मध्यप्रदेश में इन दिनों दो मुहावरे- स्वर्णिम मध्यप्रदेश तथा राजनीतिक शुचिता सर्वाधिक चर्चित हैं। प्रदेश को खुशहाल तथा विकसित बनाने का मुख्यमंत्री का संकल्प स्वर्णिम मध्यप्रदेश के बारे में थोड़ा आश्वस्त करता है लेकिन इस दिशा में उठाए जाने वाले कदमों के अमल में प्रशासनिक स्तर पर हो रही हीलाहवाली इस आश्वस्ति को धक्का पहुंचाती है। सरकार स्वर्णिम मध्यप्रदेश के निर्माण के लिए घोषणाओं पर घोषणाएं किये जा रही है लेकिन वास्तविकता के धरातल पर परिदृश्य निराशाजनक ही है। इसी तरह राजनीतिक शुचिता मुख्यमंत्री में संकल्पशक्ति के अभाव में सिर्फ खोखला नारा बन कर रह गई है। यह आश्चर्यजनक ही है कि हम स्वर्णिम मध्यप्रदेश के इंतजार में हैं और प्रदेश की कानून व्यवस्था हमारे जीवन तथा अमन चैन के लिए खतरा बनी हुई है। हर जिले में गरीबों और कमजोरों पर दबंगों का कहर बदस्तूर जारी है। नारी उत्पीडऩ में तो राज्य ने मानो तमाम रिकार्ड ही तोड़ दिये हैं। देश में नारी उत्पीडऩ के मामले में मध्यप्रदेश अपने पड़ौसी राज्य उत्तरप्रदेश को छोड़कर अन्य प्रदेशों से आगे है जो शान की नहीं बल्कि शर्म की बात है। यह सब उस राज्य में हो रहा है जहां खुद को नारी को विशिष्टï सम्मान देने वाली भारतीय संस्कृति की झंडाबरदार पार्टी भाजपा की सरकार है। जहां तक औद्योगिक विकास का सवाल है, राज्य सरकार ने अन्य प्रदेशों तथा एनआरआई से निवेश आकर्षित करने के लिए कई सम्मेलन किये हैं लेकिन इनमें से इक्के दुक्के उद्योगपतियों ने प्रदेश मेंं अपने एमओयू पर अमल किया है। इसका परिणाम यह है कमोवेश समूचा प्रदेश आज भी औद्योगिक विकास के लिए तरस रहा है। राज्य में लाड़ली लक्ष्मी तथा जननी सुरक्षा योजनाओं जैसी कई योजनाएं महिलाओं के कल्याण के लिए बनाई गई हैं लेकिन समुचित देखरेख के अभाव तथा प्रशासनिक लापरवाही के कारण ये योजनाएं अपने उद्देश्य में कमोवेश असफल रही हैं।जबलपुर में मेडिकल यूनिवर्सिटी खोलने की घोषणा पर यदि ईमानदारी से अमल हो तो यह राज्य में दुर्दशा के भयावह दौर से गुजर रही स्वास्थ्य सेवाओं में बदलाव लाने में प्रेरणादायी भूमिका अदा कर सकता है लेकिन ऐसे बहुत सारे सवाल हैं जो इस मामले में सरकार की मंशा पर संदेह करने के लिए पर्याप्त हैं। सरकार की नीयत को जानने के लिए ज्यादा कुछ पड़ताल करने की जरूरत नहीं है। राज्य में चिकित्सा शिक्षा के बारे में सरकार कितनी गंभीर है, यह इसी से जाना जा सकता है कि राज्य में मौजूद सभी सरकारी एवं स्वशासी मेडिकल कालेजों की मान्यता लगातार बाधित होती रही है। एमबीबीएस तथा एमएस, एमडी की प्रवेश परीक्षा के समय सरकारी स्तर पर इसका तात्कालिक इलाज ढूंढ लिया जाता है और फिर अगले सत्र तक के लिए सरकार लिहाफ ओढ़ कर सो जाती है। इसका परिणाम यह होता है कि इनमें शिक्षा पाने वाले तमाम चिकित्सा छात्र अपने भविष्य को लेकर लगातार चिंतित रहते हैं। इन