Wednesday, July 29, 2009

गुरु के नाम को कलंकित किया शिक्षक ने

हमारी संस्कृति में गुरु शिष्य परंपरा का विशेष महत्व रहा है। दरअसल गुरु और शिष्य के बीच पवित्रता का रिश्ता हमारी पहचान ही है जिसमें लिंग, जाति एवं वर्णभेद आड़े नहीं चाहिए। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में ऐसे कई उदाहरण सामने आए हैं जो इस पवित्र रिश्ते को कलंकित कर गए हैं। ऐसी ही शर्मसार करने वाली घटना गंजबासौदा में गत दिवस हुई जिसमेंं एक शिक्षक ने अपनी मनोविकृति का परिचय देते हुए अपनी छात्राओं के वस्त्र उतरवा लिए। ड्रेस के लिए नाप लेने के बहाने उन बच्चियों के कपड़े उतरवाने के बाद भी उसकी यौन कुंठा शांत नहीं हुई तो उसने अपने हाथों से विभिन्न अंगों का नाप लेने की अश्लील हरकत की। अब उसे उसकी करनी की सजा मिल रही है और उसे बर्खास्त करके गिरफ्तार कर लिया गया है लेकिन उक्त शिक्षक की यह पहली आपत्तिजनक कोशिश नहीं थी। स्कूल की एक शिक्षिका ने पूर्व में भी उसका आचरण संदिग्ध होने की शिकायत की थी। सवाल यह है कि ऐसा कौन सा कारण था कि उस शिक्षक पर इस शिकायत के बावजूद उस समय कार्रवाई नहीं की गई। यदि उस समय पर्याप्त कार्रवाई की गई होती तो ये बच्चियां इस अश्लील हरकत की शिकार बनने से बच जातीं और वह स्कूल कलंकित होने से बच जाता। नूरापुर टपरा में शिक्षा गारंटी योजना के तहत चलाये रहे स्कूल में हुई यह घटना शिक्षक के चारित्रिक पतन की परिचायक तो है ही, एक गंभीर सामाजिक अपराध भी है क्योंकि विपन्न तथा विकास की रोशनी से महरूम आदिवासियों के बच्चों को ही इस स्कूल में दाखिला दिया जाता है और स्वाभाविक रूप से यह घृणित घटना स्कूल में पढऩे वाले आदिवासी बच्चों को शिक्षा के प्रति निरुत्साहित कर सकती है। हम यह दावा करते नहीं थकते कि हम सभ्यता के काफी ऊंचे पायदान पर खड़े हैं। आदिवासियों के सशक्तिकरण के लिए तमाम कदम उठाए गए हैं लेकिन इसके बावजूद आदिवासियों के भोलेपन और उनकी बेचारगी का नाजायज फायदा उठाने और उनको प्रताडि़त करने की मनोवृत्ति अभी भी हावी है जिसकी झलक इस घटना में देखी जा सकती है। भारतीय संस्कृति में नारी को प्रतिष्ठïापूर्ण स्थान हासिल है। वेदों में कहा गया है कि जहां नारी की पूजा होती है वहां देवता वास करते हैं। फिर क्या कारण है कि हमारी मानसिकता विकृतियों की शिकार हो रही है जिसे इस घटना में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। क्या पाश्चात्य संस्कृति हम पर हावी हो रही है? क्या टीवी चैनलों में परोसी जा रही और इंटरनेट में आसानी से उपलब्ध अश्लील सामग्री हमारे विचारों को विकृति के गर्त में धकेल रही है? ये ऐसे सवाल हैं जिन पर जल्द से जल्द विचार करना और इनके समाधानकारी उत्तर खोजना वक्त का तकाजा है ताकि ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति को रोका जा सके। इस घटना का एक कारण यह भी है कि शिक्षक के पेशे के साथ जो आदर्श की अवधारणा जुड़ी हुई थी, वह आजकल लुप्त हो रही है। शिक्षा को पुण्य कर्म मानने और ऐसी ही पुण्य भावना के साथ इसे अंजाम देने का जज्बा अब खत्म होता जा रहा है। यदि हम शिक्षा के माहौल को परिष्कृत करना चाहते है तो हमें इस शिक्षकीय आदर्श की पुनस्र्थापना करनी होगी।
-सर्वदमन पाठक

