शाह की बर्खास्तगी की मांग कर डाली है। मुख्यमंत्री खुद भी उनके इस आचरण से काफी आहत और नाराज बताए जाते हैैं। वैसे भी मंत्री के रूप में उनका इस तरह का आचरण सरकार के लिए परेशानी का कारण बनता जा रहा है। यह कोई उनका व्यक्तिगत बयान नहीं है जिसकी जिम्मेदारी उनके ऊपर डालकर सरकार बरी हो जाए। उन्होंने यह बयान सरकार के एक मंत्री की हैसियत से दिया है और इस कारण सरकार की प्रतिष्ठा को चोट पहुंची है। भाजपा एक ऐसी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती है जो भारतीय संस्कृति की संवाहक होने का दावा करती है। नारी की गरिमा से खिलवाड़ इस विचारधारा का अपमान है। देखना यह है कि नारी की गरिमा को चोटिल करने वाले मंत्री पर कार्रवाई कर शिवराज सरकार अपनी विचारधारा के साथ न्याय कर पाती है अथवा नहीं।

Wednesday, April 10, 2013

Wednesday, March 20, 2013

दतिया कांड
शर्म की घटना पर उत्तेजना क्यों
सर्वदमन पाठक
दतिया के पास एक गांव में स्विस महिला पर्यटक के साथ सामूहिक बलात्कार की घटना ने हमारे प्रदेश का सिर शर्म से झुका दिया है। देश विदेश के प्रिंट तथा इलेक्ट्रानिक मीडिया ने इस घटना को जिस तरह से हाईलाइट किया, उससे इस घटना की गंभीरता का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। दरअसल प्रदेश में यौन उत्पीडऩ की यह कोई अकेली घटना नहीं है जिसे राज्य सरकार अपवाद बताकर टाल दे। सच तो यह है कि  आंकडों की दृष्टि से पिछले साल मध्यप्रदेश में देश में सर्वाधिक यौन उत्पीडऩ के मामले दर्ज किये गए हैैं। यह घटना सिर्फ यही बताती है कि शीलभंग के मामले में अब पानी सिर से निकल रहा है। संसद के दोनों सदनों तथा मध्यप्रदेश विधानसभा में इस मुद्दे पर सभी पक्षों की ओर से जो चिंता जाहिर की गई है उसे सिर्फ सियासी होहल्ला मानकर खारिज नहीं किया जा सकता। मध्यप्रदेश में कांग्र्रेस ने सड़कों पर उतरकर जो विरोध प्रदर्शन किया है, वह प्रमुख विपक्षी दल होने के नाते उसका अधिकार है और यदि सरकार इस विरोध से विचलित दिख रही है तो यह विपक्ष की सफलता ही है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान कहते हैैं कि इस घटना को राजनीतिक रंग नहीं दिया जाना चाहिए। लेकिन लाख टके का सवाल यही है कि प्रदेश में पूरी तरह से बदरंग नजर आ रहा विपक्ष यदि इस मुद्दे पर जन समर्थन जुटाकर प्रभावी विरोध प्रदर्शन कर सका है तो इस मुद्दे की गंभीरता को सरकार कैसे नजरअंदाज कर सकती है।
लगता है कि हमारी सरकार इन घटनाओं को रोकने की प्रभावी पहल करने के बदले सारा दोष दूसरों पर थोपना चाहती है। मसलन हमारे प्रदेश के स्वनामधन्य गृहमंत्री उमाशंकर गुप्ता कहते हैैं कि यदि उक्त विदेशी बाला अपनी यात्रा की जानकारी स्थानीय अधिकारियों को पूर्व में दे देती तो उसके साथ यह हादसा नहीं हो पाता। इस बयान से गृहमंत्री ने जाने अनजाने  बलात्कार के लिए उक्त स्विस महिला को दोषी ठहरा दिया है। वे यह निश्चित ही नहीं कहना चाहते होंगे कि इसमें बलात्कार करने वालों तथा लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित करने वाली कानून व्यवस्था मशीनरी का कोई दोष नहीं है लेकिन बिना सोचे समझे दिये गए उनके बयान से यह ध्वनि अवश्य निकलती है।  वैसे राज्य की कानून व्यवस्था को लेकर गृहमंत्री या तो काफी खुशफहमी में जीते हैैं या फिर उनमें वास्तविकता को स्वीकार करने का साहस नहीं है। इसी वजह से वे कई बार यह बयान दे चुके हैैं कि राज्य सरकार ने प्रत्येक अपराध को पंजीबद्ध करने के पुलिस को निर्देश दिये हैैं इसलिए ये आंकड़े इतने ज्यादा लगते हैैं। उनका यह बयान भी वास्तविकता से कोसों दूर है। सच तो यह है कि आज भी विभिन्न थानों में शिकायत दर्ज कराने के लिए पहुंचने वाले कितने ही नागरिकों की शिकायतें दर्ज किये बगैर उन्हें दुत्कार कर भगा दिया जाता है। अलबत्ता थानों में निरपराध लोगों का जीना मुहाल कर देने वाले अपराधियों को अघोषित रूप से विशेष अतिथि का दर्जा हासिल होता है और उसी हिसाब से उनकी आवभगत भी होती है। यदि इतनी कड़वी हकीकत के बाद भी प्रदेश में महिलाओं के यौन उत्पीडऩ के मामले इतने भयावह हैैं तो राज्य सरकार को इस हकीकत को स्वीकार कर लेना चाहिए कि वास्तव में प्रदेश में महिलाओं की जिंदगी और अस्मत दोनों ही सुरक्षित नहीं हैैं। राज्य सरकार का दावा है कि वह महिलाओं के कल्याण तथा प्रतिष्ठा की रक्षा के प्रति प्रतिबद्ध है और इसे सुनिश्चित करने के लिए कई योजनाएं चला रही है। लेकिन आंकड़े देखकर तो यही लगता है कि उसकी योजनाएं सिर्फ कागज पर ही चल रही हैैं और महिलाओं की जिंदगी पर इसका कोई खास असर नहीं दिख रहा है। राज्य सरकार को स्विस महिला के साथ बलात्कार की घटना से उत्तेजित होने, झुंझलाने तथा दूसरों पर इसका दोष मढऩे के बदले खुद इसकी जवाबदेही स्वीकार करनी चाहिए और इस बात का संकल्प लेना चाहिए कि वह राज्य में महिलाओं के जीवन और इज्जत से खिलवाड़ करने वाले तत्वों से पूरी सख्ती से निपटेगी और उनके प्रतिष्ठापूर्ण जीवन को सुनिश्चित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ेगी।
न्याय और निहितार्थ
काजल कांड
:
जन भावनाओं के अनुरूप फैसला
सर्वदमन पाठक
सारे देश को झकझोर देने वाले दिल्ली गैैंगरेप कांड का फैसला भले ही अभी तक नहीं हो पाया हो और दोषियों को फांसी की सजा की लोगों की इच्छा न पूरी हो पाई हो लेकिन उससे उपजी चेतना ने बलात्कार और हत्या के रेयरेस्ट आफ द रेयर मामलों में न्यायालयों को शीघ्रातिशीघ्र फैसले के लिए अवश्य प्रेरित किया है। विशेषत: मध्यप्रदेश में तीन दिन में ही इसकी दो नजीर सामने आई हैैं। मसलन इंदौर में तीन वर्षीय बच्ची की शारीरिक तथा यौन यंत्रणा  और हत्या के मामले में कुछ माह में ही उसके चाचा चाची को क्रमश: फांसी तथा आजन्म कारावास की सजा सुनाने के एक दिन के अंतराल से ही भोपाल के काजल हत्याकांड का फैसला भी आ गया है जिसमें अपेक्षा के अनुरूप आरोपी को मौत की सजा सुनाई गई है। काजल हत्याकांड तथा शिवानी प्रकरण में यह समानता थी कि दोनों को उनके परिवार के करीबी व्यक्तियों ने अंजाम दिया था। जहां शिवानी को उसके चाचा चाची ने जुल्म तथा यौन यंत्रणा का शिकार बनाया और बाद में उसकी हत्या कर दी वहीं काजल को उसके मुंह बोले नाना ने अपनी वासना का शिकार बनाया और बाद में उसकी नृशंस हत्या कर दी। भोपाल को काजल हत्याकांड ने झकझोर दिया था। चूंकि यह घटना गृहमंत्री के बंगले के कुछ ही दूरी पर हुई थी इसलिए यह सवाल उठना स्वाभाविक था कि इतने सख्त सुरक्षा वाले क्षेत्र में ऐसी जघन्य वारदात हो सकती है तो फिर अन्य स्थानों पर कानून व्यवस्था की स्थिति कितनी भयावह होगी। इस कांड की वजह से कानून व्यवस्था को लेकर सरकार पर विपक्ष को हमला करने का एक और मौका मिल गया था और विपक्ष ने इसे भुनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी। बहरहाल शिवराज सरकार ने इस मामले में जितनी तेजी के साथ के साथ तहकीकात की, वह असाधारण ही थी। प्रशासन ने इसके लिए भारी भरकम इनाम घोषित किया जिसने जांच में उत्प्रेरक का काम किया। यही वजह थी कि पुलिस ने रिकार्ड समय में आरोपी को धर पकड़ा और तमाम रहस्यों की परतें हटाते हुए इसकी पूरी कहानी को उजागर कर दिया। लेकिन इस जांच का सूत्रधार रहा काजल का छोटा भाई जिसने पहली नजर में ही आरोपी को पहचान लिया। उसके द्वारा दी गई इस जानकारी के आधार पर कि बड़ी बहन काजल को आखिरी बार उसने आरोपी के साथ ही देखा था, पुलिस की जांच को गति मिली। संभवत: यह एक अहम कारण था जिसने अभियोजन पक्ष को रिकार्ड टाइम में आरोप पत्र दाखिल करने में मदद की और अंतत: सिर्फ नौ दिन तक चले मुकदमे में आरोपी को उसके जघन्य कृत्य की सजा सुनाई जा सकी।
अंग्र्रेजी कहावत है 'जस्टिस डिलेड इज़ जस्टिस डिनाइडÓ। कई बार देखा गया है कि देर से मिला न्याय अन्याय से भी ज्यादा दारुण होता है। वैसे भी न्याय में जितना विलंब होता है, उसके गवाहों को प्रभावित करने की संभावना उतनी ही ज्यादा होती है और न्यायालयीन प्रक्रिया को बाधित करने की संभावनाएं उतनी ही ज्यादा होती हैैं। बलात्कार और हत्या के ऐसे दिल दहला देने वाले मामले में तो समाज की भी यही अपेक्षा होती है कि अपराधी को यथाशीघ्र कठोरतम सजा मिले। इस दृष्टि से काजल हत्याकांड का फैसला न्याय की एक बेहतरीन मिसाल है। इससे अपराधी मानसिकता के व्यक्तियों के मन में कानून का भय पैदा होगा और ऐसे जघन्य अपराधों को रोकने में मदद मिलेगी। लेकिन सिर्फ कठोर न्याय से ही ये अपराध रुक सकते हैैं, यह सोचना कुछ अधिक ही आशावादी सोच है। दरअसल हमें यदि इन अपराधों पर प्रभावी रोक लगानी है तो समाज में संस्कारों के परिष्कार का आंदोलन चलाना चाहिए ताकि लोग नारी को सम्मान की नजर से देखें और समाज उसकी जिंदगी और अस्मत की रक्षा को अपना दायित्व समझे।

