मध्यप्रदेश में इन दिनों दो मुहावरे- स्वर्णिम मध्यप्रदेश तथा राजनीतिक शुचिता सर्वाधिक चर्चित हैं। प्रदेश को खुशहाल तथा विकसित बनाने का मुख्यमंत्री का संकल्प स्वर्णिम मध्यप्रदेश के बारे में थोड़ा आश्वस्त करता है लेकिन इस दिशा में उठाए जाने वाले कदमों के अमल में प्रशासनिक स्तर पर हो रही हीलाहवाली इस आश्वस्ति को धक्का पहुंचाती है। सरकार स्वर्णिम मध्यप्रदेश के निर्माण के लिए घोषणाओं पर घोषणाएं किये जा रही है लेकिन वास्तविकता के धरातल पर परिदृश्य निराशाजनक ही है। इसी तरह राजनीतिक शुचिता मुख्यमंत्री में संकल्पशक्ति के अभाव में सिर्फ खोखला नारा बन कर रह गई है। यह आश्चर्यजनक ही है कि हम स्वर्णिम मध्यप्रदेश के इंतजार में हैं और प्रदेश की कानून व्यवस्था हमारे जीवन तथा अमन चैन के लिए खतरा बनी हुई है। हर जिले में गरीबों और कमजोरों पर दबंगों का कहर बदस्तूर जारी है। नारी उत्पीडऩ में तो राज्य ने मानो तमाम रिकार्ड ही तोड़ दिये हैं। देश में नारी उत्पीडऩ के मामले में मध्यप्रदेश अपने पड़ौसी राज्य उत्तरप्रदेश को छोड़कर अन्य प्रदेशों से आगे है जो शान की नहीं बल्कि शर्म की बात है। यह सब उस राज्य में हो रहा है जहां खुद को नारी को विशिष्टï सम्मान देने वाली भारतीय संस्कृति की झंडाबरदार पार्टी भाजपा की सरकार है। जहां तक औद्योगिक विकास का सवाल है, राज्य सरकार ने अन्य प्रदेशों तथा एनआरआई से निवेश आकर्षित करने के लिए कई सम्मेलन किये हैं लेकिन इनमें से इक्के दुक्के उद्योगपतियों ने प्रदेश मेंं अपने एमओयू पर अमल किया है। इसका परिणाम यह है कमोवेश समूचा प्रदेश आज भी औद्योगिक विकास के लिए तरस रहा है। राज्य में लाड़ली लक्ष्मी तथा जननी सुरक्षा योजनाओं जैसी कई योजनाएं महिलाओं के कल्याण के लिए बनाई गई हैं लेकिन समुचित देखरेख के अभाव तथा प्रशासनिक लापरवाही के कारण ये योजनाएं अपने उद्देश्य में कमोवेश असफल रही हैं।जबलपुर में मेडिकल यूनिवर्सिटी खोलने की घोषणा पर यदि ईमानदारी से अमल हो तो यह राज्य में दुर्दशा के भयावह दौर से गुजर रही स्वास्थ्य सेवाओं में बदलाव लाने में प्रेरणादायी भूमिका अदा कर सकता है लेकिन ऐसे बहुत सारे सवाल हैं जो इस मामले में सरकार की मंशा पर संदेह करने के लिए पर्याप्त हैं। सरकार की नीयत को जानने के लिए ज्यादा कुछ पड़ताल करने की जरूरत नहीं है। राज्य में चिकित्सा शिक्षा के बारे में सरकार कितनी गंभीर है, यह इसी से जाना जा सकता है कि राज्य में मौजूद सभी सरकारी एवं स्वशासी मेडिकल कालेजों की मान्यता लगातार बाधित होती रही है। एमबीबीएस तथा एमएस, एमडी की प्रवेश परीक्षा के समय सरकारी स्तर पर इसका तात्कालिक इलाज ढूंढ लिया जाता है और फिर अगले सत्र तक के लिए सरकार लिहाफ ओढ़ कर सो जाती है। इसका परिणाम यह होता है कि इनमें शिक्षा पाने वाले तमाम चिकित्सा छात्र अपने भविष्य को लेकर लगातार चिंतित रहते हैं। इन चिकित्सा महाविद्यालयों में शिक्षण स्टाफ तथा अन्य सुविधाओं की कमी को दूर करने के लिए सरकार द्वारा आधेअधूरे प्रयास कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली जाती है। सच तो यह है कि राज्य के सरकारी अथवा स्वशासी मेडिकल कालेजों से पिछले कुछ समय में 50 से अधिक वरिष्ठï चिकित्सक इस्तीफा देकर प्रायवेट कालेजों में जा चुके हैं और इतने ही जाने के लिए तैयार हैं लेकिन सरकार और उसके अधिकारी इससे आंखें मूंदे हुए हैं। जहां तक समग्र रूप से राज्य की स्वास्थ्य सेवाओं का सवाल है, प्रदेश के किसी भी इलाके में सरकारी स्वास्थ्य एवं चिकित्सा सेवाओं पर सरसरी निगाह डालने से ही इसकी शोचनीय स्थिति का पता लग सकता है। ग्रामीण इलाकों में तो अधिकांश सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों एवं चिकित्सा सुविधाओं का नितांत अभाव ऐसा तथ्य है जिससे स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी भी अनभिज्ञ नहीं है। इन अस्पतालों में बेचारे मरीजों को यदि धोखे से कभी डाक्टरों के दर्शन हो भी जाएं तो इस बात की गारंटी ली जा सकती है कि वहां दवाएं नहीं मिलेंगी। स्वास्थ्य विभाग इन अस्पतालों के लिए आर्थिक प्रावधानों का हवाला देकर अपना पल्ला झाड़ देता है लेकिन वहां दवाएं क्यों नहीं है, यह जवाब उनकी चुप्पी में मिल जाता है। दवाओं के लिए दी जाने वाली राशि कहां जाती है, इसकी विस्तृत तहकीकात के लिए शायद सरकार के पास वक्त नहीं है। शहरों में भी चिकित्सा सुविधा के हालात कुछ ज्यादा अलग नहीं हैं। निजी अस्पतालों में काफी अच्छी सेवा शर्तों तथा वेतन के आफर के कारण सरकारी अस्पतालों से जितनी तेजी से डाक्टर विदा हो रहे हैं, उससे भविष्य में सरकारी चिकित्सा सेवाओं में होने वाले डाक्टरों के संकट का आभास सहज ही हो जाता है। भले ही इन अस्पतालों के स्टोर में दवाएं भरी पड़ी हो, लेकिन मरीजों को ये दवाएं नसीब नहीं होतीं। ये दवाएं बाजार में बिकती जरूर देखी जा सकती हैं। यदि सरकार वास्तव में प्रदेश मेें चिकित्सा शिक्षा एवं चिकित्सा सेवाओं में सुधार के प्रति गंभीर है तो उसे प्रदेश के वर्तमान मेडिकल कालेजों एवं सरकारी अस्पतालों के ढहते ढांचे को सहारा देने की दिशा में प्रभावी कदम उठाना चाहिए। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने राज्य में एक लाख शिक्षकों की नियुक्ति की घोषणा की है। यह महज संयोग नहीं है कि सीधी में यह घोषणा ऐसे समय की गई है जब शिक्षा का अधिकार नामक उस कानून पर देश भर में बहस जारी है जिसमें शिक्षा के सर्वव्यापीकरण की कोशिश की झलक मिलती है। यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि शिक्षा का अधिकार कानून को ईमानदारी से लागू करने के लिए बड़ी संख्या में शिक्षकों की जरूरत होगी। गौरतलब है कि राज्य में शिक्षा का परिदृश्य काफी निराशाजनक है। राज्य के स्कूलों में समुचित सुविधाओं एवं योग्य शिक्षकों का खासा अभाव है और इस अभाव को दूर किये बिना राज्य में स्कूल चलें अभियान जैसी महत्वाकांक्षी मुहिम की सफलता की आशा करना बेमानी है। दरअसल सिर्फ शिक्षकों की नियुक्ति मात्र से ज्यादा कुछ नहीं होने वाला है। शिक्षकों की गुणवत्ता इससे जुड़ा ही मामला है। सवाल यह है कि प्रदेश में वर्तमान में जो शिक्षक नियुक्त हैैं, क्या वे पर्याप्त योग्य हैं और क्या सरकार उनका समुचित उपयोग कर पा रही है। विभिन्न परीक्षाओं के नतीजे इसे बेनकाब करने के लिए काफी हंै। सच तो यह है कि शिक्षकों को साल के एक बड़े हिस्से में अन्य ऐेसे कामों की जिम्मेदारी सौंप दी जाती है जिसका शिक्षा से कुछ भी लेना देना नहीं होता। नए शिक्षकों की नियुक्ति के साथ ही सरकार को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि शिक्षकों से सिर्फ शैक्षणिक कार्य ही लिया जाए और उनसे कोई बेगार न कराई जाए।इसके साथ ही स्कूलों में अन्य सुविधाएं उपलब्ध कराने की दिशा में भी सरकार सार्थक पहल करे। आजादी के त्रेसठ साल बीत जाने के बावजूद अभी तक कई स्कूलों के पास अपना कोई ऐसा भवन नहीं है जहां तमाम सुविधाएं छात्रों तथा शिक्षकों को उपलब्ध हों। कई स्कूलों में तो पेयजल तथा बाथरूम की सुविधा तक नहीं है। समुचित भवन और जरूरी सुविधाओं के अभाव में यह कल्पना कैसे की जा सकती है कि नए छात्र स्कूल जाने के लिए आकर्षित होंगे , यह एक विचारणीय प्रश्न है। शिक्षा का अधिकार कानून में यह भी प्रावधान है कि गरीब बच्चों को फीस में रियायत दी जाए और इसके लिए प्रायवेट स्कूल भी अपवाद नहीं होंगे। सरकार को सरकारी शिक्षा प्रणाली दुरुस्त करने के साथ ही प्रायवेट स्कूलों को भी इस सामाजिक उद्देश्य की सहभागिता के लिए तैयार करना चाहिए था लेकिन सरकार नेे इसकी जिम्मेदारी केंद्र पर डाल दी है और अपना पल्ला झाड़ लिया है। राज्य में भ्रष्टïाचार अवश्य ही फूल फल रहा है। राज्य के आधा दर्जन से अधिक मंत्रियों पर लोकायुक्त में मामले दर्ज हैं। कई मंत्रियों पर तो गंभीर आपराधिक मामले भी दर्ज हैं। प्रदेश भाजपा की कार्यसमिति ने अभी हाल ही में राजनीतिक शुचिता की जरूरत पर काफी जोर दिया था लेकिन एक मात्र मंत्री अनूप मिश्रा की विदाई के बाद मंत्रि मंडलीय सदस्यों के भ्रष्टïाचार का मामला ठंडे बस्ते में चला गया है। मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि सिर्फ आरोप लगने से कोई दागी थोड़ी हो जाता है। कई आला अफसर भी भ्रष्टïाचार के गंभीर आरोपों के बावजूद सरकार के कृपापात्र बने हुए हैं। प्रदेश में अपराध का ग्राफ लगातार बढ़ रहा है, औद्योगिक विकास के तमाम दावे झूठे सिद्ध हो रहे हैं, महिलाओं की जिंदगी और इज्जत दोनों ही दांव पर है। ऐसे में यही सवाल सबकी जुबान पर है कि क्या ऐसे ही बनेगा स्वर्णिम मध्यप्रदेश।
-सर्वदमन पाठक
Friday, July 16, 2010
Thursday, July 15, 2010
चिकित्सा सेवाओं में सुधार हेतु पाखंड नहीं, ईमानदार प्रयास जरूरी
मुख्यमंत्री का यह अंदाज काबिले तारीफ ही है कि प्रदेश में इन दिनों चल रहे सत्ता से जुड़े राजनीतिक विवाद से सरकार की छवि को अप्रभावित रखने के अपने सत्ता धर्म में वे पूरे मनोयोग से जुटे हुए हैं। जबलपुर में मेडिकल यूनिवर्सिटी खोलने की घोषणा इसी की एक कड़ी मानी जा सकती है। मुख्यमंत्री की इस घोषणा पर यदि ईमानदारी से अमल हो तो यह राज्य में दुर्दशा के भयावह दौर से गुजर रही स्वास्थ्य सेवाओं में बदलाव लाने में प्रेरणादायी भूमिका अदा कर सकता है लेकिन ऐसे बहुत सारे सवाल हैं जो इस मामले में सरकार की मंशा पर संदेह करने के लिए पर्याप्त हैं। सरकार की नीयत को जानने के लिए ज्यादा कुछ पड़ताल करने की जरूरत नहीं है। राज्य में चिकित्सा शिक्षा के बारे में सरकार कितनी गंभीर है, यह इसी से जाना जा सकता है कि राज्य में मौजूद सभी सरकारी एवं स्वशासी मेडिकल कालेजों की मान्यता लगातार बाधित होती रही है। एमबीबीएस तथा एमएस, एमडी की प्रवेश परीक्षा के समय सरकारी स्तर पर इसका तात्कालिक इलाज ढूंढ लिया जाता है और फिर अगले सत्र तक के लिए सरकार लिहाफ ओढ़ कर सो जाती है। इसका परिणाम यह होता है कि इनमें शिक्षा पाने वाले तमाम चिकित्सा छात्र अपने भविष्य को लेकर लगातार चिंतित रहते हैं। इन चिकित्सा महाविद्यालयों में शिक्षण स्टाफ तथा अन्य सुविधाओं की कमी को दूर करने के लिए सरकार द्वारा आधेअधूरे प्रयास कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली जाती है। सच तो यह है कि राज्य के सरकारी अथवा स्वशासी मेडिकल कालेजों से पिछले कुछ समय में 50 से अधिक वरिष्ठï चिकित्सक इस्तीफा देकर प्रायवेट कालेजों में जा चुके हैं और इतने ही जाने के लिए तैयार हैं लेकिन सरकार और उसके अधिकारी इससे आंखें मूंदे हुए हैं। जहां तक समग्र रूप से राज्य की स्वास्थ्य सेवाओं का सवाल है, प्रदेश के किसी भी इलाके में सरकारी स्वास्थ्य एवं चिकित्सा सेवाओं पर सरसरी निगाह डालने से ही इसकी