Wednesday, March 20, 2013

दतिया कांड
शर्म की घटना पर उत्तेजना क्यों
सर्वदमन पाठक
दतिया के पास एक गांव में स्विस महिला पर्यटक के साथ सामूहिक बलात्कार की घटना ने हमारे प्रदेश का सिर शर्म से झुका दिया है। देश विदेश के प्रिंट तथा इलेक्ट्रानिक मीडिया ने इस घटना को जिस तरह से हाईलाइट किया, उससे इस घटना की गंभीरता का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। दरअसल प्रदेश में यौन उत्पीडऩ की यह कोई अकेली घटना नहीं है जिसे राज्य सरकार अपवाद बताकर टाल दे। सच तो यह है कि  आंकडों की दृष्टि से पिछले साल मध्यप्रदेश में देश में सर्वाधिक यौन उत्पीडऩ के मामले दर्ज किये गए हैैं। यह घटना सिर्फ यही बताती है कि शीलभंग के मामले में अब पानी सिर से निकल रहा है। संसद के दोनों सदनों तथा मध्यप्रदेश विधानसभा में इस मुद्दे पर सभी पक्षों की ओर से जो चिंता जाहिर की गई है उसे सिर्फ सियासी होहल्ला मानकर खारिज नहीं किया जा सकता। मध्यप्रदेश में कांग्र्रेस ने सड़कों पर उतरकर जो विरोध प्रदर्शन किया है, वह प्रमुख विपक्षी दल होने के नाते उसका अधिकार है और यदि सरकार इस विरोध से विचलित दिख रही है तो यह विपक्ष की सफलता ही है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान कहते हैैं कि इस घटना को राजनीतिक रंग नहीं दिया जाना चाहिए। लेकिन लाख टके का सवाल यही है कि प्रदेश में पूरी तरह से बदरंग नजर आ रहा विपक्ष यदि इस मुद्दे पर जन समर्थन जुटाकर प्रभावी विरोध प्रदर्शन कर सका है तो इस मुद्दे की गंभीरता को सरकार कैसे नजरअंदाज कर सकती है।
लगता है कि हमारी सरकार इन घटनाओं को रोकने की प्रभावी पहल करने के बदले सारा दोष दूसरों पर थोपना चाहती है। मसलन हमारे प्रदेश के स्वनामधन्य गृहमंत्री उमाशंकर गुप्ता कहते हैैं कि यदि उक्त विदेशी बाला अपनी यात्रा की जानकारी स्थानीय अधिकारियों को पूर्व में दे देती तो उसके साथ यह हादसा नहीं हो पाता। इस बयान से गृहमंत्री ने जाने अनजाने  बलात्कार के लिए उक्त स्विस महिला को दोषी ठहरा दिया है। वे यह निश्चित ही नहीं कहना चाहते होंगे कि इसमें बलात्कार करने वालों तथा लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित करने वाली कानून व्यवस्था मशीनरी का कोई दोष नहीं है लेकिन बिना सोचे समझे दिये गए उनके बयान से यह ध्वनि अवश्य निकलती है।  वैसे राज्य की कानून व्यवस्था को लेकर गृहमंत्री या तो काफी खुशफहमी में जीते हैैं या फिर उनमें वास्तविकता को स्वीकार करने का साहस नहीं है। इसी वजह से वे कई बार यह बयान दे चुके हैैं कि राज्य सरकार ने प्रत्येक अपराध को पंजीबद्ध करने के पुलिस को निर्देश दिये हैैं इसलिए ये आंकड़े इतने ज्यादा लगते हैैं। उनका यह बयान भी वास्तविकता से कोसों दूर है। सच तो यह है कि आज भी विभिन्न थानों में शिकायत दर्ज कराने के लिए पहुंचने वाले कितने ही नागरिकों की शिकायतें दर्ज किये बगैर उन्हें दुत्कार कर भगा दिया जाता है। अलबत्ता थानों में निरपराध लोगों का जीना मुहाल कर देने वाले अपराधियों को अघोषित रूप से विशेष अतिथि का दर्जा हासिल होता है और उसी हिसाब से उनकी आवभगत भी होती है। यदि इतनी कड़वी हकीकत के बाद भी प्रदेश