साल बदला, क्या हम भी बदलेंगे?
सर्वदमन पाठक
पीड़ा के गहरे अहसास के साथ 2012 हमसे विदा ले चुका है और 2013 ने हमारे द्वार पर दस्तक दे दी है। विडंबना देखिये कि दिल्ली की दुर्भाग्यपूर्ण घटना से हम इतने शर्मिंदा हैं कि नए साल का नया सूरज भी हमारे मन के सूरजमुखी को खिला नहीं पा रहा है। लेकिन इस त्रासदी का एक पहलू यह भी है कि इसने हमारी आत्मा को बुरी तरह से झकझोर दिया है औरसमाज और सरकार की सोच में बदलाव लाने का संकल्प हमारे मानस में भी आकार ले रहा है। संभवत: पहली बार ऐसा हुआ है कि इस घटना से उपजे आक्रोश का जनज्वार सड़कों पर उमड़ पड़ा है। ये किसी सियासी दल के उन्मत्त समर्थकों की विवेकहीन भीड़ नहीं है जो किसी नेता के इशारे पर नाचती हो बल्किकालेजों में पढऩे लिखने वाले युवक युवतियां का हुजूम है। स्वप्रेरणा से शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन कर रहे युवा पीढ़ी के इन नुमांयदों को न तो टीवी चैनलों पर अपना चेहरा चमकाने की चाहत है और न ही वे सियासतदानों की तरह सत्ता और सुविधा की बंदरबांट के खेल का हिस्सा हैैं। वे तो सिर्फ स्त्री जाति की अस्मिता और जिंदगी की सुरक्षा के लिए समुचित वातावरण चाहते हंै। दिल्ली की बदनसीब पेरा मेडिकल छात्रा से बलात्कार करने वाले दरिंदों को समुचित सजा मिले और आइंदा कोई और स्त्री ऐसी यौन हिंसा की शिकार न बने, उनकी यही मांग है। फांसी की मांग इस घटना के प्रति उनके गुस्से की चरम परिणति का ही प्रतीक है। भले ही कुछ सियासतदां उनके इस आक्रोश को भुनाने की फिराक में हैैं लेकिन ये युवक युवतियां इनके हाथों में खेलने वाली कठपुतलियां नहीं है। वे तो तब तक अपने संघर्ष को जारी रखने के लिए प्रतिबद्ध हैैं जब तक सरकार और समाज की ओर से स्त्रियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए ठोस कदम नहीं उठाए जाते। आश्चर्य की बात है कि इस हृदय विदारक घटना के बावजूद न केवल दिल्ली में बल्कि देश के अलग अलग हिस्सों से नारी की अस्मिता से खिलवाड़ की खबरें लगातार मिल रही हैैं जो इस बात का प्रमाण है कि केंद्र एवं राज्य सरकारों में इनकी रोकथाम के लिए समुचित राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं है। वरना क्या वजह है कि सत्ताधीशों की जीहूजूरी तथा सुरक्षा में चौबीसों घंटे मुस्तैद रहने वाली पुलिस, महिलाओं के साथ छेड़छाड़ तथा बलात्कार को रोकने में कोई खास रुचि नहीं ले रही है।
इसका एक पक्ष यह भी है कि सिर्फ सरकार और पुलिस के भरोसे महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं हो सकती। अधिकांश मामलों में परिचित या रिश्तेदार के हाथों ही स्त्री छली जाती है। इसलिए जब तक हम अपने परिवार एवं समाज में ऐसा वातावरण नहीं बनाते जिसमें महिलाओं को सम्मान की नजर से देखा जाए तब तक कुछ भी बदलने वाला नहीं है। इसलिए स्त्री अस्मिता और जिंदगी की सुरक्षा के लिए पहली और अनिवार्य शर्त समाज एवं परिवार की सोच में बदलाव लाना है। लेकिन इतना तय है कि युवा वर्ग के आंदोलन की तपिश ने सरकार और समाज दोनों को आत्म चिंतन एवं आत्म परिष्कार के लिए मजबूर कर दिया है। महिलाओं की सुरक्षा के ध्येय की प्राप्ति तक इस आंदोलन की आग बुझने वाली नहीं है। इससे उत्पन्न जनचेतना की नई लहर खुद बदलाव की इबारत लिखने में सक्षम है। अच्छा यही होगा कि वक्त की नजाकत को भांपते हुए सरकार और समाज बदलाव को स्वीकारे और नारी के सम्मान के इस महायज्ञ में सार्थक भागीदारी करे।
सर्वदमन पाठक