शोचनीय स्थिति का पता लग सकता है। ग्रामीण इलाकों में तो अधिकांश सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों एवं चिकित्सा सुविधाओं का नितांत अभाव ऐसा तथ्य है जिससे स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी भी अनभिज्ञ नहीं है। इन अस्पतालों में बेचारे मरीजों को यदि धोखे से कभी डाक्टरों के दर्शन हो भी जाएं तो इस बात की गारंटी ली जा सकती है कि वहां दवाएं नहीं मिलेंगी। स्वास्थ्य विभाग इन अस्पतालों के लिए आर्थिक प्रावधानों का हवाला देकर अपना पल्ला झाड़ देता है लेकिन वहां दवाएं क्यों नहीं है, यह जवाब उनकी चुप्पी में मिल जाता है। दवाओं के लिए दी जाने वाली राशि कहां जाती है, इसकी विस्तृत तहकीकात के लिए शायद सरकार के पास वक्त नहीं है। शहरों में भी चिकित्सा सुविधा के हालात कुछ ज्यादा अलग नहीं हैं। निजी अस्पतालों में काफी अच्छी सेवा शर्तों तथा वेतन के आफर के कारण सरकारी अस्पतालों से जितनी तेजी से डाक्टर विदा हो रहे हैं, उससे भविष्य में सरकारी चिकित्सा सेवाओं में होने वाले डाक्टरों के संकट का आभास सहज ही हो जाता है। भले ही इन अस्पतालों के स्टोर में दवाएं भरी पड़ी हो, लेकिन मरीजों को ये दवाएं नसीब नहीं होतीं। ये दवाएं बाजार में बिकती जरूर देखी जा सकती हैं। यदि सरकार वास्तव में प्रदेश मेें चिकित्सा शिक्षा एवं चिकित्सा सेवाओं में सुधार के प्रति गंभीर है तो उसे जबलपुर में चिकित्सा विश्वविद्यालय खोलने के साथ ही प्रदेश के वर्तमान मेडिकल कालेजों एवं सरकारी अस्पतालों के ढहते ढांचे को सहारा देने की दिशा में प्रभावी कदम उठाना चाहिए।
-सर्वदमन पाठक
-सर्वदमन पाठक
Wednesday, July 7, 2010
अब गैसपीडि़तों के भावनात्मक शोषण की त्रासदी
भोपाल गैस त्रासदी का न्याय अपने आप में एक त्रासदी है और हजारों मौतों और लाखों की जिंदगी भर की पीड़ा का सबब बने इस त्रासद कांड से भोपाल के सीने पर जो असहनीय चोट लगी थी, इस फैसले ने उन घावों को कुरेद कर रख दिया है लेकिन अब कुछ राजनीतिक दलों एवं मीडिया के एक समूह द्वारा गैस पीडि़तों की पीड़ा को अपने स्वार्थ के लिए भुनाने का एक सोचा समझा प्रयास किया जा रहा है, उसे गैस पीडि़तों के भावनात्मक शोषण के अलावा और कोई नाम नहीं दिया जा सकता। इसमें कोई शक नहीं है कि हत्यारी यूनियन कार्बाइड के अध्यक्ष वारेन एंडरसन को जिन परिस्थितियों में भोपाल से जाने दिया गया, उसमें तत्कालीन केंद्र एवं राज्य सरकार तथा सरकार की नाक के नीचे बैठे राज्य व जिला प्रशासन के अफसरों की नापाक सांठगांठ जिम्मेदार थी और उन्हें इसके लिए जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए लेकिन भारत में यूका के कर्ताधर्ता अधिकारियों को, जो खालिस भारतीय नस्ल के थे , बचाने के लिए इसका इस्तेमाल करना कहां तक उचित है? इस बात पर विश्वास करने का पर्याप्त कारण हैं कि एंडरसन पर छिड़े घमासान में उन सभी तथ्यों को जानबूझकर भुलाया जा रहा है, जो इस भयावह त्रासदी के लिए जिम्मेदार थे। आखिर केशव महेंद्रा सहित उन तमाम लोगों को जो इस नरसंहार में दोषी थे, सिर्फ दो वर्ष की सजा दिये जाने और उस पर भी चंद मिनटों में जमानत मिल जाने की न्यायिक त्रासदी को हम इतनी आसानी से क्यों भुला बैठे हैं? हम इस फैसले के खिलाफ अपील के लिए दबाव बनाने के अपने संकल्प से क्यों भटक रहे हैं? एंडरसन के मामले में अर्जुन सिंह तथा राजीव गांधी के नाम उछलने के बाद तो जैसे भाजपा को मुुंह मांगी मुराद मिल गई है और वह इसे राजनीतिक वैतरिणी के रूप में इस्तेमाल कर रही है। कैलाश विजयवर्गीय तथा कमल पटेल पर लगे गंभीर आरोपों तथा कानून व्यवस्था कायम रखने में नाकामी से घिरी शिवराज सरकार अब एंडरसन के मामले पर ऐसा चक्रव्यूह रच देना चाहती है जिसमें महाभारत की पौराणिक कथा के विपरीत अर्जुन ऐसे उलझ जाएं कि बाहर ही न निकल सकें। इसी व्यूहरचना के तहत भाजपा ने प्रदेशव्यापी धरना प्रदर्शन का भी आयोजन किया है। लेकिन ऐसे बहुत सारे रहस्य हैं जो यदि उजागर हो जाएं तो भाजपा की यह हंसी काफूर हो सकती है। मसलन यूनियन कार्बाइड को कीटनाशक बनाने का लायसेंस सखलेचा सरकार ने दिया था। जब अर्जुन सिंह कथित रूप से एंडरसन को देश से सुरक्षित बाहर निकालने का ताना बाना बुन रहे थे, तब भाजपा ने इसका कितना विरोध किया था और उस समय की कांग्रेस सरकार से भाजपा की मिलीभगत के कारण क्या उसका विरोध भोथरा नहीं हो गया था? लेकिन यह समय राजनीतिक चालों- कुचालों का नहीं, गैसपीडि़तों की भावनाओं पर मरहम लगाने के लिए गैस त्रासदी के वास्तविक जवाबदेहों को उनके किये की समुचित सजा दिलाने का है और उम्मीद की जानी चाहिए कि राज्य की सरकार एवं विपक्ष इस हकीकत को समझेगा और इसके अनुरूप अपनी आगे की कार्रवाई तय करेगा।
- सर्वदमन पाठक
- सर्वदमन पाठक
मान्यताओं के सांचे में औरत की छटपटाहट
मैत्रेयी पुष्पा