में महिलाओं के यौन उत्पीडऩ के मामले इतने भयावह हैैं तो राज्य सरकार को इस हकीकत को स्वीकार कर लेना चाहिए कि वास्तव में प्रदेश में महिलाओं की जिंदगी और अस्मत दोनों ही सुरक्षित नहीं हैैं। राज्य सरकार का दावा है कि वह महिलाओं के कल्याण तथा प्रतिष्ठा की रक्षा के प्रति प्रतिबद्ध है और इसे सुनिश्चित करने के लिए कई योजनाएं चला रही है। लेकिन आंकड़े देखकर तो यही लगता है कि उसकी योजनाएं सिर्फ कागज पर ही चल रही हैैं और महिलाओं की जिंदगी पर इसका कोई खास असर नहीं दिख रहा है। राज्य सरकार को स्विस महिला के साथ बलात्कार की घटना से उत्तेजित होने, झुंझलाने तथा दूसरों पर इसका दोष मढऩे के बदले खुद इसकी जवाबदेही स्वीकार करनी चाहिए और इस बात का संकल्प लेना चाहिए कि वह राज्य में महिलाओं के जीवन और इज्जत से खिलवाड़ करने वाले तत्वों से पूरी सख्ती से निपटेगी और उनके प्रतिष्ठापूर्ण जीवन को सुनिश्चित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ेगी।
न्याय और निहितार्थ
काजल कांड
:
जन भावनाओं के अनुरूप फैसला
सर्वदमन पाठक
सारे देश को झकझोर देने वाले दिल्ली गैैंगरेप कांड का फैसला भले ही अभी तक नहीं हो पाया हो और दोषियों को फांसी की सजा की लोगों की इच्छा न पूरी हो पाई हो लेकिन उससे उपजी चेतना ने बलात्कार और हत्या के रेयरेस्ट आफ द रेयर मामलों में न्यायालयों को शीघ्रातिशीघ्र फैसले के लिए अवश्य प्रेरित किया है। विशेषत: मध्यप्रदेश में तीन दिन में ही इसकी दो नजीर सामने आई हैैं। मसलन इंदौर में तीन वर्षीय बच्ची की शारीरिक तथा यौन यंत्रणा  और हत्या के मामले में कुछ माह में ही उसके चाचा चाची को क्रमश: फांसी तथा आजन्म कारावास की सजा सुनाने के एक दिन के अंतराल से ही भोपाल के काजल हत्याकांड का फैसला भी आ गया है जिसमें अपेक्षा के अनुरूप आरोपी को मौत की सजा सुनाई गई है। काजल हत्याकांड तथा शिवानी प्रकरण में यह समानता थी कि दोनों को उनके परिवार के करीबी व्यक्तियों ने अंजाम दिया था। जहां शिवानी को उसके चाचा चाची ने जुल्म तथा यौन यंत्रणा का शिकार बनाया और बाद में उसकी हत्या कर दी वहीं काजल को उसके मुंह बोले नाना ने अपनी वासना का शिकार बनाया और बाद में उसकी नृशंस हत्या कर दी। भोपाल को काजल हत्याकांड ने झकझोर दिया था। चूंकि यह घटना गृहमंत्री के बंगले के कुछ ही दूरी पर हुई थी इसलिए यह सवाल उठना स्वाभाविक था कि इतने सख्त सुरक्षा वाले क्षेत्र में ऐसी जघन्य वारदात हो सकती है तो फिर अन्य स्थानों पर कानून व्यवस्था की स्थिति कितनी भयावह होगी। इस कांड की वजह से कानून व्यवस्था को लेकर सरकार पर विपक्ष को हमला करने का एक और मौका मिल गया था और विपक्ष ने इसे भुनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी। बहरहाल शिवराज सरकार ने इस मामले में जितनी तेजी के साथ के साथ तहकीकात की, वह असाधारण ही थी। प्रशासन ने इसके लिए भारी भरकम इनाम घोषित किया जिसने जांच में उत्प्रेरक का काम किया। यही वजह थी कि पुलिस ने रिकार्ड समय में आरोपी को धर पकड़ा और तमाम रहस्यों की परतें हटाते हुए इसकी पूरी कहानी को उजागर कर दिया। लेकिन इस जांच का सूत्रधार रहा काजल का छोटा भाई जिसने पहली नजर में ही आरोपी को पहचान लिया। उसके द्वारा दी गई इस जानकारी के आधार पर कि बड़ी बहन काजल को आखिरी बार उसने आरोपी के साथ ही देखा था, पुलिस की जांच को गति मिली। संभवत: यह एक अहम कारण था जिसने अभियोजन पक्ष को रिकार्ड टाइम में आरोप पत्र दाखिल करने में मदद की और अंतत: सिर्फ नौ दिन तक चले मुकदमे में आरोपी को उसके जघन्य कृत्य की सजा सुनाई जा सकी।
