बाबरी मस्जिद ध्वंस को सत्रह साल बीत चुके हैं और वह भावनात्मक ज्वार कमोवेश उतर चुका है, जिसकी परिणतिस्वरूप यह घटना हुई थी। देश की राजनीति पर दूरगामी प्रभाव डालने वाली इस घटना से जुड़े समूचे घटनाक्रम की जांच करने वाले मनमोहन सिंह लिबरेहान आयोग ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी है लेकिन इतने लंबे अंतराल के बाद आई यह रिपोर्ट अब सत्ता एवं विपक्ष द्वारा एक दूसरे के खिलाफ सियासत के तीर चलाने के लिए ही इस्तेमाल की जा रही है क्योंकि न्यायिक दृष्टिï से इस रिपोर्ट की प्रासंगिकता को लोग संदेह की नजर से देख रहे हैं। डेढ़ दशक से भी अधिक समय गुजर जाने के बाद अब यह महसूस करना आसान नहीं है कि हमारी राष्टï्रीय राजनीति, हमारी सामाजिक समरसता तथा भारत के अंतर्राष्टï्रीय संबंधों पर इसका कितना नकारात्मक असर पड़ा है। इसके लिए इतिहास के पन्नों को पलट कर देखना जरूरी है। दरअसल यह रामजन्म भूमि आंदोलन का ज्वार ही था जिसकी परिणति बाबरी ध्वंस के रूप में हुई। यह कौन नहीं जानता कि मूर्तिपूजा के विरोधी विदेशी आक्रांताओं ने न केवल हिंदुओं के गौरव चिन्हों तथा देवालयों को खंडित एवं ध्वस्त किया बल्कि इन देवालयों की जगह अपने धार्मिक आस्था केंद्रों को स्थापित कर दिया। इस धार्मिक उत्पीडऩ के घाव आज भी हिंदुओं के मन पर अंकित हैं। उग्र हिंदुत्व की विचारधारा में भरोसा रखने वाले राजनीतिक तथा सांस्कृतिक संगठनों नेे रामजन्मभूमि आंदोलन का इस्तेमाल करते हुए बहुसंख्यकों के इस घाव को हरा कर दिया और इससे उपजा आक्रोश संयम की सारी सीमाओं को लांघ गया। देश भर से अयोध्या पहुंचे कारसेवकों के इसी गुस्से ने बाबरी मस्जिद को ढहाने में अहम भूमिका निभाई। इतिहास गवाह है कि राम जन्मभूमि आंदोलन तथा कारसेवा का नेतृत्व करने वाले नेताओं ने इस कृत्य के लिए लोगों को भड़काने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। ये नेता बाबरी मस्जिद ढहने पर खुशी का इजहार करते तथा एक दूसरे को बधाई देते देखे गए। लेकिन शायद उन्हें यह अंदेशा नहीं था कि देश विदेश में होने वाला प्रतिक्रिया का विस्फोट कितना भयावह होगा। इस एक मात्र घटना के फलस्वरूप देश में हजारों बेगुनाहों की जानें गईं, अरबों रुपए की क्षति हुई, पड़ौसी देशों से हमारे संबंध बिगड़े और विश्व में देश की प्रतिष्ठïा को जबर्दस्त धक्का लगा। लेकिन आश्चर्य यह है कि इन नेताओं ने रामजन्म भूमि आंदोलन तथा बाबरी ध्वंस के दौरान जो दुस्साहस तथा शहादत का जज्बा दिखाया था, वे सभी कायरता दिखाते हुए अपने रुख से पलट गए। खुद को हिंदू पुनरुत्थान का पुरोधा के रूप में प्रस्तुत करने वाले कई नेताओं ने बाद में इस दिन को अपनी जिंदगी का सबसे दुखद दिन बताया। बाबरी ध्वंस की जांच कर रहे लिबरेहान आयोग के सामने इन सभी ने खुद को निर्दोष सिद्ध करने के लिए बेगुनाही की मुद्रा अख्तियार कर ली। लेकिन उन्हें राजनीति के इस खेल में खासा फायदा हुआ और केंद्रीय सत्ता का नेतृत्व करने का उन्हें अवसर मिला। दरअसल इस अकेली घटना ने देश के सीने पर भावनात्मक विभाजन की ऐसी रेखा खींच दी, हमारे स्वातंत्र्योत्तर इतिहास में जिसकी दूसरी मिसाल मिलनी संभव नहीं है। होना तो यह था कि देश को हिला देने वाली इस घटना की जांच कम से कम समय में पूरी होती और इसके लिए जिम्मेदार लोगों पर समुचित कार्रवाई होने के