Monday, February 1, 2010

बिना जवाबदेही का लोकतंत्र कैसा?

देश आज गणतंत्र दिवस की साठवीं सालगिरह मना रहा है। यह ऐसा अवसर है जब हम सभी देशवासी यह अहसास करके खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं कि हमारा राष्टï्र पूरी तरह से आजाद है। हमारी संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली ने हमें वह ताकत दी है कि हम अपने जनप्रतिनिधियों, अपनी सरकार को खुद ही चुन सकते हैं और उनके जरिये देश की तकदीर रच सकते हैं। यह हमारा अधिकार है लेकिन इसके साथ ही कुछ अहम जिम्मेदारियां भी जुड़ी हुई हैं। दरअसल हम ही देश के वास्तविक भाग्यनियंता हैं लेकिन हमने अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह समुचित तरीके से नहीं किया है और आज का निराशाजनक परिदृश्य इसी की परिणति है। संविधान की मंशा यही है कि हम ऐसे जनप्रतिनिधियों का चयन करें जो देश को खुशहाली की ओर ले जाएं लेकिन विडंबना यह है कि हम ऐसे लोगों को संसद एवं विधानसभाओं में चुनकर भेजते रहे हैं जो देश और देशवासियों के हितों को भूलकर अपना स्वार्थ साधते रहे हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि उनकी तिजोरियां भरती रहीं, वे, उनके परिजन एवं उनके करीबी तमाम सुविधाएं एवं सुख भोगते रहे लेकिन आम आदमी, जिसका देश के संसाधनों तथा विकास के लाभों पर पहला हक था, बदहाली की जिंदगी जीता रहा। हम अपनी गलतियों के दुष्परिणामों को लगातार भोगते रहे हैं लेकिन फिर भी हमने अपनी गलतियों से कोई सबक नहीं लिया। यदि हमें अपने देश की तकदीर बदलनी है तो फिर हमें अपनी ताकत को पहचानना होगा और राष्टï्र के सच्चे नागरिक के रूप मेें अपनी भूमिका के बारे में नए सिरे से आत्मचिंतन करना होगा। हमें यह तय करना होगा कि ऐसे लोगों के हाथ में राष्टï्र की बागडोर न आये जो अपनी करतूतों से राष्ट्र के हितों पर ही कुठाराघात करने में न हिचकें। आम आदमी की खुशहाली के साथ ही अन्य पैमानों पर भी हमें अपने जनप्रतिनिधियों के दायित्वों एवं कर्तव्यों की छानबीन करनी होगी। दरअसल देश किसी भूभाग का ही नाम नहीं है बल्कि यह एक एक समुच्चय का नाम है। जिस तरह किसी व्यक्ति का व्यक्तित्व होता है,उसी तरह राष्टï्र का भी व्यक्तित्व होता है। यही कारण है कि समूचे राष्टï्र की संवेदनाओं में अनेकता के बावजूद एकरूपता होती है। जाति, धर्म, संप्रदाय के नाम पर इस एकरूपता को ठेस पहुंचाना भी राष्टï्रीय हितों पर कुठाराघात ही है। जो जनप्रतिनिधि राष्टï्रजनों की आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करने के साथ ही राष्टï्र की एकजुटता एवं अखंडता के लिए भी मन वचन कर्म से प्रतिबद्ध हों, वही अवाम की पहली पसंद होने चाहिए। आज जब आतंकवाद तथा महंगाई जैसे संकटों से जूझ रहे है तब अपनी इन जिम्मेदारियों का निर्वाह हमारे लिए वक्त का तकाजा ही है।
-सर्वदमन पाठक

No comments:

Post a Comment