Monday, July 27, 2009

दम तोड़ते मरीज और एक्सपायरी होती करोड़ों की दवाएं

यह भी एक विडंबना ही है कि मध्यप्रदेश जैसे बेइंतहा गरीबी से ग्रस्त प्रदेश में जहां एक ओर आर्थिक अभाव के कारण दवाइयां नहीं खरीद पाने की वजह से ग्रामों एवं शहरों की एक बड़ी आबादी गंभीर बीमारियों की असहनीय पीड़ा झेलते रहने या असमय मौत की दस्तक सुनने के लिए मजबूर है, वहीं दूसरी ओर इन दिनों बीस करोड़ की जीवन रक्षक दवाइयां एक्सपायरी के कारण नष्टï की जा रही है। इस मामले में सबसे ज्यादा चिंतनीय है सरकार की रहस्यमय चुप्पी जो सरकार की संवेदनशीलता पर प्रश्र चिन्ह लगा रही है। यह एक ऐसा गोरखधंधा है, जिनमें चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग के कई आला अफसरों का हाथ है लेकिन इनका गंठजोड़ इतना मजबूत है कि कानून के लंबे हाथ भी उनके गले तक नहीं पहुंच सकें , इसकी संभावना काफी कम नजर आती है। इससे जुड़ा समूचा घटनाक्रम यही संकेत करता है कि पहले सुनियोजित तरीके से सरकारी अस्पतालों में दवाइयों का कृत्रिम अभाव निर्मित किया गया और फिर जब गरीबों को सरकारी दवाखाने से नि:शुल्क दवाइयां न मिलने के कारण हायतौबा मची तो आनन फानन में लगभग चार सौ करोड़ रुपए की भारी भरकम राशि स्वीकृत कराकर उनकी दवाइयां खरीद ली गईं। यह जांच का विषय है कि यह सरकारी लापरवाही थी या सोची समझी साजिश जिसके तहत ढेर सारी दवाइयां ऐसी खरीदी गई जो छह माह बाद ही एक्सपायर हो जाने वाली थीं। कुछ अस्पतालों ने तो सतर्कता बरतते हुए इन दवाओं को लेने से इंकार कर दिया लेकिन अधिकांश अस्पतालों में ये दवाइयां बाकायदा स्टोर तक पहुंच गई लेकिन जब तक यह मरीजों को उपलब्ध होती, इनकी एक्सपायरी डेट आ गई और तब इन्हें नष्टï करने के सिवाय कोई विकल्प नहीं था। गौरतलब है कि सरकारी अस्पतालों में खरीदी जाने वाली दवाइयों की एक्सपायरी डेट न्यूनतम तीन साल होती है फिर ऐसी कौन सी मजबूरी थी कि छह माह एक्सपायरी डेट वाली दवाइयां खरीदीं गई। इससे यह संदेह उपजना स्वाभाविक ही है कि इसके इसके पीछे कोई रैकेट तो काम नहीं कर रहा। कहीं सरकार, प्रशासन और मेडिकल पेशे से जुड़े आला अफसरों की मिलीभगत से कुछ दवा कंपनियों ने अपनी शीघ्र एक्सपायरी डेट वाली दवाइयां सरकारी अस्पतालों के मत्थे तो नहीं मढ़ दी, और इसके एवज में रिश्वत की भारी भरकम राशि की बंदरबांट तो नहीं हो गई, यह ऐसा सवाल है जो किसी के भी मन में उठ सकता है। सवाल यह भी है कि बीपीएल कार्डधारी किसी भी मरीज की शिकायत पर अस्पतालों में अधीक्षक तक को पल भर में निलंबित करने का आदेश दे देने वाली सरकार इस मामले में चुप्पी क्यों साधे हुए हैं। आखिर कोई कठोर कार्रवाई करने में वे झिझक क्यों रही है? राज्य के लोगों की सेहत की रक्षा की कसमें खाती रहने वाली राज्य सरकार को इस मामले को भी पूरी गंभीरता से लेना चाहिए और इसकी गहन जांच कर दोषियों पर कठोरतम कार्रवाई करनी चाहिए ताकि उसके इस वादे पर लोगों का भरोसा कायम रह सके ।
-सर्वदमन पाठक

