Thursday, August 13, 2009

सपनों के लाक्षागृह में दम तोड़ती आजादी

आजादी की सालगिरह असीम गौरव की अनुभूति का महापर्व है। अगणित परवानों ने अपने प्राणों को तिल-तिल जलाकर आजादी की यह शमां रोशन की है। शहादत की इस महान परंपरा की वजह से ही आज हम आजादी की हवा में सांस ले रहे हैं। स्वतंत्रता दिवस इन शहीदों के प्रति श्रद्धावनत होने का दिन है। आजादी का यह संघर्ष अंग्रेजों के शिकंजे से देश की मुक्ति का संघर्ष तो था, लेकिन यह सिर्फ सत्ता-परिवर्तन का ही संघर्ष नहीं था। इस संघर्ष के पीछे शहीदों के कुछ सपने थे। उनका एक अहम सपना यह था कि देश का तकदीर लेखन देश के आम आदमी के हाथ में हो। इसकी सत्ता जनता जनार्दन के हाथों में केंद्रित हो, ताकि राष्टï्र की खुशहाली का वास्तविक इतिहास लिखा जा सके। भारत के आर्थिक स्रोतों से ब्रिटेन की समृद्धि की औपनिवेशिक साजिश से मुक्ति तो उनका प्राथमिक उद्देश्य था ही, लेकिन उनकी यह आकांक्षा कतई नहीं थी कि सत्ता चंद पूंजीपतियों तथा उनके दलालों के हाथ की कठपुतली बनकर रह जाए और आम जनता सरकार के नाम पर एक शोषक तंत्र के हाथों से निकलकर दूसरे शोषक तंत्र के हाथों में फंस जाए। पंद्रह अगस्त 1947 को इन्हीं सपनों का अक्स देश के लोगों की आंखों में देखा जा सकता था। सपनों की दुनिया में खोये हम आजादी के शुरुआती वर्षों में इतने उत्साह से इतनी उमंग से आजादी की सालगिरह मनाते कि पूरा वातावरण खुशी का पर्याय दिखता था। हर गली, हर कूचे, हर स्थान तिरंगे झंडों, बंदनवारों और उमंग में डोलते जश्र मनाते लोगों का हुजूम देखा जा सकता था। अब यह महापर्व एक रस्म अदायगी की शक्ल ले चुका है। आजादी का जश्र खंडित सपनों के बोझ तले दब गया है। वास्तविकता यह है कि आम आदमी आजादी के बाद हमारे राजनीतिज्ञों, नौकरशाहों एवं पूंजीपतियों की मिलीभगत से इस बुरी तरह ठगा गया है कि उसे यह आजादी बेमानी सी लगने लगी है। अब तो लोग यह तक कहने लगे हैं कि इससे तो अंग्रेजी शासन ज्यादा अच्छा था। इससे अधिक दुखद और निराशाजनक स्थिति क्या हो सकती है कि देश का एक वर्ग पराधीनता को स्वाधीनता से बेहतर मानने लगे? लेकिन यह उनके सपनों के कुचले जाने की प्रतिक्रिया है, जिसे बहुत अस्वाभाविक नहीं माना जा सकता। निराशा का यह अतिरेक एक ऐसे खतरे का संकेत है, जिसकी अनदेखी करना आक्रोश के विस्फोट की संभावना को आकार देना ही होगा। अत: वक्त का तकाजा है कि हम राष्टï्र की स्वप्र सजी आंखों में निराशा का अंधियारा भर देने वाले त्रासद सफर के कारणों की छानबीन कर उनके समाधान के उपाय खोजें।यह कहना नाइंसाफी होगी कि हमारे मुल्क ने आजादी के बाद तरक्की नहीं की है। देशभर में फैले उद्योगों की गगनचुंबी चिमनियां राष्टï्र के विकास की कहानी अपने आप ही कह रही हैं। आज तो अमेरिका सहित विश्व की सभी बड़ी आर्थिक ताकतें भारत को औद्योगिक दृष्टिï से इक्कीसवीं सदी का सबसे अधिक संभावनावान देश मानने लगी हैं। खाद्यान्न के मामले में भारत आत्मनिर्भरता प्राप्त कर चुका है। भारत ने परमाणु शक्ति