Tuesday, August 18, 2009

क्या रंग लाएगा जसवंत का जिन्ना प्रेम

लगभग चार साल पहले ही भाजपा के शीर्ष नेता और पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के दावेदार श्री लालकृष्ण आडवाणी द्वारा मोहम्मद अली जिन्ना के गुणगान पर भाजपा तथा उसकी पैतृक संस्था आरएसएस में एक तूफान सा उठ खड़ा हुआ था। यह शायद पहली बार ही हुआ था कि आरएसएस के संस्कार में पले बढ़े किसी शीर्ष नेता ने इस तरह से पाकिस्तान के संस्थापक के कसीदे पढ़े थे। भाजपा तथा संघ की ओर से उठा यह खिलाफत का तूफान इतना तेज था कि आडवाणी जैसी हस्ती के सामने भी भाजपा के भीतर अस्तित्व का संकट पैदा हो गया था। यह संकट तभी हल हो सका था जब आड़वाणी ने इस बयान से कमोवेश किनाराकशी कर ली थी। दरअसल यह बयान संघ की घोषित नीति एवं चिंतन के ठीक विपरीत ही था अत: यह विश्वास करने की पर्याप्त गुंजाइश है कि श्री आडवाणी ने यह बयान संघ एवं पार्टी को विश्वास में लिये बिना नहीं दिया होगा। इसका उद्देश्य यही हो सकता था कि भाजपा के प्रति मुस्लिम वोटरों को आकर्षित किया जाए लेकिन देश में हुई इसकी विस्फोटक प्रतिक्रिया ने संघ और भाजपा को अपने इस प्रयोग से तौबा करने को मजबूर कर दिया और फिर संभवत: एक सुनियोजित रणनीति के तहत संघ एवं भाजपा ने इसका विरोध कर यह दिखाने की कोशिश की कि ये आडवाणी के नितांत ही निजी विचार थे और आडवाणी ने इसमेंं अपनी भूमिका बखूबी निभाते हुए अपने बयान को वापस ले लिया। भाजपा एवं संघ का यह आडवाणी विरोध बातूनी जमाखर्च से ज्यादा कुछ नहीं था, यह बाद में हमारे सामने आया जब उन्हीं आडवाणी को प्रधानमंत्री पद के लिए पार्टी की ओर से दावेदार बनाया गया और संघ ने उस पर आसानी से मुहर लगा दी।अब एक और शीर्ष भाजपा नेता जसवंत सिंह को मोहम्मद अली जिन्ना के गुणगान का बुखार चढ़ा है। जहां श्री आडवाणी ने जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष बताया था वहीं जसवंत सिंह ने अपनी पुस्तक में उन्हें महान व्यक्ति बताया है। ये वही जसवंत सिंह हैं जो कंधार कांड को अंजाम देने वाले आतंकवादियों को सुरक्षित कंधार छोड़ आए थे। उन्होंने अपने बयान को प्रमाणित करने के लिए महात्मा गांधी के ऐसे ही बयान का हवाला दिया है। यह अलग बात है कि महात्मा गांधी ने बयान तब दिया था जब देश आजादी की लड़ाई में एकजुट होकर संघर्ष कर रहा था और जिन्ना भी इसी एकजुटता का हिस्सा थे। जिन्ना ने बाद में द्विराष्टï्रवाद की थ्योरी के तहत पाकिस्तान के निर्माण के लिए न केवल संघर्ष का आह्वïान किया बल्कि उनके द्वारा किये गये डायरेक्ट एक्शन के आह्वïान के तहत असंख्य बेकसूर हिंदुओं का कत्लेआम हुआ। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को जो जबर्दस्त पराजय मिली उसके बाद यह बहस तेज हो गई है कि भाजपा सिर्फ हिंदू वोटरों के बलबूते केंद्र में अपनी दम पर सत्तासीन नहीं हो सकती। आडवाणी के राजनीतिक सलाहकार रहे सुधीन्द्र कुलकर्णी ने इस बदलाव की पुरजोर वकालत करते हुए अखबारों में लेख भी लिखे हैं। प्रगट रूप से भाजपा ने इस बदलाव से इंकार कर दिया है और खुद भाजपा के राष्टï्रीय अध्यक्ष श्री राजनाथ सिंह ने स्पष्ट रूप से कहा है कि भाजपा का हिंदुत्व की कोर विचारधारा से हटने का कोई इरादा नहीं है लेकिन इसके बावजूद पार्टी के भीतर जब तब बदलाव के इस विचार की प्रतिध्वनि सुनाई देती रही है। इस सिलसिले में यह संदेह उपजना स्वाभाविक है कि लोकसभा में भाजपा की नंबर दो नेता सुषमा स्वराज द्वारा अभी चंद दिन पहले ही मुसलमानों की एक बैठक में दिया गया यह बयान 'गर्व से कहो हम मुसलमान हैंÓ क्या इसी सोची समझी रणनीति का हिस्सा है। कभी 'गर्व से कहो हम हिंदू हैंÓ का नारा बुलंद करने वाली भाजपा की इस प्रखर नेत्री का यह आश्चर्यजनक हृदय परिवर्तन आखिर किस दिशा में संकेत करता है।यह कोई रहस्य नहीं है कि भाजपा संघ की ही राजनीतिक शाखा है और इसी वजह से भाजपा के कार्यकलापों पर संघ के चिंतन की छाया साफ दिखाई पड़ती है। संघ और भाजपा के बीच संबंधों को लेकर पार्टी के अंदर चाहे कितनी भी बहस चलती रही हो लेकिन भाजपा ने बार बार यही सिद्ध किया है कि वह सिर्फ राष्टï्रीय स्वयंसेवक संघ का शिशु ही है और इसके अलावा उसकी कोई पृथक पहचान नहीं है। केंद्र एवं राज्यों में जब भी भाजपा सरकारें बनी हैं, तमाम आलोचना के बावजूद वे संघ के सीधे नियंत्रण में काम करती रही हैं जो इस तथ्य का अकाट्य प्रमाण है। संघ खुद को हिंदू धर्मावलंबियों का सबसे बड़ा हितैषी बताता है अत: उसके द्वारा नियंत्रित राजनीतिक संस्था भाजपा प्रत्यक्ष रूप से इससे अलग नहीं हो सकती। तो फिर यह सवाल उठना अस्वाभाविक नहीं है कि आखिर भाजपा के नेताओं में खुद को मुस्लिमों का हमदर्द बताने की होड़ क्यों लगी हुई है? क्या संघ भी भाजपा को केंद्र की सत्ता का रास्ता आसान बनाने के लिए हिंदू चेहरे में बदलाव की छूट देने के लिए तैयार है? क्या यह बदलाव नरम हिंदुत्व से भी एक कदम आगे होगा? क्या भाजपा अपने सत्ता सुख के लिए संघ की शह पर हिंदुत्व के ध्वजवाहक का रोल छोड़कर मुस्लिमों सहित तमाम अल्पसंख्यकों के हितसाधक का मुखौटा लगाने जा रही है? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो देश के आम मतदाताओं के मन-मस्तिष्क को मथ रहे हैं। लेकिन इससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या भाजपा दो नाव पर पैर रखने के इस दुस्साहसिक उपक्रम के बावजूद अपने हिंदू वोट बैंक को सुरक्षित रख पाएगी? यदि इसमें संघ की सहमति है तो फिर संघ को भी हिंदुओं के प्रति अपनी निष्ठïा को साबित करने के लिए कालांतर में नई अग्रि परीक्षा से गुजरना होगा।
-सर्वदमन पाठक

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