दरअसल भाजपा के द्वारा स्वातंत्र्य वीर के रूप में सम्मानित सावरकर पहले ही द्विराष्टï्रवाद की धारणा के पक्ष में अपने विचार पेश कर चुके थे जिन्ना ने भी इसी विचार को आधार बनाकर मुहिम छेड़ी और देश के विभाजन की त्रासदी का खाका खींचा। राष्टï्रीय स्वयंसेवक संघ पहले से ही मानता रहा है कि देश विभाजन के लिए जिन्ना के साथ ही गांधी एवं नेहरू भी जिम्मेदार थे। जसवंत सिंह की नजर में जिन्ना क्यों महान थे यह तो पाठकों को जसवंत सिंह की पुस्तक पढऩे पर ही पता चल ही जाता है लेकिन ऊपरी तौर पर उन्होंने अंग्रेजी मीडिया को जो वक्तव्य दिया उसे देखने से जिन्ना के प्रति उनकी ऐसी दीवानगी साफ नजर जाती है जो पाकिस्तान परस्त व्यक्ति में ही हो सकती है। जसवंत सिंह ने जिन्ना के इतिहास के बारे में लगता है कि कुछ ज्यादा ही शोध किया होगा लेकिन वह कुछ भी करें, लेकिन सच छिप नहीं सकता । पहली बात तो ये किताब उस घटना की ही एक कड़ी है जिसके तहत श्री जसवंत के प्रिय नेता श्री आडवाणी को जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष कहने पर भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष पद से हटने को विवश होना पड़ा था। श्री आडवाणी ने उसके बाद अपनी जो जीवनी लिखी उसमें जिन्ना प्रकरण पर एक पूरा अध्याय ही समाहित किया- आई हैव नो रीग्रेट्स। जसवंत सिंह ने भी इसी तरह बिना किसी अफसोस के जिन्ना का प्रशस्ति गान किया है।जिन्ना के बारे में जसवंत हिंदुस्तान के लोगों को क्या नया बताना चाहते हैं जो देश के बौद्धिक वर्ग को पहले से मालूम नहीं है। यह ऐतिहासिक सच्चाई है कि जिन्ना कभी राष्टï्रवादी मुखौटे में नजर आते थे और लोकमान्य तिलक पर सन 1908 में जब देशद्रोह का मुकदमा अंग्रेज सरकार ने ठोंका तो जिन्ना उस मुकदमे की तिलक की ओर से पैरवी कर रहे थे। दादाभाई नौरोजी जब कोलकाता कांग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हुए तो जिन्ना उनके निजी सहायक के रूप में काम कर रहे थे। फिरोजशाह मेहता और गोपाल कृष्ण गोखले के साथ भी जिन्ना की अच्छा तारतम्य बैठने लगा था। लोकमान्य को उक्त मामले में सन 1908 में 6 साल की सजा हुई। इधर तिलक जेल गए उधर जिन्ना का राष्टï्रवाद काफूर हो गया। 1913 आते आते जिन्ना उस मुस्लिम लीग की गोद में जा बैठे जिस मुस्लिम लीग का उन्होंने बंग भंग के सवाल पर 1906 में जमकर विरोध किया था। उल्लेखनीय है कि मुस्लिम लीग का गठन 1906 में ढाका में हुआ था। 1915 में महात्मा गांधी का पदार्पण हिंदुस्तान की राजनीति में हुआ हालांकि गांधी दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह के बाद से ही देश में लोकनेता के रूप में पहले से ही प्रतिष्ठित हो चुके थे। भारत की गरीबी देखकर जब गांधी ने अपना ब्रिटिश चोला उतार फेंका और पूरे तौर पर देसी खादी की शरण में आ गए तो उनके साथ समूची कांग्रेस ने ही खादी का अनुसरण करना प्रारंभ कर दिया। गांधी राजनीति को धर्माधिष्ठिïत करना चाहते थे, आचरण की पवित्रता के भी वे आग्रही थे। लेकिन कांग्रेस की राजनीति में जिन्ना को ये पच नहीं रहा था। जिन्ना को गांधी की यह नैतिकता और लोकप्रियता फूटी आंखों नहीं सुहाती थी। जिन्ना द्वारा पाकिस्तान की संविधान सभा में दिए गए पहले भाषण को ही आधार बताते हुए आडवाणी ने