अंग्र्रेजी कहावत है 'जस्टिस डिलेड इज़ जस्टिस डिनाइडÓ। कई बार देखा गया है कि देर से मिला न्याय अन्याय से भी ज्यादा दारुण होता है। वैसे भी न्याय में जितना विलंब होता है, उसके गवाहों को प्रभावित करने की संभावना उतनी ही ज्यादा होती है और न्यायालयीन प्रक्रिया को बाधित करने की संभावनाएं उतनी ही ज्यादा होती हैैं। बलात्कार और हत्या के ऐसे दिल दहला देने वाले मामले में तो समाज की भी यही अपेक्षा होती है कि अपराधी को यथाशीघ्र कठोरतम सजा मिले। इस दृष्टि से काजल हत्याकांड का फैसला न्याय की एक बेहतरीन मिसाल है। इससे अपराधी मानसिकता के व्यक्तियों के मन में कानून का भय पैदा होगा और ऐसे जघन्य अपराधों को रोकने में मदद मिलेगी। लेकिन सिर्फ कठोर न्याय से ही ये अपराध रुक सकते हैैं, यह सोचना कुछ अधिक ही आशावादी सोच है। दरअसल हमें यदि इन अपराधों पर प्रभावी रोक लगानी है तो समाज में संस्कारों के परिष्कार का आंदोलन चलाना चाहिए ताकि लोग नारी को सम्मान की नजर से देखें और समाज उसकी जिंदगी और अस्मत की रक्षा को अपना दायित्व समझे।

दरिंदगी की सजा
 सर्वदमन पाठक
यह मंगलवार प्रदेश की औद्योगिक नगरी इंदौर के लिए वास्तव में एक भावुक न्यायिक जीत का दिन था। यह फैसला दरअसल उस मासूम बच्ची के लिए न्यायालय की सही श्रद्धांजलि ही मानी जाएगी जिसकी उसके अपने ही चाचा चाची ने लगभग नौ माह तक जुल्म तथा दुष्कृत्य के बाद लोमहर्षक तरीके से हत्या कर दी थी। उस नन्ही सी बच्ची को बलात्कार सहित जितनी यातनाएं दी गईं, वह किसी के भी रोंगटे खड़े कर देने के लिए काफी है।  इस त्रासद घटनाक्रम को जानने वालों का मानना है कि बच्ची के चाचा को मृत्युदंड तथा चाची को आजन्म कारावास का न्यायालयीन फैसला न्यायिक प्रावधानों के तहत भले ही उचित हो लेकिन इन दरिंदों ने जो कुछ किया है, उसकी उन्हें कितनी भी सजा दी जाए, कम है।
इस घटना के पूरे विवरण को जिसने भी पढ़ा सुना है, वह आसानी से कह सकता है कि यह न्यायालय की परिभाषा में रेयरेस्ट आफ द रेयर केस माना जा सकता है।
दरअसल उस बच्ची के साथ जुल्म, बलात्कार और हत्या का यह दर्दनाक  सिलसिला अमानवीयता की पराकाष्ठा को ही दर्शाता है। इंदौर के लसूडिय़ा थाने के तहत दर्ज इस मामले के अनुसार राजेश ने अपने बड़े भाई की बच्ची शिवानी को जनवरी 2012 में गोद लिया था और तब से से ही वह अपनी पत्नी बेबी के साथ मिलकर बच्ची के साथ जालिमाना व्यवहार तथा बलात्कार करता था। जुल्म का यह रूह कंपा देने वाला सिलसिला 22 सितंबर 2012 को ही थमा जब किस्मत की मारी इस बच्ची की मौत हो गई। राजेश अपनी पत्नी के साथ जब शिवानी के शव को चादर में लपेटकर ठिकाने लगाने ले जा रहा था तभी उनके पड़ौसियों को शक हुआ और उन्होंने पुलिस को इत्तला की जिसके बाद इन दरिंदों को पकड़ा जा सका।