दरिंदगी की सजा
 सर्वदमन पाठक
यह मंगलवार प्रदेश की औद्योगिक नगरी इंदौर के लिए वास्तव में एक भावुक न्यायिक जीत का दिन था। यह फैसला दरअसल उस मासूम बच्ची के लिए न्यायालय की सही श्रद्धांजलि ही मानी जाएगी जिसकी उसके अपने ही चाचा चाची ने लगभग नौ माह तक जुल्म तथा दुष्कृत्य के बाद लोमहर्षक तरीके से हत्या कर दी थी। उस नन्ही सी बच्ची को बलात्कार सहित जितनी यातनाएं दी गईं, वह किसी के भी रोंगटे खड़े कर देने के लिए काफी है।  इस त्रासद घटनाक्रम को जानने वालों का मानना है कि बच्ची के चाचा को मृत्युदंड तथा चाची को आजन्म कारावास का न्यायालयीन फैसला न्यायिक प्रावधानों के तहत भले ही उचित हो लेकिन इन दरिंदों ने जो कुछ किया है, उसकी उन्हें कितनी भी सजा दी जाए, कम है।
इस घटना के पूरे विवरण को जिसने भी पढ़ा सुना है, वह आसानी से कह सकता है कि यह न्यायालय की परिभाषा में रेयरेस्ट आफ द रेयर केस माना जा सकता है।
दरअसल उस बच्ची के साथ जुल्म, बलात्कार और हत्या का यह दर्दनाक  सिलसिला अमानवीयता की पराकाष्ठा को ही दर्शाता है। इंदौर के लसूडिय़ा थाने के तहत दर्ज इस मामले के अनुसार राजेश ने अपने बड़े भाई की बच्ची शिवानी को जनवरी 2012 में गोद लिया था और तब से से ही वह अपनी पत्नी बेबी के साथ मिलकर बच्ची के साथ जालिमाना व्यवहार तथा बलात्कार करता था। जुल्म का यह रूह कंपा देने वाला सिलसिला 22 सितंबर 2012 को ही थमा जब किस्मत की मारी इस बच्ची की मौत हो गई। राजेश अपनी पत्नी के साथ जब शिवानी के शव को चादर में लपेटकर ठिकाने लगाने ले जा रहा था तभी उनके पड़ौसियों को शक हुआ और उन्होंने पुलिस को इत्तला की जिसके बाद इन दरिंदों को पकड़ा जा सका।
जिन यातनाओं से उस बच्ची को मौत केपहले गुजरना पड़ा, वह किसी के भी हृदय को विगलित कर सकती है। महज चार साल की शिवानी की पोस्ट मार्टम रिपोर्ट के अनुसार उसके शरीर पर चोट के 31 घाव थे जो यह बताने के लिए काफी हैैं कि उसके साथ जब तब पैशाचिकता की हद तक मारपीट की जाती थी। रिपोर्ट के मुताबिक उसके साथ जब तब प्राकृतिक तथा अप्राकृतिक कुकृत्य भी किया जाता था।
पड़ौसियों की गवाही ने पीड़ा की इस कहानी के क्रूर खलनायकों को सजा के तार्किक अंजाम तक पहुंचाने में काफी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। इन पड़ौसियों ने ही बच्ची के साथ हुए वहशियाना जुल्म का विस्तृत विवरण अदालत को दिया और न्याय में उसकी मदद की। लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है। राजेश के जो पड़ौसी बच्ची की मौत के बाद सामने आए और इस घटना के लिए जिम्मेदार पति पत्नी को सजा दिलाने में कारगर रोल अदा किया, यदि वे जुल्म की इस घटनाओं की शुरुआत में ही अपने साहस का परिचय देते और पुलिस को वहां बच्ची के साथ हो रहे पाशविक कृत्यों की जानकारी दे देते तो संभवत: वह बच्ची चाचा चाची के इन भयावह जुल्मों से बच जाती और यों बेमौत मौत का शिकार न होती।
न्यायालय ने कुछ ही महीनों में मानवीय संवेदनाओं को झकझोर देने वाले इस मामले का फैसला सुना दिया जो न्यायालयों की सामाजिक चेतना का परिचायक है। न्यायालयों का यही रुख उसके प्रति लोगों में भरोसा जगाता है।
कोलार: असुविधाओं से मुक्ति की बेताबी
सर्वदमन पाठक

कोलारवासियों को अंतत: काफी इंतजार के बाद राज्य सरकार की ओर से एक अत्यंत ही बेशकीमती तोहफा मिलने जा रहा है। कलेक्टर निकुंज श्रीवास्तव द्वारा कोलार नगर पालिका को भोपाल नगर निगम में विलय करने की सिफारिश राज्य सरकार के पास भेज देने के साथ ही अब इसकी अधिसूचना जारी होने की औपचारिकता ही शेष रह गई है जो शीघ्र पूरी होने की उम्मीद है। दो लाख की आबादी वाले कोलार क्षेत्र के विकास को नई गति देने वाले इस कदम से क्षेत्रवासियों का उत्साहित होना स्वाभाविक है लेकिन अभी यह स्पष्ट नहीं हुआ है कि इस विलय का स्वरूप क्या होगा। प्राप्त संकेतों के अुनसार शुरुआती तौर पर यहां नगर निगम की ओर से नोडल अधिकारी की नियुक्ति होने की संभावना है। यह कदम इसके विकास में मील का पत्थर सिद्ध होगा क्योंकि इससे क्षेत्रवासियों को वे कई सुविधाएं मिल सकेंगी जिससे अभी तक वे वंचित रहे हैैं।
यह बात सर्वविदित है कि पिछले कुछ सालों में इस क्षेत्र ने शहरवासियों की आवास संबंधी जरूरतों को पूरा करने में सराहनीय योगदान दिया है। एक दशक के भीतर ही कोलार बड़े बड़े कालोनाइजरों का   कार्यक्षेत्र बन गया है। अब कोलार के दूरस्थ क्षेत्रों में प्रतिष्ठित कालोनाइजरों द्वारा इतनी विशाल एवं सुंदर कालोनियां विकसित की गई हैैंं जिसकी दो वर्ष पूर्व कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। लेकिन सुविधाओं के अभाव में लोग वहां निवास के लिए आकर्षित नहीं हो पा रहे हैैं। बहुत सारे वे लोग जिन्होंने इन कालोनियों में मकान या फ्लेट बुक कर लिये हैैं, वे भी अब सुविधाहीनता की स्थिति में उन्हें बेचने को मजबूर हो रहे हैैं। हालांकि सिटी लिंक बसें वहां दूर दूर तक जाने लगी हैैं इसलिए लोगों की आवागमन संबंधी असुविधा  कुछ हद तक दूर हुई है लेकिन अभी ऐसे तमाम कारण हैैं जो इन कालोनियों के आबाद होने में रोड़ा बने हुए हैैं। मसलन यहां अच्छी सड़कें अभी भी नहीं बन पाई हैैं जिनसे कालोनियों में लोगों को आने जाने में काफी कठिनाई होती है। यहां प्रकाश व्यवस्था भी अपर्याप्त है जो लोगों की परेशानी का एक बड़ा कारण है। नगर निगम से सीधे तौर पर जुडऩे से इन असुविधाओं से कोलार वासियों को निजात मिलेगी, यह उम्मीद स्वाभाविक रूप से की जा सकती है।
कोलारवासियों की सबसे बड़ी समस्या पेयजल की है। कमोवेश पूरे कोलार क्षेत्र में गर्मी के मौसम में पानी के लिए त्राहि त्राहि मच जाती है। कोलार की पुरानी बस्तियों में यह समस्या कुछ ज्यादा ही विकट है और जहां तहां टेंकरों से जलापूर्ति यहां की आम बात है। कोलारवासियों की सबसे बड़ी पीड़ा यह है कि कोलार पाइप लाइन भोपाल  शहर के एक बड़े हिस्से की प्यास तो बुझाती है लेकिन कोलार के लोग ही इसके पानी से वंचित हैैं। इसी वजह से कोलार में पानी के लिए जब तब आंदोलन होते रहते हैैं और इस बहाने कई नेताओं की नेतागिरी चमकती रहती है।
भोपाल नगर निगम में कोलार नगर पालिका के विलय से इस क्षेत्र के बाशिंदों को जल समस्या से निजात मिलने की पूरी पूरी उम्मीद है क्योंकि तब क्षेत्रवासियों को जल उपलब्ध कराना नगर निगम की जिम्मेदारी होगी।
इसके अलावा कोलारवासियों को राज्य की राजधानी के बाशिंदे होने का गर्व भी इस कदम से महसूस हो सकेगा। भोपाल की पहचान देश की सांस्कृतिक राजधानी के रूप में है और कोलार भी इस गौरव का हिस्सा बन सकेगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि अब इस दिशा में कोई सियासी दांवपेंच आड़े नहीं आएंगे।


हड़ताल का इंतजार क्यों?