Tuesday, July 21, 2009

जूनियर डाक्टरों की न्यायपूर्ण मांगें माने सरकार

मध्यप्रदेश में जूनियर डाक्टरों की हड़ताल शुरू हो गई है और राज्य सरकार ने अल्टीमेटम की अवधि पूरी होने के बाद सख्त रुख अपनाते हुए 1300 हड़ताली जूनियर डाक्टरों को निष्कासित कर दिया है लेकिन इससे हालात और बिगडऩे के आसार दिख रहे हैं और इनके समर्थन में सीनियर डाक्टर भी हड़ताल पर जाने के लिए कमर कस रहे हैं। चूंकि आम तौर पर सरकारी अस्पतालों की चिकित्सा की जिम्मेदारी इन्हीं डाक्टरों पर रहती है इसलिए स्वाभाविक रूप से इस हड़ताल से इन अस्पतालों में चिकित्सा व्यवस्था चरमरा गई हैं। यह सच है कि डाक्टरों का पेशा लोगों की जिंदगी तथा उनकी सेहत की देखभाल से जुड़ा हुआ है इसलिए उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपने दायित्वों की गंभीरता को देखते हुए हड़ताल जैसे कदम नहीं उठाएंगे। यह बात सैद्धांतिक रूप से बिल्कुल सही है लेकिन हमें इस सिलसिले में इसके व्यवहारिक पक्ष पर गौर अवश्य करना चाहिए। हमें इन डाक्टरों की सेवाओं के साथ ही उनके वेतन तथा सुविधाओं पर भी विचार करके हड़ताल के औचित्य को लेकर कोई फैसले पर पहुंचना चाहिए। सच तो यह है कि जूनियर डाक्टरों के ड्यूटी के घंटे और उनकी थका देने वाली सेवाएं किसी भी व्यक्ति को आश्चर्यचकित कर देने के लिए काफी हैं। कई बार तो उन्हें 36- 36 घंटे तक लगातार काम करना पड़ता है जो किसी भी पेशे से अधिक कष्टï साध्य होता है। चिकित्सा के इस पेशे में जो इज्जत मिलनी चाहिए, वह भी आजकल लुप्त हो रही है जिसके लिए हर छोटी बड़ी चूक या अनहोनी घटनाओं पर होने वाली मीडिया ट्रायल भी काफी हद तक जिम्मेदार है। डाक्टर कोई भगवान नहीं होता। कोई भी डाक्टर अपने मरीजों को बचाने अथवा स्वस्थ करने के अपनी ओर से भरसक प्रयास करता है लेकिन अंतिम सत्य यही है कि किसी की भी जिंदगी और मौत अंतत: ईश्वर के हाथ में ही होती है। मीडिया में इसे जिस तरह से सिर्फ लापरवाही करार देकर डाक्टरों की निष्ठïा पर सवालिया निशान लगाने का फैशन चल पड़ा है उससे लोगों में भी डाक्टरों के प्रति भरोसा घटा है। इसका परिणाम यही होता है कि डाक्टर अपनी ड्यूटी निभाने के बावजूद जब तब कटघरे में खड़े नजर आते हैं। मानव सेवा के अपने फर्ज को निभाने के बावजूद उन पर सरकारी कार्रवाई की तलवार लटकती रहती है। सरकार का संवेदनहीन रवैया उनकी इस पीड़ा को दुगुना कर देता है। प्रदेश में भाजपा के कार्यकाल में जितने डाक्टरों को निलंबित किया गया है, वह अपने आप में एक रिकार्ड ही होगा। अपनी तमाम तकलीफों के बाद भी जूनियर डाक्टर जो वेतन पाते हैं, वह इस पेशे के लिए अपमानजनक ही माना जा सकता है। जूनियर डाक्टरों की हड़ताल इन तमाम हालात के प्रति उनके आक्रोश की परिचायक है। सरकार को इनसे मानवीय तरीके से निपटना चाहिए और उनकी मांगों पर सहानुभूतिपूर्ण रुख अपनाकर इस मामले का हल निकालना चाहिए। निष्कासन जैसी कार्रवाई को वापस लेकर राज्य सरकार को बातचीत का रास्ता अपनाना चाहिए ताकि डाक्टरों को न्याय मिल सके और सरकारी अस्पतालों में चिकित्सा व्यवस्था पूर्ववत कायम हो सके। सरकार के हठ और सख्त रुख से समस्या बिगड़ेगी ही, हल कतई नहीं होगी।
- सर्वदमन पाठक

Thursday, July 16, 2009

प्रदर्शनों को मर्यादा में बांधा जाए

