Friday, January 18, 2013


आंतरिक खतरों से जूझता पाकिस्तान

सर्वदमन पाठक

पाकिस्तान के तीखे तेवर अचानक ही काफूर हो गए हैैं। अभी दो तीन पहले तक आंखें तरेरने वाला पाकिस्तान अब कसमें खाने लगा है कि उसने अपनी सेना को नियंत्रण रेखा का उल्लंघन न करने तथा संघर्ष विराम का सख्ती से पालन करने का आदेश  दे दिया है। इतना ही नहीं, सेना की छुïिट्टयां रद्द करने तथा सीमा पर सेना के जमावड़े की कोशिश करने वाला पाकिस्तान अब अचानक शांति और बातचीत की जरूरत जताने लगा है। ऐसा नहीं है कि एक दो दिन में ही पाकिस्तान का कोई हृदय परिवर्तन हो गया है बल्कि सच तो यह है कि अपनी आंतरिक मजबूरियों की वजह से उसने गिरगिट की तरह रंग बदला है। दरअसल वहां की चुनी हुई सरकार को एक ऐसी चुनौती से रूबरू होना पड़ रहा है जिसकी गंभीरता की उसे भी कल्पना नहीं थी। कनाडा में कुछ समय पहले तक आराम फरमा रहे मौलवी कादरी ने अचानक ही पाकिस्तान में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मुहिम छेड़कर सबको चौंका दिया है। संसद के बाहर धरना देकर सरकार को समझौते के लिए मजबूर करने वाले इस मौलवी ने लगभग दो लाख लोगों का मार्च निकाल कर अपनी ताकत का अहसास करा दिया है। कुछ लोग भारत में अन्ना हजारे के नेतृत्व में चलाए जा रहे आंदोलन से इस धरने की तुलना करते भी देखे जा सकते हैैं लेकिन अन्ना हजारे के आंदोलन में तथा कादरी के आंदोलन में जमीन आसमान का फर्क है। अन्ना का आंदोलन लोकतंत्र को कमजोर करने के लिए नहीं बल्कि उसे मजबूत करने के लिए था लेकिन कादरी का आंदोलन लोकतंत्र की जड़ों पर ही प्रहार के रूप में देखा जा सकता है। वास्तविकता यह है कि वे पाकिस्तान में पूर्व पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के काफी करीब माने जाते हैैं। मुशर्रफ के राष्ट्रपतित्वकाल में ही वे पाकिस्तानी संसद के सदस्य थे। उनकी पाकिस्तान वापसी को देश की सत्ता पुन: हासिल करने के मुशर्रफ के सपने से जोड़कर भी देखा जा रहा है। पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष कयानी की वजह से उनकी पाकिस्तान वापसी संभव हो सकी है क्योंकि खुद कयानी को मुशर्रफ का नजदीकी माना जाता रहा है।
पाकिस्तान में सत्तारूढ़ गठबंधन के मंत्रियों ही नहीं, बल्कि विपक्षी सांसदों पर भी भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैैं। पाकिस्तानी संसद के 70 फीसदी सदस्यों पर भ्रष्टाचार के आरोप हैैं। पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों जिस तरह से सख्ती दिखाई, उसने जहां एक प्रधानमंत्री को पद से हाथ धोना पड़ा वहीं दूसरे प्रधानमंत्री पर भी संकट मंडरा रहा है।  कादरी इसे मुद्दा बनाकर संसद भंग करने तथा नए चुनाव कराने की मांग कर रहे हैैं। यही वजह है कि कादरी के आंदोलन को लोगों का भारी समर्थन प्राप्त हो रहा है। लेकिन उनके बयान उनके इरादों की पोल खोल देते हैैं। वे न केवल सेना और सुप्रीम कोर्ट की तारीफ करते नहीं थकते, बल्कि वे इस बात की भी यदा कदा वकालत करते नजर आते हैैं कि सेना की देखरेख में अंतरिम सरकार का गठन किया जा सकता है। इससे यह अंदाजा लगाना स्वाभाविक है कि उनकी मुहिम को परोक्ष रूप से सेना का समर्थन हासिल है हालांकि वे लगातार इस बात से इंकार करते रहे हैैं। इन तथ्यों के मद्देनजर कुछ राजनीतिक प्रेक्षकों का यह डर भी निराधार नहीं है कि कहींवे सेना के एजेंट के रूप में तो कार्य नहीं कर रहे हैैं।
हकीकत चाहे जो हो लेकिन कादरी का आंदोलन पाकिस्तान में लोकतंत्र के लिए खतरा बनकर उभर रहा है और पाकिस्तान में तख्तापलट तथा सेना के दखल को इस आंदोलन की एक संभावित परिणति पर देखा जा रहा है। आतंकवादियों को पाकिस्तानी सेना का समर्थन एक जग जाहिर तथ्य है। इस परिप्रेक्ष्य में इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है कि वहां लोकतंत्र की विफलता को बहाना बनाकर सेना एक बार फिर सत्ता हथिया ले और दुनिया को दहशतगर्दी का नया दौर देखना पड़े।

