-सुधीन्द्र कुलकर्णी
हाल के लोकसभा चुनाव के नतीजों ने भारतीय मतदाताओं के व्यवहार के बारे में मेरे दो विश्वासों को और मजबूत किया है। पहला, जिस लोकतंत्र में स्वतंत्र एवं निष्पक्ष तरीके से चुनाव होते हों, वहां चुनावी नतीजों में कहीं कोई गड़बड़ी नहीं हो सकती और भारतीय लोकतंत्र अपनी तमाम कमियों के बावजूद इस परंपरा का वाहक है कि यहां स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव होते हैं। दूसरे शब्दों में कोई भी दल या गठबंधन सिर्फ भाग्य के भरोसे चुनाव नहीं जीता है। उनकी विजय के पीछे निश्चित ही तार्किक आधार है और यह 15वीं लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस की विजय के बारे में भी सच है। मेरा दूसरा विश्वास यह है कि ऐसा कुछ अवश्य होता है जिसे राष्टï्रीय धारणा या राष्टï्र का सामूहिक विचार कहा जा सकता है और संपूर्ण राष्टï्र के तौर पर यही तर्क काम करता है। सामूहिक विचार की अवधारणा सामूहिक मनोविज्ञान और संगठनात्मक व्यवहार के अध्ययन की दृष्टिï से बहुत ही जटिल विषय है। देश मानव समूहों का एक स्वाभाविक संगठनात्मक ढांचा होता है और भारत जैसे जीवंत सभ्यता वाले देश में तो लोग खास परिस्थितियों में उनके लिए क्या अच्छा है यह भलीभांति जानते हैं। इसमें आंतरिक राजनीतिक स्थिति का सर्वे करके, विदेशी परिदृश्य का आकलन करके और विभिन्न विचारों को नापतौल कर देश के लोग किसी ठोस एवं विवेकशील निष्कर्ष पर पहुंचते हैं। यों तो चुनावों में तमाम जातिगत, सांप्रदायिक तथा क्षेत्रीय कारकों पर विस्तार से चर्चा होती है लेकिन इन सबसे परे राष्टï्रीय धारणा एवं विवेकशीलता के एकजुट स्वरूप द्वारा मतदाता अपना अंतिम फैसला देते हैं। मेरी राय के अनुसार हाल के चुनावों में राष्टï्रीय विचार परिवर्तन एवं स्थिरता के दो विकल्पों के बीच झूल रहा था। चूंंकि 2004 से 2009 के बीच कांग्रेस नीत यूपीए सरकार की उपलब्धियों में राष्टï्रीय रोजगार गारंटी योजना जैसी कुछ पहल को छोड़कर कुछ भी असाधारण नहीं था अत: परिवर्तन वक्त का तकाजा था। यूपीए सरकार का ट्रैक रिकार्ड कुछ पैमानों पर औसत और अधिकांश मायनों में निराशाजनक था। सिर्फ उपलब्धियों के आधार पर ही निर्णय किया जाता तो सरकार को जाना ही था लेकिन सिर्फ उपलब्धियों के आधार पर मतदाता शायद ही किसी सरकार को बेदखल करते हैं। वे टिकाऊ एवं स्थायी विकल्प भी चाहते हैं। चुनाव अभियान के दौरान टेलीविजन पर हुई कुछ बहसों में मैंने कहा था कि राजनीतिक दलों एवं टिप्पणीकारों से कहीं ज्यादा भारत के लोग केन्द्र की राजनीतिक स्थिरता को अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। इतिहास की घटनाओं के मद्ïदेनजर वे यह भलीभांति जानते हैं कि नई दिल्ली में केन्द्र सरकार की राजनीतिक अस्थिरता देश के लिए और उनकी खुद की दैनंदिन जिंदगी के लिए नुकसानदेह है। उनकी नजरों में कुछ हद तक विदेशी कारणों से उत्पन्न हुए आर्थिक संकट और भारत के पड़ोस, विशेषता पाकिस्तान में उथल पुथल को देखते हुए देश में स्थिर सरकार की कहीं ज्यादा जरूरत है। उनका मानना था कि अस्थिर गठबंधन सरकार का ध्यान अपने आंतरिक झगड़ों को सुलझाने और अपनी रक्षा में अपनी ऐनर्जी खर्च करने की ओर अधिक होगा, देश के सामने आसन्न चुनौतियों से निपटने में कम। देश के लोगों को उस समय सबसे ज्यादा खुशी होती जब स्थिरता के भरोसे के साथ सकारात्मक परिवर्तन के जोरदार संभावना होती। भाजपा एवं उसका गठबंधन लोगों की इन अपेक्षाओं को पूरा करने में विफल रहा। चार बड़े राज्यों- आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, केरल तथा पश्चिमी बंगाल में, जहां लोकसभा की कुल 143 सीटें हैं भाजपा की खुद की शक्ति लगभग शून्य रही। 