प्रदर्शन वैसे तो ऐसा लोकतांत्रिक अधिकार है जिससे अपने विरोध को व्यक्त किया जा सकता है और राजनीतिक दल अपने इस लोकतांत्रिक अधिकार का भरपूर इस्तेमाल करते रहते हैं लेकिन आजकल यह अधिकार आम लोगों के लिए परेशानी का सबब बनने लगे हैं। इसका ताजा उदाहरण है भोपाल में हुआ युवक कांग्रेस का प्रदर्शन। मप्र के बजट से लोगों पर पडऩे वाली महंगाई की जबर्दस्त मार, बिगड़ती कानून व्यवस्था तथा भ्रष्टïाचार पर विरोध जताने के लिए यह प्रदर्शन आयोजित किया गया था। स्वाभाविक रूप से इस प्रदर्शन में हिस्सा लेने वाले लोगों के चेहरे पर सरकार की नीतियों के खिलाफ गुस्सा झलकना चाहिए था लेकिन प्रदर्शन से इस गुस्से का कोई अहसास नहीं हो रहा था। इसका यह संकेत तो स्पष्ट था कि यह राज्य सरकार की नीतियों से संभावित मूल्यवृद्धि पर लोगों के आक्रोश को अभिव्यक्ति देने का प्रयास कम, कांग्रेस का शक्ति प्रदर्शन ज्यादा था। इसे यदि कांग्रेस शक्ति प्रदर्शन का नाम देती तब भी इसमें लोकतांत्रिक दृष्टिï से कुछ भी गलत नहीं था लेकिन सवाल यह है कि क्या यह जरूरी है कि ऐसे प्रदर्शन लोगों की परेशानियों की कीमत पर किये जाएं। दरअसल कांग्रेस को लोकसभा चुनाव के बाद से यह महसूस हो रहा था कि उसकी लोकप्रियता में इजाफे के कारण ही उसे चुनाव में ज्यादा सीटें मिली हैं और इस प्रदर्शन के पीछे उसका यही मंसूबा था कि वह प्रदेश में अपनी बढ़ती लोकप्रियता को दर्शा सके लेकिन इस प्रदर्शन में लोगों की सीमित भागीदारी के कारण वह अपने इस मंसूबे में पूरी तरह से कामयाब नहीं हो सकी है। अलबत्ता उसके प्रदर्शन ने शहरवासियों को परेशानियों का तोहफा जरूर दे दिया। शहर में लगे बेरिकेड तथा यातायात पर लगी पाबंदियों के चलते लोगों को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा। कई लोग अपने आफिस, बहुत से बच्चे अपने स्कूलों और कालेजों में नहीं पहुंच पाए तो उसकी वजह यही प्रदर्शन तो था। इस प्रदर्शन ही नहीं बल्कि तमाम राजनीतिक प्रदर्शनों की हकीकत यही है कि ये आयोजित तो लोकतांत्रिक अधिकार के तहत किये जाते हैं लेकिन इसमें लोकतंत्र की सबसे बड़ी सत्ता जनता को होने वाली असुविधाओं को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया जाता है। गौरतलब है कि विभिन्न अदालतों ने जब तब प्रदर्शन, आंदोलन से लोगों को होने वाली असुविधाओं पर अपनी चिंता जताई है। पश्चिमी बंगाल में तो न्यायालय ऐसे प्रदर्शनों पर रोक का निर्देश तक दे चुका है। महाराष्टï्र की अदालत ने एक राजनीतिक दल को ऐसे प्रदर्शन से होने वाले नुकसान की भरपाई का आदेश दिया था। वक्त आ गया है कि अब न्यायालय की इन भावनाओं का सम्मान करते हुए ऐसे तमाम प्रदर्शन के लिए नियम कायदे बनाए जाएं। प्रदर्शनों की अनुमति देते समय इस बात सुनिश्चित किया जाए कि इससे लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी में रुकावट नहीं आएगी। इन्हें क्षेत्र की दृष्टिï से इस तरह से परिसीमित किया जाना चाहिए कि जनजीवन बदस्तूर चलता रहे और प्रदर्शनकर्ताओं से पहले से ही यह अंडरटेकिंग ले ली जाए कि वे अनावश्यक से लोगों की आवाजाही में अवरोध पैदा नही करेंगे और सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान नहीं पहुंचाएंगे। यदि वे अपनी यह अंडरटेकिंग पूरी नहीं करते तो उनके खिलाफ हर्जाने एवं पाबंदियों तक की कार्रवाई का प्रावधान हो।
-सर्वदमन पाठक

