Wednesday, April 17, 2013

 प्रसंगवश

दृढ़ इच्छाशक्ति के बिना सफल नहीं होगा लोकायुक्त का सुझाव
सर्वदमन पाठक

शिवराज सरकार लगातार दावा करती रही है कि राज्य में नौकरशाही तथा प्रशासनिक मशीनरी में व्याप्त भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए उसने काफी प्रभावी कदम उठाये हैैं। लोकसेवा गारंटी योजना जैसे कदम इसी कोशिश के परिचायक हैैं जिसके दांडिक प्राïवधान काफी सख्त हैैं लेकिन वास्तविकता के धरातल पर ऐसे कदम राज्य के प्रशासनिक भ्रष्टाचार को रोकने में नाकाफी सिद्ध हुए हैैं। राज्य सरकार के प्रत्येक विभाग में सतर्कता अधिकारी की नियुक्ति का राज्य के लोकायुक्त जस्टिस पीपी नावलेकर का सुझाव इसी हकीकत को दर्शाता है। दरअसल लोकायुक्त संगठन भ्रष्ट अफसरों पर कार्रवाई करने में खुद को जिन कारणों से अक्षम पा रहा है, यह सुझाव उनके निवारण के लिए ही दिया गया है। जांच प्रक्रिया का इससे बड़ा मखौल क्या हो सकता है कि जिन अफसर के खिलाफ जांच प्रकरण लंबित हो, वे ही विभागीय स्तर पर जांच करें और उन्हें ही न्यायालय में चालान प्रस्तुत करने की अनुमति देने का अधिकार हो। यह तो कुछ वैसा ही है जैसे किसी अपराध के आरोपी को ही खुद पर फैसला देने का हक मिल जाए। लेकिन मध्यप्रदेश में विभागीय स्तर पर जांच के नाम पर यह गोरखधंधा बखूबी चल रहा है और यह सब उस सरकार की नाक के नीचे चल रहा है जो खुद भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन देने का संकल्प दोहराती रहती है। उदाहरण के तौर पर एपेक्स के अध्यक्ष एवं एमडी के खिलाफ मामले में लोकायुक्त को मात्र इसलिए चालान पेश करने की अनुमति नहीं मिल सकी क्योंकि जिनके खिलाफ प्रकरण दर्ज है, उन्हें ही यह अनुमति देने का अधिकार प्राप्त है। यह एक ऐसी व्यवहारिक अड़चन है जो अन्य विभागों में भी जांच के आड़े आ सकती है। इन परिस्थितियों से निजात पाने के लिए ही लोकायुक्त ने यह सुझाव दिया है। लोकायुक्त का यह मानना है कि इससे प्रक्रिया संबंधी जटिलता दूर हो सकेगी और अपेक्षाकृत कम समय में लोकायुक्त सहित विभिन्न जांच एजेंसियों को जरूरी जानकारी मिल सकेगी। लोकायुक्त ने यह सुझाव केंद्र सरकार की प्रशासनिक व्यवस्था की तर्ज पर दिया है लेकिन इस प्रयोग की सफलता सरकार की संकल्प एवं इच्छाशक्ति पर ही ज्यादा आधारित है। कौन नहीं जानता कि हर विभाग में सतर्कता अधिकारी होने के बावजूद केंद्र की प्रशासनिक मशीनरी में काफी भ्रष्टाचार व्याप्त है। इसका एक दूसरा पहलू यह भी है कि चूंकि प्रशासनिक अधिकारी तथा सत्ता में बैठे राजनेताओं की मिलीभगत भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा कारण है इसलिए अफसरों के भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में राजनीतिक सत्ता की इच्छाशक्ति लगभग शून्य ही होती है। वरना क्या कारण है कि राज्य में भी हर विभाग किसी न किसी मंत्रालय के अधीन है जिनकी बागडोर इनके प्रभारी मंत्रियों के हाथ में ही है लेकिन उसके बाद भी उनमें नियुक्त नौकरशाह अपने उपरोक्त हथकंडों के बल पर अपने खिलाफ जांच को लटकाने में सफल हो जाते हैैं। जस्टिस नावलेकर का सुझाव प्रशासनिक भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की दृष्टि से स्वागत योग्य है लेकिन इसकी सफलता तभी सुनिश्चित हो सकती है जब राजनीतिक सत्ता इस मामले में पर्याप्त इच्छाशक्ति दिखाए। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की मंशा और ईमानदारी पर सवाल भले ही न उठाया जा सके लेकिन वास्तविकता यही है कि राज्य सरकार में अपनी ही योजनाओं पर प्रभावी अमल के लिए जरूरी इच्छाशक्ति का नितांत अभाव है और इसी वजह से लोकसेवा गारंटी योजना जैसी योजनाएं अमल के स्तर पर दम तोड़ रही हैैं। राज्य के सभी विभागों में लोकायुक्त द्वारा सुझाई गई सतर्कता अधिकारियों की नियुक्ति की योजना की सफलता भी सरकार की दृढ़ संकल्पशक्ति के बिना संदिग्ध ही रहेगी।                                   

No comments:

Post a Comment