सर्वदमन पाठक
हमीदिया अस्पताल तथा सुल्तानिया अस्पताल में जूनियर डाक्टरों की हड़ताल अंतत: खत्म हो गई है और अब वहां चिकित्सा व्यवस्था तकरीबन सामान्य हो चली है। इससे इन अस्पतालों में इलाज कराने वाले आउटडोर तथा इनडोर मरीजों ने राहत की सांस ली है क्योंकि प्रदेश के सबसे बड़े अस्पतालों में शुमार इन अस्पतालों में हड़ताल होने से वहां चिकित्सा व्यवस्था चरमरा गई थी और उन लोगों को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा था जो अपनी आर्थिक सीमाओं के कारण इन अस्पतालों में इलाज कराने के लिए बाध्य हैैं। इन तरह की हड़तालों का एक सकारात्मक पक्ष यह भी है कि इन अस्पतालों की स्वास्थ्य सेवाओं को कोसने तथा कमियां गिनाने वालों को इन अस्पतालों के महत्व का अहसास हो जाता है वरना इन अस्पतालों में 36-36 घंटे लगातार काम करने वाले जूनियर डाक्टरों की व्यथा पर किसी की नजर ही न जाए।
इस वास्तविकता को नकारा नहीं जा सकता कि आम तौर पर चिकित्सा महाविद्यालयों से संबद्ध सरकारी अस्पताल इन जूनियर डाक्टरों के भरोसे ही चलते हैैं लेकिन इन्हीं जूनियर डाक्टरों को जब तब लोगों के दुव्र्यवहार और गुस्से का शिकार होना पड़ता है। यह हड़ताल भी ऐसे ही कारण से हुई थी। आइंदा ऐसी अप्रिय स्थिति न बने, इसके लिए जरूरी है कि उन कारणों पर गौर किया जाए जो ऐसी परिस्थितियों के लिए जिम्मेदार हैैं। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि आउटडोर और इनडोर मरीजों के परिजनों को अपने मरीज ही गंभीर लगते हैैं और वे चाहते हैैं कि उनके मरीज का ही सबसे पहले इलाज किया जाए लेकिन वास्तविक रूप से गंभीर मरीजों की ओर प्राथमिकता क्रम के हिसाब से ध्यान देना डाक्टरों की मजबूरी होती है। आम तौर पर सरकारी अस्पतालों में झगड़े की यह एक प्रमुख वजह होती है। इन बड़े अस्पतालों के साथ एक बड़ी दिक्कत यह भी होती है कि यहां आसपास के कस्बों, गांवों, शहरों तथा जिलों से गंभीर मरीज आते रहते हैैं और उनमें से कई तो मरणासन्न स्थिति में होते हैैं। डाक्टर अपनी ओर से उनके इलाज की पूरी पूरी कोशिश करते हैैं लेकिन डाक्टर कोई भगवान नहीं होता, फिर भी मौत की त्रासदी हो जाने पर उनके परिजनों को यही लगता है कि डाक्टरों की लापरवाही से यह हुआ है। और इसी वजह से अस्पताल में जब तब हंगामे और डाक्टरों के साथ बदसलूकी की घटनाएं होती रहती हैैं। हालांकि यदि विभिन्न वार्डों में केजुएलिटी हो जाती है तो वहां कार्यरत डाक्टरों को भी दुख होता है। चिंतनीय बात यह है कि मीडिया और राजनीतिज्ञ दोनों ही ऐसी घटनाओं को अपने अपने तरीके से भुनाने की कोशिश करते नजर आते हैैं। विपक्ष जहां मौत जैसी दर्दनाक घटना पर भी राजनीतिक रोटियां सेंकने से बाज नहीं आता वहीं मीडिया में भी इन घटनाओं को उछालने की होड़ सी लग जाती है। ऐसे हालात में आरोपों के कटघरे में खड़ी सरकार का पहला प्रयास यही होता है कि ऐसी घटनाओं के लिए आनन फानन में जवाबदेही तय की जाए भले ही जांच में वह प्रमाणित न हो सके। लेकिन जूनियर डाक्टरों को इन सबके लिए जिम्मेदार ठहराना उनके साथ अन्याय ही है। उत्तेजित भीड़ द्वारा बदसलूकी और हाथापाई के समय उनसे धैर्य की अपेक्षा करना उचित नहीं है। दरअसल अस्पताल में सुरक्षा व्यवस्था इतनी पुख्ता होना चाहिए कि डाक्टर वहां बिना किसी भय तथा दवाब के मरीजों का इलाज कर सकें। इस दृष्टि से हंगामा और डाक्टरों से मारपीट करने वालों पर डाक्टर्स प्रोटेक्शन एक्ट के तहत प्रकरण दर्ज करने की कार्रवाई प्रशासन का उचित कदम है। इससे डाक्टरों के कार्य के लिए बेहतर वातावरण पैदा होगा।
यह सरकार की संवेदनशीलता का ही प्रमाण है कि जूनियर डाक्टरों की प्राय: सभी उचित मांगें मान ली जाती हैैं। स्टायपेंड में वृद्धि तथा डाक्टर्स प्रोटेक्शन एक्ट के तहत कार्रवाई जैसे मामले इसके जीते जागते प्रमाण है लेकिन डाक्टरों का धैर्य चुकने और उनके हड़ताल पर जाने के पहले ही उनकी मांगों पर समुचित कार्रवाई हो जाए तो वहां पहुंचने वाले मरीजों को इतनी परेशानियां न उठानी पड़ें।

Friday, March 1, 2013


घटनार्थ

भीड़ के गुस्से में झुलसा गुलाबगंज

सर्वदमन पाठक

गुलाबगंज स्टेशन पर हुए हादसे और उसके बाद हुई हिंसा एवं आगजनी ने सभी को सिहरा दिया है। दो बच्चों के मालगाड़ी के नीचे आकर दम तोड़ देने की घटना से शुरू हुए इस घटनाक्रम ने इतना भयावह मोड़ कैसे ले लिया, यह सवाल सभी के दिलोदिमाग में घूम रहा है। भोपाल के लिए यह घटना इसलिए भी ज्यादा दुखद है क्योंकि ये दोनों बदनसीब बच्चे भोपाल केअशोका गार्डन क्षेत्र के ही रहने वाले थे। बच्चों की दर्दनाक मौत एक हादसा था जबकि उसके बाद गुलाबगंज स्टेशन पर हुई हिंसा तथा आगजनी अनियंत्रित भीड़ के आक्रोश का परिणाम। उक्त हादसे के पीछे क्या वजह रही और क्या वह किसी की गलती अथवा चूक का परिणाम था, यह तो जांच के बाद ही पता चलेगा लेकिन उसके बाद उपजे विस्फोटक हालात से निपटने में नाकामी की वजह स्पष्ट है। कारण चाहे जो भी हों लेकिन सच्चाई यही है कि हालात की भयावहता तथा लोगों के गुस्से का अनुमान लगाने तथा तदनुरूप कार्रवाई करने में रेलवे प्रशासन तथा रेलवे पुलिस नाकाम रही और इसी वजह से गुलाबगंज स्टेशन को आग के हवाले करने में भीड़ सफल हो गई, जिसके फलस्वरूप दो बेगुनाह रेलकर्मियों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। वैसे रेलवे सुरक्षा बल के साथ ही जीआरपी भी रेलवे के अपराध रोकने के लिए उत्तरदायी होती है, लेकिन वह भी इस हिंसा तथा आगजनी को रोकने में अपना रोल समुचित तरीके से नहीं निभा सकी। इस भयावह पैमाने पर हिंसा एवं आगजनी होने की एक वजह यह भी रही कि गुलाबगंज जैसे छोटे स्थान पर न तो स्टेशन और न ही गांव में पर्याप्त सुरक्षा प्रबंध थे जिससे भीड़ इतनी भयावह हिंसा तथा आगजनी करने में कामयाब हो गई।
इस हिंसा एवं आगजनी में अपने दो साथियों की मौत की खबर फैलते ही रेलवे कर्मचारियों का भी गुस्सा फूट पडऩा स्वाभाविक था लेकिन रेल कर्मचारी यूनियनों ने जिस तरह से विभिन्न स्टेशनों पर टिकट खिड़कियां बंद करवा दीं और रिजर्वेशन कराने आए लोगों के साथ अभद्रता की, उसे भी कतई उचित नहीं कहा जा सकता क्योंकि इन लोगों का तो हिंसा एवं आगजनी से कुछ लेना देना नहीं था।
इस हिंसा का एक बड़ा कारण भीड़ का मनोविज्ञान भी है। दरअसल भीड़ केपास विवेक नहीं होता। इसीलिए भीड़ को भावनात्मक रूप से उत्तेजित करना आसान होता है। यह हिंसा और आगजनी भी भीड़ की ऐसी ही उत्तेजना का परिणाम थी। वैसे कई बार ऐसी परिस्थितियों में स्थानीय स्तर पर प्रतिष्ठित व्यक्ति अपनी समझबूझ से ऐसी अनहोनी घटनाओं को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं लेकिन यह घटनाक्रम इतनी तेजी से घटित हुआ कि वहां प्रशासनिक एवं वैयक्तिक स्तर पर भीड़ की उत्तेजना को शांत करने की कोशिश का किसी को भी कोई मौका नहीं मिला।
इस समूचे घटनाक्रम की जांच के आदेश दे दिये गए हैैं और देर सबेर इसकी रिपोर्ट भी आ जाएगी। इसके निष्कर्षों को सबक के तौर पर लिया जाना चाहिए और रेल प्रशासन तथा रेल पुलिस को अपनी गतिशीलता तथा सजगता बढ़ाकर ऐसी घटनाओं को रोकने का प्रयास करना चाहिए। इसके साथ ही हिंसा और आगजनी की ऐसी घटनाओं पर सामूहिक जुर्माने तथा दंड का प्रावधान भी किया जाना चाहिए ताकि ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति को रोका जा सके क्योंकि आजकल बात बात पर हिंसक प्रदर्शन करना फैशन सा बनता जा रहा है। रेल परिसर में ऐसी हिंसा तथा आगजनी की प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाना वक्त का तकाजा है क्योंकि इससे एक ओर तो बेगुनाहों की जानें जाती हंै वहीं दूसरी ओर रेलवे को नुकसान पहुंचा कर हम अपना ही  नुकसान करते हैैं क्योंकि रेलवे सार्वजनिक संपत्ति है और जनता के पैसे से ही रेलवे चलती है।