Monday, July 13, 2009

नेतृत्व की पराजय हुई, पार्टी की नहीं


लोकसभा चुनाव संपन्न हुए लगभग दो माह गुजर चुके हैं और मनमोहन सिंह के नेतृत्व मेें यूपीए सरकार ने अपनी लगातार दूसरी पारी शुरू करते हुए आम बजट एवं रेल बजट पेश कर दिया है लेकिन विपक्ष अभी भी इस चुनाव में मिली करारी पराजय के अवसाद से नहीं उबर सका है। पराजय के कारणों पर तमाम पहलुओं से मंथन तो चल ही रहा है और चुनावों के निहितार्थों की अपने अपने नजरिये से व्याख्या की जा रही है लेकिन इसके बहाने विपक्ष का अंदरूनी महाभारत भी तेज हो गया है। चुनावी नतीजों पर चर्चा से बहाने पिछले हिसाब चुकाए जा रहे हैं। इस आपसी निशानेबाजी के खेल से सबसे अधिक प्रभावित हो रही है देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी भाजपा। भाजपा की पराजय पर सबसे चर्चित प्रतिक्रिया प्रधानमंत्री पद के दावेदार रहे लालकृष्ण आडवाणी के राजनीतिक सलाहकार सुधींद्र कुलकर्णी की रही है। इस प्रतिक्रिया ने भाजपा को झकझोर दिया है। उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला है कि भाजपा की पराजय का कारण उसका सीमित जनाधार है। सुधींद्र कुलकर्णी ने दलील दी है कि भाजपा इस चुनाव में उन कुछ कांग्रेस विरोधी दलों से भी चुनावी गठबंधन नहीं कर सकी जो पहले राष्टï्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का हिस्सा हुआ करते थे। इसका परिणाम चुनावी पराजय के रूप में सामने आया। इन दलों को यह संदेह था कि यदि उन्होंने भाजपा से चुनावी गठबंधन किया तो उनके अल्पसंख्यक वोट खिसक जाएंगे और इससे उन्हें चुनाव में नुकसान हो सकता है। भाजपा की ओर से इस धारणा को दूर करने का कोई ठोस प्रयास भी नहीं किया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि भाजपा को पांच राज्यों में कुल एक सीट मिल सकी। यदि भाजपा चाहती है कि भविष्य में उसकी चुनावी संभावनाओं पर इसी कारण प्रतिकूल असर न पड़ सके तो उसे इस दिशा में गंभीरता से विचार करना होगा। दरअसल भाजपा को यह नुकसान इस कारण हुआ है कि वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारों का आइना बनकर रह गई है। राजनीतिक दल के रूप में उसका वह स्वरूप तिरोहित हो रहा है जो अटल विहारी वाजपेयी सरकार के दौर पर था। सुधींद्र कुलकर्णी ने यह राय जाहिर की है कि भाजपा को संघ से अपने संबंधों पर पुनर्विचार करना चाहिए ताकि भविष्य में ऐसी स्थिति न आए। लेकिन भाजपा के भीतर इसके खिलाफ हुई तीखी प्रतिक्रिया देखकर यह अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है कि यह विचार भाजपा को कभी भी स्वीकार्य नहीं हो सकता। सच तो यह है कि भाजपा बुनियादी तौर पर संघ की राजनीतिक शाखा ही है और अपनी मातृ संस्था से भाजपा अपने संबंधों की समीक्षा कैसे कर सकती है। भाजपा की राष्टï्रीय कार्यकारिणी की बैठक में यह बात उभरकर सामने भी आ गई है कि जहां यह बात साफ कर दी गई है कि भाजपा की संघ के साथ संबंधों की समीक्षा का कोई सवाल ही नहीं है। लेकिन पार्टी का महाभारत कभी तेज तो कभी धीमी रफ्तार से चल ही रहा है। जसवंत सिंह तथा यशवंत सिन्हा जैसे दिग्गज भाजपा नेता भी इस अवसर का लाभ उठाकर अपने प्रतिद्वंदियों पर निशाना साधने का लोभ संवरण नहीं कर पाए हैं। अनुशासनहीनता पर सख्त कार्रवाई की पार्टी अध्यक्ष श्री राजनाथ सिंह की चेतावनी के बावजूद यह सिलसिला नहीं थमा है। श्री आडवाणी तो इन हालात पर इतने व्यथित हैं कि उन्होंने कह दिया है कि पार्टी में वक्ताओं की भीड़ लग गई है। इन तथ्यों को देखते हुए यह विचार करना जरूरी है कि आखिर भाजपा की लोकसभा चुनाव में इतनी जबर्दस्त हार का मूल कारण क्या है। जहां तक भाजपा से संबंधों का सवाल है, यह कोई नई बात नहीं है। इसके बावजूद पूर्व में विभिन्न क्षेत्रीय पार्टियों ने भाजपा से जुडऩे में परहेज नहीं किया। भाजपा को निश्चित ही ऐसे राजनीतिक दल के रूप में अपनी विश्वसनीयता बनानी होगी जो सर्व समावेशी हो। भारत जैसे बहुलवादी संस्कृति के देश में यह सबसे बड़ा तकाजा है लेकिन इस पराजय को सिर्फ इस पैमाने पर नहीं कसा जा सकता। हकीकत यह है कि लोकसभा के चुनावी नतीजे सिर्फ भाजपा की पराजय को नहीं दर्शाते। यह दो नेतृत्व के बीच भी चुनाव था और देश के लोगों ने इन चुनाव में इनमें भी अपनी पसंद- नापसंद बताई है। अटलविहारी वाजपेयी की लोकप्रियता और आडवाणी की लोकप्रियता में जो अंतर है, वह इस चुनाव के जनादेश में साफ हो गया है। आडवाणी को कंधार कांड और जिन्ना प्रकरण का खमियाजा इस चुनाव में भुगतना पड़ा है। जिन्ना प्रकरण में तो भाजपा और संघ ने ही उनको कटघरे में खड़ा कर दिया था। इन दोनों मामलों ने उनके मजबूत नेतृत्व, निर्णायक सरकार के नारे को कमजोर कर दिया। मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव तथा लोकसभा चुनाव की तुलना की जाए तो मध्यप्रदेश में जहां शिवराज सिंह के नेतृत्व के कारण भाजपा को दुबारा विजय हासिल हुई वहीं लोकसभा चुनाव में आडवाणी का नेतृत्व भाजपा को विजय नहीं दिला सका। शिवराज सरकार की नीतियों ने प्रदेश के लोगों में जो भरोसा जगाया, मप्र चुनाव में उसकी जीत हुई लेकिन आडवाणी का नेतृत्व लोगों में भरोसा पैदा नहीं कर पाया अत: भाजपा को पराजय झेलनी पड़ी। बहरहाल भाजपा को केंद्र में विपक्ष के रूप में अब अपनी नई जिम्मेदारी को स्वीकारना चाहिए। यह कोई छोटी जिम्मेदारी नहीं है। जनता के पक्ष में संघर्ष करने का उसमें भरपूर माद्दा है और उसे इसका परिचय देते हुए लोगों के दुख दर्द में हिस्सेदारी करनी होगी ताकि वह भविष्य में लोगों का भरोसा जीत सके।
-सर्वदमन पाठक