जिन यातनाओं से उस बच्ची को मौत केपहले गुजरना पड़ा, वह किसी के भी हृदय को विगलित कर सकती है। महज चार साल की शिवानी की पोस्ट मार्टम रिपोर्ट के अनुसार उसके शरीर पर चोट के 31 घाव थे जो यह बताने के लिए काफी हैैं कि उसके साथ जब तब पैशाचिकता की हद तक मारपीट की जाती थी। रिपोर्ट के मुताबिक उसके साथ जब तब प्राकृतिक तथा अप्राकृतिक कुकृत्य भी किया जाता था।
पड़ौसियों की गवाही ने पीड़ा की इस कहानी के क्रूर खलनायकों को सजा के तार्किक अंजाम तक पहुंचाने में काफी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। इन पड़ौसियों ने ही बच्ची के साथ हुए वहशियाना जुल्म का विस्तृत विवरण अदालत को दिया और न्याय में उसकी मदद की। लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है। राजेश के जो पड़ौसी बच्ची की मौत के बाद सामने आए और इस घटना के लिए जिम्मेदार पति पत्नी को सजा दिलाने में कारगर रोल अदा किया, यदि वे जुल्म की इस घटनाओं की शुरुआत में ही अपने साहस का परिचय देते और पुलिस को वहां बच्ची के साथ हो रहे पाशविक कृत्यों की जानकारी दे देते तो संभवत: वह बच्ची चाचा चाची के इन भयावह जुल्मों से बच जाती और यों बेमौत मौत का शिकार न होती।
न्यायालय ने कुछ ही महीनों में मानवीय संवेदनाओं को झकझोर देने वाले इस मामले का फैसला सुना दिया जो न्यायालयों की सामाजिक चेतना का परिचायक है। न्यायालयों का यही रुख उसके प्रति लोगों में भरोसा जगाता है।
कोलार: असुविधाओं से मुक्ति की बेताबी
सर्वदमन पाठक

कोलारवासियों को अंतत: काफी इंतजार के बाद राज्य सरकार की ओर से एक अत्यंत ही बेशकीमती तोहफा मिलने जा रहा है। कलेक्टर निकुंज श्रीवास्तव द्वारा कोलार नगर पालिका को भोपाल नगर निगम में विलय करने की सिफारिश राज्य सरकार के पास भेज देने के साथ ही अब इसकी अधिसूचना जारी होने की औपचारिकता ही शेष रह गई है जो शीघ्र पूरी होने की उम्मीद है। दो लाख की आबादी वाले कोलार क्षेत्र के विकास को नई गति देने वाले इस कदम से क्षेत्रवासियों का उत्साहित होना स्वाभाविक है लेकिन अभी यह स्पष्ट नहीं हुआ है कि इस विलय का स्वरूप क्या होगा। प्राप्त संकेतों के अुनसार शुरुआती तौर पर यहां नगर निगम की ओर से नोडल अधिकारी की नियुक्ति होने की संभावना है। यह कदम इसके विकास में मील का पत्थर सिद्ध होगा क्योंकि इससे क्षेत्रवासियों को वे कई सुविधाएं मिल सकेंगी जिससे अभी तक वे वंचित रहे हैैं।
यह बात सर्वविदित है कि पिछले कुछ सालों में इस क्षेत्र ने शहरवासियों की आवास संबंधी जरूरतों को पूरा करने में सराहनीय योगदान दिया है। एक दशक के भीतर ही कोलार बड़े बड़े कालोनाइजरों का   कार्यक्षेत्र बन गया है। अब कोलार के दूरस्थ क्षेत्रों में प्रतिष्ठित कालोनाइजरों द्वारा इतनी विशाल एवं सुंदर कालोनियां विकसित की गई हैैंं जिसकी दो वर्ष पूर्व कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। लेकिन सुविधाओं के अभाव में लोग वहां निवास के लिए आकर्षित नहीं हो पा रहे हैैं। बहुत सारे वे लोग जिन्होंने इन कालोनियों में मकान या फ्लेट बुक कर लिये हैैं, वे भी अब सुविधाहीनता की स्थिति में उन्हें बेचने को मजबूर हो रहे हैैं। हालांकि