चिकित्सा महाविद्यालयों में शिक्षण स्टाफ तथा अन्य सुविधाओं की कमी को दूर करने के लिए सरकार द्वारा आधेअधूरे प्रयास कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली जाती है। सच तो यह है कि राज्य के सरकारी अथवा स्वशासी मेडिकल कालेजों से पिछले कुछ समय में 50 से अधिक वरिष्ठï चिकित्सक इस्तीफा देकर प्रायवेट कालेजों में जा चुके हैं और इतने ही जाने के लिए तैयार हैं लेकिन सरकार और उसके अधिकारी इससे आंखें मूंदे हुए हैं। जहां तक समग्र रूप से राज्य की स्वास्थ्य सेवाओं का सवाल है, प्रदेश के किसी भी इलाके में सरकारी स्वास्थ्य एवं चिकित्सा सेवाओं पर सरसरी निगाह डालने से ही इसकी शोचनीय स्थिति का पता लग सकता है। ग्रामीण इलाकों में तो अधिकांश सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों एवं चिकित्सा सुविधाओं का नितांत अभाव ऐसा तथ्य है जिससे स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी भी अनभिज्ञ नहीं है। इन अस्पतालों में बेचारे मरीजों को यदि धोखे से कभी डाक्टरों के दर्शन हो भी जाएं तो इस बात की गारंटी ली जा सकती है कि वहां दवाएं नहीं मिलेंगी। स्वास्थ्य विभाग इन अस्पतालों के लिए आर्थिक प्रावधानों का हवाला देकर अपना पल्ला झाड़ देता है लेकिन वहां दवाएं क्यों नहीं है, यह जवाब उनकी चुप्पी में मिल जाता है। दवाओं के लिए दी जाने वाली राशि कहां जाती है, इसकी विस्तृत तहकीकात के लिए शायद सरकार के पास वक्त नहीं है। शहरों में भी चिकित्सा सुविधा के हालात कुछ ज्यादा अलग नहीं हैं। निजी अस्पतालों में काफी अच्छी सेवा शर्तों तथा वेतन के आफर के कारण सरकारी अस्पतालों से जितनी तेजी से डाक्टर विदा हो रहे हैं, उससे भविष्य में सरकारी चिकित्सा सेवाओं में होने वाले डाक्टरों के संकट का आभास सहज ही हो जाता है। भले ही इन अस्पतालों के स्टोर में दवाएं भरी पड़ी हो, लेकिन मरीजों को ये दवाएं नसीब नहीं होतीं। ये दवाएं बाजार में बिकती जरूर देखी जा सकती हैं। यदि सरकार वास्तव में प्रदेश मेें चिकित्सा शिक्षा एवं चिकित्सा सेवाओं में सुधार के प्रति गंभीर है तो उसे प्रदेश के वर्तमान मेडिकल कालेजों एवं सरकारी अस्पतालों के ढहते ढांचे को सहारा देने की दिशा में प्रभावी कदम उठाना चाहिए। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने राज्य में एक लाख शिक्षकों की नियुक्ति की घोषणा की है। यह महज संयोग नहीं है कि सीधी में यह घोषणा ऐसे समय की गई है जब शिक्षा का अधिकार नामक उस कानून पर देश भर में बहस जारी है जिसमें शिक्षा के सर्वव्यापीकरण की कोशिश की झलक मिलती है। यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि शिक्षा का अधिकार कानून को ईमानदारी से लागू करने के लिए बड़ी संख्या में शिक्षकों की जरूरत होगी। गौरतलब है कि राज्य में शिक्षा का परिदृश्य काफी निराशाजनक है। राज्य के स्कूलों में समुचित सुविधाओं