पीड़ा के गहरे अहसास के साथ 2012 हमसे विदा ले चुका है और 2013 ने हमारे द्वार पर दस्तक दे दी है। विडंबना देखिये कि दिल्ली की दुर्भाग्यपूर्ण घटना से हम इतने शर्मिंदा हैं कि नए साल का नया सूरज भी हमारे मन के सूरजमुखी को खिला नहीं पा रहा है। लेकिन इस त्रासदी का एक पहलू यह भी है कि इसने हमारी आत्मा को बुरी तरह से झकझोर दिया है औरसमाज और सरकार की सोच में बदलाव लाने का संकल्प हमारे मानस में भी आकार ले रहा है। संभवत: पहली बार ऐसा हुआ है कि इस घटना से उपजे आक्रोश का जनज्वार सड़कों पर उमड़ पड़ा है। ये किसी सियासी दल के उन्मत्त समर्थकों की विवेकहीन भीड़ नहीं है जो किसी नेता के इशारे पर नाचती हो बल्किकालेजों में पढऩे लिखने वाले युवक युवतियां का हुजूम है। स्वप्रेरणा से शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन कर रहे युवा पीढ़ी के इन नुमांयदों को न तो टीवी चैनलों पर अपना चेहरा चमकाने की चाहत है और न ही वे सियासतदानों की तरह सत्ता और सुविधा की बंदरबांट के खेल का हिस्सा हैैं। वे तो सिर्फ स्त्री जाति की अस्मिता और जिंदगी की सुरक्षा के लिए समुचित वातावरण चाहते हंै। दिल्ली की बदनसीब पेरा मेडिकल छात्रा से बलात्कार करने वाले दरिंदों को समुचित सजा मिले और आइंदा कोई और स्त्री ऐसी यौन हिंसा की शिकार न बने, उनकी यही मांग है। फांसी की मांग इस घटना के प्रति उनके गुस्से की चरम परिणति का ही प्रतीक है। भले ही कुछ सियासतदां उनके इस आक्रोश को भुनाने की फिराक में हैैं लेकिन ये युवक युवतियां इनके हाथों में खेलने वाली कठपुतलियां नहीं है। वे तो तब तक अपने संघर्ष को जारी रखने के लिए प्रतिबद्ध हैैं जब तक सरकार और समाज की ओर से स्त्रियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए ठोस कदम नहीं उठाए जाते। आश्चर्य की बात है कि इस हृदय विदारक घटना के बावजूद न केवल दिल्ली में बल्कि देश के अलग अलग हिस्सों से नारी की अस्मिता से खिलवाड़ की खबरें लगातार मिल रही हैैं जो इस बात का प्रमाण है कि केंद्र एवं राज्य सरकारों में इनकी रोकथाम के लिए समुचित राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं है। वरना क्या वजह है कि सत्ताधीशों की जीहूजूरी तथा सुरक्षा में चौबीसों घंटे मुस्तैद रहने वाली पुलिस, महिलाओं के साथ छेड़छाड़ तथा बलात्कार को रोकने में कोई खास रुचि नहीं ले रही है।
इसका एक पक्ष यह भी है कि सिर्फ सरकार और पुलिस के भरोसे महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं हो सकती। अधिकांश मामलों में परिचित या रिश्तेदार के हाथों ही स्त्री छली जाती है। इसलिए जब तक हम अपने परिवार एवं समाज में ऐसा वातावरण नहीं बनाते जिसमें महिलाओं को सम्मान की नजर से देखा जाए तब तक कुछ भी बदलने वाला नहीं है। इसलिए स्त्री अस्मिता और जिंदगी की सुरक्षा के लिए पहली और अनिवार्य शर्त समाज एवं परिवार की सोच में बदलाव लाना है। लेकिन इतना तय है कि युवा वर्ग के आंदोलन की तपिश ने सरकार और समाज दोनों को आत्म चिंतन एवं आत्म परिष्कार के लिए मजबूर कर दिया है। महिलाओं की सुरक्षा के ध्येय की प्राप्ति तक इस आंदोलन की आग बुझने वाली नहीं है। इससे उत्पन्न जनचेतना की नई लहर खुद बदलाव की इबारत लिखने में सक्षम है। अच्छा यही होगा कि वक्त की नजाकत को भांपते हुए सरकार और समाज बदलाव को स्वीकारे और नारी के सम्मान के इस महायज्ञ में सार्थक भागीदारी करे।
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