Tuesday, August 11, 2009

बंटते दिल, बंटती बस्तियां

इमरान हाशमी वैसे तो बालीवुड के एक अदना से कलाकार हैं जिनकी किसिंग बाय के रूप में एक बदनामी भरी पहचान है लेकिन उनके एक बयान पर हुई अत्यंत ही तल्ख प्रतिक्रिया ने उसे अप्रत्याशित रूप से चर्चित कर दिया है। शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे ने तो इमरान हाशमी को हलकट, चिंदी और ऐसे ही कई संबोधनों से नवाज दिया है। दरअसल उसके बयान ने उस कड़वी हकीकत को रेखांकित कर दिया है जिसने लघु भारत कहे जाने वाले इस महानगर को कई दशकों से सामाजिक एवं राजनीतिक रूप से विभाजित कर रखा है। इमरान हाशमी ने कहा है कि उसे एक हिंदू गृहनिर्माण सोसायटी में वायदे के बावजूद मकान नहीं मिल सका है। दिलचस्प बात यह है कि श्री ठाकरे की प्रतिक्रिया श्री महेश भट्टï के प्रति इतनी तीखी नहीं रही हालांकि उन्होंने पुरजोर तरीके से इमरान खान की वकालत की थी। दरअसल मुंबई में आई चारित्रिक तब्दीली का ही असर है। पहले सिर्फ शिवसेना ही इस चरित्र का प्रतिनिधित्व करती थी लेकिन अब महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना भी उसी राह पर चल पड़ी है और उसको मिल रहा जनसमर्थन यह दर्शाता है कि महाराष्टï्र में ऐसी राजनीतिक फसल के लिए पर्याप्त खाद पानी मौजूद है। सिर्फ मुंबई ही क्यों, देश के अन्य प्रमुख शहर भी सांप्रदायिक घृणा का दंश झेल रहे हैं और भोपाल शहर भी इससे अछूता नहीं है। भोपाल में आजकल आबादी का सांप्रदायिक आधार पर किस तेजी से ध्रुवीकरण हो रहा है, इसे शहर के विभिन्न हिस्सों में आ रहे जनसंख्यात्मक बदलाव से आसानी से महसूस किया जा सकता है। वैसे तो हम इसे गंगा जमुनी संस्कृति का शहर कहते हुए नहीं थकते लेकिन इससे हकीकत झुठलाई नहीं जा सकती। यह वही भोपाल है जिसको भोपाल नवाब की जिद के कारण भारत की आजादी के कई साल बाद तक आजादी की खुली हवा में सांस लेने के लिए इंतजार करना पड़ा। दरअसल देश की जो तीन रियासतें स्वतंत्रता के बाद भी भारतीय संघ में विलय नहीं हुई थीं, उनमें भोपाल भी एक था। बाद में बल्लभभाई पटेल की सूझबूझ और सख्ती के फलस्वरूप भोपाल रियासत का भारतीय संघ में विलय संभव हुआ। विलय के बाद अवश्य ही भोपाल में विभिन्न समुदायों के बीच सद्भाव एवं मेलजोल के प्रयास तेज हुए और इसके अपेक्षित परिणाम सामने आए लेकिन जब तब होने वाली छिटपुट साम्प्रदायिक घटनाओं से इस प्रक्रिया में अवरोध आता रहा। विशेषत: 1992 में बाबरी ध्वंस के बाद हुए दंगों से तो हिंदुओं और मुसलमानों के दिलों में एक दूसरे के प्रति नफरत का ऐसा भाव पैदा हो गया जिसे आज तक नहीं भरा जा सका है। आतंकवादी घटनाओं में हाल के वर्षों में हुए इजाफे ने यह भाव और गहरा ही किया है। दोनों के दिलों के बीच इस बंटवारे का सबसे बड़ा असर यह हुआ है कि उनकी बस्तियां भी बंट चली हैं। तमाम कोशिशों के बावजूद यह प्रक्रिया थमने के बजाय बढ़ती जा रही है। जहां शहर की मुस्लिम बहुल बस्तियों से हिंदू अपना डेरा समेट रहे हैं वहीं हिंदू बहुल बस्तियों से मुसलमान पलायन कर मुस्लिम बहुल बस्तियों में बसते जा रहे हैं। यदि इस तरह का कोई सर्वेक्षण किया जाए कि 1992 के दंगों के पहले और इसके सत्रह साल बाद आज मुस्लिम बहुल बस्तियों में हिंदुओं की आबादी के अनुपात में क्या अंतर आया है और इसी अवधि में हिंदू बहुल बस्तियों में मुसलमानों की आबादी के अनुपात में क्या अंतर आया है, तो यह बात प्रमाणित हो जाएगी। इतना ही नहीं, विभिन्न नई कालोनियों में भी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हो चला है। बिल्डरों एवं प्रापर्टी ब्रोकरों ने अपने स्वार्थों के कारण इसे प्रश्रय दिया है। यदि भोपाल के परिप्रेक्ष्य में इसे बड़े कैनवास में देखें तो पुराने भोपाल मेें मुस्लिम आबादी का ध्रुवीकरण हुआ है तो नए भोपाल में हिंदू आबादी का घनत्व बढ़ा है। दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि आबादी का यह बदलाव इन वर्षों में इसीलिए तेज हुआ है क्योंकि राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव ने इसमें उत्प्रेरक का काम किया है। राष्टï्र के हितों एवं एकता की कीमत पर अपने अपने वोट बैंक को मजबूत करने की राजनीतिक दलों की बढ़ती हुई प्रवृत्ति इसका सबसे बड़ा कारण है। भाजपा तो रामजन्म भूमि आंदोलन के फलस्वरूप घटी इस घटना के कारण ही केंद्रीय सत्ता पर काबिज होने में सफल रही थी इसलिए हिंदू वोटों के प्रति उसका एकतरफा रुझान स्वाभाविक था लेकिन धर्मनिरपेक्षता का ढिंढोरा पीटते रहने वाली कांग्रेस ने भी जुबानी जमाखर्च के अलावा सांप्रदायिक सौहार्द की पुनस्र्थापना के लिए कुछ नहीं किया। तब इसमें अचरज की बात ही क्या है कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस एवं भाजपा की सरकारों के दो दो बार सत्ता सिंहासन पर आरूढ़ होने के बावजूद दिलों एवं बस्तियों का यह बंटवारा तीव्र से तीव्रतर होता गया है।भोपाल सहित तमाम शहरों में यह बंटवारा इतना गहरा हो चला है कि देश के भावनात्मक रूप से बंटने का खतरा ही उत्पन्न हो गया है। दिल में खिंची ये रेखाएं जमीन पर खींची जाने वाली विभाजन की रेखाओं से कहीं ज्यादा खतरनाक हैं। राष्टï्रीय एकता का तकाजा है कि विभिन्न सम्प्रदायों के बीच मेलजोल तथा सद्भाव की प्रभावी मुहिम शुरू की जाए और दिली विभाजन की इन लकीरों को मिटाने के लिए ईमानदारी से प्रयास किये जाएं ताकि राष्टï्रीय एकता सुदृढ़ हो और समूचा राष्टï्र एकजुट होकर अपने सामने आने वाली चुनौतियों का सामना कर सके।
- सर्वदमन पाठक

No comments:

Post a Comment