नक्सलवादियों से निपटने में सियासत न करें

छत्तीसगढ़ में नक्सलवादियों के खूनी हौसले कितने बुलंद हैं, यह राजनांदगांव जिले की घटना ने सिद्ध कर दिया है। राजनांदगांव के घने जंगलों के बीच स्थित मदनवाड़ा थाना क्षेत्र के गोरगुड्डïी गांव में नक्सलवादियों ने घात लगाकर एसपी विनोद कुमार चौबे सहित कुल चालीस से अधिक पुलिस जवानों की हत्या कर दी। दरअसल इस क्षेत्र में नक्सलवादियों के मौजूद होने की खबर मिलने के बाद उनके सफाये के लिए निकली पुलिस पार्टी नक्सलवादियों के ही जाल फंस गई। यह पहला मौका नहीं है जब छत्तीसगढ़ नक्सलवादियों की खूनी वारदातों से दहला हो। पिछले एक साल में ही छत्तीसगढ़ में 148 लोग नक्सली हिंसा का शिकार हो चुके हैं। दरअसल पिछले कुछ सालों में देश में छत्तीसगढ़ नक्सलवादियों का सबसे बड़ा गढ़ बन गया है। रमन सिंह सरकार ने नक्सली समस्या से निपटने के लिए अपनी ओर से कई बार रणनीति बनाई है और सल्वा जुड़म अभियान ने तो सारे देश का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है हालांकि इस अभियान की कहीं सराहना तो कहीं आलोचना हुई है। इसके तहत नक्सलवाद प्रभावित गांव में लोगों में विश्वास तथा सुरक्षा की भावना पैदा करने के लिए उन्हें शस्त्रों से सुसज्जित किया गया और उनके लिए अलग शिविर बनाए गए लेकिन सरकार के इस अभियान का उल्टा ही असर हुआ है और नक्सलवादियों का कहर कम होने के बदले बढ़ गया है। यदि यह कहा जाए कि रमन सिंह सरकार नक्सलियों से निपटने में रणनीतिक दृष्टिï से असफल रही है तो गलत न होगा। सच तो यह है कि नक्सलवादी समस्या केंद्र और राज्य सरकार के बीच राजनीतिक जोर आजमायश का बहाना बन कर रह गई है। केन्द्र सरकार नक्सली हिंसा से निपटने के लिए छत्तीसगढ़ को स्थायी तौर पर 16 बटालियन दे चुकी है। इतनी बटालियन केंद्र ने किसी राज्य में नहीं भेजी है। पूरे देश में गृह मंत्रालय ने अद्र्धसैनिक बलों की 37 बटालियन मुहैया कराई हैं। इसके बावजूद छत्तीसगढ़ सरकार सुरक्षा बल की कमी बता रही है। लेकिन नक्सलवाद से निपटने में असफलता के लिए सिर्फ छत्तीसगढ़ सरकार को दोष देना उचित नहीं होगा क्योंकि यह कानून व्यवस्था की ही समस्या नहीं है जिसके लिए सिर्फ राज्यों को जिम्मेदार ठहराया जा सके। यह एक राष्टï्रीय समस्या है जो कई राज्यों से जुड़ी है। संभव है कि नक्सलवादी कभी ग्रामीणों तथा आदिवासियों के अन्याय तथा शोषण को अपने हिंसक संघर्ष का कारण बताकर अपने रास्ते को जायज ठहराते रहे हो लेकिन अब तो नक्सलवाद बेगुनाहों के खून से अपने हाथ रंगने और अवैध वसूली के लिए ही बदनाम हो चुका है। अब नक्सली सीधे पुलिस या सुरक्षा बलों के जवानों को ही घात लगा कर मार रहे हैं और इस तरह कानून व्यवस्था को सीधे तौर पर पर चुनौती दे रहे हैं। इस साल नक्सली हिंसा में करीब 500 लोग मारे गए जिनमेें से 280 पुलिसवाले थे।यदि नक्सलवाद के इस खूनी कहर से निजात दिलानी है तो इसके लिए केंद्र सरकार एवं नक्सलवाद प्रभावित राज्यों को एक संयुक्त व्यूहरचना बनानी होगी और नक्सलवादियों पर चौतरफा कार्रवाई करनी होगी। इस दिशा में अपनी इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करते हुए प्रधानमंत्री ने नक्सलवाद को देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया है और नक्सलियों के खिलाफ जंग का ऐलान किया है जो कि एक अच्छा संकेत है लेकिन इसके साथ ही सरकार को इन राज्यों के दूर दराज इलाकों में ग्रामीणों एवं आदिवासियों के साथ होने वाले अन्याय को दूर करने के लिए सख्त कार्रवाई करनी होगी ताकि उनको मिल रहा स्थानीय लोगों का समर्थन खत्म किया जा सके क्योंकि सिर्फ ताकत की भाषा से इसका समाधान नहीं निकलेगा।
-सर्वदमन पाठक

Monday, July 6, 2009

हादसा या साजिश?