आजकल कुछ लेखिकाएं जुनून के स्तर पर महिला स्वातंत्र्य के बारे में बात कर देती हैं यह कहना है हमारे प्रसिद्ध साहित्यकार का, जो हैं तो गांधी भक्त, लेकिन देश की आधी दुनिया के बारे में विचार करते हुए पुराने रीति-रिवाजों यानी रूढिय़ों की वकालत करते हैं। मेरी स्मृति में उनका चेहरा अपने बुझे-बुझे रूप में ताजा हो जाता है और वह समय वह दिन साकार हो उठता है, जब खचाखच भरे सभागार में मुझे अपनी बातें कहने का मौका एक साहित्यिक मंच पर दिया गया था। विषय था हिंदी साहित्य और परिवर्तन की दिशाएं जाहिर है स्त्रियों के लिए बदलाव की जो लहर साहित्य में उठी है, उसे रेखांकित करना था। साथ ही जिन आख्यानों और इतिहास सम्मत कथाओं को औरत के बलिदान के रूप में सराहा गया है, उस पर भी अपना मत देना था। लोकाचारों पर बात करनी थी। क्या सचमुच औरतों में आजादी पाने का जुनून नहीं होना चाहिए? साम्राज्यवादियों, सामंतों और शासकों की फितरत में गुलाम पालने का जज्बा न होता तो गुलामों में भी मुक्ति का जुनून पैदा नहीं होता। कसावट जितनी ज्यादा होती है, छटपटाहट उतनी ही तीव्र होती जाती है। मुश्किल यह है कि इस छटपटाहट को वर्चस्ववादी पुरुषों ने औरत की हिमाकत माना है। घुटन को व्यक्त करना उसकी सहिष्णुता पर बदनुमा दाग की तरह वाचाल करार दिया जाता है। ऐसा न होता तो भारतीय स्त्रियों की दुनिया आंदोलनों की तीखी लपटें न खड़ी करती। मुश्किल यह है कि जो नीति-नियम स्त्री के लिए बनाए गए थे, जो स्त्री-धर्म औरत को बताया गया है, वह हम औरतों के लिए काबिले बर्दाश्त नहीं है। मगर हम यह भी जानते हैं कि पुराने नीति-नियमों पर इनकार में सिर हिलाना हमारी गुस्ताखी होगी। संस्कृति का अस्वीकार हमारा अपराध माना जाएगा। परिवर्तन की दिशाओं पर बोलते हुए मेरे सामने इतिहास की प्रचलित कथा के वे पन्ने खुले पड़े थे जिनके ऊपर लिखी इबारत हम औरतों के लिए काबा काशी की आयतें और मंत्र हैं। चित्तौडग़ढ़ का ऐतिहासिक किस्सा रानी पद्मिनी का जीवन वृत्तांत और उसकी मृत्यु कथा रामायण और गीता की तरह स्त्रियों के संसार में अपना पवित्र और कारगर मुकाम बनाए हुए है। अलाउद्दीन का आक्रमण, चित्तौडग़ढ़ की विजय की तमन्ना और रानी पद्मिनी को अपने हरम में शामिल करने की आरजू ने राजा रतनसेन को मुगल बादशाह की कैद बख्शी। अब रानी पद्मिनी से आमना-सामना होना था। सबको पता है कि रानी पद्मिनी ने अपनी सखियों के साथ जौहर व्रत किया था और लपटों में समाकर अपनी इहलीला समाप्त की थी। बचपन में कल्याण पत्रिका का नारी विशेषांक देखा था। जिसमें देखी थी जलती हुई रानी पद्मिनी की तस्वीर। तब मेरे बाल मन में सवाल जागा था-अपने आप कोई जलता है? मां ने कहा था-अपने आप नहीं, मर्यादा के लिए जलती हैं पद्मिनी और सखियां और सती कहलाती हैं। मैंने मंच से अपनी मनोव्यथा दर्ज की थी ऐसा इतिहास जो स्त्री को भस्म होने के लिए मिसालें पेश करे, अब हमें औरत जात पर कलंक लगता है। रानी पद्मिनी के जौहर-व्रत को हटा देंगे। हम उन पन्नों से जो हमें सती हो जाने की सीख देते हैं। क्या हो जाता अगर अलाउद्दीन हमला कर देता? यही कि रानी पद्मिनी को अपने काबू में कर लेता! क्या रानी में लडऩे की कूवत नहीं थी? वह लाचार थी या कायर? शस्त्रागार से भरा हुआ चित्तौड़ का किला दहशत के मारे राख हो गया। औरतों के हौसले खाक में मिल गए और हमारा समाज है कि आज तक हमें उस जौहर की मिसाल देकर हमें रानी पद्मिनी बनाना चाहता है। हमारे भीतर पुरुषों की पौराणिक और ऐतिहासिक मान्यताओं ने भीषण जहर भर दिए हैं कि हम पुरुष की छाया मात्र से अपवित्र हो जाने के डर से खुद को सिकोड़ते जाते हैं। सिकुड़ा हुआ व्यक्ति आगे चलने के लिए किस हिम्मत पर तैयार हो? मैं तो बस यही मानती हूं कि पद्मिनी को जलकर नहीं, लड़कर मरना था या जीना था, लेकिन स्त्रियों का इतिहास तो उन पुरुष प्रवरों ने बताया है जो अपने घर की औरतों की स्वस्थ सांसों से भी डर जाते हैं। उनकी गलती भी क्या है? वे तहेदिल से सती प्रथा के समर्थक जो हैं। गांधी कहें तो कहते रहें कि जब तक देश में स्त्रियों की स्वतंत्रता नहीं आएगी, तब तक हमारी आजादी पूरी नहीं। जाहिर है कि आजादी के लिए जुनून चाहिए। जुनून न हो तो आदमी कीड़े-मकोड़ों की तरह मर जाए। वफादार होना, वफा के वास्ते जीना किसका मकसद नहीं होता, लेकिन जब वफा के नाम पर कमजोर, कायर और किंकर्तव्यविमूढ़ होने का आदेश पितृसत्तात्मक तबके से आए तो ऐसी वफादारी से तौबा करना हमारा हक है और यह भूमिका अब साहित्य निभाएगा। परिवर्तन की लहर में कुत्ते जैसी वफादारी किनारे कर दी जाएगी, जो महज पेट भरने के लिए रोटी और तन ढंकने वाले कपड़े के लिए औरत आजन्म करती रहती है। हमने पन्ना धाय की कहानी पढ़ी है-राजा से सेवक की वफादारी की ऐसी कथा जिसमें किसी सवाल के लिए जगह नहीं। पन्ना धाय ने राजा के भाई की दुश्मनी राजकुमार पर नहीं टूटने दी, शमशीर की धार के नीचे अपने बेटे को सुला दिया। राजकुमार बच गया, दासी-पुत्र भावी- गुलाम कल गुलामी करता, आज ही काम आ गया। पन्ना बहादुर थी या डरपोक? क्यों छीन लिया एक मां ने अपने बेटे से जिंदगी का अधिकार? क्यों मजबूर हुई वह चुपचाप उस हत्या को देखने के लिए? सब कुछ राजतंत्र के लिए हुआ, क्योंकि राजतंत्र के ऐसे विधि-विधान न लिखे जाएं तो वह जीवित कैसे रहे? ऐसी राजव्यवस्थाओं को चलाने के लिए एक नहीं अनेक लेखक अपना पुरजोर समर्थन देते दिखते हैं तो स्त्रियों का तबका हतप्रभ रह जाता है। कितना चालाक है कलम के सिपाहियों का अभिजात्य समूह कि मुद्दे वही उठाता है जो औरत की जड़ें काटते हैं। अपने ऋषि-मुनियों की पुराण-वेत्ताओं की तरह विरुदावलि गाता है और श्लोक मंत्र बोलकर हमें डराता है कि हमारे लिए जो तय किया गया है, वह पत्थर की लकीर सरीखा है, लेकिन हम भी कहे बिना नहीं मानते कि जो नीतियां, जो निर्धारित धर्म की नियमावलियां और लोकाचारों की विधियां हमें रास नहीं आतीं, हम