Thursday, February 21, 2013


सवाल महिलाओं की अस्मिता का

सर्वदमन पाठक

शिवराज सरकार यह दावा करते हुए नहीं थकती कि वह महिलाओं को सम्मान से जीने के लिए जरूरी वातावरण तथा सुविधाएं देने के प्रति प्रतिबद्ध है। सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाएं भी इस दावे का समर्थन करती नजर आती हैैं। लाड़ली लक्ष्मी योजना, कन्यादान योजना जैसी तमाम योजनाएं इसका प्रमाण हैैं। हाल में तो सरकार ने बेटी बचाओ अभियान के जरिये भ्रूण हत्या के खिलाफ जो मुहिम चला रखी है, उसकी सारे देश में तारीफ हो रही है। लेकिन इसके बावजूद प्रदेश में बेटियों की जो तस्वीर उभरती है, वह काफी निराशाजनक है। यह कोई विपक्ष का आरोप नहीं है बल्कि सरकार द्वारा विधानसभा में स्वीकार की गई सच्चाई है, जो मध्यप्रदेश को शर्मिंदा होने पर मजबूर कर देती है। गृहमंत्री द्वारा सदन में पेश किये गए आंकड़ों के अनुसार 1 नवंबर 2012 से 25 जनवरी 2013 के बीच प्रदेश में बलात्कार की 706 घटनाएं घटी हैैं। इनमेंं से 64 सामूहिक बलात्कार की घटनाएं हुईं है। इनमेंं से पांच महिलाओं की हत्या कर दी गई जबकि तीन ने इसके बाद आत्मग्लानिवश खुदकुशी कर ली। बलात्कार की शिकार स्त्रियों में नाबालिग बच्चियां हैैं। सबसे ज्यादा 493 अनुसूचित जाति, जनजाति की महिलाओं के साथ बलात्कार की दरिंदगी की गई है।
राज्य सरकार के लिए यह चिंता का विषय होना चाहिए कि जब उसकी नीतियों और कार्यक्रमों में महिलाओं के कल्याण तथा सम्मान को विशेष महत्ता दी जा रही है, तब आखिर क्या कारण है कि महिलाओं के साथ बलात्कार जैसी दरिंदगी की घटनाएं रुकने के बदले बढ़ती ही जा रही हैैं। राज्य सरकार का यह तर्क समझ से परे है कि उसके कार्यकाल में घटनाओं को पुलिस बाकायदा पंजीबद्ध कर रही है, इसलिए ये आंकड़े बढ़े हुए लग रहे हैैं। उसका यह रुख यही दर्शाता है कि वह इस मामले में चिंता के बदले निहायत ही बेफिक्री की मुद्रा में है और इस भयावह स्थिति के बाद भी अपनी पीठ थपथपाने में लगी हुई है। सरकार को शायद यह आभास नहीं है कि इस तरह के बयानों से यौन अपराधियों का हौसला बढ़ता है। दरअसल राज्य सरकार ने अपने पूरे कार्यकाल में अभी तक कभी भी यौन अपराधियों पर नकेल कसने की कोई मुहिम नहीं चलाई है। आंकड़ों की दृष्टि से मध्यप्रदेश महिलाओं के बलात्कार के मामलों में देश में सबसे आगे है जो प्रदेश के लिए काफी शर्म की बात है। उक्त आंकड़े तो पिछले 86 दिनों के हैैं जब देश में बलात्कार के खिलाफ एक तरह की जागरूकता आई है। दिल्ली के गेंगरेप कांड के बाद चले नारी अस्मिता की रक्षा के सघन अभियान के बावजूद यौन अपराधों में मध्यप्रदेश के ये डराने वाले आंकड़े वास्तव में चिंतनीय हैैं। इसका सीधा सादा मतलब यही है कि यौन अपराधों के मामले में पानी अब सिर के ऊपर से निकलने वाला है और यदि सरकार को वास्तव में महिलाओं की अस्मिता की तनिक भी चिंता है तो उसे स्त्री के साथ बलात्कार जैसे जघन्य अपराध के खिलाफ राज्यव्यापी अभियान चलाना चाहिए। सभी जिलों के आला प्रशासनिक तथा पुलिस अधिकारियों को इन अपराधों पर अंकुश लगाने के सख्त निर्देश दिये जाने चाहिए। ऐसी घटनाओं पर रोक तभी लग सकती है जब प्रशासनिक तथा पुलिस अफसरों को ऐसे मामलों के लिए जवाबदेह ठहराया जाए और उनपर कठोर कार्रवाई की जाए। इसके साथ ही प्रदेश में इन घृणित अपराधों के खिलाफ जनचेतना भी जगाई जानी चाहिए। इसके लिए सरकार को प्रशासन के साथ साथ सामाजिक संगठनों तथा राजनीतिक दलों का भी सहयोग लेना चाहिए क्योंकि समाज की सोच में बदलाव के बिना इन अपराधों पर अंकुश लगाना संभव नहीं है। राज्य में लगभग आधी आबादी महिलाओं की ही है और यदि महिलाओं की जिंदगी और सम्मान की लड़ाई राज्य सरकार द्वारा नहीं जीती गई तो लगातार तीसरी बार सत्ता में आने का भाजपा का सपना टूट भी सकता है।

Tuesday, February 19, 2013


 टकराव की गरमी में झुलसता बसंत 

सर्वदमन पाठक

वैसे तो बसंत पंचमी खुशनुमा मौसम की अंगड़ाई का ही दूसरा नाम है लेकिन धार में शासन प्रशासन को एक बार फिर यह दिन आते ही बसंत के मौसम में तपती गर्मी का अहसास होने लगा है। बसंत पंचमी पर शुक्रवार के संयोग ने भोजशाला में राजनीति का पारा सातवेंं आसमान पर पहुंचा दिया है। हिंदू संगठनों ने इस दिन भोजशाला में सिर्फ वाग्देवी की पूजा की घोषणा की है जबकि प्रशासन चाहता है कि इस दिन वहां नमाज भी हो। प्रशासन ने वहां नमाज के लिए दो  घंटे का समय तय किया है जबकि बाकी समय भोजशाला में वाग्देवी की पूजा की जा सकेगी। प्रशासन ने पूजा और नमाज को निर्विघ्न संपन्न कराने के लिए भोजशाला सहित समूचे धार में पुलिस बल का भारी बंदोबस्त किया है। आसपास के जिलों से भी इस प्रयोजन के लिए पुलिस बल बुला लिया गया है। राज्य सरकार इस मामले में कितनी गंभीर है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि लगभग एक दर्जन हिंदू नेताओं को एहतियात के तौर पर गिरफ्तार कर लिया गया है जिनमें आरएसएस के पूर्व प्रचारक भी शामिल हैैं। पूर्व में यह अनुमान लगाया जा रहा था कि बसंत पंचमी दो दिन पडऩे के कारण गुरुवार और शुक्रवार दोनों ही दिन वाग्देवी का पूजन किया जाएगा और इस कारण प्रशासन को यह लग रहा था कि शुक्रवार को वाग्देवी की पूजा पर दबाव कुछ कम हो जाएगा लेकिन हिंदू संगठनों ने घोषणा की है कि वे शुक्रवार को ही भोजशाला में वाग्देवी की पूजा करेंगे। कुछ संत चाहते हैैं कि वहां सिर्फ वाग्देवी की पूजा हो, नमाज न हो। इनमें वे संत भी शामिल हैैं जो विश्व हिंदू परिषद से जुड़े हुए हैैं। यह एक सर्वविदित तथ्य है कि विश्व हिंदू परिषद आरएसएस का  ही एक आनुषांगिक संगठन है। यह समझना कठिन नहीं है कि संघ अपनी राजनीतिक शाखा भाजपा को चुनावी फायदा पहुंचाने के लिए अपनी धार्मिक शाखा विहिप के जरिये हिंदुत्व का वातावरण बनाने की जो कोशिश कर रहा है, यह उसी का एक हिस्सा है।
इस समूचे परिदृश्य को देखकर यह भ्रम हो सकता है कि भोजशाला को लेकर सरकार और संघ परिवार के एक वर्ग के बीच टकराव की स्थिति बन गई है लेकिन हकीकत में ऐसा कुछ भी नहीं है। दरअसल मध्यप्रदेश में सरकार और हिंदू संगठनों के बीच टकराव का यह जो कृत्रिम वातावरण बनाया जा रहा है, वह संघ परिवार का अंदरूनी मामला है। एक ही परिवार में आखिर झगड़ा कैसा? यह संघ की वैसी ही नीति का फलितार्थ है जिसे संघ के नेता बायफोकल कहते हैैं। इसकी रणनीति कुंभ में ही बन चुकी है जिसके तहत विहिप जहां तहां हिंदुत्व की लहर पैदा करेगी और भाजपा सरकारें उसके साथ जुबानी समर्थन व्यक्त करेंगी लेकिन विकास तथा सद्भाव के सुशासन को अपनी चुनावी मुहिम का आधार बनाएंगी। इस तरह जहां एक ओर हिंदू वोटों का भाजपा के पक्ष में ध्रुवीकरण करने की भरपूर कोशिश होगी वहीं राजग के अन्य सहयोगियों को भी एकजुट रखा जा सकेगा। भाजपा खुद भी इस वास्तविकता को जानती है कि वह अकेले दम पर केंद्र में सत्ता में नहीं आ सकती, इसलिए यह द्विमुखी रणनीति तैयार की गई है। कहने का लब्बोलुवाब यह है कि धार स्थित भोजशाला में सरकार एवं हिंदू संगठनों के बीच टकराव उनकी नूरा कुश्ती है। लेकिन इसका एक सार्थक निष्कर्ष यह भी है कि शिवराज सरकार किसी भी हालत में भोजशाला में वाग्देवी की पूजा और नमाज, दोनों को ही निर्विघ्न संपन्न कराने के लिए कृतसंकल्प है। यह शिवराज सिंह की भेदभावरहित प्रशासन की प्रतिबद्धता का एक प्रमाण है जिसकी तारीफ की जानी चाहिए। उम्मीद की जानी चाहिए कि शिवराज सरकार भोजशाला में किसी भी सूरत में शांति एवं सद्भाव का वातावरण कायम रखेगी और शांति के टापू के रूप में प्रतिष्ठित इस प्रदेश की गरिमा को अक्षुण्ण रखेगी।

