मैत्रेयी पुष्पा
आजकल कुछ लेखिकाएं जुनून के स्तर पर महिला स्वातंत्र्य के बारे में बात कर देती हैं यह कहना है हमारे प्रसिद्ध साहित्यकार का, जो हैं तो गांधी भक्त, लेकिन देश की आधी दुनिया के बारे में विचार करते हुए पुराने रीति-रिवाजों यानी रूढिय़ों की वकालत करते हैं। मेरी स्मृति में उनका चेहरा अपने बुझे-बुझे रूप में ताजा हो जाता है और वह समय वह दिन साकार हो उठता है, जब खचाखच भरे सभागार में मुझे अपनी बातें कहने का मौका एक साहित्यिक मंच पर दिया गया था। विषय था हिंदी साहित्य और परिवर्तन की दिशाएं जाहिर है स्त्रियों के लिए बदलाव की जो लहर साहित्य में उठी है, उसे रेखांकित करना था। साथ ही जिन आख्यानों और इतिहास सम्मत कथाओं को औरत के बलिदान के रूप में सराहा गया है, उस पर भी अपना मत देना था। लोकाचारों पर बात करनी थी। क्या सचमुच औरतों में आजादी पाने का जुनून नहीं होना चाहिए? साम्राज्यवादियों, सामंतों और शासकों की फितरत में गुलाम पालने का जज्बा न होता तो गुलामों में भी मुक्ति का जुनून पैदा नहीं होता। कसावट जितनी ज्यादा होती है, छटपटाहट उतनी ही तीव्र होती जाती है। मुश्किल यह है कि इस छटपटाहट को वर्चस्ववादी पुरुषों ने औरत की हिमाकत माना है। घुटन को व्यक्त करना उसकी सहिष्णुता पर बदनुमा दाग की तरह वाचाल करार दिया जाता है। ऐसा न होता तो भारतीय स्त्रियों की दुनिया आंदोलनों की तीखी लपटें न खड़ी करती। मुश्किल यह है कि जो नीति-नियम स्त्री के लिए बनाए गए थे, जो स्त्री-धर्म औरत को बताया गया है, वह हम औरतों के लिए काबिले बर्दाश्त नहीं है। मगर हम यह भी जानते हैं कि पुराने नीति-नियमों पर इनकार में सिर हिलाना हमारी गुस्ताखी होगी। संस्कृति का अस्वीकार हमारा अपराध माना जाएगा। परिवर्तन की दिशाओं पर बोलते हुए मेरे सामने इतिहास की प्रचलित कथा के वे पन्ने खुले पड़े थे जिनके ऊपर लिखी इबारत हम औरतों के लिए काबा काशी की आयतें और मंत्र हैं। चित्तौडग़ढ़ का ऐतिहासिक किस्सा रानी पद्मिनी का जीवन वृत्तांत और उसकी मृत्यु कथा रामायण और गीता की तरह स्त्रियों के संसार में अपना पवित्र और कारगर मुकाम बनाए हुए है। अलाउद्दीन का आक्रमण, चित्तौडग़ढ़ की विजय की तमन्ना और रानी पद्मिनी को अपने हरम में शामिल करने की आरजू ने राजा रतनसेन को मुगल बादशाह की कैद बख्शी। अब रानी पद्मिनी से आमना-सामना होना था। सबको पता है कि रानी पद्मिनी ने अपनी सखियों के साथ जौहर व्रत किया था और लपटों में समाकर अपनी इहलीला समाप्त की थी। बचपन में कल्याण पत्रिका का नारी विशेषांक देखा था। जिसमें देखी थी जलती हुई रानी पद्मिनी की तस्वीर। तब मेरे बाल मन में सवाल जागा था-अपने आप कोई जलता है? मां ने कहा था-अपने आप नहीं, मर्यादा के लिए जलती हैं पद्मिनी और सखियां और सती कहलाती हैं। मैंने मंच से अपनी मनोव्यथा दर्ज की थी ऐसा इतिहास जो स्त्री को भस्म होने के लिए मिसालें पेश करे, अब हमें औरत जात पर कलंक लगता है। रानी पद्मिनी के जौहर-व्रत को हटा देंगे। हम उन पन्नों से जो हमें सती हो जाने की सीख देते हैं। क्या हो जाता अगर अलाउद्दीन हमला कर