उन्हें बदलेंगे। उदाहरण के तौर पर पारिवारिक संबंधों को ले सकते हैं जिनमें हमको प्यार-प्रीति का मोम बनाकर घुला लिया जाता है। अब तक यह नई बात कोर्ट-कचहरियों की मार्फत सामने नहीं आई थी कि पिता की संपत्ति में बेटी का भी अधिकार होगा, जबकि हम औरतों के जीवन में पितृ संपदा से खारिज होने का मलाल सदा से ही रहा है। ऐसा क्यों है? जिस आंगन में जन्म लिया है, उस पर भाई का हक है, बहन का नहीं। यह कायदा किसने बताया? मैं मानती हूं कि पिता के घर बेटी विदा होते समय बेसहारा मजलूम और अजनबी की तरह दूसरे यानी पति के घर में प्रवेश करती है। माता-पिता दुखित तो दिखते हैं, लेकिन उससे ज्यादा वे संतुष्ट होते हैं-परायी अमानत गई, जिम्मेदारी टली, गंगा नहाने का वक्त आ गया। जैसी भावनाओं के साथ बेटी की झोली में सांत्वना के टुकड़े डालते जाते हैं। तुम हमारी बेटी हो, दोनों कुल की लाज निभाओगी। इज्जत बचाकर रहोगी। पिता के घर से जा रही हो, अब यहां बुलाने पर ही आना। बिना बुलाये जाने पर अपमान होता है। रक्षाबंधन भाई की ओर से आश्वस्त करने का त्यौहार है कि हम तुम्हारी रक्षा करेंगे। कितने झूठे हैं ये दावे! भेंट उपहार और नेग दस्तूर में दिए गए कुछ नोट या सिक्के बिना धार के हथियार की तरह लड़की के हकों को काट डालते हैं। पूछने का मन करता है पिता की संपत्ति में बेटी का हक खा-पचाकर आप किन दस्तूरों की दुहाई देते हैं? बहन अगर अपना हिस्सा जायदाद में मांगती है तो आप की भृकुटि क्यों तन जाती है? क्या बहन की जगह एक भाई ही हो तो दूसरा भाई यहां नेग दस्तूरों का प्रस्ताव रखकर उसके संपत्ति के अधिकार को काट सकता है? भाई अपने भाई के हाथ में राखी बांधकर, भाईदूज का टीका करके, बच्चों के जन्म पर उपहार लेकर हिस्से की जायदाद हमेशा के लिए छोड़ सकता है? नहीं न। फिर बहन से जड़ से कटने वाले त्याग की उम्मीद क्यों की जाती है? इस सवाल के जवाब में हमारे साहित्यकार बंधु फरमाते हैं कि मैं पारस्परिक संबंधों को कचोटने वाली बात केवल इसलिए कह रही हूं कि सनसनी पैदा हो। अगर किसी को मेरी बात स्वतंत्रता के दावे में मजबूत लगती है तो भी इसका गलत असर पड़ेगा-हमारे साहित्यिक चिंतक ऐसी चिंता में धैर्य खो बैठे और संदर्भ खो दिए। पूछना तो यह भी है कि भावनात्मक पक्ष से जुड़े लोकाचार यदि प्रेम का माध्यम हैं तो हकों की कटाई में यह क्यों शामिल हैं? बहन से प्रेम क्या उसका हिस्सा मारकर ही निभाया जा सकता है? यदि ऐसा है तो प्रेम नहीं, यह सौदा है। इस सौदे को बड़ी चालाकी से चलाया जाता रहा है। अपनी सोच-समझ के लिए यदि हमारे तथाकथित आका स्वतंत्र हैं तो समय आ गया है कि हम भी अपनी समझदारी को दर्ज करें। गुलाबी ब्रिगेड हो या शराबबंदी के पक्ष में निकले स्त्री-दस्ते, निश्चित ही यह परिवर्तन की चाह में उठे हैं। वरन दाता और दारू का चलन तो सर्वमान्य होकर चलता है, इसलिए औरतों द्वारा किया गया हर दावा थोथा लगता है। क्या करें वे भी हमारे तर्क सुनने की आदत नहीं, सिर को धड़ से अलग करने के इरादे कंठस्थ हैं। ऐसे लोगों ने ही हजारों साल थोथी परंपराओं को जीवित रखा। असलियतें खुलती हैं, मगर ये अपनी लफ्फाजी से बाज नहीं आते। सामंती व्यवस्था जड़ ही नहीं होती, बेशर्म भी होती है। औरतों को तो हर शासक व्यवस्था को चुनौती देनी है, क्योंकि परिवर्तन का सार यही है। (लेखिका जानी-मानी साहित्यकार हैं)
आजकल कुछ लेखिकाएं जुनून के स्तर पर महिला स्वातंत्र्य के बारे में बात कर देती हैं यह कहना है हमारे प्रसिद्ध साहित्यकार का, जो हैं तो गांधी भक्त, लेकिन देश की आधी दुनिया के बारे में विचार करते हुए पुराने रीति-रिवाजों यानी रूढिय़ों की वकालत करते हैं। मेरी स्मृति में उनका चेहरा अपने बुझे-बुझे रूप में ताजा हो जाता है और वह समय वह दिन साकार हो उठता है, जब खचाखच भरे सभागार में मुझे अपनी बातें कहने का मौका एक साहित्यिक मंच पर दिया गया था। विषय था हिंदी साहित्य और परिवर्तन की दिशाएं जाहिर है स्त्रियों के लिए बदलाव की जो लहर साहित्य में उठी है, उसे रेखांकित करना था। साथ ही जिन आख्यानों और इतिहास सम्मत कथाओं को औरत के बलिदान के रूप में सराहा गया है, उस पर भी अपना मत देना था। लोकाचारों पर बात करनी थी। क्या सचमुच औरतों में आजादी पाने का जुनून नहीं होना चाहिए? साम्राज्यवादियों, सामंतों और शासकों की फितरत में गुलाम पालने का जज्बा न होता तो गुलामों में भी मुक्ति का जुनून पैदा नहीं होता। कसावट जितनी ज्यादा होती है, छटपटाहट उतनी ही तीव्र होती जाती है। मुश्किल यह है कि इस छटपटाहट को वर्चस्ववादी पुरुषों ने औरत की हिमाकत माना है। घुटन को व्यक्त करना उसकी सहिष्णुता पर बदनुमा दाग की तरह वाचाल करार दिया जाता है। ऐसा न होता तो भारतीय स्त्रियों की दुनिया आंदोलनों की तीखी लपटें न खड़ी करती। मुश्किल यह है कि जो नीति-नियम स्त्री के लिए बनाए गए थे, जो स्त्री-धर्म औरत को बताया गया है, वह हम औरतों के लिए काबिले बर्दाश्त नहीं है। मगर हम यह भी जानते हैं कि पुराने नीति-नियमों पर इनकार में सिर हिलाना हमारी गुस्ताखी होगी। संस्कृति का अस्वीकार हमारा अपराध माना जाएगा। परिवर्तन की दिशाओं पर बोलते हुए मेरे सामने इतिहास की प्रचलित कथा के वे पन्ने खुले पड़े थे जिनके ऊपर लिखी इबारत हम औरतों के लिए काबा काशी की आयतें और मंत्र हैं। चित्तौडग़ढ़ का ऐतिहासिक किस्सा रानी पद्मिनी का