साथ ही इसके शिकार लोगों के साथ भी न्याय होता लेकिन इस जांच में सत्रह वर्षों का लंबा समय लग जाने तथा राजनीतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों में भारी बदलाव आने के साथ ही इसकी प्रासंगिकता भी क्षीण हो गई है। आखिर सांप्रदायिक घृणा से भरपूर इस नाटक के सूत्रधार एवं पात्र कौन कौन थे, यह जानने की उत्सुकता किसी को नहीं है, क्योंकि यह ऐसा इतिहास है जो देश की जनता ने देखा- भोगा है। इससे उपजी सांप्रदायिक नफरत के राजनीतिक एवं सामाजिक प्रतिफलों को भी देश भोग चुका है। अब तो भावनाओं का वह उफान भी ठंडा पड़ गया है जिसमें बाबरी ध्वंस एवं राम जन्मभूमि आंदोलन की गंध आती थी। पिछले दो लोकसभा चुनावों में उन दलों तथा संगठनों की राजनीतिक ताकत भी काफी घटी है जिनका बाबरी ध्वंस में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हाथ था। कांग्रेस नीत केंद्र सरकार भी संभवत: इस मामले में फूंक फंूक कदम रखना चाहेगी और फिर से ऐसा कुछ नहीं करेगी जिस कारण राममंदिर निर्माण की पैरवी के बहाने पुन: रामजन्म भूमि का मुद्दा जीवित हो और देश उसी सांप्रदायिक हिंसा की ज्वाला में झुलस उठे, जिससे देश को बमुश्किल निजात मिली है। वैसे कांग्रेस भी इस मामले में दूध की धुली नहीं है। रामजन्म भूमि के ताले तो कांग्रेसी सरकार ने ही खुलवाए थे इसलिए यदि यह कहा जाए कि कांग्रेस ही इस विवाद की जननी है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। फिलहाल पिछले लोकसभा चुनाव का एक महत्वपूर्ण निहितार्थ यह रहा है कि अल्पसंख्यक वोटरों ने कांग्रेस में पुन: विश्वास प्रदर्शित किया है और कांग्रेस नहीं चाहेगी कि बाबरी ध्वंस की याद लोगों के मस्तिष्क में ताजा हो, इससे जुड़े तमाम गड़े हुए मुर्दे उखाड़े जाएं और उससे बमुश्किल उसकी ओर लौटे ये वोटर पुन: छिटक जाएं अत: उसकी कोशिश यही होगी कि इस रिपोर्ट पर कम से कम चर्चा हो। कानूनी कार्रवाई के प्रतिरोध के जरिये बाबरी ध्वंस के कथित नायकों को फिर अपनी राजनीतिक चौसर जमाने का अवसर हाथ लगे, मनमोहन सरकार यह तो कभी भी नहीं चाहेगी। जहां तक लिबरेहान आयोग की रिपोर्ट का सवाल है, इसका विवरण फिलहाल उपलब्ध नहीं है लेकिन विश्वसनीय सूत्रों के मुताबिक सोमनाथ रथयात्रा के महारथी लालकृष्ण आड़वाणी को मुख्य गुनहगारों में शामिल नहीं किया गया है। अलबत्ता विनय कटियार, उमा भारती, मुरली मनोहर जोशी को दोषी ठहराया गया है। लेकिन इस रिपोर्ट पर केंद्र की रहस्यमय चुप्पी इसी हकीकत की ओर इशारा करती है कि बाबरी ढांचे को ढहाने के दोषियों को सजा दिलाने की संकल्पशक्ति तथा इच्छाशक्ति वर्तमान केंद्र सरकार में नहीं है।
-सर्वदमन पाठक
जाति और धर्म की सांप्रदायिक राजनीति में अहम भूमिका निभाने वाली घटना है बाबरी ध्वंस।
ReplyDeleteहम्म...अब धरे जायेंगे, ढांचा गिराने वाले :-()
ReplyDeleteबिना रिपोर्ट पढे, सवाल कहां से आए।
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
मै आपकी बात से सहमत नही हूं क्यौंकी आज तक कोई साबित नही कर सका है की वहा पर कोई राम मन्दिर था..कितनी जाचें हुई लेकिन कुछ नही निकला....
ReplyDeleteआपके पास कोई सबुत हो तो साबित करें....इस मुद्दे पर अभी मैंने पुरी तरह से नज़र रखी हुई है और अन्त मे मेरा लेख आयेगा..
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