प्रदेश चर्चा
कैसे नर्मदा-पूजक हैैं हम?
सर्वदमन पाठक

रविवार को पूरे प्रदेश में नर्मदा जयंती काफी उत्साह के साथ मनाई गई जिसमें राजनीति तथा समाज से जुड़ी हस्तियों के साथ ही विश्व स्तरीय वैज्ञानिकों की भी भागीदारी रही। खुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह  चौहान ने नर्मदा के उद्गम स्थल अमरकंटक तथा होशंगाबाद के सेठानी घाट पर इस कार्यक्रम ने शिरकत कर लोगों को मध्यप्रदेश की लाइफ लाइन नर्मदा को शुद्ध रखने का संकल्प दिलाया और सरकार की ओर से यह भरोसा भी दिया कि वह नर्मदा के शुद्धीकरण में कोई कोर कसर नहीं छोड़ेगी। ओंकारेश्वर में भी लाखों लोगों ने नर्मदा जयंती पर मां नर्मदा का अभिषेक कर उनकी स्तुति की। संस्कारधानी होने के नाते भोपाल नगरी इस मामले कैसे पीछे रहती। यहां भी नर्मदा जयंती के औपचारिक कार्यक्रम के साथ एक महत्वपूर्ण आयोजन विज्ञान भवन में हुआ जहां विश्व के कई जाने माने वैज्ञानिकों ने नर्मदा को प्रदूषण से मुक्त करने के लिए कई उपायों का सुझाव दिया। वैसे तो नर्मदा जयंती पर प्रदेश में लगभग हर वर्ष कार्यक्रमों के आयोजन की परंपरा रही है लेकिन भाजपा के सत्ता में आने के बाद से इस आयोजन की भव्यता बढ़ी है इसमें कोई शक ही नहीं है। भारतीय संस्कृति की ध्वजवाहक होने के दावा करने वाली भाजपा के कार्यकाल कमें  हिंदू संस्कृति से जुड़े आयोजनों को जो महत्ता मिली है, नर्मदा जयंती का राज्यव्यापी आयोजन भी इसी का एक प्रमाण है। चूंकि यह चुनाव वर्ष है इसलिए इस आयोजन के जरिये सरकार अपने वोट बैैंक को रिझाये, इसमें कुछ भी अस्वाभाविक या अनुचित नहीं है। दरअसल शिवराज सरकार के कार्यकाल में नर्मदा के शुद्धीकरण के लिए जो जनचेतना जागी है, सरकार उसके लिए बधाई की पात्र है। लेकिन सिर्फ इतने से ही राज्य सरकार की भूमिका की इतिश्री नहीं हो जाती। कमोवेश हर साल नर्मदा जयंती के आयोजन में सरकार और जनता की श्रद्धापूर्ण भागीदारी होती ही है लेकिन सवाल यही है कि नर्मदा के शुद्धीकरण की दृष्टि से इन आयोजनों का क्या फलितार्थ रहा है। जिस अमरकंटक में शिवराज सिंह नर्मदा जयंती मना रहे थे और उनकी धर्मपत्नी साधना सिंह नर्मदा को 1100 मीटर की चुनरी चढ़ा रही थीं, वहीं से नर्मदा के गंभीर प्रदूषण का सिलसिला शुरू हो जाता है। इस क्षेत्र की बाक्साइट की खदानों से अधिकाधिक दोहन के कारण यहां के जंगलों का भी सफाया काफी हद तक किया गया है जिससे नर्मदा अपने उद्गम स्थल से आगे बढ़ते ही प्रदूषित होने लगती है। इसके अलावा औद्योगीकरण की अंधी दौड़ ने भी नर्मदा के प्रदूषण में काफी इजाफा किया है। नर्मदा में औद्योगिक कचरा डालने के  कारण उसका पानी काफी प्रदूषित होता है। नर्मदा किनारे रहने वाले लोगों का वह वर्ग भी इसके लिए काफी हद तक जिम्मेदार है जो जागरूकता एवं जानकारी के अभाव में नर्मदा में प्रदूषित वस्तुओं को छोड़ देता है।
इन सभी कारणों से कई स्थानों पर तो नर्मदा इतनी प्रदूषित होती है कि उसके जल से आचमन तक नहीं किया जा सकता। पिछले सभी नर्मदा जयंती आयोजनों में नर्मदा के शुद्धीकरण का संकल्प लिया जाता है लेकिन अभी तक इस सिलसिले में कोई ठोस प्रयास हुए हों, ऐसा नजर नहीं आता। मुख्यमंत्री ने नर्मदा के शुद्धीकरण के लिए 1300 करोड़ की योजना की घोषणा की है, इससे नर्मदा शुद्धीकरण के प्रति सरकार की दिली ईमानदारी का आभास होता है लेकिन ये तमाम प्रयास सार्थकतापूर्ण वैज्ञानिक प्रयोगों पर आधारित होने चाहिए। भोपाल में आए अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिकों के सुझाव इसमें महती भूमिका निभा सकते हैैं लेकिन इसमें सबसे बड़ी आवश्यकता है लोगों में नर्मदा को साफ रखने के प्रति चेतना उत्पन्न करने की। इसके लिए सरकार और समाज को मिलकर योजना बनाना चाहिए और उस पर अमल करना चाहिए तभी नर्मदा मां के हम वास्तविक पूजक कहलाने के हकदार होंगे।

Wednesday, February 13, 2013

हाल-ए-भोपाल

 अपराधियों की गिरफ्त में राजधानी
सर्वदमन पाठक

आजकल भोपाल पर अपराधियों की विशेष  'मेहरबानीÓ है। जहां देखो वहां इसके प्रमाण  देखे जा सकते हैैं। इन अपराधियों की वजह से हर तरह नागरिकों का जीना हराम है। कोई भी दिन ऐसा नहीं जाता जब शहर में अपराध की कोई सनसनीखेज वारदात न होती है। पिछले चौबीस घंटे भी इस मायने में कोई अपवाद नहीं रहे हैैं। राजधानी में आम नागरिक  लगभग हर दिन ही लुटता है जो पुलिस की नजर में महत्वहीन घटना होती है। इसी कड़ी में शहर में पिछले चौबीस घंटों में तीन लूट की वारदातें हुई हैैं लेकिन सबसे सनसनीखेज वारदात राजभवन से बमुश्किल सौ मीटर की दूरी पर घटी। राजभवन के ठीक सामने स्थित टाइटन शो रूम में पचास लाख की घडिय़ों की चोरी हो गई और पुलिस को इसकी भनक तक नहीं लगी। चोरों ने पूरे इत्मीनान से इस वारदात को अंजाम दिया, मानो उसे पुलिस का कोई भय न हो। उन्होंने बाकायदा सब्बल से शटर से लगा कांच तोड़ा और उसके बाद शटर का ताला तोड़ा। ये दोनों कारगुजारियां बिना आवाज हो ही नहीं सकतीं। इतना ही नहीं, चोरों ने आराम से छांट छंाटकर सोने की घडिय़ां निकाल लीं। इस पूरे काम में उन्हें काफी समय लगा होगा लेकिन पुलिस कितनी चाक चौबंद थी इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उसे इस पूरे घटनाक्रम का पता तब लगा जब इस शो रूम का मालिक चोरी की रिपोर्ट करने थाने पहुंचा। राजभवन के नजदीक होने के कारण इस स्थान को अतिसुरक्षित क्षेत्रों में माना जाता है। यहां पुलिस से अतिरिक्त रूप से सचेत रहने की अपेक्षा होती है। यह स्थान पुराने भोपाल और नए भोपाल का संगम स्थल है इसलिए यहां दोनों क्षेत्र का पुलिस बल गश्ती पर तैनात रहता है। राजभवन में भी सुरक्षा बल काफी संख्या में होता है लेकिन इस घटना के समय गश्ती पुलिस का कहीं अता पता नहीं था। इससे सिर्फ यही अनुमान लगाया जा सकता है कि गश्ती दल अपने काम की औपचारिकता पूरी करने में भी विश्वास नहीं रखते। हालांकि पुलिस यह दावा लगातार करती रहती है कि रात्रि में गश्ती के दौरान पूरी सावधानी तथा सतर्कता बरती जाती है। जब राजधानी में जहां पुलिस के तमाम आला अधिकारी मौजूद रहते हैैं, कानून व्यवस्था की हालत इतनी खस्ता है तो दूर दराज के इलाके में क्या हाल होता होगा, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है। लेकिन इसकी एक हकीकत और है जिसे पुलिस कभी स्वीकार नहीं करती। दरअसल पुलिस और अपराधियों में रिश्ते काफी मधुर होते हैैं। ये संबंध आम तौर पर पैसे पर टिके होते हैैं। यही वजह है कि ये संबंध इतने मजबूत होते हैैं कि आला अफसर लाख सिर पटक लें, उन्हें तोडऩा तो दूर, जरा सा शिथिल भी नहीं कर पाते। आप यदि किसी अपराधी का नाम तथा हुलिया भी पुलिस को बता दें तो भी पुलिस उसकी गिरफ्तारी से बचने की हरसंभव कोशिश करती है। अलबत्ता सत्ता से जुड़े या बड़े राजनीतिक रसूख वाले व्यक्ति के यहां वारदात हो और सरकार का पुलिस पर अत्यधिक दबाव हो तो रातों रात क्षेत्र के तमाम अपराधियों को  थाने में तलब कर अपराध कबूल करवाया जा सकता है और चोरी का माल बरामद कराया जा सकता है। इसका सीधा सादा आशय यही है कि चोरी, डकैती जैसे तमाम अपराधों में आम तौर पर पुलिस खलनायक के बदले सहायक की भूमिका में होती है। लेकिन अब पुलिस की सोची समझी अकर्मण्यता के कारण जनता अपराधों से त्राहि त्राहि करने लगी है। वास्तविकता यही है सरकार की तीसरी पारी के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा कानून व्यवस्था की दुव्र्यवस्था ही है जिससे आम आदमी की शांति और सुरक्षा खतरे में पड़ गई है। सवाल यही है कि चुनाव के करीब खिसकने के बावजूद सरकार लोगों के भरोसे को दांव पर लगाना पसंद करेगी या फिर प्रशासनिक सख्ती बरतकर लोगों की सुख शांति बहाल करेगी।