उन्हें धर्मनिरपेक्ष कह दिया था और इसी भाषण को जसवंत सिंह ने भी हाथों हाथ लिया है। लेकिन इस भाषण की सच्चाई इतिहास के अध्येताओं से छुपी नहीं है। जिन्ना का पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के प्रति रवैया क्या था इसका एक उदाहरण और देखने को मिलता है। जिन्ना ने हिंदुओं के साथ, अपनी मातृभूमि के साथ धोखा किया ही, मुसलमानों के साथ भी उसने कम गद्दारी नहीं की। यही कारण है कि अपने अंत समय उन्हें खुद से काफी ग्लानि होने लगी थी और अंत में उन्होंने एक बेचैन आत्मा, एक अशांतविक्षिप्त मनोदशा में अपना शरीर छोड़ा। संसार के इतिहास में जिन्ना उन गिने चुनेे व्यक्तियों में एक थे जिन्होंने एक नए देश की स्थापना की और पृथ्वी के मानचित्र पर उसे अंकित किया। लेकिन विभाजन के बाद के दृश्यों ने उन्हें विचलित कर दिया था। प्रख्यात पत्रकार बीजी वर्गीज ने मोहम्मद अली जिन्ना द्वारा पाकिस्तान की संविधान सभा के समक्ष 11 अगस्त, 1947 को दिए गए भाषण को अमान्य कर दिया है। उन्होंनेे जसवंत सिंह की जिन्ना की जीवनी पर आधारित पुस्तक के लोकार्पण समारोह के पश्चात कहा कि विभाजन के अपराध से जिन्ना को बरी कर देना इतिहास के साथ अन्याय है। उन्होंने कहा जिन्ना के जिस भाषण को लेकर जिन्ना को सेकुलर ठहराने का प्रयास देश में हो रहा है वह भाषण जिन्ना ने अपने जीवित रहते ही अमान्य कर दिया था। उस भाषण के 6 महीने बाद ही जिन्ना ने सार्वजनिक रूप से अपने भाषण को वापस लेने की घोषणा कर दी थी जिसे अब कोई मान नहीं रहा है। उन्होंने कहा कि परिस्थिति उस समय ऐसी बन चुकी थी कि विभाजन के अतिरिक्त कोई चारा नहीं रह गया था। जहां तक जिन्ना का सवाल है तो वह अपने हावभाव-व्यवहार से कहीं से भी मुसलमान नहीं लगते थे। अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए उसने भारत विभाजन के कार्य में ब्रिटिश हुक्मरानों के इशारे पर काम किया। जिन्ना ने अपनी जिद में देश की एकता और अखण्डता को बनाए रखने के गांधी के प्रयासों को धता बता दिया। जसवंत सिंह की इस बात में सच्चाई हो सकती है कि जिन्ना की राष्टï्र के बंटवारे की योजना को नेहरू एवं पटेल ने स्वीकार कर लिया था लेकिन यह आधा सच है। पूरा सच यह है कि पटेल एवं नेहरू ने यह योजना तब स्वीकार की जब देश में जिन्ना एवं अंग्रेज हुकूमत की मिली जुली साजिश ेकारण देश में हिंदू मुसलमानों के बीच घृणा एवं भावनात्मक विरोध की खाई इतनी गहरी हो गई कि उसे भरना संभव न रहा।देश के द्वारा ठुकराई जा चुकी इस 'थीसिसÓ को जसवंत ने फिर से हवा दी है। वक्त का तकाजा है कि भाजपा एवं उसकी मातृ संस्था आरएसएस हमेशा के लिए इस मामले में अपना रुख साफ करे कि देश विभाजन के लिए कौन जिम्मेदार था, जिन्ना महान थे या नहीं, जिन्ना सेकुलर थे या नहीं। उन्हें यह भी तय करना होगा कि तमाम आलोचनाओं के बावजूद हिंदू हितों के पक्ष में ताकत के साथ खड़ी रहने वाला संघ और उसका राजनीतिक शिशु भाजपा क्या यह स्वीकार कर सकती है कि उसके ही नेताओं द्वारा डायरेक्ट एक्शन के तहत लाखों हिंदुओं की हत्या करवा देने वाले जिन्ना को महान या धर्मनिरपेक्ष बताया जाए।
-सर्वदमन पाठक
-सर्वदमन पाठक
BILKUL.
ReplyDeleteवैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को उन्नति पथ पर ले जाएं।