के रूप में दुनिया को यह अहसास करा दिया है कि अब उसकी अनदेखी विश्व की महाशक्ति भी नहीं कर सकतीं। मिसाइल टेक्नोलॉजी के नये आयाम रच कर देश ने रक्षा का नया संकल्प जताया। आम आदमी के होंठों पर मुस्कान लाने के लिए बहुत ही जनकल्याणकारी योजनाएं भी बनाई गईं एवं चलाई गई हैं। लेकिन सवाल यह है कि प्रगति की तमाम मंजिलों को तय करने के बावजूद आज देश का आम आदमी निराश, हताश क्यों है? उनका मन बुझा हुआ क्यों है? सच तो यह है कि देश का विकास एकांगी ही रहा है। इस विकास में अपना खून पसीना बहाने वाला गरीब, सर्वहारा वर्ग और गरीब होता गया है, जबकि इनके श्रम का शोषण कर अमीर और अमीर हो गए हैं। विकास के लाभ आमतौर पर गरीबों तक पहुंचे नहीं हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि जीवन में खुशहाली का उनका सपना खंडित होकर बिखर रहा है। यही वजह है कि आजादी के प्रति उनमें उत्साह और गौरव का भाव तिरोहित होता जा रहा है। आजाद भारत में आम आदमी के सपनों के महल को खंडहर में तब्दील करने के लिए सर्वाधिक दोषी देश की गर्हित राजनीति ही है। हमारे संविधान निर्माताओं ने देश को सुचारु रूप से चलाने के लिए लोकतांत्रिक शासन प्रणाली का मार्ग चुना था, जिसका उद्देश्य यही था कि सत्ता के सूत्र आम जनता के हाथों में केंद्रित हों, ताकि वह अपनी मर्जी की सरकार चुन सके और यदि सरकार वादा खिलाफी करे तो उसे सत्ता से बेदखल कर सजा दे सके, लेकिन वह राजनीतिक दलों एवं उसके नेताओं की नीयत को भांप नहीं सकी। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि खुशहाली लाने के लुभावने वादे करके जनता का विश्वास जीतने वाले नेता अपने सभी वादे भूलकर निजी स्वार्थों की पूर्ति में जुट गए। ये राजनीतिक नेता इसी उद्देश्य से पूंजीपतियों के हाथों की कठपुतली बन गए और सत्ता के लाभों की बंदरबांट करने लगे। शर्म की बात तो यह है कि कालांतर में इसमें गुनाहों की काली दुनिया के सरगना भी शरीक हो गए। इस अपवित्र गठजोड़ ने समूचे प्रशासनतंत्र को अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए रिश्वत एवं भ्रष्टïाचार का आदी बना दिया। इस कुचक्र के सामने आम आदमी के हित गौण हो गए। ऐसा नहीं है कि जनता ने इस कुचक्र को तोडऩे के लिए अपनी ओर से कोई कोशिश न की हो। पांच बार जनता ने वोट की ताकत से केंद्र की सत्ता पलट दी है। राज्यों में तो जनता ने यह सत्ता परिवर्तन न जाने कितनी बार किया है। लेकिन इससे सिर्फ सत्ता ही बदली है सत्ता का चरित्र नहीं बदला। कमोबेश सभी दल और सरकारें जनता के विश्वास को छलने एवं कुचलने में एक-दूसरे को हराने की प्रतिस्पर्धा ही करती रहीं। सभी सरकारों ने जनता के हितों की समान रूप से अनदेखी की। सत्ताधीशों ने देश को किस कदर नोंचा खसौटा है इसके उदाहरण महाराष्टï्र का शक्कर घोटाला एवं सीमेंट घोटाला तथा केंद्र का प्रतिभूति घोटाला एवं हवाला कांड, दूरसंचार निविदा घोटाला जैसे न जाने कितने कुख्यात कांड हैं। दुर्भाग्यजनक तो यह है कि कई केंद्रीय मंत्री एवं राज्यपाल तक सत्ता के दुरुपयोग एवं भ्रष्टïाचार के विभिन्न मामलों में अदालती आरोपों के कटघरे में पहुंच चुके हैं। बोफोर्स घोटाले की सच्चाई चाहे जो हो, लेकिन इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि इसी घोटाले की वजह से राजीव गांधी अपना चुनावी समर हार गए थे। पी.