मनुज बली नहीं होत है, समय होत बलवान।भीलन लूटी गोपिका, वही अर्जुन वही बाण॥
वर्तमान राजनीतिक घटनाक्रम ने यह सिद्ध कर दिया है कि महाभारत में अपने गांडीव की टंकार से विरोधियों का दिल दहला देने वाले द्वापर के अर्जुन ही नहीं बल्कि पिछले लगभग चार दशकों से मध्यप्रदेश एवं राष्टï्रीय राजनीति में चाणक्य सी पहचान रखने वाले सियासी पुरोधा अर्जुन की भी यही नियति है। मनमोहन सिंह के नेतृत्व में शुरू हो रही यूपीए मंत्रिमंडल की दूसरी पारी में अर्जुन सिंह को शरीक न किये जाने का फैसला यही संकेत देता है कि अपनी अचूक सियासी निशानबाजी के लिए जाने जाने वाले इस महारथी का राजनीतिक सफर अब अवसान के करीब है। उनके इस राजनीतिक पराभव का आभास दो माह पूर्व ही हो चला था जब वे लोकसभा चुनाव में अपने अनुयायियों को तो दूर, अपने पुत्र- पुत्री तक को लोकसभा का टिकट दिलाने में नाकामयाब रहे। इस फैसले का प्रतिकार करते हुए अर्जुन सिंह की पुत्री बीना सिंह ने अपने गृह निर्वाचन क्षेत्र से निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लडऩे की घोषणा की तो कांग्रेस आला कमान को यह संदेह होना स्वाभाविक था कि इसमें कहीं न कहीं खुद अर्जुन सिंह की मौन सहमति है। अर्जुन सिंह ने अपनी पुत्री के खिलाफ खुद प्रचार करने की बात कहकर इस संदेह को दूर करने की भरसक कोशिश की लेकिन वे तमाम कोशिशों के बावजूद इस संदेह को दूर करने में सफल नहीं हो सके और उनके आंसुओं ने उनकी विवशता और उनके पुत्री मोह दोनों को उजागर कर दिया। पार्टी हितों के खिलाफ काम करने के इन्हीं आरोपों की कीमत उन्हें केंद्रीय मंत्री का पद खोकर चुकानी पड़ी है। वैसे उनकी आत्मकथा में कही गई कुछ बातों से उठा विवाद भी कांग्रेस आलाकमान की नजरों में उनकी विश्वसनीयता को कम करने के लिए कम जिम्मेदार नहीं है। बहरहाल यह कोई रहस्य नहीं है कि मध्यप्रदेश तथा केंद्र में काफी मुश्किल दौर में कांग्रेस की विजय पताका को फहराने में उन्होंनेे अहम भूमिका निभाई है। लेकिन उन्होंने अपनी राजनीतिक कार्यशैली से जितने समर्थक बनाए , उससे कहीं काफी ज्यादा विरोधियों को पैदा किया और इसी वजह से उनका राजनीतिक ग्राफ भी काफी उतार चढ़ाव भरा रहा। मसलन 1985 में विधानसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री पद पर आरूढ़ होने के कुछ ही दिन बाद उन्हें पंजाब में आतंकवाद से निपटने के लिए गवर्नर बनाकर भेज दिया गया। उनके दामन पर चुरहट लाटरी कांड की बदनामी के छींटे भी पड़े । इस बदनामी की वजह से ही नवें दशक के अंतिम दौर में उन्हें मुख्यमंत्री पद छोडऩा पड़ा। कई बार तो निष्ठïाओं के कारण उन्हें नुकसान उठाना पड़ा। नरसिंह राव सरकार में भी वे मानव संसाधन विकास मंत्री रहते उन्होंने तिवारी कांग्रेस का गठन किया और इससे उनकी राजनीतिक साख को जो नुकसान पहुंचा, उसकी भरपाई कभी नहीं हो सकी। विभिन्न चुनावों में उनकी पराजय इसका जीता जागता प्रमाण है।मनमोहन सिंह सरकार में मानव संसाधन विकास मंत्री के तौर पर उन्होंने पाठ्यक्रमों में जो परिवर्तन किये, वह भाजपा की हिंदुत्ववादी विचारधारा के खिलाफ थे और इसी कारण वे भाजपा सरकारों के निशाने पर रहे। बहरहाल मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल से उनको बाहर रखा जाना यही दर्शाता है कि वे अब कांग्रेस आलाकमान के विश्वासपात्रों की सूची से बाहर हो चुके हैं और कांग्रेस की इस बेरुखी के कारण उनके सम्मानजनक राजनीतिक पुनर्वास की तमाम संभावनाएं क्षीण हो चुकी हैं। -सर्वदमन पाठक
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