जंग लगे हथियारों से चुनावी जंग कैसे लड़ेगी कांग्र्रेस ?
सर्वदमन पाठक
मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव में जहां एक ओर भाजपा लगातार तीसरी बार सत्ता सिंहासन हासिल करने के लिए ऐड़ी चोटी का जोर लगा रही हैै, वहीं दूसरी ओर सत्ता की मृगतृष्णा में दस साल से भटक रही कांग्र्रेस येन केन प्रकारेण राज्य विधानसभा की चुनावी जंग के लिए अपने जंग लगे हथियारों पर एक बार फिर धार चढ़ाने में जुट गई है। पिछले कुछ समय से जनसंघर्ष के नाम पर किये जा रहे छुटपुट तथा निहायत ही प्रभावहीन आंदोलनों के बाद अब कांग्र्रेस चुनावी व्यूहरचना के लिए अपने युवराज राहुल गांधी की ओर आशाभरी नजरों से देख रही है। इसी उम्मीद की बेल को परवान चढ़ाने की शुरुआती कड़ी में बुधवार को राहुल गांधी के सानिध्य में चिंतन बैठकों का आयोजन हुआ जिसमें पार्टी के सांसदों, विधायकों तथा पदाधिकारियों ने हिस्सा लिया। चौदह जिलों के प्रतिनिधियों की उपस्थिति में इस बैठक में पार्टी की खूबियों और कमजोरियों पर चर्चा हुई। कार्यकर्ताओं से राहुल गांधी का सीधा संवाद इस बैठक का आकर्षण था। बैठक में पार्टी को मजबूत करने तथा चुनावी तैयारियों के लिए कमर कसने के तौर तरीकों पर चिंतन होना था लेकिन जैसा कि अनुमान था, यह बैठक चिंतन बैठक के बदले चिंता बैठक में तब्दील हो गई। एक दशक से सत्ता का वनवास झेलते झेलते जिस पार्टी का संगठन इस कदर लुंज पुंज हो चुका हो कि चुनावी तैयारियों के लिए उसे कार्यकर्ताओं को टोटा पड़ा हो, उस पार्टी का चिंतित होना स्वाभाविक ही है।
इस बैठक का यह संकेत बिल्कुल स्पष्ट था कि राहुल गांधी पार्टी को मैदानी स्तर पर खड़ा करना चाहते हैैं ताकि वह चुनावी चुनौतियों का सामना करने में समर्थ हो लेकिन बैठक के माहौल से उन्हें यह भली भांति समझ में आ गया होगा कि इस उद्देश्य के रास्ते में कांग्र्रेस के सामने रोड़े ही रोड़े हैैं। इसमें सबसे पहला रोड़ा पार्टी का बदला हुआ चरित्र ही है। दरअसल कांग्र्रेस सूरजमुखी के फूल की मानिंद हो गई है जो सत्ता सूर्य को देखकर ही खिलता है। जाहिर है कि दस साल से सत्ता से दूर कांग्र्रेस पार्टी आजकल निष्ठावान कार्यकर्ताओं की कमी से जूझ रही है। यदि पार्टी योग्य तथा विजयी संभावनाओं वाले प्रत्याशियों का चयन कर उन्हे चुनावी जंग में उतार भी दे तो निष्ठावान कार्यकर्ताओं के अभाव में उनकी जीत की उम्मीदों पर पानी फिर सकता है। पार्टी का दूसरा बड़ा रोड़ा अंदरूनी गुटबाजी की आत्मघाती प्रवृत्ति है। अलग अलग छत्रपों की निष्ठाओं में बंटे प्रदेश कांग्र्रेस के कार्यकर्ता आंतरिक संघर्ष से इस कदर ग्र्रस्त हैं कि विपक्षी पार्टी को हराने के बजाय वे अपनी ही पार्टी के अन्य गुटों के नेताओं को हराने में अपनी शान समझते हैैं।
राहुल गांधी का खुद का नेतृत्व कितना चमत्कारी है, यह कहना काफी मुश्किल है। उत्तरप्रदेश, बिहार तथा गुजरात के चुनावों में कांग्र्रेस की घोर असफलता वहां के कांग्र्रेस संगठनों के मृतप्राय संगठनात्मक ढांचे का ही परिणाम थी इसलिए इन दोनों राज्यों की पराजय का ठीकरा राहुल के सिर फोडऩा उनके साथ अन्याय ही होगा। मध्यप्रदेश में भी कांग्र्रेस संगठन कमोवेश इसी गति को प्राप्त हो गया है इसलिए यहां भी विधानसभा चुनाव में उसकी जीत के लिए पार्टी के संगठनात्मक ढांचे में उत्साह का संचार करने, कार्यकर्ताओं में जीत की अलख जगाने तथा कांग्र्रेस नेतृत्व के चमत्कार की जरूरत होगी। यक्ष प्रश्न यही है कि क्या राहुल गांधी प्रदेश कांग्र्रेस के निराश हताश कांग्र्रेस कार्यकर्ताओं में इस हद तक जान फूंक पाएंगे कि राज्य में कांग्र्रेस की दहलीज पर पहुंच सके। चिंतन बैठक के रूप में उनकी शुरुआती कोशिश पार्टी की उम्मीदों को कितना आगे ले जाती है, यह तो वक्त ही बताएगा।
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