एवं योग्य शिक्षकों का खासा अभाव है और इस अभाव को दूर किये बिना राज्य में स्कूल चलें अभियान जैसी महत्वाकांक्षी मुहिम की सफलता की आशा करना बेमानी है। दरअसल सिर्फ शिक्षकों की नियुक्ति मात्र से ज्यादा कुछ नहीं होने वाला है। शिक्षकों की गुणवत्ता इससे जुड़ा ही मामला है। सवाल यह है कि प्रदेश में वर्तमान में जो शिक्षक नियुक्त हैैं, क्या वे पर्याप्त योग्य हैं और क्या सरकार उनका समुचित उपयोग कर पा रही है। विभिन्न परीक्षाओं के नतीजे इसे बेनकाब करने के लिए काफी हंै। सच तो यह है कि शिक्षकों को साल के एक बड़े हिस्से में अन्य ऐेसे कामों की जिम्मेदारी सौंप दी जाती है जिसका शिक्षा से कुछ भी लेना देना नहीं होता। नए शिक्षकों की नियुक्ति के साथ ही सरकार को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि शिक्षकों से सिर्फ शैक्षणिक कार्य ही लिया जाए और उनसे कोई बेगार न कराई जाए।इसके साथ ही स्कूलों में अन्य सुविधाएं उपलब्ध कराने की दिशा में भी सरकार सार्थक पहल करे। आजादी के त्रेसठ साल बीत जाने के बावजूद अभी तक कई स्कूलों के पास अपना कोई ऐसा भवन नहीं है जहां तमाम सुविधाएं छात्रों तथा शिक्षकों को उपलब्ध हों। कई स्कूलों में तो पेयजल तथा बाथरूम की सुविधा तक नहीं है। समुचित भवन और जरूरी सुविधाओं के अभाव में यह कल्पना कैसे की जा सकती है कि नए छात्र स्कूल जाने के लिए आकर्षित होंगे , यह एक विचारणीय प्रश्न है। शिक्षा का अधिकार कानून में यह भी प्रावधान है कि गरीब बच्चों को फीस में रियायत दी जाए और इसके लिए प्रायवेट स्कूल भी अपवाद नहीं होंगे। सरकार को सरकारी शिक्षा प्रणाली दुरुस्त करने के साथ ही प्रायवेट स्कूलों को भी इस सामाजिक उद्देश्य की सहभागिता के लिए तैयार करना चाहिए था लेकिन सरकार नेे इसकी जिम्मेदारी केंद्र पर डाल दी है और अपना पल्ला झाड़ लिया है। राज्य में भ्रष्टïाचार अवश्य ही फूल फल रहा है। राज्य के आधा दर्जन से अधिक मंत्रियों पर लोकायुक्त में मामले दर्ज हैं। कई मंत्रियों पर तो गंभीर आपराधिक मामले भी दर्ज हैं। प्रदेश भाजपा की कार्यसमिति ने अभी हाल ही में राजनीतिक शुचिता की जरूरत पर काफी जोर दिया था लेकिन एक मात्र मंत्री अनूप मिश्रा की विदाई के बाद मंत्रि मंडलीय सदस्यों के भ्रष्टïाचार का मामला ठंडे बस्ते में चला गया है। मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि सिर्फ आरोप लगने से कोई दागी थोड़ी हो जाता है। कई आला अफसर भी भ्रष्टïाचार के गंभीर आरोपों के बावजूद सरकार के कृपापात्र बने हुए हैं। प्रदेश में अपराध का ग्राफ लगातार बढ़ रहा है, औद्योगिक विकास के तमाम दावे झूठे सिद्ध हो रहे हैं, महिलाओं की जिंदगी और इज्जत दोनों ही दांव पर है। ऐसे में यही सवाल सबकी जुबान पर है कि क्या ऐसे ही बनेगा स्वर्णिम मध्यप्रदेश।
-सर्वदमन पाठक
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