सिंगरौली के वैढन कस्बे में निजी बारूद फैक्टरियों में हुई विस्फोट की घटनाओं ने न केवल प्रदेश के इस अहम कोयला उत्पादक क्षेत्र में रहने वाले लोगों के चेहरे पर चिंता की लकीरें खींच दी हैं बल्कि समूचे प्रदेश में भी सनसनी फैला दी है। इस हादसे में वैसे तो 10 श्रमिकों के मरने की पुष्टिï हुई है लेकिन अपुष्टï खबरों के मुताबिक इस हादसे में पचास से भी अधिक लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा है जबकि सैकड़ों अन्य लोग जख्मी हुए हैं। यह संभवत: पहली घटना है जिसमें एक ही स्थान पर स्थित बारूद फैक्टरियों में विस्फोट में इतनी बड़ी संख्या में लोग मारे गए हों। इस घटना से उक्त बारूद फैक्टरियों में सुरक्षा व्यवस्था पर सवालिया निशान लग गया है। आम तौर पर ऐसे कारखानों की स्थापना के लिए समुचित सुरक्षा सबसे अहम शर्त होती है और इन सुरक्षा शर्तों को पूरा किये बिना ये कारखाने स्थापित नहीं किये जा सकते। सवाल यह है कि क्या इन कारखानों की स्थापना के पूर्व ये सुरक्षा शर्तें पूरी की गई थीं और क्या इसे सुनिश्चित करने के लिए प्रशासन के अधिकारियों ने निरीक्षण किया था। इस विस्फोट से तो यही लगता है कि इस फैक्टरियों में सुरक्षा के पर्याप्त इंतजाम नहीं थे और यह फैक्टरी इन सुरक्षा संबंधी मापदंडों को पूरा किये बिना ही चल रही थी। यह सही है कि यह बात अभी सिर्फ संदेह के स्तर पर ही है और वास्तविकता को जानने के लिए इस समूचे घटनाक्रम की निष्पक्ष जांच होनी जरूरी है लेकिन सिर्फ सुरक्षा का मामला ही इस मामले में चिंता का विषय नहीं है। इस हादसे में जितने बड़े पैमाने पर नुकसान हुआ है और जितने श्रमिकों की जानें गई हैं उससे यह भी संदेह उपजता है कि यह किसी तोडफ़ोड़ का अंजाम तो नहीं है। यह एक तथ्य है कि पिछले कुछ सालों से विंध्य क्षेत्र में नक्सलवादी गतिविधियों में इजाफा हुआ है। इस घटना से यह संदेह पुष्टï ही हुआ है। इस घटना की जांच में इस पहलू को भी शामिल किया जाना भी जरूरी है क्योंकि यह सिर्फ इन फैक्टरियों की सुरक्षा से जुड़ा मामला नहीं है बल्कि इससे क्षेत्र के आम लोगों की सुरक्षा भी जुड़ी है जो कि कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है। अभी लालगढ़ में जो कुछ हुआ वह सभी के सामने है। लालगढ़ में नक्सलवादियों ने, जिन्हें माओवादियों के रूप में जाना जाता है, अपने पैर रातों रात नहीं जमाये बल्कि कई वर्षों से वहां माओवादियों की गतिविधियां चल रही थीं और राज्य सरकार उसकी लगातार अनदेखी करती रही। इसका ही यह परिणाम हुआ कि उन्हें हटाने के लिए सेना के प्रयोग करने की जरूरत आ पड़ी। विंध्य प्रदेश में फिलहाल नक्सलवादियों की गतिविधियां शुरुआती अवस्था में हैं। जरूरत इस बात की है कि क्षेत्र के लोगों की समस्याओं पर गौर किया जाए और उनके हल के लिए कदम उठाए जाएं ताकि ये लोग नक्सलवादियों के हाथ में न खेलें।इस हादसे की गंभीरता को देखते हुए सरकार से यही उम्मीद है कि वह इसकी गहराई से जांच कराए और इसके निष्कर्षों के अनुरूप कार्रवाई करे ताकि इस दुखद हादसे की पुनरावृत्ति न हो।
सर्वदमन पाठक

