Monday, July 13, 2009

नेतृत्व की पराजय हुई, पार्टी की नहीं


लोकसभा चुनाव संपन्न हुए लगभग दो माह गुजर चुके हैं और मनमोहन सिंह के नेतृत्व मेें यूपीए सरकार ने अपनी लगातार दूसरी पारी शुरू करते हुए आम बजट एवं रेल बजट पेश कर दिया है लेकिन विपक्ष अभी भी इस चुनाव में मिली करारी पराजय के अवसाद से नहीं उबर सका है। पराजय के कारणों पर तमाम पहलुओं से मंथन तो चल ही रहा है और चुनावों के निहितार्थों की अपने अपने नजरिये से व्याख्या की जा रही है लेकिन इसके बहाने विपक्ष का अंदरूनी महाभारत भी तेज हो गया है। चुनावी नतीजों पर चर्चा से बहाने पिछले हिसाब चुकाए जा रहे हैं। इस आपसी निशानेबाजी के खेल से सबसे अधिक प्रभावित हो रही है देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी भाजपा। भाजपा की पराजय पर सबसे चर्चित प्रतिक्रिया प्रधानमंत्री पद के दावेदार रहे लालकृष्ण आडवाणी के राजनीतिक सलाहकार सुधींद्र कुलकर्णी की रही है। इस प्रतिक्रिया ने भाजपा को झकझोर दिया है। उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला है कि भाजपा की पराजय का कारण उसका सीमित जनाधार है। सुधींद्र कुलकर्णी ने दलील दी है कि भाजपा इस चुनाव में उन कुछ कांग्रेस विरोधी दलों से भी चुनावी गठबंधन नहीं कर सकी जो पहले राष्टï्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का हिस्सा हुआ करते थे। इसका परिणाम चुनावी पराजय के रूप में सामने आया। इन दलों को यह संदेह था कि यदि उन्होंने भाजपा से चुनावी गठबंधन किया तो उनके अल्पसंख्यक वोट खिसक जाएंगे और इससे उन्हें चुनाव में नुकसान हो सकता है। भाजपा की ओर से इस धारणा को दूर करने का कोई ठोस प्रयास भी नहीं किया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि भाजपा को पांच राज्यों में कुल एक सीट मिल सकी। यदि भाजपा चाहती है कि भविष्य में उसकी चुनावी संभावनाओं पर इसी कारण प्रतिकूल असर न पड़ सके तो उसे इस दिशा में गंभीरता से विचार करना होगा। दरअसल भाजपा को यह नुकसान इस कारण हुआ है कि वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारों का आइना बनकर रह गई है। राजनीतिक दल के रूप में उसका वह स्वरूप तिरोहित हो रहा है जो अटल विहारी वाजपेयी सरकार के दौर पर था। सुधींद्र कुलकर्णी ने यह राय जाहिर की है कि भाजपा को संघ से अपने संबंधों पर पुनर्विचार करना चाहिए ताकि भविष्य में ऐसी स्थिति न आए। लेकिन भाजपा के भीतर इसके खिलाफ हुई तीखी प्रतिक्रिया देखकर यह अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है कि यह विचार भाजपा को कभी भी स्वीकार्य नहीं हो सकता। सच तो यह है कि भाजपा बुनियादी तौर पर संघ की राजनीतिक शाखा ही है और अपनी मातृ संस्था से भाजपा अपने संबंधों की समीक्षा कैसे कर सकती है। भाजपा की राष्टï्रीय कार्यकारिणी की बैठक में यह बात उभरकर सामने भी आ गई है कि जहां यह बात साफ कर दी गई है कि भाजपा की संघ के साथ संबंधों की समीक्षा का कोई सवाल ही नहीं है। लेकिन पार्टी का महाभारत कभी तेज तो कभी धीमी रफ्तार से चल ही रहा है। जसवंत सिंह तथा यशवंत सिन्हा जैसे दिग्गज भाजपा नेता भी इस अवसर का लाभ उठाकर अपने प्रतिद्वंदियों पर निशाना साधने का लोभ संवरण नहीं कर पाए हैं। अनुशासनहीनता पर सख्त कार्रवाई की पार्टी अध्यक्ष श्री राजनाथ सिंह की चेतावनी के बावजूद यह सिलसिला नहीं थमा है। श्री आडवाणी तो इन हालात पर इतने व्यथित हैं कि उन्होंने कह दिया है कि पार्टी में वक्ताओं की भीड़ लग गई है। इन तथ्यों को देखते हुए यह विचार करना जरूरी है कि आखिर भाजपा की लोकसभा चुनाव में इतनी जबर्दस्त हार का मूल कारण क्या है। जहां तक भाजपा से संबंधों का सवाल है, यह कोई नई बात नहीं है। इसके बावजूद पूर्व में विभिन्न क्षेत्रीय पार्टियों ने भाजपा से जुडऩे में परहेज नहीं किया। भाजपा को निश्चित ही ऐसे राजनीतिक दल के रूप में अपनी विश्वसनीयता बनानी होगी जो सर्व समावेशी हो। भारत जैसे बहुलवादी संस्कृति के देश में यह सबसे बड़ा तकाजा है लेकिन इस पराजय को सिर्फ इस पैमाने पर नहीं कसा जा सकता। हकीकत यह है कि लोकसभा के चुनावी नतीजे सिर्फ भाजपा की पराजय को नहीं दर्शाते। यह दो नेतृत्व के बीच भी चुनाव था और देश के लोगों ने इन चुनाव में इनमें भी अपनी पसंद- नापसंद बताई है। अटलविहारी वाजपेयी की लोकप्रियता और आडवाणी की लोकप्रियता में जो अंतर है, वह इस चुनाव के जनादेश में साफ हो गया है। आडवाणी को कंधार कांड और जिन्ना प्रकरण का खमियाजा इस चुनाव में भुगतना पड़ा है। जिन्ना प्रकरण में तो भाजपा और संघ ने ही उनको कटघरे में खड़ा कर दिया था। इन दोनों मामलों ने उनके मजबूत नेतृत्व, निर्णायक सरकार के नारे को कमजोर कर दिया। मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव तथा लोकसभा चुनाव की तुलना की जाए तो मध्यप्रदेश में जहां शिवराज सिंह के नेतृत्व के कारण भाजपा को दुबारा विजय हासिल हुई वहीं लोकसभा चुनाव में आडवाणी का नेतृत्व भाजपा को विजय नहीं दिला सका। शिवराज सरकार की नीतियों ने प्रदेश के लोगों में जो भरोसा जगाया, मप्र चुनाव में उसकी जीत हुई लेकिन आडवाणी का नेतृत्व लोगों में भरोसा पैदा नहीं कर पाया अत: भाजपा को पराजय झेलनी पड़ी। बहरहाल भाजपा को केंद्र में विपक्ष के रूप में अब अपनी नई जिम्मेदारी को स्वीकारना चाहिए। यह कोई छोटी जिम्मेदारी नहीं है। जनता के पक्ष में संघर्ष करने का उसमें भरपूर माद्दा है और उसे इसका परिचय देते हुए लोगों के दुख दर्द में हिस्सेदारी करनी होगी ताकि वह भविष्य में लोगों का भरोसा जीत सके।
-सर्वदमन पाठक

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