Thursday, February 7, 2013


यौन उत्पीडऩ हंसी का विषय नहीं है गृहमंत्री जी
सर्वदमन पाठक

महिलाओं की यौन यंत्रणा के मामले में देश  में प्रथम पायदान तक पहुंच जाने की शर्मनाक उपलब्धि हासिल कर लेने वाले मध्यप्रदेश में एक बार फिर चाइल्ड सेक्स और मर्डर का सनसनीखेज मामला सामने आया है। राज्य में आये दिन होने वाले छेड़छाड़ तथा बलात्कार के हादसे से यह मामला इस मायने मेें भिन्न है कि यह वारदात गृहमंत्री के बंगले से चंद कदम की दूरी पर घटित हुई है जहां कठोर सुरक्षा व्यवस्था की अपेक्षा होती है। इस आठ साल की इस बच्ची को न केवल किसी व्यक्ति ने अपनी हवस का शिकार बनाया बल्कि काफी नृशंस तरीके से उसकी हत्या कर दी गई। हमारी राजधानी पुलिस की लापरवाही का यह आलम है कि उसे इतनी भयावह  घटना की भनक तक नहीं लगी। अलबत्ता घटना की जानकारी मिलने के बाद उसने अपराधी के बारे में जानकारी देने वाले को एक लाख रुपए का इनाम घोषित कर दिया।
दरअसल यह किसी बच्ची के यौन उत्पीडऩ , बलात्कार तथा मर्डर का अकेला वाकया नहीं है जिससे भोपाल पुलिस शर्मसार हुई है। राजधानी में कोई दिन ऐसा नहीं जाता जब ऐसी दिल दहला देने वाली घटनाएं न होती हैैं लेकिन पुलिस की अकर्मण्यता के चलते इन घटनाओं पर रोक के बजाय उनमें इजाफा ही होता जा रहा है। जहां तक सरकार की बात है, उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि हमारा हृदय प्रदेश देश में महिला यौन उत्पीडऩ के मामले में सबसे बदनाम है, बल्कि गृहमंत्री यह कहते हुए अपनी पीठ थपथपाते रहते हैैं कि चूंकिसरकार ने पुलिस को ऐसी हर घटना को पंजीकृत करने तथा उस पर कार्रवाई करने के निर्देश दिये हैैं इसलिए ये आंकड़े काफी बढ़े हुए प्रतीत होते हैैं। हालांकि हकीकत यह है कि पुलिस आज भी यौन यंत्रणा की शिकार कई महिलाओं एवं बच्चियों को बिना रिपोर्ट दर्ज किये लौटा देती है। सरकार ऐसे मामलों में कितनी संवेदनहीन है इसे राज्य सरकार के रुतबेदार मंत्री विजय शाह द्वारा हाल में एक कन्या छात्रावास में दिये गए उस बयान से बखूबी समझा जा सकता है जिसमें कहा गया था कि छात्रावास की बच्चियों की सुरक्षा का सरकार ने कोई ठेका लेकर नहीं रखा है। गृहमंत्री के बंगले के पास हुई इस घटना से लोग इतने क्षुब्ध हैैं कि वे सरकार के खिलाफ सड़क पर उतर चुके हैैं। विपक्ष ने भी इस घटना को भुनाने के लिए गृहमंत्री के खिलाफ प्रदर्शन किया है और राज्य विधानसभा के नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह राहुल ने गृह मंत्री के इस्तीफे की मांग की है। इस पर गृहमंत्री उमाशंकर गुप्ता बेफिक्री के अंदाज में कहते हैैं कि उनका इस्तीफा मांगना विपक्ष का अधिकार है, आखिर वे भी पूर्व के तीस सालों में विपक्ष की भूमिका अदा करते हुए कई बार इस तरह की मांग कर चुके हैैं। विपक्ष की मांग को ठुकराने का उनका यह अंदाज गंभीर मसलों को भी मजाक में उड़ा देने की उनकी जेहनियत को दर्शाता है लेकिन महिला उत्पीडऩ पर लगातार बढ़ रहे जनता के आक्रोश को वे इस तरह हंसी में नहीं उड़ा सकते क्योंकि इस साल के अंत में ही होने वाले राज्य विधानसभा चुनाव में सरकार को इसी जनता का सामना करना है।
पुलिस का दावा है कि वह उक्त नृशंस मामले की गुत्थी को सुलझाने के करीब पहुंच गई है। उम्मीद यही है कि पुलिस जल्द से जल्द इस मामले पर से पर्दा उठा सकती है। सच तो यह है कि गृहमंत्री के बंगले के करीब होने वाली इस वारदात पर मीडिया की नजरें टिकी होने के कारण ही पुलिस ने इसका पर्दाफाश करने में इतनी दिलचस्पी ली है वरना ऐसे बहुत सारे मामले हैैं जिनके आरोपी पुलिस की गिरफ्त से बाहर हैैं।
नारी के सम्मान के लिए बड़े बड़े कदम उठाने का दावा करने वाली सरकार को यदि वास्तव में अपनी राज्य में महिलाओं की गरिमा की रक्षा की इतनी ही चिंता है तो उसे महिलाओं के यौन उत्पीडऩ की घटनाओं को रोकने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंकनी होगी। दिल्ली गेंगरेप कांड के बाद देश में महिलाओं की अस्मिता की रक्षा के लिए आई जागरूकता के परिप्रेक्ष्य में जरूरी है कि राज्य सरकार भी इस जागरूकता को आगे बढ़ाते हुए ऐसे तमाम मामलों में पुलिस एवं प्रशासन की जवाबदेही तय करे तथा उन पर कठोर कार्रवाई करे और इसके साथ ही समाज में नारी की सुरक्षा का माहौल बनाने के प्रभावी प्रयास करे।

Monday, February 4, 2013



किसानों को रिझाने की प्रभावी पहल

सर्वदमन पाठक

किसान पंचायत में उमड़ा किसानों का सैलाब देखकर भाजपा का गद्गद् होना स्वाभाविक ही है। दरअसल चुनावी साल में प्रदेश के सबसे बड़े वोट बैैंक किसानों को आकर्षित करने के उद्देश्य से शिवराज सरकार द्वारा आयोजित किये गए इस समागम की सफलता का यह जीता जागता प्रमाण है। इसकी एक खास विशेषता यह भी थी कि यह पंचायत भाजपा के दो प्रमुख किसान पुत्र नेताओं- पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह तथा प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की गहरी जुगलबंदी की साक्षी बन कर उभरी। जैसी कि कल्पना की जा रही थी, इस मौके को भुनाते हुए शिवराज सिंह ने किसानों को लुभाने के लिए घोषणाओं की झड़ी लगा दी। गेहूं को 1500 रुपए  क्विंटल समर्थन मूल्य पर खरीदने तथा किसानों को डेढ़ सौ रुपए क्विंटल बोनस देने के साथ ही मई से सभी गांवों को चौबीस घंटे बिजली देने का वायदा कर मुख्यमंत्री ने किसानों की वाहवाही लूटने का जो आगाज किया, आधुनिक कृषि तकनीक की जानकारी  के लिए किसानों की विदेश भ्रमण योजना सहित अन्य कई महत्वपूर्ण घोषणाओं से इसे तारीफ के तार्किक अंजाम तक पहुंचा दिया। लेकिन वे इस पंचायत में अपनी सरकार की उपलब्धियों को गिनाने के साथ ही केंद्र पर निशाना साधना भी नहीं भूले। उन्होंने खाद की बढ़ी हुई कीमतों तथा बाढ़ प्रभावितों किसानों के मुआवजे के लिए तय किये गए केंद्र के मापदंड को लेकर केंद्र सरकार को कटघरे में खड़ा किया। मुख्यमंत्री की किसानों के बीच लोकप्रियता की इस मिसाल से प्रभावित राजनाथ सिंह ने जहां एक ओर राज्य सरकार के कामकाज की भूरि भूरि सराहना की वहीं वे भाजपा कार्यकर्ताओं को अतिआत्मविश्वास में न रहने की नसीहत देना भी नहीं भूले। भाजपा के नवनियुक्त अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने राज्य में कृषि विकास दर 18 फीसदी से ज्यादा पहुंचा देने तथा जाने सिंचाई का रकबा 21 लाख हेक्टेयर तक बढ़ा देने के लिए राज्य सरकार की तारीफों के पुल बांध दिये। इस आयोजन में किसानों की भारी उपस्थिति देखकर निश्चित ही भाजपा का दिल बल्लियों उछल रहा होगा क्योंकि शहरों में तो पहले से ही भाजपा का जादू सिर चढ़कर बोलता रहा है लेकिन पिछले कुछ समय से राज्य के विभिन्न अंचलों में चल रहे किसान आंदोलन उसके  लिए परेशानी का सबब बने हुए थे। उल्लेखनीय है कि पिछले कुछ समय से कांग्र्रेस किसानों के इस असंतोष को भुनाने के लिए किसान सम्मेलनों के आयोजन के जरिये किसानों के बीच राज्य सरकार की नीतियों तथा कार्यक्रमों के खिलाफ प्रचार अभियान चला रही थी। कटनी सहित प्रदेश के विभिन्न स्थानों पर किसानों की भूमि के जबरिया अधिग्र्रहण के खिलाफ लोग लामबंद हो रहे थे और ये आंदोलन इतने उग्र्र थे कि पुलिस  तथा प्रशासन को ताकत के बल पर इन्हें दबाने पर मजबूर होना पड़ रहा था। भोपाल के आसपास भी किसान आंदोलन को कुचलने के लिए ताकत का इस्तेमाल किया गया था जिससे किसानों के एक वर्ग में धीरे धीरे सरकार विरोधी माहौल बनने की आशंका जोर पकडऩे लगी थी। ऐसे समय किसान पंचायत के सफल आयोजन से राज्य की भाजपा सरकार और पार्टी, दोनों ने ही राहत की सांस ली है। लेकिन किसानों के समर्थन के मामले में यह तो एक पड़ाव है, मंजिल नहीं। यह सच है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की किसान हितैषी नीतियां तथा कार्यक्रम सरकार के प्रति किसानों में भरोसा जगाते रहे हैैं लेकिन इन नीतियों तथा कार्यक्रम को ईमानदारी के साथ अमलीजामा पहनाना भी उतना ही जरूरी है तभी सरकार को किसानों का पूरा पूरा विश्वास हासिल हो पाएगा और एक बार फिर भाजपा सरकार बनाने का उसका सपना साकार हो पाएगा। इस दिशा में राज्य सरकार को अभी काफी कुछ करना बाकी है।

Friday, January 18, 2013


आंतरिक खतरों से जूझता पाकिस्तान

सर्वदमन पाठक

पाकिस्तान के तीखे तेवर अचानक ही काफूर हो गए हैैं। अभी दो तीन पहले तक आंखें तरेरने वाला पाकिस्तान अब कसमें खाने लगा है कि उसने अपनी सेना को नियंत्रण रेखा का उल्लंघन न करने तथा संघर्ष विराम का सख्ती से पालन करने का आदेश  दे दिया है। इतना ही नहीं, सेना की छुïिट्टयां रद्द करने तथा सीमा पर सेना के जमावड़े की कोशिश करने वाला पाकिस्तान अब अचानक शांति और बातचीत की जरूरत जताने लगा है। ऐसा नहीं है कि एक दो दिन में ही पाकिस्तान का कोई हृदय परिवर्तन हो गया है बल्कि सच तो यह है कि अपनी आंतरिक मजबूरियों की वजह से उसने गिरगिट की तरह रंग बदला है। दरअसल वहां की चुनी हुई सरकार को एक ऐसी चुनौती से रूबरू होना पड़ रहा है जिसकी गंभीरता की उसे भी कल्पना नहीं थी। कनाडा में कुछ समय पहले तक आराम फरमा रहे मौलवी कादरी ने अचानक ही पाकिस्तान में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मुहिम छेड़कर सबको चौंका दिया है। संसद के बाहर धरना देकर सरकार को समझौते के लिए मजबूर करने वाले इस मौलवी ने लगभग दो लाख लोगों का मार्च निकाल कर अपनी ताकत का अहसास करा दिया है। कुछ लोग भारत में अन्ना हजारे के नेतृत्व में चलाए जा रहे आंदोलन से इस धरने की तुलना करते भी देखे जा सकते हैैं लेकिन अन्ना हजारे के आंदोलन में तथा कादरी के आंदोलन में जमीन आसमान का फर्क है। अन्ना का आंदोलन लोकतंत्र को कमजोर करने के लिए नहीं बल्कि उसे मजबूत करने के लिए था लेकिन कादरी का आंदोलन लोकतंत्र की जड़ों पर ही प्रहार के रूप में देखा जा सकता है। वास्तविकता यह है कि वे पाकिस्तान में पूर्व पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के काफी करीब माने जाते हैैं। मुशर्रफ के राष्ट्रपतित्वकाल में ही वे पाकिस्तानी संसद के सदस्य थे। उनकी पाकिस्तान वापसी को देश की सत्ता पुन: हासिल करने के मुशर्रफ के सपने से जोड़कर भी देखा जा रहा है। पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष कयानी की वजह से उनकी पाकिस्तान वापसी संभव हो सकी है क्योंकि खुद कयानी को मुशर्रफ का नजदीकी माना जाता रहा है।
पाकिस्तान में सत्तारूढ़ गठबंधन के मंत्रियों ही नहीं, बल्कि विपक्षी सांसदों पर भी भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैैं। पाकिस्तानी संसद के 70 फीसदी सदस्यों पर भ्रष्टाचार के आरोप हैैं। पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों जिस तरह से सख्ती दिखाई, उसने जहां एक प्रधानमंत्री को पद से हाथ धोना पड़ा वहीं दूसरे प्रधानमंत्री पर भी संकट मंडरा रहा है।  कादरी इसे मुद्दा बनाकर संसद भंग करने तथा नए चुनाव कराने की मांग कर रहे हैैं। यही वजह है कि कादरी के आंदोलन को लोगों का भारी समर्थन प्राप्त हो रहा है। लेकिन उनके बयान उनके इरादों की पोल खोल देते हैैं। वे न केवल सेना और सुप्रीम कोर्ट की तारीफ करते नहीं थकते, बल्कि वे इस बात की भी यदा कदा वकालत करते नजर आते हैैं कि सेना की देखरेख में अंतरिम सरकार का गठन किया जा सकता है। इससे यह अंदाजा लगाना स्वाभाविक है कि उनकी मुहिम को परोक्ष रूप से सेना का समर्थन हासिल है हालांकि वे लगातार इस बात से इंकार करते रहे हैैं। इन तथ्यों के मद्देनजर कुछ राजनीतिक प्रेक्षकों का यह डर भी निराधार नहीं है कि कहींवे सेना के एजेंट के रूप में तो कार्य नहीं कर रहे हैैं।
हकीकत चाहे जो हो लेकिन कादरी का आंदोलन पाकिस्तान में लोकतंत्र के लिए खतरा बनकर उभर रहा है और पाकिस्तान में तख्तापलट तथा सेना के दखल को इस आंदोलन की एक संभावित परिणति पर देखा जा रहा है। आतंकवादियों को पाकिस्तानी सेना का समर्थन एक जग जाहिर तथ्य है। इस परिप्रेक्ष्य में इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है कि वहां लोकतंत्र की विफलता को बहाना बनाकर सेना एक बार फिर सत्ता हथिया ले और दुनिया को दहशतगर्दी का नया दौर देखना पड़े।

Tuesday, January 15, 2013

ताकत की भाषा समझता है पाकिस्तान
सर्वदमन पाठक

नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तानी सेना द्वारा दो भारतीय सैनिकों की हत्या तथा एक का सिर काटकर अपने साथ ले जाने की दरिंदगीपूर्ण घटना से सारे देश में गुस्से की लहर दौड़ गई है। सीमा पर तैनात सैनिकों में इसे लेकर कितनी नाराजी है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने पिछले दो दिनों से कुछ खाया पिया तक नहीं है। वे बस चाहते हैैं कि
किसी भी हालत में पाकिस्तान से इसका बदला लिया जाए। इस बर्बर घटना के खिलाफ देशव्यापी प्रदर्शन किये जा रहे हैैं, जो इस बात का परिचायक है कि देश का मानस पाकिस्तान को उसकी इस जघन्य करतूत का मुंहतोड़ जवाब देने के पक्ष में है। पाकिस्तान का यह दुस्साहस इसलिए हुआ है क्योंकि हमारी सरकार पाकिस्तान के साथ संबंधों का सामान्यीकरण और शांति का राग अलापती रही है। पाकिस्तान के शीर्ष पंक्ति के नेता तक भारत में आकर भड़काने वाले बयान देते हैैं और हम उसे नजरंदाज कर देते हैैं। हम उनके साथ क्रिकेट खेलने तथा बालीवुड के जरिये द्विपक्षीय ताल्लुकात को मजबूत बनाने की बात करते हैैं और पाकिस्तानी सेना संघर्षविराम का लगातार उल्लंघन करती रहती है। हम वीजा नियम शिथिल करने की वकालत करते हैैं और पाकिस्तान दहशतगर्दों के जरिये भारत के खिलाफ प्राक्सी युद्ध चलाता रहता है। हम दुनिया के सामने यह दावा कर करके अपनी पीठ थपथपाते रहते हैैं कि हम पाकिस्तान के साथ अमन की स्थापना में काफी तेजी से आगे बढ़ रहे हैैं, उधर पाकिस्तान विश्व के तमाम मंचों पर कश्मीर का राग अलापने से बाज नहीं आता। यह तो हमारी सरकार की कमजोर पाक नीति की इंतहा ही है कि कारगिल युद्ध के दौरान पकड़े गए सौरभ कालिया सहित पांच सैन्य अफसरों तथा सैन्यकर्मियों के शव अंग भंग कर वह भारत को सौंप देता है और हमारी सरकार पाकिस्तान के साथ शांति और मोहब्बत की पींगें बढ़ाती रहती है।
यह कौन नहीं जानता कि पाकिस्तान दहशतगर्दों की घुसपैठ द्वारा भारत में अशांति फैलाना चाहता है। इस घटना के एक सप्ताह पहले ही दुर्दांत आतंकवादी हाफिज सईद नियंत्रण रेखा के आसपास घूमता देखा गया था जिससे यही संकेत मिलता है कि इस दरिंदगी भरी घटना के पीछे उसका हाथ हो सकता है। गौरतलब है कि पाकिस्तानी सेना तथा आतंकवादियों की सांठगांठ कोई नई बात नहीं है, इसलिए भी इस आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता कि इस घटना के लिए पाकिस्तानी सैनिकों को उसने ही उकसाया हो। सरकार को यह समझ लेना चाहिए कि आततायी पाकिस्तान शांति की भाषा समझने वाला नहीं है। उसे ताकत की भाषा ही समझ में आती है। भारत को पाकिस्तान की इन घृणित करतूतों से निपटने के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए उसके खिलाफ सख्त कदम उठाने होंगे और इसकी झलक सीमा पर दिखनी चाहिए। नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तान  द्वारा जब तब की जाने वाली संघर्षविराम के उल्लंघन की कोशिशों का मुंहतोड़ जवाब देने के लिए हमारी सेनाओं को छूट दी जानी चाहिए और यदि इसके लिए जरूरत हो तो नियंत्रण रेखा पार करने की छूट भी सेना को होनी चाहिए। सरकार को विश्व विरादरी में पाकिस्तान को अलग थलग करने पर अपना ध्यान केंद्रित चाहिए और सीमा पर पाकिस्तान के किसी भी दुस्साहस से निपटने का काम सेना को सौंपा जाना चाहिए।

