Saturday, August 22, 2009

कहीं से महान नहीं थे जिन्ना


जिस व्यक्ति ने धर्म के नाम पर देश का बंटवारा कराने में सबसे अहम भूमिका निभाई हो और जिसके कारण हुए भारी रक्तपात में लाखों बेगुनाह लोगों की जानें चली गई हों, उसे महान या धर्मनिरपेक्ष कहना भारत के इतिहास की सबसे करुणाजनक सच्चाई को नकारना है। कुछ पूर्वाग्रह से ग्रस्त चिंतक यह कहते नहीं थकते कि जिन्ना पूर्व में प्रखर धर्मनिरपेक्ष नेता थे तथा उन्होंने कांग्रेस में रहते हुए ऐसे संघर्ष में हिस्सेदारी की, जिसे राष्टï्रवादी कहा जा सकता है, लेकिन हकीकत कुछ और ही है। जिन्ना कांग्रेस में भी धर्मनिरपेक्ष नेता की तरह पेश नहीं आते थे। उन्हें तब भी आम हिन्दुस्तानियों की चिंता नहीं सताती थी। वे तो उस समय भी सिर्फ और सिर्फ मुसलमानों के हितों की वकालत ही करते थे। मुस्लिम लीग में शामिल होने के बाद उनके चेहरे पर से वह झीना सा मुखौटा भी उतर गया, जो कभी-कभी उनके धर्मनिरपेक्ष होने का भ्रम पैदा करता था। जिन्ना को कांग्रेस में सबसे अधिक आपत्ति महात्मा गांधी से होती थी। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि गांधी जैसे सर्वधर्म समभाव रखने वाले सहिष्णुता तथा उदारता के प्रतीक-पुरुष से घृणा करने वाला व्यक्ति महान एवं धर्मनिरपेक्ष हो सकता है। कांग्रेस से उनका मोहभंग इसीलिए होने लगा था, क्योंकि उनका सांप्रदायिक नजरिया बेनकाब हो गया था। 1934 में उनका सांप्रदायिक चेहरा खुलकर सामने आ गया एवं वे सिर्फ मुस्लिम हितों के हिमायत करते नजर आने लगे। उनकी सांप्रदायिक सोच के कारण ही भारत की आजादी का आंदोलन जो राष्ट्रीय एकता को प्रदर्शित करता था, विभाजित हो गया। सच तो यह है कि जिन्ना अपनी सांप्रदायिक सोच के चलते ही भारत विभाजन की अंग्रेजों की साजिश का मोहरा बन गए। यद्यपि 1946 के कैबिनेट कमीशन में इस बात के स्पष्टï संकेत थे कि उन्हें पाकिस्तान के गठन की मांग छोड़ देने पर प्रधानमंत्री तक बनाने का ऑफर महात्मा गांधी ने दिया था। लेकिन वे पाकिस्तान के गठन की अपनी मांग से टस से मस होने को तैयार नहीं हुए। उनकी इसी जिद के चलते 1945 से 1947 तक देश भर में भयावह हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए और इनमें बहुत से लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। 1947 का भारत विभाजन सिर्फ जिन्ना की जिद का परिणाम था, जिसमें रक्तपात एवं हत्याओं की जो विभीषिका देखी गई उसे याद करके आज भी दिल दहल उठता है। इस विभाजन का दर्द करोड़ों लोग किसी न किसी रूप में आज भी झेल रहे हैं। भाजपा नेता जसवंत सिंह ने जिन्ना को इतिहास पुरुष बताकर एक तरह से द्विराष्टï्रवाद के सिद्धांत पर अपनी सहमति की मोहर लगा दी है। यह शायद जसवंत सिंह की सबसे बड़ी राजनीतिक भूल है। वे शायद अपने वक्तव्य के माध्यम से यही संदेश देना चाहते हैं कि विभाजन के लिए सिर्फ जिन्ना ही नहीं बल्कि गांधी और नेहरू भी जिम्मेदार हैं। उनके कथन का सीधा सादा आशय यही है कि गांधी-नेहरू के संकीर्ण नजरिए के कारण देश का विभाजन हुआ। उनकी इस कलाबाजी से हिन्दुओं के उदारवादी चेहरे पर भी सवालिया निशान लग गया है, जो उनकी अपनी ही पार्टी की सोच से मेल नहीं खाता। यह बात तो समझ से परे है कि जिन्ना को अपनी ही पृष्ठïभूमि से इस तरह बगावत करने की जरूरत क्यों पड़ गई, लेकिन इतना तय है कि यदि वे समझते हैं कि उनकी इस चाल से उन्हें कोई राजनीतिक लाभ मिलेगा तो यह उनका भ्रम है, क्योंकि जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष मानने वाले इस देश में गिने-चुने लोग ही होंगे, क्योंकि यह ध्रुव सत्य है कि धर्म के नामपर देश को बांटने वाला कभी भी महान या धर्मानिरपेक्ष नहीं हो सकता।
-सर्वदमन पाठक

1 comment:

  1. एकदम सही कहा आपने, अब चाहे जिन्ना जो भी और जैसा भी रहा हो, विभाजन का दंश झेलने के बाद आज हमारे लिए उसकी अहमियत ही क्या है जो हम उसके गुणगान करे! लेकिन कुछ लोग जो मौका मिलने पर किसी की भी चूल्हे पर अपनी रोटिया सकने से बाज नहीं आते, हमारे इस देश में प्रचुर मात्र में है और यही देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है !

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