जीवन वृत्तांत और उसकी मृत्यु कथा रामायण और गीता की तरह स्त्रियों के संसार में अपना पवित्र और कारगर मुकाम बनाए हुए है। अलाउद्दीन का आक्रमण, चित्तौडग़ढ़ की विजय की तमन्ना और रानी पद्मिनी को अपने हरम में शामिल करने की आरजू ने राजा रतनसेन को मुगल बादशाह की कैद बख्शी। अब रानी पद्मिनी से आमना-सामना होना था। सबको पता है कि रानी पद्मिनी ने अपनी सखियों के साथ जौहर व्रत किया था और लपटों में समाकर अपनी इहलीला समाप्त की थी। बचपन में कल्याण पत्रिका का नारी विशेषांक देखा था। जिसमें देखी थी जलती हुई रानी पद्मिनी की तस्वीर। तब मेरे बाल मन में सवाल जागा था-अपने आप कोई जलता है? मां ने कहा था-अपने आप नहीं, मर्यादा के लिए जलती हैं पद्मिनी और सखियां और सती कहलाती हैं। मैंने मंच से अपनी मनोव्यथा दर्ज की थी ऐसा इतिहास जो स्त्री को भस्म होने के लिए मिसालें पेश करे, अब हमें औरत जात पर कलंक लगता है। रानी पद्मिनी के जौहर-व्रत को हटा देंगे। हम उन पन्नों से जो हमें सती हो जाने की सीख देते हैं। क्या हो जाता अगर अलाउद्दीन हमला कर देता? यही कि रानी पद्मिनी को अपने काबू में कर लेता! क्या रानी में लडऩे की कूवत नहीं थी? वह लाचार थी या कायर? शस्त्रागार से भरा हुआ चित्तौड़ का किला दहशत के मारे राख हो गया। औरतों के हौसले खाक में मिल गए और हमारा समाज है कि आज तक हमें उस जौहर की मिसाल देकर हमें रानी पद्मिनी बनाना चाहता है। हमारे भीतर पुरुषों की पौराणिक और ऐतिहासिक मान्यताओं ने भीषण जहर भर दिए हैं कि हम पुरुष की छाया मात्र से अपवित्र हो जाने के डर से खुद को सिकोड़ते जाते हैं। सिकुड़ा हुआ व्यक्ति आगे चलने के लिए किस हिम्मत पर तैयार हो? मैं तो बस यही मानती हूं कि पद्मिनी को जलकर नहीं, लड़कर मरना था या जीना था, लेकिन स्त्रियों का इतिहास तो उन पुरुष प्रवरों ने बताया है जो अपने घर की औरतों की स्वस्थ सांसों से भी डर जाते हैं। उनकी गलती भी क्या है? वे तहेदिल से सती प्रथा के समर्थक जो हैं। गांधी कहें तो कहते रहें कि जब तक देश में स्त्रियों की स्वतंत्रता नहीं आएगी, तब तक हमारी आजादी पूरी नहीं। जाहिर है कि आजादी के लिए जुनून चाहिए। जुनून न हो तो आदमी कीड़े-मकोड़ों की तरह मर जाए। वफादार होना, वफा के वास्ते जीना किसका मकसद नहीं होता, लेकिन जब वफा के नाम पर कमजोर, कायर और किंकर्तव्यविमूढ़ होने का आदेश पितृसत्तात्मक तबके से आए तो ऐसी वफादारी से तौबा करना हमारा हक है और यह भूमिका अब साहित्य निभाएगा। परिवर्तन की लहर में कुत्ते जैसी वफादारी किनारे कर दी जाएगी, जो महज पेट भरने के लिए रोटी और तन ढंकने वाले कपड़े के लिए औरत आजन्म करती रहती है। हमने पन्ना धाय की कहानी पढ़ी है-राजा से सेवक की वफादारी की ऐसी कथा जिसमें किसी सवाल के लिए जगह नहीं। पन्ना धाय ने राजा के भाई की दुश्मनी राजकुमार पर नहीं टूटने दी, शमशीर की धार के नीचे अपने बेटे को सुला दिया। राजकुमार बच गया, दासी-पुत्र भावी- गुलाम कल गुलामी करता, आज ही काम आ गया। पन्ना बहादुर थी या डरपोक? क्यों छीन लिया एक मां ने अपने बेटे से जिंदगी का अधिकार? क्यों मजबूर हुई वह चुपचाप उस हत्या को देखने के लिए? सब कुछ राजतंत्र के लिए हुआ, क्योंकि राजतंत्र के ऐसे विधि-विधान न लिखे जाएं तो वह जीवित कैसे रहे? ऐसी राजव्यवस्थाओं को चलाने के लिए एक नहीं अनेक लेखक अपना पुरजोर समर्थन देते दिखते हैं तो स्त्रियों का तबका हतप्रभ रह जाता है। कितना चालाक है कलम के सिपाहियों का अभिजात्य समूह कि मुद्दे वही उठाता है जो औरत की जड़ें काटते हैं। अपने ऋषि-मुनियों की पुराण-वेत्ताओं की तरह विरुदावलि गाता है और श्लोक मंत्र बोलकर हमें डराता है कि हमारे लिए जो तय किया गया है, वह पत्थर की लकीर सरीखा है, लेकिन हम भी कहे बिना नहीं मानते कि जो नीतियां, जो निर्धारित धर्म की नियमावलियां और लोकाचारों की विधियां हमें रास नहीं आतीं, हम उन्हें बदलेंगे। उदाहरण के तौर पर पारिवारिक संबंधों को ले सकते हैं जिनमें हमको प्यार-प्रीति का मोम बनाकर घुला लिया जाता है। अब तक यह नई बात कोर्ट-कचहरियों की मार्फत सामने नहीं आई थी कि पिता की संपत्ति में बेटी का भी अधिकार होगा, जबकि हम औरतों के जीवन में पितृ संपदा से खारिज होने का मलाल सदा से ही रहा है। ऐसा क्यों है? जिस आंगन में जन्म लिया है, उस पर भाई का हक है, बहन का नहीं। यह कायदा किसने बताया? मैं मानती हूं कि पिता के घर बेटी विदा होते समय बेसहारा मजलूम और अजनबी की तरह दूसरे यानी पति के घर में प्रवेश करती है। माता-पिता दुखित तो दिखते हैं, लेकिन उससे ज्यादा वे संतुष्ट होते हैं-परायी अमानत गई, जिम्मेदारी टली, गंगा नहाने का वक्त आ गया। जैसी भावनाओं के साथ बेटी की झोली में सांत्वना के टुकड़े डालते जाते हैं। तुम हमारी बेटी हो, दोनों कुल की लाज निभाओगी। इज्जत बचाकर रहोगी। पिता के घर से जा रही हो, अब यहां बुलाने पर ही आना। बिना बुलाये जाने पर अपमान होता है। रक्षाबंधन भाई की ओर से आश्वस्त करने का त्यौहार है कि हम तुम्हारी रक्षा करेंगे। कितने झूठे हैं ये दावे! भेंट उपहार और नेग दस्तूर में दिए गए कुछ नोट या सिक्के बिना धार के हथियार की तरह लड़की के हकों को काट डालते हैं। पूछने का मन करता है पिता की संपत्ति में बेटी का हक खा-पचाकर आप किन दस्तूरों की दुहाई देते हैं? बहन अगर अपना हिस्सा जायदाद में मांगती है तो