Tuesday, January 15, 2013

ताकत की भाषा समझता है पाकिस्तान
सर्वदमन पाठक

नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तानी सेना द्वारा दो भारतीय सैनिकों की हत्या तथा एक का सिर काटकर अपने साथ ले जाने की दरिंदगीपूर्ण घटना से सारे देश में गुस्से की लहर दौड़ गई है। सीमा पर तैनात सैनिकों में इसे लेकर कितनी नाराजी है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने पिछले दो दिनों से कुछ खाया पिया तक नहीं है। वे बस चाहते हैैं कि
किसी भी हालत में पाकिस्तान से इसका बदला लिया जाए। इस बर्बर घटना के खिलाफ देशव्यापी प्रदर्शन किये जा रहे हैैं, जो इस बात का परिचायक है कि देश का मानस पाकिस्तान को उसकी इस जघन्य करतूत का मुंहतोड़ जवाब देने के पक्ष में है। पाकिस्तान का यह दुस्साहस इसलिए हुआ है क्योंकि हमारी सरकार पाकिस्तान के साथ संबंधों का सामान्यीकरण और शांति का राग अलापती रही है। पाकिस्तान के शीर्ष पंक्ति के नेता तक भारत में आकर भड़काने वाले बयान देते हैैं और हम उसे नजरंदाज कर देते हैैं। हम उनके साथ क्रिकेट खेलने तथा बालीवुड के जरिये द्विपक्षीय ताल्लुकात को मजबूत बनाने की बात करते हैैं और पाकिस्तानी सेना संघर्षविराम का लगातार उल्लंघन करती रहती है। हम वीजा नियम शिथिल करने की वकालत करते हैैं और पाकिस्तान दहशतगर्दों के जरिये भारत के खिलाफ प्राक्सी युद्ध चलाता रहता है। हम दुनिया के सामने यह दावा कर करके अपनी पीठ थपथपाते रहते हैैं कि हम पाकिस्तान के साथ अमन की स्थापना में काफी तेजी से आगे बढ़ रहे हैैं, उधर पाकिस्तान विश्व के तमाम मंचों पर कश्मीर का राग अलापने से बाज नहीं आता। यह तो हमारी सरकार की कमजोर पाक नीति की इंतहा ही है कि कारगिल युद्ध के दौरान पकड़े गए सौरभ कालिया सहित पांच सैन्य अफसरों तथा सैन्यकर्मियों के शव अंग भंग कर वह भारत को सौंप देता है और हमारी सरकार पाकिस्तान के साथ शांति और मोहब्बत की पींगें बढ़ाती रहती है।
यह कौन नहीं जानता कि पाकिस्तान दहशतगर्दों की घुसपैठ द्वारा भारत में अशांति फैलाना चाहता है। इस घटना के एक सप्ताह पहले ही दुर्दांत आतंकवादी हाफिज सईद नियंत्रण रेखा के आसपास घूमता देखा गया था जिससे यही संकेत मिलता है कि इस दरिंदगी भरी घटना के पीछे उसका हाथ हो सकता है। गौरतलब है कि पाकिस्तानी सेना तथा आतंकवादियों की सांठगांठ कोई नई बात नहीं है, इसलिए भी इस आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता कि इस घटना के लिए पाकिस्तानी सैनिकों को उसने ही उकसाया हो। सरकार को यह समझ लेना चाहिए कि आततायी पाकिस्तान शांति की भाषा समझने वाला नहीं है। उसे ताकत की भाषा ही समझ में आती है। भारत को पाकिस्तान की इन घृणित करतूतों से निपटने के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए उसके खिलाफ सख्त कदम उठाने होंगे और इसकी झलक सीमा पर दिखनी चाहिए। नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तान  द्वारा जब तब की जाने वाली संघर्षविराम के उल्लंघन की कोशिशों का मुंहतोड़ जवाब देने के लिए हमारी सेनाओं को छूट दी जानी चाहिए और यदि इसके लिए जरूरत हो तो नियंत्रण रेखा पार करने की छूट भी सेना को होनी चाहिए। सरकार को विश्व विरादरी में पाकिस्तान को अलग थलग करने पर अपना ध्यान केंद्रित चाहिए और सीमा पर पाकिस्तान के किसी भी दुस्साहस से निपटने का काम सेना को सौंपा जाना चाहिए।