सिटी लिंक बसें वहां दूर दूर तक जाने लगी हैैं इसलिए लोगों की आवागमन संबंधी असुविधा  कुछ हद तक दूर हुई है लेकिन अभी ऐसे तमाम कारण हैैं जो इन कालोनियों के आबाद होने में रोड़ा बने हुए हैैं। मसलन यहां अच्छी सड़कें अभी भी नहीं बन पाई हैैं जिनसे कालोनियों में लोगों को आने जाने में काफी कठिनाई होती है। यहां प्रकाश व्यवस्था भी अपर्याप्त है जो लोगों की परेशानी का एक बड़ा कारण है। नगर निगम से सीधे तौर पर जुडऩे से इन असुविधाओं से कोलार वासियों को निजात मिलेगी, यह उम्मीद स्वाभाविक रूप से की जा सकती है।
कोलारवासियों की सबसे बड़ी समस्या पेयजल की है। कमोवेश पूरे कोलार क्षेत्र में गर्मी के मौसम में पानी के लिए त्राहि त्राहि मच जाती है। कोलार की पुरानी बस्तियों में यह समस्या कुछ ज्यादा ही विकट है और जहां तहां टेंकरों से जलापूर्ति यहां की आम बात है। कोलारवासियों की सबसे बड़ी पीड़ा यह है कि कोलार पाइप लाइन भोपाल  शहर के एक बड़े हिस्से की प्यास तो बुझाती है लेकिन कोलार के लोग ही इसके पानी से वंचित हैैं। इसी वजह से कोलार में पानी के लिए जब तब आंदोलन होते रहते हैैं और इस बहाने कई नेताओं की नेतागिरी चमकती रहती है।
भोपाल नगर निगम में कोलार नगर पालिका के विलय से इस क्षेत्र के बाशिंदों को जल समस्या से निजात मिलने की पूरी पूरी उम्मीद है क्योंकि तब क्षेत्रवासियों को जल उपलब्ध कराना नगर निगम की जिम्मेदारी होगी।
इसके अलावा कोलारवासियों को राज्य की राजधानी के बाशिंदे होने का गर्व भी इस कदम से महसूस हो सकेगा। भोपाल की पहचान देश की सांस्कृतिक राजधानी के रूप में है और कोलार भी इस गौरव का हिस्सा बन सकेगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि अब इस दिशा में कोई सियासी दांवपेंच आड़े नहीं आएंगे।


हड़ताल का इंतजार क्यों?

सर्वदमन पाठक
हमीदिया अस्पताल तथा सुल्तानिया अस्पताल में जूनियर डाक्टरों की हड़ताल अंतत: खत्म हो गई है और अब वहां चिकित्सा व्यवस्था तकरीबन सामान्य हो चली है। इससे इन अस्पतालों में इलाज कराने वाले आउटडोर तथा इनडोर मरीजों ने राहत की सांस ली है क्योंकि प्रदेश के सबसे बड़े अस्पतालों में शुमार इन अस्पतालों में हड़ताल होने से वहां चिकित्सा व्यवस्था चरमरा गई थी और उन लोगों को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा था जो अपनी आर्थिक सीमाओं के कारण इन अस्पतालों में इलाज कराने के लिए बाध्य हैैं। इन तरह की हड़तालों का एक सकारात्मक पक्ष यह भी है कि इन अस्पतालों की स्वास्थ्य सेवाओं को कोसने तथा कमियां गिनाने वालों को इन अस्पतालों के महत्व का अहसास हो जाता है वरना इन अस्पतालों में 36-36 घंटे लगातार काम करने वाले जूनियर डाक्टरों की व्यथा पर किसी की नजर ही न जाए।