आप की भृकुटि क्यों तन जाती है? क्या बहन की जगह एक भाई ही हो तो दूसरा भाई यहां नेग दस्तूरों का प्रस्ताव रखकर उसके संपत्ति के अधिकार को काट सकता है? भाई अपने भाई के हाथ में राखी बांधकर, भाईदूज का टीका करके, बच्चों के जन्म पर उपहार लेकर हिस्से की जायदाद हमेशा के लिए छोड़ सकता है? नहीं न। फिर बहन से जड़ से कटने वाले त्याग की उम्मीद क्यों की जाती है? इस सवाल के जवाब में हमारे साहित्यकार बंधु फरमाते हैं कि मैं पारस्परिक संबंधों को कचोटने वाली बात केवल इसलिए कह रही हूं कि सनसनी पैदा हो। अगर किसी को मेरी बात स्वतंत्रता के दावे में मजबूत लगती है तो भी इसका गलत असर पड़ेगा-हमारे साहित्यिक चिंतक ऐसी चिंता में धैर्य खो बैठे और संदर्भ खो दिए। पूछना तो यह भी है कि भावनात्मक पक्ष से जुड़े लोकाचार यदि प्रेम का माध्यम हैं तो हकों की कटाई में यह क्यों शामिल हैं? बहन से प्रेम क्या उसका हिस्सा मारकर ही निभाया जा सकता है? यदि ऐसा है तो प्रेम नहीं, यह सौदा है। इस सौदे को बड़ी चालाकी से चलाया जाता रहा है। अपनी सोच-समझ के लिए यदि हमारे तथाकथित आका स्वतंत्र हैं तो समय आ गया है कि हम भी अपनी समझदारी को दर्ज करें। गुलाबी ब्रिगेड हो या शराबबंदी के पक्ष में निकले स्त्री-दस्ते, निश्चित ही यह परिवर्तन की चाह में उठे हैं। वरन दाता और दारू का चलन तो सर्वमान्य होकर चलता है, इसलिए औरतों द्वारा किया गया हर दावा थोथा लगता है। क्या करें वे भी हमारे तर्क सुनने की आदत नहीं, सिर को धड़ से अलग करने के इरादे कंठस्थ हैं। ऐसे लोगों ने ही हजारों साल थोथी परंपराओं को जीवित रखा। असलियतें खुलती हैं, मगर ये अपनी लफ्फाजी से बाज नहीं आते। सामंती व्यवस्था जड़ ही नहीं होती, बेशर्म भी होती है। औरतों को तो हर शासक व्यवस्था को चुनौती देनी है, क्योंकि परिवर्तन का सार यही है। (लेखिका जानी-मानी साहित्यकार हैं)
सरकार ही नहीं संगठन पर भी चले राजनीतिक शुचिता का अभियान
भाजपा कार्यसमिति की बैठक इस मायने में एक सार्थक मोड़ की गवाह बनी है कि इसमें राजनीतिक शुचिता की काफी जोर शोर से हिमायत की गई। कांग्र्रेस की चौतरफा आलोचना के स्थायी भाव को छोड़ कर यदि इसकी अन्य महत्वपूर्ण बातों पर गौर किया जाए तो यही निष्कर्ष निकलेगा कि काफी समय बाद पार्टी ने नैतिकता के पैमाने को खुद पर लागू करने की जरूरत महसूस की। पार्टी ने उन नेताओं की संगठन तथा सरकार से किनाराकशी करने की सलाह दी जिनके कारण पार्टी की छवि खराब हो रही है। इनमें भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे मंत्री तो हैैं ही, अन्य गंभीर आरोपों से घिरे मंत्री भी हैैं। इसका अनुकूल परिणाम भी सामने आया है और अनूप मिश्रा ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया है जिसे मंजूर भी कर लिया गया है। वैसे यह दोहरा पैमाना राजनीति की परंपरा बन गया है कि यदि प्रतिद्वंदी पार्टी का नेता हो, तो उसपर आरोप लगते ही नैतिकता के आधार पर इस्तीफे की मांग की जाती है और यदि खुद की पार्टी का नेता भ्रष्टाचार या गंभीर अपराधों में भी लिप्त हो तो आरोप सिद्ध होने तक उसे निरपराध मानते हुए इस आधार पर पद पर बने रहने की दलील दी जाती है। इस दोहरे मापदंड के बीच यह इस्तीफा एक मिसाल अवश्य माना जा सकता है क्योंकि उनके इस्तीफे की कोई कानूनी बाध्यता नहीं है। ऐसी ही आशा अन्य मंत्रियों से भी की जाती है कि वे निर्दोष सिद्ध होने तक तक पद छोड़ दें। लेकिन यक्ष प्रश्न यही है कि भाजपा तमाम राजनीतिक मजबूरियों के बावजूद राजनीतिक शुचिता के पैमाने पर क्या खरी उतर सकेगी जो कार्यकारिणी की बैठक का प्रमुख एजेंंडा बनकर उभरा है। बैठक में एक तरह से मुख्यमंत्री को पार्टी की हरी झंडी मिल गई है कि वे दागी मंत्रियों पर कार्रवाई कर पार्टी की छवि को उज्जवल करें। अब मुख्यमंत्री की संकल्पशक्ति पर पूरा मामला आ टिका है। कोई भी सरकार कितनी भी जन हितकारी योजनाओं एवं कार्यक्रमों की रूपरेखा बना ले और उन पर अमल करने की कितनी भी कवायद कर ले लेकिन भ्रष्टाचार से उन सब पर पानी फिर जाता है अत: मुख्यमंत्री को अपनी इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए राजनीतिक शुचिता की पार्टी की इच्छा को अमलीजामा पहनाना चाहिए। लेकिन सिर्फ इतने से ही काम नहीं चलेगा। राज्य में कानून व्यवस्था की आज जो दयनीय स्थिति है, वह किसी से छिपी नहीं है। पार्टी के नेताओं एवं कार्यकर्ताओं की प्रशासन एवं पुलिस के कामकाज में दखलंदाजी इसका एक अहम कारण है। अत: राजनीतिक शुचिता का अभियान सिर्फ मंत्रिमंडल पर ही नहीं बल्कि संगठनात्मक स्तर पर भी चलना चाहिए और प्रशासनिक दखलंदाजी से पुलिस के कामकाज को प्रभावित करने वाले नेताओं एवं कार्यकर्ताओं पर भी कार्रवाई की जानी चाहिए तभी प्रदेश में नई राजनीतिक संस्कृति का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा और प्रदेश के लोग इस नए बदलाव से आश्वस्त हो सकेंगेेे।
-सर्वदमन पाठक
-सर्वदमन पाठक
बीमार अस्पताल, बेहाल मरीज