2009 में इन राज्यों में भाजपा का कोई सहयोगी दल नहीं था और 1998 से 2004 के बीच राजग सरकार के दौरान भाजपा के जो सहयोगी दल इन राज्यों में थे, वे इस चुनाव में मुस्लिम वोटों को खोने की आशंका के कारण उसका साथ छोड़ गये थे। पिछले पांच सालों में इस आशंका को दूर करने के लिए भाजपा ने कुछ नहीं किया। इसके अलावा जब बीजू जनतादल ने इस वर्ष मार्च में भाजपा से नाता तोड़ा तो केन्द्र में स्थायी सरकार देने की भाजपा की शक्ति और क्षीण हो गई। इस प्रकार लोगों की यह धारणा बनी कि नई दिल्ली में यदि भविष्य में कोई भाजपा नीत गठबंधन की सरकार बनी तो वह अफरातफरी वाली सरकार होगी जो अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए गैर-कांग्रेस, गैर- कम्युनिस्ट दलों पर निर्भर होगी। भाजपा इसके बावजूद चुनावों में बेहतर प्रदर्शन करके इतनी सीटें ला सकती थी कि सरकार के बदलाव की जनता की उम्मीदों को वह प्रतिबिंबित कर सके। लेकिन कभी अनुशासित और एकजुट मानी जाने वाली इस पार्टी में केन्द्र तथा राज्यों के स्तर पर अंदरूनी टकराव और दरार इतनी भयावह थी कि नये समर्थकों को आकृष्टï करना तो दूर, इसके अपने समर्पित मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग ही इससे दूर हो गया। इसके विपरीत अनुवांशिक शासन तथा चापलूसी की संस्कृति की प्रतीक कांग्रेस में भाजपा की तुलना में कहीं ज्यादा एकजुटता प्रदर्शित हुई। मीडिया द्वारा भाजपा में एकजुटता की कमी को उछाले जाने के कारण इसके शासन तथा विकास के एजेण्डे के सकारात्मक पहलू भी पीछे चले गये। यही वजह थी कि भाजपा परिवर्तन की एजेण्ट और स्थिरता की गारंटर, दोनों ही पैमाने पर लोगोंं की उम्मीदों पर खरी नहीं उतर सकी। भाजपा की यही असफलता कांग्रेस की उपलब्धि बन गई। चूंकि वांछित परिवर्तन लोगों को असंभव लगने लगा इसलिए देश के लोगों ने स्थिरता को पसंद किया। कांग्रेस को लोगों ने मजबूरी में पसंद किया लेकिन उसे इतनी संसदीय शक्ति प्रदान की कि वह स्थायी सरकार दे सके। भाजपा के लिए आने वाले दिन बहुत ही मुश्किल हैं। उसकी समस्याएं बहुआयामी हैं। संसदीय चुनाव में पराजय के बाद भाजपा के लिए यह वक्त का तकाजा ही है कि विचारधारा, पार्टी की संगठनात्मक सेहत, विभिन्न स्तरों पर नेतृत्व, गठबंधनों का प्रबंधन तथा कई अन्य पहलुओं पर भाजपा पूरी ईमानदारी तथा निर्ममता के साथ आलोचनात्मक आत्मविश्लेषण करे। संघ से संबंधों को लेकर भी पार्टी को आत्म मंथन करना चाहिए। यदि भाजपा शार्टकट के बजाय राष्टï्रीय विचार से प्रेरणा ले तो पार्टी के लिए पूर्ववत शक्तिशाली बनना मुश्किल नहीं है। भाजपा अतीत में भी कई अग्रिपरीक्षाओं में कामयाब रही है और वह एक बार फिर इस अग्रिपरीक्षा में निश्चित ही सफल होगी।
प्रस्तुति: सर्वदमन पाठक
हिंदी ब्लॉग की दुनिया में आपका स्वागत है...
ReplyDeletekuchh ummid hai kya?narayan narayan
ReplyDeleteस्वागत है.शुभकामनायें.
ReplyDeletebadhaaiyaa .swagat hai aapka blog pe .
ReplyDeleteसंघ से सम्बन्धों की समीक्षा? यदि संघ से अलग हो गये तो फ़िर जमीनी काम कौन करेगा पार्टी के? सुधीन्द्र कुलकर्णी साहब, संघ की वजह से ही तो भाजपा यहाँ तक पहुँची है, अब उसे ही लात मारोगे क्या?
ReplyDeleteस्वागत है.शुभकामनायें.
ReplyDeleteआप की रचना प्रशंसा के योग्य है . आशा है आप अपने विचारो से हिंदी जगत को बहुत आगे ले जायंगे
ReplyDeleteलिखते रहिये
चिटठा जगत मे आप का स्वागत है
गार्गी