हड़ताल का इंतजार क्यों?
सर्वदमन पाठक
हमीदिया अस्पताल तथा सुल्तानिया अस्पताल में जूनियर डाक्टरों की हड़ताल अंतत: खत्म हो गई है और अब वहां चिकित्सा व्यवस्था तकरीबन सामान्य हो चली है। इससे इन अस्पतालों में इलाज कराने वाले आउटडोर तथा इनडोर मरीजों ने राहत की सांस ली है क्योंकि प्रदेश के सबसे बड़े अस्पतालों में शुमार इन अस्पतालों में हड़ताल होने से वहां चिकित्सा व्यवस्था चरमरा गई थी और उन लोगों को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा था जो अपनी आर्थिक सीमाओं के कारण इन अस्पतालों में इलाज कराने के लिए बाध्य हैैं। इन तरह की हड़तालों का एक सकारात्मक पक्ष यह भी है कि इन अस्पतालों की स्वास्थ्य सेवाओं को कोसने तथा कमियां गिनाने वालों को इन अस्पतालों के महत्व का अहसास हो जाता है वरना इन अस्पतालों में 36-36 घंटे लगातार काम करने वाले जूनियर डाक्टरों की व्यथा पर किसी की नजर ही न जाए।
इस वास्तविकता को नकारा नहीं जा सकता कि आम तौर पर चिकित्सा महाविद्यालयों से संबद्ध सरकारी अस्पताल इन जूनियर डाक्टरों के भरोसे ही चलते हैैं लेकिन इन्हीं जूनियर डाक्टरों को जब तब लोगों के दुव्र्यवहार और गुस्से का शिकार होना पड़ता है। यह हड़ताल भी ऐसे ही कारण से हुई थी। आइंदा ऐसी अप्रिय स्थिति न बने, इसके लिए जरूरी है कि उन कारणों पर गौर किया जाए जो ऐसी परिस्थितियों के लिए जिम्मेदार हैैं। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि आउटडोर और इनडोर मरीजों के परिजनों को अपने मरीज ही गंभीर लगते हैैं और वे चाहते हैैं कि उनके मरीज का ही सबसे पहले इलाज किया जाए लेकिन वास्तविक रूप से गंभीर मरीजों की ओर प्राथमिकता क्रम के हिसाब से ध्यान देना डाक्टरों की मजबूरी होती है। आम तौर पर सरकारी अस्पतालों में झगड़े की यह एक प्रमुख वजह होती है। इन बड़े अस्पतालों के साथ एक बड़ी दिक्कत यह भी होती है कि यहां आसपास के कस्बों, गांवों, शहरों तथा जिलों से गंभीर मरीज आते रहते हैैं और उनमें से कई तो मरणासन्न स्थिति में होते हैैं। डाक्टर अपनी ओर से उनके इलाज की पूरी पूरी कोशिश करते हैैं लेकिन डाक्टर कोई भगवान नहीं होता, फिर भी मौत की त्रासदी हो जाने पर उनके परिजनों को यही लगता है कि डाक्टरों की लापरवाही से यह हुआ है। और इसी वजह से अस्पताल में जब तब हंगामे और डाक्टरों के साथ बदसलूकी की घटनाएं होती रहती हैैं। हालांकि यदि विभिन्न वार्डों में केजुएलिटी हो जाती है तो वहां कार्यरत डाक्टरों को भी दुख होता है। चिंतनीय बात यह है कि मीडिया और राजनीतिज्ञ दोनों ही ऐसी घटनाओं को अपने अपने तरीके से भुनाने की कोशिश करते नजर आते हैैं। विपक्ष जहां मौत जैसी दर्दनाक घटना पर भी राजनीतिक रोटियां सेंकने से बाज नहीं आता वहीं मीडिया में भी इन घटनाओं को उछालने की होड़ सी लग जाती है। ऐसे हालात में आरोपों के कटघरे में खड़ी सरकार का पहला प्रयास यही होता है कि ऐसी घटनाओं के लिए आनन फानन में जवाबदेही तय की जाए भले ही जांच में वह प्रमाणित न हो सके। लेकिन जूनियर डाक्टरों को इन सबके लिए जिम्मेदार ठहराना उनके साथ अन्याय ही है। उत्तेजित भीड़ द्वारा बदसलूकी और हाथापाई के समय उनसे धैर्य की अपेक्षा करना उचित नहीं है। दरअसल अस्पताल में सुरक्षा व्यवस्था इतनी पुख्ता होना चाहिए कि डाक्टर वहां बिना किसी भय तथा दवाब के मरीजों का इलाज कर सकें। इस दृष्टि से हंगामा और डाक्टरों से मारपीट करने वालों पर डाक्टर्स प्रोटेक्शन एक्ट के तहत प्रकरण दर्ज करने की कार्रवाई प्रशासन का उचित कदम है। इससे डाक्टरों के कार्य के लिए बेहतर वातावरण पैदा होगा।
यह सरकार की संवेदनशीलता का ही प्रमाण है कि जूनियर डाक्टरों की प्राय: सभी उचित मांगें मान ली जाती हैैं। स्टायपेंड में वृद्धि तथा डाक्टर्स प्रोटेक्शन एक्ट के तहत कार्रवाई जैसे मामले इसके जीते जागते प्रमाण है लेकिन डाक्टरों का धैर्य चुकने और उनके हड़ताल पर जाने के पहले ही उनकी मांगों पर समुचित कार्रवाई हो जाए तो वहां पहुंचने वाले मरीजों को इतनी परेशानियां न उठानी पड़ें।
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