मध्यप्रदेश देश का हृदय प्रदेश है और स्वाभाविक रूप से यह अपेक्षा की जाती है कि यह प्रदेश राज्य के वर्तमान एवं भविष्य के प्रति अधिक संवेदनशील होगा। कहते हैैं कि बच्चे हमारा भविष्य, हमारा कल हैैं। गत दिवस घटी कुछ घटनाएं यह संकेत करती हैैं कि प्रदेश अपने इस कल के प्रति समुचित चिंता तथा समुचित संवेदनशीलता के प्रदर्शन मेंं नाकाम रहा है। विदिशा के कुरवाई अस्पताल में एक गर्भवती महिला के प्रसव की जिम्मेदारी न निभाने का मसला हो, या फिर भोपाल के दो अस्पतालों मेंं बच्चा वार्ड में लगी आग अथवा बिजली गुल रहने का मामला, इन सभी घटनाओं से यही संकेत मिलता है। ये हादसे क्रमश: जेपी अस्पताल तथा सुल्तानिया अस्पताल में हुए जिनमें से जेपी अस्पताल में शार्ट सर्किट से लगी आग ने बच्चा वार्ड(सिक न्यू बार्न केयर यूनिट) को अपनी चपेट में ले लिया और सारे वार्ड में धुआं भर जाने से स्थिति चिंताजनक हो गई। उस समय इस बच्चा वार्ड में 17 बच्चे भर्ती थे। यदि आनन फानन में 11 बच्चों को उनकी मां के हवाले नहीं किया गया होता और तीन अपेक्षाकृत गंभीर बच्चों को प्रायवेट वार्ड में शिफ्ट नहीं किया जाता तो वहां इन नवजात शिशुओं का जीवन खतरे में पड़ सकता था। उधर सुल्तानिया अस्पताल में जेनरेटर में विस्फोट होने से आग लग गई और पूरा अस्पताल कई घंटे तक अंधेरे में डूबा रहा। ऐसे ही अंधेरे मेंं बच्चों का इलाज चलता रहा। अस्पताल प्रबंधन के मुताबिक केबिल फटने से यह नौबत आई। लेकिन इसे सिर्फ हादसे मानकर उपेक्षित कर देना कतई उचित नहीं होगा क्योंकि रखरखाव में कमी भी इस हादसों के लिए जिम्मेदार है। और यह रखरखाव जिस प्रबंधन की जिम्मेदारी है, उन्हें इन हादसों की जवाबदेही से कतई मुक्त नहीं किया जा सकता। जब भोपाल में जहां पूरी सरकार तथा उसके आला अफसर मौजूद रहते हैं, उनकी नाक के नीचे ऐसे हादसे हो सकते हैं तो फिर अन्य जिलों के दूरदराज इलाकों में अस्पतालों के रखरखाव की क्या स्थिति होगी, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है। इन अस्पतालों में डाक्टरों एवं चिकित्सा सुविधाओं की कमी भी किसी से छिपी नहीं है। राज्य सरकार जब तब यह दावे करती रही है कि वह राज्य के लोगों की जिंदगी तथा सेहत को सर्वोच्च प्राथमिकता देती है लेकिन उक्त घटनाएं उसके दावों को झुठलाती नजर आती हैं। संभव है कि स्वास्थ्य एवं चिकित्सा विभाग का समुचित सहयोग सरकार को न मिलने से यह स्थिति बनी हो लेकिन यदि वह अपने ही विभागों से समुचित क्षमता के साथ काम नहीं ले पाती तो इसके लिए राज्य सरकार खुद ही जिम्मेदार है। राज्य सरकार को उक्त हादसों पर सख्त रुख अपनाना चाहिए और इनकी पूरी पूरी छानबीन कराना चाहिए ताकि इन घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो सके क्योंकि राज्य के लोगों की सेहत की रक्षा करना राज्य सरकार की बुनियादी जिम्मेदारी है।
-सर्वदमन पाठक
-सर्वदमन पाठक
Thursday, July 1, 2010
आतंकवाद की फैलती विषबेल
भाजपा केंद्र की कांग्रेस नीत सरकार पर यह आरोप लगाती रही है कि वह आतंकवाद पर अंकुश लगाने में असफल रही है लेकिन सच तो यह है कि भाजपा शासित राज्य सरकारें खुद भी आतंकवाद की विषबेल को फैलने से रोकने में नाकाम रही हैं। मध्यप्रदेश के शाजापुर जिले में 13 आतंकवादियों की धरपकड़ इस बात का स्पष्टï प्रमाण है। इन आतंकवादियों के पास से काफी उत्तेजक आतंकवादी साहित्य तथा सीडी मिली है जिससे यह सिद्ध होता है कि वे इस क्षेत्र में लोगों ं को धार्मिक रूप से भड़काने की साजिश के तहत शाजापुर आये थे। ये सभी आतंकवादी उत्तरप्रदेश से आए थे जहां के कई जिले आजकल आतंकवाद की नर्सरी के रूप में जाने जाते हैं। गौरतलब है कि शाजापुर का नाम हाल की कई बड़ी आतंकवादी वारदातों मेें आता रहा है। अक्षरधाम मंदिर पर हमला, मालेगांव बम ब्लास्ट तथा हैदराबाद बम ब्लास्ट के तार शाजापुर से जुड़े पाये गए थे। दरअसल सिर्फ शाजापुर ही नहीं बल्कि प्रदेश में मालवा क्षेत्र पिछले कई सालों से आतंकवादियों की शरणस्थली के रूप में बदनाम रहा है और इस क्षेत्र में सिमी के नेटवर्क की मौजूदगी कोई छिपी हुई बात नहीं रही है। अतीत में पकड़े गए सफदर नागौरी जैसे सिमी से जुड़े कई कुख्यात आतंकवादी इस क्षेत्र में सक्रिय रहे हैं। शाजापुर में अन्य प्रदेशों के आतंकवादियों का ठहरना इस बात की पुष्टिï करता है कि इस क्षेत्र को आतंकवादी काफी हद तक निरापद मानते हैं। इतना ही नहीं, मालेगांव बम ब्लास्ट जैसे घटनाओं से जरिए देश प्रदेश की शांति भंग करने का साजिश रचने के आरोपी भी मालवा क्षेत्र से ही पकड़े जा चुके हैं। राज्य सरकार बार बार यह घोषणा करती है कि वह प्रदेश से आतंकवादी गतिविधियों का सफाया करने के लिए कृतसंकल्प है लेकिन आतंकवादियों की मौजूदगी को उजागर करने वाली घटनाएं यही बताती हैं कि आज भी प्रदेश में ऐेसे तत्व मौजूद हैं जो आतंकवाद का जहर लोगों के दिलो दिमाग में बोने की साजिश में लगे हुए हैं और प्रदेश सरकार उन्हें खोज निकालने तथा सींखचों के पीछे भेजने में पूरी तरह सफल नहीं रही है। स्वाभाविक रूप से ये आतंकवाद के स्लीपिंग सेल के रूप में जहां तहां रह रहे हैं और अपने आतंकवादी मंसूबों को अंजाम देने के लिए अनुकूल वक्त के इंतजार में हैं। इन्हें यदि आतंकवाद का टाइम बम कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसमें कोई शक नहीं है कि राज्य सरकार आतंकवाद के सफाये का इरादा रखती है और इस दिशा में सरकार ने छिटपुट कार्रवाई भी की है लेकिन इस जंग में निरंतरता का अभाव स्पष्टï रूप से परिलक्षित होता है। यदि राज्य सरकार प्रदेश में आतंकवाद को जड़ मूल से खत्म करना चाहती है तो उसे इसके खिलाफ निर्णायक जंग छेडऩी होगी। -सर्वदमन पाठक
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