बॉलीवुड-राजनीति ने बाजारीकरण के सामने समर्पण किया
खाने का फैशन से क्या लेना देना है या बॉलीवुड का राजनीति से क्या संबंध है अथवा खेल का इन चारों से क्या संबंध है? काफी कुछ। मुझे इस बात पर विचार करने का ख्याल तब आया जब फैशन वीक( जिसे चलते हुए 20 साल हो चुके हैैं) चल रहा था। दो दशक पहले जब एफडीसीआई के गठन के साथ ही देसी फैशन का कारपोरेट स्वरूप आया तो बड़े खिलाड़ी इसमें कूद पड़े। लगभग रातों रात भारत के अव्यवस्थित तथा असंगठित फैशन उद्योग ने तेजी पकड़ ली और आधुनिक सिस्टम ले आए। डिजाइनर्स, फोटोग्र्राफर्स तथा कोरियोग्र्राफर्स के बीच पुरानी अनौपचारिकता तथा रिश्ते खत्म हो गए। फैशन से संबंधित प्रत्येक मुद्दे पर शार्प ऑपरेटर्स सक्रिय होने लगे। उनका दावा था कि वे फैशन के हित में ही काम कर रहे हैैं। इसका एक सकारात्मक पक्ष था तो नकारात्मक पक्ष भी था। धन ने रचनात्मकता को चलन से बाहर कर दिया लेकिन प्रत्येक चीज-सेट, संगीत तथा संपूर्ण प्रस्तुतीकरण में दर्शनीय रूप से उछाल आया। लेकिन क्या अधिक वस्त्र बिकने लगे? क्या भारत में फैशन की मार्केटिंग का विश्वस्तरीय मॉडल भारत में काम करता है? यह तो ईश्वर ही जानता है। उबाऊ फैशन निश्चित ही चलने लगा लेकिन कमोवेश पहले वाले डिजाइनर्स के साथ शो चलता रहा और पुराने लोगों को पुराना फैशन दिखाया जाता रहा। मेरी राय के मुताबिक तो इस दौरान युवा तथा संकल्पबद्ध फैशन डिजाइनर्स के रूप में नई प्रतिभाएं उत्तरपूर्व से आईं। उनके कलेक्शन्स में ताजगी थी तथा दुहराव नहीं था। उनकी दृष्टि का समर्थन देने वाली सांस्कृतिक आथेंटिसिटी भी उनके कलेक्शन में मौजूद थी। इसका उदाहरण 20 साल के लद्दाखी डिजाइनर स्टान्जिन पाल्मो का काम है।
उक्त सभी फील्ड में एक बात समान है-चतुराई भरी ब्रांडिंग, प्रस्तुतीकरण का तरीका और मार्केटिंग। पीआर के लिए यह अच्छा समय है क्योंकि बिना तेज तर्रार पीआर टीम के प्रचार कार्य के कुछ भी आगे नहीं बढ़ सकता। फैशन की तरह ही बॉलीवुड भी बदल गया है। यह तभी संभव हुआ जब बड़ी ब्लॉकबस्टर को 'स्वच्छ धनÓ की आर्थिक मदद मिली।
आज पूरी प्रक्रिया निश्चित तथा पारदर्शी हो गई है जहां स्मार्ट बच्चे भी बड़ी धनराशि की न केवल बात कर रहे हैैं बल्कि कमा भी रहे हैैं। पुरानी अस्पष्टता, अनिश्चितता तथा असुरक्षा के दिन लद गए हैैं और नई पीढ़ी करोड़ों के एनडोर्समेंट-प्रॉडक्ट प्लेसमेंट डील्स कर रही है और पूरे भारत तथा विदेश में भी आकर्षक संपत्ति खरीद रही है। क्या आजकल जो मूवीज बन रही हैैं, वे पुरानी शैली की फिल्मों से गुणवत्ता की दृष्टि से बेहतर हैैं? जूरी इस पर चुप्पी साधे रहती है लेकिन शोबिज में जबर्दस्त ऊर्जा लगती है और प्रत्येक व्यक्ति को व्यस्त रखने के लिए पर्याप्त काम होता है।
ऐसा ही खेल संस्थाओं तथा खिलाडिय़ों के साथ है। विश्व में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन के लिए उनकी प्रतिस्पर्धा की भावना जबर्दस्त रहती है। आज स्पोटर््स प्रबंधन तथा इनमें बढ़ती सेलेब्रिटीज की संख्या का यह आलम है कि उनकी व्यावसायिक क्षमता अच्छी है। अब वे दिन नहीं रहे जब स्पोटर््स से जुड़े लोगों को फंड के लिए प्रयास करना पड़ता था। यहां भी वैसा ही है कि चतुर मार्केटिंग प्रोफेनल्स काफी पैसा लाए हैैं। हो सकता है कि आईपीएल के गॉडफादर ललित मोदी भारत में वांछित आर्थिक अपराधी हों लेकिन उन्होंने जो कुछ किया उससे इस खेल में क्रांति आ गई और कई युवा क्रिकेटरों को कई मिलियन रुपए हासिल हुए। आईपीएल के मॉडल का इस्तेमाल करके कई स्पोटर््स में फ्रेंचाइजी का विस्तार हुआ। इनमें से अधिकांश काफी संपन्नता हासिल कर चुके हैैं।
इसी तरह रेस्तरां का व्यवसाय इस समय अनियंत्रित रफ्तार से बढ़ रहा है। सिर्फ उपभोक्ताओं को अच्छा खाना ऑफर करना ही आजकल पर्याप्त नहीं है बल्कि पैकेजिंग भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। बढ़ती प्रतिस्पर्धा के कारण इसमें ब्रांड रायल्टी बनाए रखना जरूरी है।
राजनीतिज्ञों को अन्य उत्पादों की तरह पैकेजिंग के साथ बेचे जाने में कोई आपत्ति नहीं है। चाहे कोई व्यक्ति अपने विचार बेच रहा है या फेयरनेस क्रीम बेच रहा है, स्ट्रेटेजी समान ही होती है। आप क्या मैसेज देते हैैं, यही सब कुछ है। दशकों पहले नेता को इसे लेकर जनता के भरोसे पर खरा उतरना पड़ता था कि वह अपने निर्वाचन क्षेत्र के लिए क्या काम करेगा लेकिन आज वह एक इमेज मेकर पर सबसे पहले निवेश करता है और फिर घोषणापत्र के बारे में सोचता है। यह आश्चर्य की बात नहीं है कि काफी धन राशि खर्च करके टिकट हासिल करने वाला आज का पालिश्ड तथा मीडिया सेवी राजनीतिज्ञ लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए सभी उपलब्ध सोशल मीडिया प्लेटफार्म का इस्तेमाल करता है और आपका वोट झटक लेता है। दरअसल प्रत्येक चीज वस्तु के रूप में तब्दील हो गई है जिसमें ब्रांडिंग महत्वपूर्ण है।
सर्वदमन पाठक
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