इस वास्तविकता को नकारा नहीं जा सकता कि आम तौर पर चिकित्सा महाविद्यालयों से संबद्ध सरकारी अस्पताल इन जूनियर डाक्टरों के भरोसे ही चलते हैैं लेकिन इन्हीं जूनियर डाक्टरों को जब तब लोगों के दुव्र्यवहार और गुस्से का शिकार होना पड़ता है। यह हड़ताल भी ऐसे ही कारण से हुई थी। आइंदा ऐसी अप्रिय स्थिति न बने, इसके लिए जरूरी है कि उन कारणों पर गौर किया जाए जो ऐसी परिस्थितियों के लिए जिम्मेदार हैैं। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि आउटडोर और इनडोर मरीजों के परिजनों को अपने मरीज ही गंभीर लगते हैैं और वे चाहते हैैं कि उनके मरीज का ही सबसे पहले इलाज किया जाए लेकिन वास्तविक रूप से गंभीर मरीजों की ओर प्राथमिकता क्रम के हिसाब से ध्यान देना डाक्टरों की मजबूरी होती है। आम तौर पर सरकारी अस्पतालों में झगड़े की यह एक प्रमुख वजह होती है। इन बड़े अस्पतालों के साथ एक बड़ी दिक्कत यह भी होती है कि यहां आसपास के कस्बों, गांवों, शहरों तथा जिलों से गंभीर मरीज आते रहते हैैं और उनमें से कई तो मरणासन्न स्थिति में होते हैैं। डाक्टर अपनी ओर से उनके इलाज की पूरी पूरी कोशिश करते हैैं लेकिन डाक्टर कोई भगवान नहीं होता, फिर भी मौत की त्रासदी हो जाने पर उनके परिजनों को यही लगता है कि डाक्टरों की लापरवाही से यह हुआ है। और इसी वजह से अस्पताल में जब तब हंगामे और डाक्टरों के साथ बदसलूकी की घटनाएं होती रहती हैैं। हालांकि यदि विभिन्न वार्डों में केजुएलिटी हो जाती है तो वहां कार्यरत डाक्टरों को भी दुख होता है। चिंतनीय बात यह है कि मीडिया और राजनीतिज्ञ दोनों ही ऐसी घटनाओं को अपने अपने तरीके से भुनाने की कोशिश करते नजर आते हैैं। विपक्ष जहां मौत जैसी दर्दनाक घटना पर भी राजनीतिक रोटियां सेंकने से बाज नहीं आता वहीं मीडिया में भी इन घटनाओं को उछालने की होड़ सी लग जाती है। ऐसे हालात में आरोपों के कटघरे में खड़ी सरकार का पहला प्रयास यही होता है कि ऐसी घटनाओं के लिए आनन फानन में जवाबदेही तय की जाए भले ही जांच में वह प्रमाणित न हो सके। लेकिन जूनियर डाक्टरों को इन सबके लिए जिम्मेदार ठहराना उनके साथ अन्याय ही है। उत्तेजित भीड़ द्वारा बदसलूकी और हाथापाई के समय उनसे धैर्य की अपेक्षा करना उचित नहीं है। दरअसल अस्पताल में सुरक्षा व्यवस्था इतनी पुख्ता होना चाहिए कि डाक्टर वहां बिना किसी भय तथा दवाब के मरीजों का इलाज कर सकें। इस दृष्टि से हंगामा और डाक्टरों से मारपीट करने वालों पर डाक्टर्स प्रोटेक्शन एक्ट के तहत प्रकरण दर्ज करने की कार्रवाई प्रशासन का उचित कदम है। इससे डाक्टरों के कार्य के लिए बेहतर वातावरण पैदा होगा।
यह सरकार की संवेदनशीलता का ही प्रमाण है कि जूनियर डाक्टरों की प्राय: सभी उचित मांगें मान ली जाती हैैं। स्टायपेंड में वृद्धि तथा डाक्टर्स प्रोटेक्शन एक्ट के तहत कार्रवाई जैसे मामले इसके जीते जागते प्रमाण है लेकिन डाक्टरों का धैर्य चुकने और उनके हड़ताल पर जाने के पहले ही उनकी मांगों पर समुचित कार्रवाई हो जाए तो वहां पहुंचने वाले मरीजों को इतनी परेशानियां न उठानी पड़ें।

Friday, March 1, 2013


घटनार्थ

भीड़ के गुस्से में झुलसा गुलाबगंज

सर्वदमन पाठक