Thursday, January 10, 2013

हमारी कितनी चिंता है पुलिस को?
सर्वदमन पाठक

भोपाल की पुलिस नागरिकों की सुरक्षा को लेकर कितनी चिंतित है, इसका अनुमान सड़कों पर पुलिस की बढ़ी हुई सक्रियता को देखकर  सहज ही लगाया जा सकता है। इस सदाशयता के लिए पुलिस की तारीफ करनी होगी कि वह हेलमेट न पहनने वाले दुपहिया वाहन चालकों के चालान कर उनमें आत्मरक्षा के लिए हेलमेट पहनने की आदत डाल रही है। हर सड़क, गली, कूचे में पुलिस की टोलियां बाकायदा चाक चौबंद रहती हैैं और उनकी सतर्कता की वजह से कोई भी हेलमेट विहीन दुपहिया वाहन चालक वहां से नहीं गुजर सकता। यदि उसने यह जुर्रत की तो उसे तकरीबन चार सौ रुपए का जुर्माना भरकर अपनी जेब हल्की करने के बाद ही वहां से जाने की अनुमति मिल सकती है। हां, यदि पुलिस अफसर न देख रहे हों तो अवश्य ही सौ-डेढ़ सौ रुपए से सिपाही की मुट्ठी गरम करने से भी काम चल सकता है। लेकिन यह सब परेशानी उन लोगों को ही होती है जो निरीह तथा पुलिस से हुज्जत करने की हिम्मत न रखने वाले आम नागरिक हैैं। रुतबेदार एवं प्रभावशाली लोगों पर पुलिस आम तौर पर हाथ नहीं डालती। वैसे भी पुलिस का यह सिद्धांत है कि वह 'बड़े लोगोंÓ से पंगा नहीं लेती। इसीलिए चार पहिया वाहन में चलने वाले इन बड़े लोगों के खिलाफ छुटपुट कार्रवाई अवश्य होती है लेकिन उनके खिलाफ मुहिम छेडऩे का साहस हमारे शहर की पुलिस नहीं जुटा पाती। बड़े राजनीतिक नेता, बड़े अधिकारी, बड़े अपराधी जैसे चार पहिया वाहनों में सफर करने वाले बड़े लोगों को कानून की कोई परवाह भी नहीं होती। उनमें से कई तो पुलिस कर्मियों तथा पुलिस अफसरों को भी जेब में रखते हैैं तो फिर पुलिस उनका चालान करने की हिम्मत कैसे जुटा सकती है। यदि भूलवश उनका चालान करने की कोशिश की तो चंद ही मिनटों में वे पुलिसकर्मी माफी मांगते भी नजर आ सकते हैैं। वो तो भगवान भला करे सुप्रीम कोर्ट का, जिसके आदेश के बहाने काले शीशे वाले चार पहिया वाहनों के चालान हो रहे हैैं वरना पुलिस यह भी हिम्मत नहीं जुटा पाती।
पुलिस को सड़क दुर्घटना के अन्य कारकों पर भी गौर करके उन पर अंकुश लगाना चाहिए। कौन नहीं जानता कि शहर में अंधाधुंध रफ्तार से दौड़ते ट्रकों, बसों और मिनी बसों पर अंकुश लगाने में पुलिस पूरी तरह नाकाम रही है। इसीलिए आए दिन शहर में जानलेवा एक्सीडेंट हो रहे हैैं। यदि इन बेकाबू रफ्तार वाहनों से आप विनती करें कि वे आपको ज्यादा जोर से टक्कर न मारें तो भी इस बात की विरली ही संभावना बनती है कि आप हेलमेट के भरोसे जान बचा पाएं। यदि आप इस विरली संभावना का लाभ पा जाएं तो अवश्य ही पुलिस को धन्यवाद करना मत भूलिए। वैसे पुलिस को यदि अपनी इस मुहिम से थोड़ी फुरसत मिले तो वह अन्य अपराधों की ओर भी ध्यान दे। जब गेंगरेप को लेकर पूरा देश गुस्से में है, तब भोपाल में खुले आम महिलाओं के साथ छेड़छाड़ की घटनाएं हो रही हैैं, अपराधियों के हौसले इस कदर बुलंद हैैं कि आम आदमी की शांति एवं सुरक्षा खतरे में है। पुलिस इन अपराधियों पर अंकुश लगाने तथा उन पर सख्त कार्रवाई करने के बदले उनसे गलबहियां करती और हफ्ता वसूलती नजर आती है। अपराधियों के हौसले इतने बुलंद हैैं कि शहर के व्यस्ततम स्टेट बैैंक चौराहे के सामने स्थित बिजली आफिस में दिन दहाड़े घुसकर अपराधी एक महिला कर्मचारी का कत्ल कर देते हैैं और पुलिस हत्यारे का पता तक नहीं लगा पाती। पुलिस हेलमेट मुहिम जैसी शूरवीरता के लिए बधाई की पात्र है लेकिन इसके साथ ही शहर के अपराधियों पर भी अंकुश लगाने हेतु प्रभावी कदम उठाए तो अच्छा होगा।

Tuesday, January 1, 2013

साल बदला, क्या हम भी बदलेंगे?
सर्वदमन पाठक

पीड़ा के गहरे अहसास के साथ 2012 हमसे विदा ले चुका है और 2013 ने हमारे द्वार पर दस्तक दे दी है। विडंबना देखिये कि  दिल्ली की दुर्भाग्यपूर्ण घटना से हम इतने शर्मिंदा हैं कि नए साल का नया सूरज भी हमारे मन के सूरजमुखी को खिला नहीं पा रहा है। लेकिन इस त्रासदी का एक पहलू यह भी है कि इसने हमारी आत्मा को बुरी तरह से झकझोर दिया है औरसमाज और सरकार की सोच में बदलाव लाने का संकल्प हमारे मानस में भी आकार ले रहा है। संभवत: पहली बार ऐसा हुआ है कि इस घटना से उपजे आक्रोश का जनज्वार सड़कों पर उमड़ पड़ा है। ये किसी सियासी दल के उन्मत्त समर्थकों की विवेकहीन भीड़ नहीं है जो किसी नेता के इशारे पर नाचती हो बल्किकालेजों में पढऩे लिखने वाले युवक युवतियां का हुजूम है। स्वप्रेरणा से शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन कर रहे युवा पीढ़ी के इन नुमांयदों को न तो टीवी चैनलों पर अपना चेहरा चमकाने की चाहत है और न ही वे सियासतदानों की तरह सत्ता और सुविधा की बंदरबांट के खेल का हिस्सा हैैं। वे तो सिर्फ स्त्री जाति की अस्मिता और जिंदगी की सुरक्षा के लिए समुचित वातावरण चाहते हंै। दिल्ली की बदनसीब पेरा मेडिकल छात्रा से बलात्कार करने वाले दरिंदों को समुचित सजा मिले और आइंदा कोई और स्त्री ऐसी यौन हिंसा की शिकार न बने, उनकी यही मांग है। फांसी की मांग इस घटना के प्रति उनके गुस्से की चरम परिणति का ही प्रतीक है। भले ही कुछ  सियासतदां उनके इस आक्रोश को भुनाने की फिराक में हैैं लेकिन ये युवक युवतियां इनके हाथों में खेलने वाली कठपुतलियां नहीं है। वे तो तब तक अपने संघर्ष को जारी रखने के लिए प्रतिबद्ध हैैं जब तक सरकार और समाज की ओर से स्त्रियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए ठोस कदम नहीं उठाए जाते। आश्चर्य की बात है कि इस हृदय विदारक घटना के  बावजूद न केवल दिल्ली में बल्कि देश के अलग अलग हिस्सों से नारी की अस्मिता से खिलवाड़ की खबरें लगातार मिल रही हैैं जो इस बात का प्रमाण है कि केंद्र एवं राज्य सरकारों में इनकी रोकथाम के लिए समुचित राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं है। वरना क्या वजह है कि सत्ताधीशों की जीहूजूरी तथा सुरक्षा में चौबीसों घंटे मुस्तैद रहने वाली पुलिस, महिलाओं के साथ छेड़छाड़ तथा बलात्कार को रोकने में कोई खास रुचि नहीं ले रही है।
इसका एक पक्ष यह भी है कि सिर्फ सरकार और पुलिस के भरोसे महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं हो सकती। अधिकांश मामलों में परिचित या रिश्तेदार के हाथों ही स्त्री छली जाती है। इसलिए जब तक हम अपने परिवार एवं समाज में ऐसा वातावरण नहीं बनाते जिसमें महिलाओं को सम्मान की नजर से देखा जाए तब तक कुछ भी बदलने वाला नहीं है। इसलिए स्त्री अस्मिता और जिंदगी की सुरक्षा के लिए पहली और अनिवार्य शर्त समाज एवं परिवार की सोच में बदलाव लाना है। लेकिन इतना तय है कि युवा वर्ग के आंदोलन की तपिश ने सरकार और समाज दोनों को आत्म चिंतन एवं आत्म परिष्कार के लिए मजबूर कर दिया है। महिलाओं की सुरक्षा के ध्येय की प्राप्ति तक इस आंदोलन की आग बुझने वाली नहीं है। इससे उत्पन्न जनचेतना की नई लहर खुद बदलाव की इबारत लिखने में सक्षम है। अच्छा यही होगा कि वक्त की नजाकत को भांपते हुए सरकार और समाज बदलाव को स्वीकारे और नारी के सम्मान के इस महायज्ञ में सार्थक भागीदारी करे।