वी. नरसिम्हा राव भी झामुमो सांसद रिश्वत कांड एवं लखुभाई पाठक धोखाधड़ी कांड में अदालती प्रकरण में फंसे चुके थे। ये घोटाले तो हिमनद में डूबी उस हिमशिला जैसे हैं जिसका ऊपरी सिरा ही हमें दिख रहा है। भ्रष्टïाचार में आकंठ डूबे कितने ही नेताओं ने स्विस बैंक के गोपनीय खातों में अपना काला धन जमा करके अपनी तमाम काली करतूतों के बावजूद जनता की नजरों मेें खुद को पाक साफ सिद्ध करने का इंतजाम कर लिया है, वहीं उन्होंने अपनी ऐशोआराम भरी जिंदगी बिताने की पूरी तैयारी कर ली है। आरक्षण के नाम पर सुविधाओं की बंदरबांट ही हुई है। इससे कमजोर वर्ग को जो लाभ मिलना था वह उन्हें नहीं मिल सका। इसके प्रचार द्वारा वोट बैंक निर्माण की कोशिशें अवश्य हुईं। आरक्षण आज भी जारी है, जबकि शुरुआत में एक निश्चित अवधि तक ही आरक्षण व्यवस्था का निर्णय लिया गया था। आरक्षण वास्तव में अनुसूचित जाति तथा पिछड़े वर्गों को नाकाबिल बनाकर रखने की ही एक साजिश मानी जा सकती है, लेकिन कोई भी दल इस सच को बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। वी.पी. सिंह ने तो मंडल का जाल फैलाकर विभेदकारी आरक्षण व्यवस्था की जड़ें और गहरी कर दी हैं। आर्थिक सुधार एवं नई आर्थिक नीतियों के तहत बहुराष्टï्रीय कंपनियों सहित विदेश के कई बड़े व्यापारिक घराने भारत के बाजार पर कब्जा करने के लिए टूट पड़े हैं। इसके फलस्वरूप रोजमर्रा की चीजों सहित विभिन्न वस्तुओं की कीमतें आसमान छू रही हैं और सरकार इन पर काबू पाने में बुरी तरह असफल हो रही है। हमारा सबसे बड़ा संकट राष्टï्रीय चरित्र का लोप है। इसी वजह से हमारा चिंतन आत्मकेंद्रित हो गया है तथा इसमें राष्टï्र हित का भाव लुप्त हो गया है। हम अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए राष्टï्र का नुकसान करने में भी नहीं चूकते। समाज में आई इस गिरावट की प्रतिच्छाया ही राजनीति एवं प्रशासन में दिखाई देती है। उपरोक्त सभी बुराइयों की जड़ यही राष्टï्रीय चरित्र का ह्रïास है और इसका निदान राष्टï्रीय चरित्र के निर्माण में ही निहित है। सर्वप्रथम हमें खुद को भारत माता का सच्चा सपूत बनाना होगा। अपने संकीर्ण हितों के लिए राष्टï्रीय हितों को नजरअंदाज करने की प्रवृत्ति को तिलांजलि देनी होगी। संपूर्ण समाज राष्टï्रीय चरित्र के निर्माण का बीड़ा उठा ले और इसमें बाधक बनने वाले राजनीतिज्ञों एवं प्रशासकों एवं उनसे जुड़े लोगों को सबक सिखाने की ठान ले तो क्या मजाल ये सभी अपने स्वार्थों की खातिर जनहित को दरकिनार कर सकें।
-सर्वदमन पाठक

1 comment:

  1. जन्माष्टमी की हार्दिक बधाई.
    ( Treasurer-S. T. )

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