Thursday, January 10, 2013

हमारी कितनी चिंता है पुलिस को?
सर्वदमन पाठक

भोपाल की पुलिस नागरिकों की सुरक्षा को लेकर कितनी चिंतित है, इसका अनुमान सड़कों पर पुलिस की बढ़ी हुई सक्रियता को देखकर  सहज ही लगाया जा सकता है। इस सदाशयता के लिए पुलिस की तारीफ करनी होगी कि वह हेलमेट न पहनने वाले दुपहिया वाहन चालकों के चालान कर उनमें आत्मरक्षा के लिए हेलमेट पहनने की आदत डाल रही है। हर सड़क, गली, कूचे में पुलिस की टोलियां बाकायदा चाक चौबंद रहती हैैं और उनकी सतर्कता की वजह से कोई भी हेलमेट विहीन दुपहिया वाहन चालक वहां से नहीं गुजर सकता। यदि उसने यह जुर्रत की तो उसे तकरीबन चार सौ रुपए का जुर्माना भरकर अपनी जेब हल्की करने के बाद ही वहां से जाने की अनुमति मिल सकती है। हां, यदि पुलिस अफसर न देख रहे हों तो अवश्य ही सौ-डेढ़ सौ रुपए से सिपाही की मुट्ठी गरम करने से भी काम चल सकता है। लेकिन यह सब परेशानी उन लोगों को ही होती है जो निरीह तथा पुलिस से हुज्जत करने की हिम्मत न रखने वाले आम नागरिक हैैं। रुतबेदार एवं प्रभावशाली लोगों पर पुलिस आम तौर पर हाथ नहीं डालती। वैसे भी पुलिस का यह सिद्धांत है कि वह 'बड़े लोगोंÓ से पंगा नहीं लेती। इसीलिए चार पहिया वाहन में चलने वाले इन बड़े लोगों के खिलाफ छुटपुट कार्रवाई अवश्य होती है लेकिन उनके खिलाफ मुहिम छेडऩे का साहस हमारे शहर की पुलिस नहीं जुटा पाती। बड़े राजनीतिक नेता, बड़े अधिकारी, बड़े अपराधी जैसे चार पहिया वाहनों में सफर करने वाले बड़े लोगों को कानून की कोई परवाह भी नहीं होती। उनमें से कई तो पुलिस कर्मियों तथा पुलिस अफसरों को भी जेब में रखते हैैं तो फिर पुलिस उनका चालान करने की हिम्मत कैसे जुटा सकती है। यदि भूलवश उनका चालान करने की कोशिश की तो चंद ही मिनटों में वे पुलिसकर्मी माफी मांगते भी नजर आ सकते हैैं। वो तो भगवान भला करे सुप्रीम कोर्ट का, जिसके आदेश के बहाने काले शीशे वाले चार पहिया वाहनों के चालान हो रहे हैैं वरना पुलिस यह भी हिम्मत नहीं जुटा पाती।
पुलिस को सड़क दुर्घटना के अन्य कारकों पर भी गौर करके उन पर अंकुश लगाना चाहिए। कौन नहीं जानता कि शहर में अंधाधुंध रफ्तार से दौड़ते ट्रकों, बसों और मिनी बसों पर अंकुश लगाने में पुलिस पूरी तरह नाकाम रही है। इसीलिए आए दिन शहर में जानलेवा एक्सीडेंट हो रहे हैैं। यदि इन बेकाबू रफ्तार वाहनों से आप विनती करें कि वे आपको ज्यादा जोर से टक्कर न मारें तो भी इस बात की विरली ही संभावना बनती है कि आप हेलमेट के भरोसे जान बचा पाएं। यदि आप इस विरली संभावना का लाभ पा जाएं तो अवश्य ही पुलिस को धन्यवाद करना मत भूलिए। वैसे पुलिस को यदि अपनी इस मुहिम से थोड़ी फुरसत मिले तो वह अन्य अपराधों की ओर भी ध्यान दे। जब गेंगरेप को लेकर पूरा देश गुस्से में है, तब भोपाल में खुले आम महिलाओं के साथ छेड़छाड़ की घटनाएं हो रही हैैं, अपराधियों के हौसले इस कदर बुलंद हैैं कि आम आदमी की शांति एवं सुरक्षा खतरे में है। पुलिस इन अपराधियों पर अंकुश लगाने तथा उन पर सख्त कार्रवाई करने के बदले उनसे गलबहियां करती और हफ्ता वसूलती नजर आती है। अपराधियों के हौसले इतने बुलंद हैैं कि शहर के व्यस्ततम स्टेट बैैंक चौराहे के सामने स्थित बिजली आफिस में दिन दहाड़े घुसकर अपराधी एक महिला कर्मचारी का कत्ल कर देते हैैं और पुलिस हत्यारे का पता तक नहीं लगा पाती। पुलिस हेलमेट मुहिम जैसी शूरवीरता के लिए बधाई की पात्र है लेकिन इसके साथ ही शहर के अपराधियों पर भी अंकुश लगाने हेतु प्रभावी कदम उठाए तो अच्छा होगा।

