मुख्यमंत्री का यह अंदाज काबिले तारीफ ही है कि प्रदेश में इन दिनों चल रहे सत्ता से जुड़े राजनीतिक विवाद से सरकार की छवि को अप्रभावित रखने के अपने सत्ता धर्म में वे पूरे मनोयोग से जुटे हुए हैं। जबलपुर में मेडिकल यूनिवर्सिटी खोलने की घोषणा इसी की एक कड़ी मानी जा सकती है। मुख्यमंत्री की इस घोषणा पर यदि ईमानदारी से अमल हो तो यह राज्य में दुर्दशा के भयावह दौर से गुजर रही स्वास्थ्य सेवाओं में बदलाव लाने में प्रेरणादायी भूमिका अदा कर सकता है लेकिन ऐसे बहुत सारे सवाल हैं जो इस मामले में सरकार की मंशा पर संदेह करने के लिए पर्याप्त हैं। सरकार की नीयत को जानने के लिए ज्यादा कुछ पड़ताल करने की जरूरत नहीं है। राज्य में चिकित्सा शिक्षा के बारे में सरकार कितनी गंभीर है, यह इसी से जाना जा सकता है कि राज्य में मौजूद सभी सरकारी एवं स्वशासी मेडिकल कालेजों की मान्यता लगातार बाधित होती रही है। एमबीबीएस तथा एमएस, एमडी की प्रवेश परीक्षा के समय सरकारी स्तर पर इसका तात्कालिक इलाज ढूंढ लिया जाता है और फिर अगले सत्र तक के लिए सरकार लिहाफ ओढ़ कर सो जाती है। इसका परिणाम यह होता है कि इनमें शिक्षा पाने वाले तमाम चिकित्सा छात्र अपने भविष्य को लेकर लगातार चिंतित रहते हैं। इन चिकित्सा महाविद्यालयों में शिक्षण स्टाफ तथा अन्य सुविधाओं की कमी को दूर करने के लिए सरकार द्वारा आधेअधूरे प्रयास कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली जाती है। सच तो यह है कि राज्य के सरकारी अथवा स्वशासी मेडिकल कालेजों से पिछले कुछ समय में 50 से अधिक वरिष्ठï चिकित्सक इस्तीफा देकर प्रायवेट कालेजों में जा चुके हैं और इतने ही जाने के लिए तैयार हैं लेकिन सरकार और उसके अधिकारी इससे आंखें मूंदे हुए हैं। जहां तक समग्र रूप से राज्य की स्वास्थ्य सेवाओं का सवाल है, प्रदेश के किसी भी इलाके में सरकारी स्वास्थ्य एवं चिकित्सा सेवाओं पर सरसरी निगाह डालने से ही इसकी शोचनीय स्थिति का पता लग सकता है। ग्रामीण इलाकों में तो अधिकांश सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों एवं चिकित्सा सुविधाओं का नितांत अभाव ऐसा तथ्य है जिससे स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी भी अनभिज्ञ नहीं है। इन अस्पतालों में बेचारे मरीजों को यदि धोखे से कभी डाक्टरों के दर्शन हो भी जाएं तो इस बात की गारंटी ली जा सकती है कि वहां दवाएं नहीं मिलेंगी। स्वास्थ्य विभाग इन अस्पतालों के लिए आर्थिक प्रावधानों का हवाला देकर अपना पल्ला झाड़ देता है लेकिन वहां दवाएं क्यों नहीं है, यह जवाब उनकी चुप्पी में मिल जाता है। दवाओं के लिए दी जाने वाली राशि कहां जाती है, इसकी विस्तृत तहकीकात के लिए शायद सरकार के पास वक्त नहीं है। शहरों में भी चिकित्सा सुविधा के हालात कुछ ज्यादा अलग नहीं हैं। निजी अस्पतालों में काफी अच्छी सेवा शर्तों तथा वेतन के आफर के कारण सरकारी अस्पतालों से जितनी तेजी से डाक्टर विदा हो रहे हैं, उससे भविष्य में सरकारी चिकित्सा सेवाओं में होने वाले डाक्टरों के संकट का आभास सहज ही हो जाता है। भले ही इन अस्पतालों के स्टोर में दवाएं भरी पड़ी हो, लेकिन मरीजों को ये दवाएं नसीब नहीं होतीं। ये दवाएं बाजार में बिकती जरूर देखी जा सकती हैं। यदि सरकार वास्तव में प्रदेश मेें चिकित्सा शिक्षा एवं चिकित्सा सेवाओं में सुधार के प्रति गंभीर है तो उसे जबलपुर में चिकित्सा विश्वविद्यालय खोलने के साथ ही प्रदेश के वर्तमान मेडिकल कालेजों एवं सरकारी अस्पतालों के ढहते ढांचे को सहारा देने की दिशा में प्रभावी कदम उठाना चाहिए।
-सर्वदमन पाठक
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