गुलाबगंज स्टेशन पर हुए हादसे और उसके बाद हुई हिंसा एवं आगजनी ने सभी को सिहरा दिया है। दो बच्चों के मालगाड़ी के नीचे आकर दम तोड़ देने की घटना से शुरू हुए इस घटनाक्रम ने इतना भयावह मोड़ कैसे ले लिया, यह सवाल सभी के दिलोदिमाग में घूम रहा है। भोपाल के लिए यह घटना इसलिए भी ज्यादा दुखद है क्योंकि ये दोनों बदनसीब बच्चे भोपाल केअशोका गार्डन क्षेत्र के ही रहने वाले थे। बच्चों की दर्दनाक मौत एक हादसा था जबकि उसके बाद गुलाबगंज स्टेशन पर हुई हिंसा तथा आगजनी अनियंत्रित भीड़ के आक्रोश का परिणाम। उक्त हादसे के पीछे क्या वजह रही और क्या वह किसी की गलती अथवा चूक का परिणाम था, यह तो जांच के बाद ही पता चलेगा लेकिन उसके बाद उपजे विस्फोटक हालात से निपटने में नाकामी की वजह स्पष्ट है। कारण चाहे जो भी हों लेकिन सच्चाई यही है कि हालात की भयावहता तथा लोगों के गुस्से का अनुमान लगाने तथा तदनुरूप कार्रवाई करने में रेलवे प्रशासन तथा रेलवे पुलिस नाकाम रही और इसी वजह से गुलाबगंज स्टेशन को आग के हवाले करने में भीड़ सफल हो गई, जिसके फलस्वरूप दो बेगुनाह रेलकर्मियों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। वैसे रेलवे सुरक्षा बल के साथ ही जीआरपी भी रेलवे के अपराध रोकने के लिए उत्तरदायी होती है, लेकिन वह भी इस हिंसा तथा आगजनी को रोकने में अपना रोल समुचित तरीके से नहीं निभा सकी। इस भयावह पैमाने पर हिंसा एवं आगजनी होने की एक वजह यह भी रही कि गुलाबगंज जैसे छोटे स्थान पर न तो स्टेशन और न ही गांव में पर्याप्त सुरक्षा प्रबंध थे जिससे भीड़ इतनी भयावह हिंसा तथा आगजनी करने में कामयाब हो गई।
इस हिंसा एवं आगजनी में अपने दो साथियों की मौत की खबर फैलते ही रेलवे कर्मचारियों का भी गुस्सा फूट पडऩा स्वाभाविक था लेकिन रेल कर्मचारी यूनियनों ने जिस तरह से विभिन्न स्टेशनों पर टिकट खिड़कियां बंद करवा दीं और रिजर्वेशन कराने आए लोगों के साथ अभद्रता की, उसे भी कतई उचित नहीं कहा जा सकता क्योंकि इन लोगों का तो हिंसा एवं आगजनी से कुछ लेना देना नहीं था।
इस हिंसा का एक बड़ा कारण भीड़ का मनोविज्ञान भी है। दरअसल भीड़ केपास विवेक नहीं होता। इसीलिए भीड़ को भावनात्मक रूप से उत्तेजित करना आसान होता है। यह हिंसा और आगजनी भी भीड़ की ऐसी ही उत्तेजना का परिणाम थी। वैसे कई बार ऐसी परिस्थितियों में स्थानीय स्तर पर प्रतिष्ठित व्यक्ति अपनी समझबूझ से ऐसी अनहोनी घटनाओं को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं लेकिन यह घटनाक्रम इतनी तेजी से घटित हुआ कि वहां प्रशासनिक एवं वैयक्तिक स्तर पर भीड़ की उत्तेजना को शांत करने की कोशिश का किसी को भी कोई मौका नहीं मिला।
इस समूचे घटनाक्रम की जांच के आदेश दे दिये गए हैैं और देर सबेर इसकी रिपोर्ट भी आ जाएगी। इसके निष्कर्षों को सबक के तौर पर लिया जाना चाहिए और रेल प्रशासन तथा रेल पुलिस को अपनी गतिशीलता तथा सजगता बढ़ाकर ऐसी घटनाओं को रोकने का प्रयास करना चाहिए। इसके साथ ही हिंसा और आगजनी की ऐसी घटनाओं पर सामूहिक जुर्माने तथा दंड का प्रावधान भी किया जाना चाहिए ताकि ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति को रोका जा सके क्योंकि आजकल बात बात पर हिंसक प्रदर्शन करना फैशन सा बनता जा रहा है। रेल परिसर में ऐसी हिंसा तथा आगजनी की प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाना वक्त का तकाजा है क्योंकि इससे एक ओर तो बेगुनाहों की जानें जाती हंै वहीं दूसरी ओर रेलवे को नुकसान पहुंचा कर हम अपना ही  नुकसान करते हैैं क्योंकि रेलवे सार्वजनिक संपत्ति है और जनता के पैसे से ही रेलवे चलती है।