Friday, July 3, 2009

सवालों में घिरी लिबरहान आयोग रिपोर्ट की प्रासंगिकता


बाबरी मस्जिद ध्वंस को सत्रह साल बीत चुके हैं और वह भावनात्मक ज्वार कमोवेश उतर चुका है, जिसकी परिणतिस्वरूप यह घटना हुई थी। देश की राजनीति पर दूरगामी प्रभाव डालने वाली इस घटना से जुड़े समूचे घटनाक्रम की जांच करने वाले मनमोहन सिंह लिबरेहान आयोग ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी है लेकिन इतने लंबे अंतराल के बाद आई यह रिपोर्ट अब सत्ता एवं विपक्ष द्वारा एक दूसरे के खिलाफ सियासत के तीर चलाने के लिए ही इस्तेमाल की जा रही है क्योंकि न्यायिक दृष्टिï से इस रिपोर्ट की प्रासंगिकता को लोग संदेह की नजर से देख रहे हैं। डेढ़ दशक से भी अधिक समय गुजर जाने के बाद अब यह महसूस करना आसान नहीं है कि हमारी राष्टï्रीय राजनीति, हमारी सामाजिक समरसता तथा भारत के अंतर्राष्टï्रीय संबंधों पर इसका कितना नकारात्मक असर पड़ा है। इसके लिए इतिहास के पन्नों को पलट कर देखना जरूरी है। दरअसल यह रामजन्म भूमि आंदोलन का ज्वार ही था जिसकी परिणति बाबरी ध्वंस के रूप में हुई। यह कौन नहीं जानता कि मूर्तिपूजा के विरोधी विदेशी आक्रांताओं ने न केवल हिंदुओं के गौरव चिन्हों तथा देवालयों को खंडित एवं ध्वस्त किया बल्कि इन देवालयों की जगह अपने धार्मिक आस्था केंद्रों को स्थापित कर दिया। इस धार्मिक उत्पीडऩ के घाव आज भी हिंदुओं के मन पर अंकित हैं। उग्र हिंदुत्व की विचारधारा में भरोसा रखने वाले राजनीतिक तथा सांस्कृतिक संगठनों नेे रामजन्मभूमि आंदोलन का इस्तेमाल करते हुए बहुसंख्यकों के इस घाव को हरा कर दिया और इससे उपजा आक्रोश संयम की सारी सीमाओं को लांघ गया। देश भर से अयोध्या पहुंचे कारसेवकों के इसी गुस्से ने बाबरी मस्जिद को ढहाने में अहम भूमिका निभाई। इतिहास गवाह है कि राम जन्मभूमि आंदोलन तथा कारसेवा का नेतृत्व करने वाले नेताओं ने इस कृत्य के लिए लोगों को भड़काने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। ये नेता बाबरी मस्जिद ढहने पर खुशी का इजहार करते तथा एक दूसरे को बधाई देते देखे गए। लेकिन शायद उन्हें यह अंदेशा नहीं था कि देश विदेश में होने वाला प्रतिक्रिया का विस्फोट कितना भयावह होगा। इस एक मात्र घटना के फलस्वरूप देश में हजारों बेगुनाहों की जानें गईं, अरबों रुपए की क्षति हुई, पड़ौसी देशों से हमारे संबंध बिगड़े और विश्व में देश की प्रतिष्ठïा को जबर्दस्त धक्का लगा। लेकिन आश्चर्य यह है कि इन नेताओं ने रामजन्म भूमि आंदोलन तथा बाबरी ध्वंस के दौरान जो दुस्साहस तथा शहादत का जज्बा दिखाया था, वे सभी कायरता दिखाते हुए अपने रुख से पलट गए। खुद को हिंदू पुनरुत्थान का पुरोधा के रूप में प्रस्तुत करने वाले कई नेताओं ने बाद में इस दिन को अपनी जिंदगी का सबसे दुखद दिन बताया। बाबरी ध्वंस की जांच कर रहे लिबरेहान आयोग के सामने इन सभी ने खुद को निर्दोष सिद्ध करने के लिए बेगुनाही की मुद्रा अख्तियार कर ली। लेकिन उन्हें राजनीति के इस खेल में खासा फायदा हुआ और केंद्रीय सत्ता का नेतृत्व करने का उन्हें अवसर मिला। दरअसल इस अकेली घटना ने देश के सीने पर भावनात्मक विभाजन की ऐसी रेखा खींच दी, हमारे स्वातंत्र्योत्तर इतिहास में जिसकी दूसरी मिसाल मिलनी संभव नहीं है। होना तो यह था कि देश को हिला देने वाली इस घटना की जांच कम से कम समय में पूरी होती और इसके लिए जिम्मेदार लोगों पर समुचित कार्रवाई होने के साथ ही इसके शिकार लोगों के साथ भी न्याय होता लेकिन इस जांच में सत्रह वर्षों का लंबा समय लग जाने तथा राजनीतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों में भारी बदलाव आने के साथ ही इसकी प्रासंगिकता भी क्षीण हो गई है। आखिर सांप्रदायिक घृणा से भरपूर इस नाटक के सूत्रधार एवं पात्र कौन कौन थे, यह जानने की उत्सुकता किसी को नहीं है, क्योंकि यह ऐसा इतिहास है जो देश की जनता ने देखा- भोगा है। इससे उपजी सांप्रदायिक नफरत के राजनीतिक एवं सामाजिक प्रतिफलों को भी देश भोग चुका है। अब तो भावनाओं का वह उफान भी ठंडा पड़ गया है जिसमें बाबरी ध्वंस एवं राम जन्मभूमि आंदोलन की गंध आती थी। पिछले दो लोकसभा चुनावों में उन दलों तथा संगठनों की राजनीतिक ताकत भी काफी घटी है जिनका बाबरी ध्वंस में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हाथ था। कांग्रेस नीत केंद्र सरकार भी संभवत: इस मामले में फूंक फंूक कदम रखना चाहेगी और फिर से ऐसा कुछ नहीं करेगी जिस कारण राममंदिर निर्माण की पैरवी के बहाने पुन: रामजन्म भूमि का मुद्दा जीवित हो और देश उसी सांप्रदायिक हिंसा की ज्वाला में झुलस उठे, जिससे देश को बमुश्किल निजात मिली है। वैसे कांग्रेस भी इस मामले में दूध की धुली नहीं है। रामजन्म भूमि के ताले तो कांग्रेसी सरकार ने ही खुलवाए थे इसलिए यदि यह कहा जाए कि कांग्रेस ही इस विवाद की जननी है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। फिलहाल पिछले लोकसभा चुनाव का एक महत्वपूर्ण निहितार्थ यह रहा है कि अल्पसंख्यक वोटरों ने कांग्रेस में पुन: विश्वास प्रदर्शित किया है और कांग्रेस नहीं चाहेगी कि बाबरी ध्वंस की याद लोगों के मस्तिष्क में ताजा हो, इससे जुड़े तमाम गड़े हुए मुर्दे उखाड़े जाएं और उससे बमुश्किल उसकी ओर लौटे ये वोटर पुन: छिटक जाएं अत: उसकी कोशिश यही होगी कि इस रिपोर्ट पर कम से कम चर्चा हो। कानूनी कार्रवाई के प्रतिरोध के जरिये बाबरी ध्वंस के कथित नायकों को फिर अपनी राजनीतिक चौसर जमाने का अवसर हाथ लगे, मनमोहन सरकार यह तो कभी भी नहीं चाहेगी। जहां तक लिबरेहान आयोग की रिपोर्ट का सवाल है, इसका विवरण फिलहाल उपलब्ध नहीं है लेकिन विश्वसनीय सूत्रों के मुताबिक सोमनाथ रथयात्रा के महारथी लालकृष्ण आड़वाणी को मुख्य गुनहगारों में शामिल नहीं किया गया है। अलबत्ता विनय कटियार, उमा भारती, मुरली मनोहर जोशी को दोषी ठहराया गया है। लेकिन इस रिपोर्ट पर केंद्र की रहस्यमय चुप्पी इसी हकीकत की ओर इशारा करती है कि बाबरी ढांचे को ढहाने के दोषियों को सजा दिलाने की संकल्पशक्ति तथा इच्छाशक्ति वर्तमान केंद्र सरकार में नहीं है।
-सर्वदमन पाठक