देता? यही कि रानी पद्मिनी को अपने काबू में कर लेता! क्या रानी में लडऩे की कूवत नहीं थी? वह लाचार थी या कायर? शस्त्रागार से भरा हुआ चित्तौड़ का किला दहशत के मारे राख हो गया। औरतों के हौसले खाक में मिल गए और हमारा समाज है कि आज तक हमें उस जौहर की मिसाल देकर हमें रानी पद्मिनी बनाना चाहता है। हमारे भीतर पुरुषों की पौराणिक और ऐतिहासिक मान्यताओं ने भीषण जहर भर दिए हैं कि हम पुरुष की छाया मात्र से अपवित्र हो जाने के डर से खुद को सिकोड़ते जाते हैं। सिकुड़ा हुआ व्यक्ति आगे चलने के लिए किस हिम्मत पर तैयार हो? मैं तो बस यही मानती हूं कि पद्मिनी को जलकर नहीं, लड़कर मरना था या जीना था, लेकिन स्त्रियों का इतिहास तो उन पुरुष प्रवरों ने बताया है जो अपने घर की औरतों की स्वस्थ सांसों से भी डर जाते हैं। उनकी गलती भी क्या है? वे तहेदिल से सती प्रथा के समर्थक जो हैं। गांधी कहें तो कहते रहें कि जब तक देश में स्त्रियों की स्वतंत्रता नहीं आएगी, तब तक हमारी आजादी पूरी नहीं। जाहिर है कि आजादी के लिए जुनून चाहिए। जुनून न हो तो आदमी कीड़े-मकोड़ों की तरह मर जाए। वफादार होना, वफा के वास्ते जीना किसका मकसद नहीं होता, लेकिन जब वफा के नाम पर कमजोर, कायर और किंकर्तव्यविमूढ़ होने का आदेश पितृसत्तात्मक तबके से आए तो ऐसी वफादारी से तौबा करना हमारा हक है और यह भूमिका अब साहित्य निभाएगा। परिवर्तन की लहर में कुत्ते जैसी वफादारी किनारे कर दी जाएगी, जो महज पेट भरने के लिए रोटी और तन ढंकने वाले कपड़े के लिए औरत आजन्म करती रहती है। हमने पन्ना धाय की कहानी पढ़ी है-राजा से सेवक की वफादारी की ऐसी कथा जिसमें किसी सवाल के लिए जगह नहीं। पन्ना धाय ने राजा के भाई की दुश्मनी राजकुमार पर नहीं टूटने दी, शमशीर की धार के नीचे अपने बेटे को सुला दिया। राजकुमार बच गया, दासी-पुत्र भावी- गुलाम कल गुलामी करता, आज ही काम आ गया। पन्ना बहादुर थी या डरपोक? क्यों छीन लिया एक मां ने अपने बेटे से जिंदगी का अधिकार? क्यों मजबूर हुई वह चुपचाप उस हत्या को देखने के लिए? सब कुछ राजतंत्र के लिए हुआ, क्योंकि राजतंत्र के ऐसे विधि-विधान न लिखे जाएं तो वह जीवित कैसे रहे? ऐसी राजव्यवस्थाओं को चलाने के लिए एक नहीं अनेक लेखक अपना पुरजोर समर्थन देते दिखते हैं तो स्त्रियों का तबका हतप्रभ रह जाता है। कितना चालाक है कलम के सिपाहियों का अभिजात्य समूह कि मुद्दे वही उठाता है जो औरत की जड़ें काटते हैं। अपने ऋषि-मुनियों की पुराण-वेत्ताओं की तरह विरुदावलि गाता है और श्लोक मंत्र बोलकर हमें डराता है कि हमारे लिए जो तय किया गया है, वह पत्थर की लकीर सरीखा है, लेकिन हम भी कहे बिना नहीं मानते कि जो नीतियां, जो निर्धारित धर्म की नियमावलियां और लोकाचारों की विधियां हमें रास नहीं आतीं, हम उन्हें बदलेंगे। उदाहरण के तौर पर पारिवारिक संबंधों को ले सकते हैं जिनमें हमको प्यार-प्रीति का मोम बनाकर घुला लिया जाता है। अब तक यह नई बात कोर्ट-कचहरियों की मार्फत सामने नहीं आई थी कि पिता की संपत्ति में बेटी का भी अधिकार होगा, जबकि हम औरतों के जीवन में पितृ संपदा से खारिज होने का मलाल सदा से ही रहा है। ऐसा क्यों है? जिस आंगन में जन्म लिया है, उस पर भाई का हक है, बहन का नहीं। यह कायदा किसने बताया? मैं मानती हूं कि पिता के घर बेटी विदा होते समय बेसहारा मजलूम और अजनबी की तरह दूसरे यानी पति के घर में प्रवेश करती है। माता-पिता दुखित तो दिखते हैं, लेकिन उससे ज्यादा वे संतुष्ट होते हैं-परायी अमानत गई, जिम्मेदारी टली, गंगा नहाने का वक्त आ गया। जैसी भावनाओं के साथ बेटी की झोली में सांत्वना के टुकड़े डालते जाते हैं। तुम हमारी बेटी हो, दोनों कुल की लाज निभाओगी। इज्जत बचाकर रहोगी। पिता के घर से जा रही हो, अब यहां बुलाने पर ही आना। बिना बुलाये जाने पर अपमान होता है। रक्षाबंधन भाई की ओर से आश्वस्त करने का त्यौहार है कि हम तुम्हारी रक्षा करेंगे। कितने झूठे हैं ये दावे! भेंट उपहार और नेग दस्तूर में दिए गए कुछ नोट या सिक्के बिना धार के हथियार की तरह लड़की के हकों को काट डालते हैं। पूछने का मन करता है पिता की संपत्ति में बेटी का हक खा-पचाकर आप किन दस्तूरों की दुहाई देते हैं? बहन अगर अपना हिस्सा जायदाद में मांगती है तो आप की भृकुटि क्यों तन जाती है? क्या बहन की जगह एक भाई ही हो तो दूसरा भाई यहां नेग दस्तूरों का प्रस्ताव रखकर उसके संपत्ति के अधिकार को काट सकता है? भाई अपने भाई के हाथ में राखी बांधकर, भाईदूज का टीका करके, बच्चों के जन्म पर उपहार लेकर हिस्से की जायदाद हमेशा के लिए छोड़ सकता है? नहीं न। फिर बहन से जड़ से कटने वाले त्याग की उम्मीद क्यों की जाती है? इस सवाल के जवाब में हमारे साहित्यकार बंधु फरमाते हैं कि मैं पारस्परिक संबंधों को कचोटने वाली बात केवल इसलिए कह रही हूं कि सनसनी पैदा हो। अगर किसी को मेरी बात स्वतंत्रता के दावे में मजबूत लगती है तो भी इसका गलत असर पड़ेगा-हमारे साहित्यिक चिंतक ऐसी चिंता में धैर्य खो बैठे और संदर्भ खो दिए। पूछना तो यह भी है कि भावनात्मक पक्ष से जुड़े लोकाचार यदि प्रेम का माध्यम हैं तो हकों की कटाई में यह क्यों शामिल हैं? बहन से प्रेम क्या उसका हिस्सा मारकर ही निभाया जा सकता है? यदि ऐसा है तो प्रेम नहीं, यह सौदा है। इस सौदे को बड़ी चालाकी से चलाया जाता रहा है। अपनी सोच-समझ के लिए यदि हमारे तथाकथित आका स्वतंत्र हैं तो समय आ गया है कि हम भी अपनी समझदारी को दर्ज करें। गुलाबी ब्रिगेड हो या शराबबंदी के पक्ष में निकले स्त्री-दस्ते, निश्चित ही यह परिवर्तन की चाह में उठे हैं। वरन दाता और दारू का चलन तो सर्वमान्य होकर चलता है, इसलिए औरतों द्वारा किया गया हर दावा थोथा लगता है। क्या करें वे भी हमारे तर्क सुनने की आदत नहीं, सिर को धड़ से अलग करने के इरादे कंठस्थ हैं। ऐसे लोगों ने ही हजारों साल थोथी परंपराओं को जीवित रखा। असलियतें खुलती हैं, मगर ये अपनी लफ्फाजी से बाज नहीं आते। सामंती व्यवस्था जड़ ही नहीं होती, बेशर्म भी होती है। औरतों को तो हर शासक व्यवस्था को चुनौती देनी है, क्योंकि परिवर्तन का सार यही है। (लेखिका जानी-मानी साहित्यकार हैं)
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