Tuesday, January 1, 2013

साल बदला, क्या हम भी बदलेंगे?
सर्वदमन पाठक

पीड़ा के गहरे अहसास के साथ 2012 हमसे विदा ले चुका है और 2013 ने हमारे द्वार पर दस्तक दे दी है। विडंबना देखिये कि  दिल्ली की दुर्भाग्यपूर्ण घटना से हम इतने शर्मिंदा हैं कि नए साल का नया सूरज भी हमारे मन के सूरजमुखी को खिला नहीं पा रहा है। लेकिन इस त्रासदी का एक पहलू यह भी है कि इसने हमारी आत्मा को बुरी तरह से झकझोर दिया है औरसमाज और सरकार की सोच में बदलाव लाने का संकल्प हमारे मानस में भी आकार ले रहा है। संभवत: पहली बार ऐसा हुआ है कि इस घटना से उपजे आक्रोश का जनज्वार सड़कों पर उमड़ पड़ा है। ये किसी सियासी दल के उन्मत्त समर्थकों की विवेकहीन भीड़ नहीं है जो किसी नेता के इशारे पर नाचती हो बल्किकालेजों में पढऩे लिखने वाले युवक युवतियां का हुजूम है। स्वप्रेरणा से शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन कर रहे युवा पीढ़ी के इन नुमांयदों को न तो टीवी चैनलों पर अपना चेहरा चमकाने की चाहत है और न ही वे सियासतदानों की तरह सत्ता और सुविधा की बंदरबांट के खेल का हिस्सा हैैं। वे तो सिर्फ स्त्री जाति की अस्मिता और जिंदगी की सुरक्षा के लिए समुचित वातावरण चाहते हंै। दिल्ली की बदनसीब पेरा मेडिकल छात्रा से बलात्कार करने वाले दरिंदों को समुचित सजा मिले और आइंदा कोई और स्त्री ऐसी यौन हिंसा की शिकार न बने, उनकी यही मांग है। फांसी की मांग इस घटना के प्रति उनके गुस्से की चरम परिणति का ही प्रतीक है। भले ही कुछ  सियासतदां उनके इस आक्रोश को भुनाने की फिराक में हैैं लेकिन ये युवक युवतियां इनके हाथों में खेलने वाली कठपुतलियां नहीं है। वे तो तब तक अपने संघर्ष को जारी रखने के लिए प्रतिबद्ध हैैं जब तक सरकार और समाज की ओर से स्त्रियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए ठोस कदम नहीं उठाए जाते। आश्चर्य की बात है कि इस हृदय विदारक घटना के  बावजूद न केवल दिल्ली में बल्कि देश के अलग अलग हिस्सों से नारी की अस्मिता से खिलवाड़ की खबरें लगातार मिल रही हैैं जो इस बात का प्रमाण है कि केंद्र एवं राज्य सरकारों में इनकी रोकथाम के लिए समुचित राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं है। वरना क्या वजह है कि सत्ताधीशों की जीहूजूरी तथा सुरक्षा में चौबीसों घंटे मुस्तैद रहने वाली पुलिस, महिलाओं के साथ छेड़छाड़ तथा बलात्कार को रोकने में कोई खास रुचि नहीं ले रही है।
इसका एक पक्ष यह भी है कि सिर्फ सरकार और पुलिस के भरोसे महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं हो सकती। अधिकांश मामलों में परिचित या रिश्तेदार के हाथों ही स्त्री छली जाती है। इसलिए जब तक हम अपने परिवार एवं समाज में ऐसा वातावरण नहीं बनाते जिसमें महिलाओं को सम्मान की नजर से देखा जाए तब तक कुछ भी बदलने वाला नहीं है। इसलिए स्त्री अस्मिता और जिंदगी की सुरक्षा के लिए पहली और अनिवार्य शर्त समाज एवं परिवार की सोच में बदलाव लाना है। लेकिन इतना तय है कि युवा वर्ग के आंदोलन की तपिश ने सरकार और समाज दोनों को आत्म चिंतन एवं आत्म परिष्कार के लिए मजबूर कर दिया है। महिलाओं की सुरक्षा के ध्येय की प्राप्ति तक इस आंदोलन की आग बुझने वाली नहीं है। इससे उत्पन्न जनचेतना की नई लहर खुद बदलाव की इबारत लिखने में सक्षम है। अच्छा यही होगा कि वक्त की नजाकत को भांपते हुए सरकार और समाज बदलाव को स्वीकारे और नारी के सम्मान के इस महायज्ञ में सार्थक भागीदारी करे।