Sunday, August 30, 2009

Wednesday, August 26, 2009

Monday, August 24, 2009



जसवंत सिंह: अपनी ही डाल पर वार


जसवंत सिंह वैसे तो काफी शांतिप्रिय व्यक्तित्व के धनी माने जाते हैं और भाजपा जैसी पार्टी के लिए, जिसमें उत्तेजनापूर्ण बयानबाजी में भरोसा रखनेे वाले नेताओं की कोई कमी नहीं है, उनकी शालीनता की काफी कद्र की जाती रही है लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि उनकी कार्यशैली और लेखनी जब तब काफी मुश्किलें पैदा करती रही है। इसका ताजा उदाहरण जिन्ना पर लिखी उनकी पुस्तक है जिसमें उन्होंनेे सरदार पटेल एवं जवाहरलाल नेहरू को भारत विभाजन के लिए जिम्मेदार ठहराया है और इसके लिए मोहम्मद अली जिन्ना को एक तरह से बरी कर दिया है। इसने न केवल भाजपा बल्कि समूचे देश के मानस को झकझोर दिया है क्योंकि धार्मिक आधार पर देश के विभाजन के लिए मोहम्मद अली जिन्ना को ही भारत जिम्मेदार मानता रहा है। वैसे यह पुस्तक ऐतिहासिक तथ्यों पर की गई शोध ही है जिसके निष्कर्ष सभी के लिए चौंकाने वाले हैं। इस पुस्तक ने ऐन चिंतन बैठक के पहले भाजपा के भीतर ऐसा तूफान खड़ा कर दिया जिसमेंं चिंतन के बदले पार्टी नई चिंता से रूबरू हुई और इसके फलस्वरूप इस पूर्व फौजी को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया। उनके इस दुस्साहस से तो मानो पार्टी के भीतर से ही उस पर निशाना साधने का सिलसिला शुरू हो गया है जिसकी ताजा मिसाल अरुण शौरी का बयान है जिसमें उन्होंने पार्टी अध्यक्ष को हम्टी डम्टी निरूपित कर दिया है। ये वही जसवंत सिंह हैं जो आतंकवादी विमान अपहर्ताओं को सुरक्षित छोडऩे के लिए विमान में कंधार ले जाने के कारण विवादों में घिर गए थे। यह अकेला कांड अटलविहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के लिए ऐसा बदनुमा धब्बा है जो आज भी वाजपेयी सरकार पर आतंकवाद के सामने घुटने टेकने के सबसे बड़े आरोप के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। अब जसवंत सिंह ने इस सिलसिले में एक और सनसनीखेज रहस्योद्घाटन कर भाजपा के सामने नई मुश्किल खड़ी कर दी है। उन्होंने अपने इस पुराने बयान का खुद ही खंडन कर दिया है कि सरकार के इस फैसले की लालकृष्ण आडवाणी को कोई जानकारी नहीं थीं। उनका कहना है कि उन्होंने यह बयान इस कारण दिया था ताकि लोकसभा चुनाव में भाजपा को नुकसान न हो।इसके पहले अपनी एक और पुस्तक में उन्होंने यह लिख कर सनसनी फैला दी थी कि नरसिंह राव सरकार के दौरान प्रधानमंत्री कार्यालय में जासूस मौजूद था हालांकि वे इसके बारे में सबूत पेश नहीं कर पाए।जसवंत सिंह राजस्थान की राजनीति में भी काफी विवादास्पद रहे। वसुंधरा राजे के नेतृत्व वाली अपनी ही पार्टी की सरकार के खिलाफ वे लगातार मुहिम चलाते रहे। एक बार तो उन्होंने इसके लिए राजपूत राजाओं को आमंत्रित कर अपनी निष्ठïा की शपथ दिलाने के लिए अफीम चटाई जो एक नया विवाद खड़ा कर गई। अफीम तस्कर रोशन से संबंधों को लेकर भी उनकी आलोचना हुई। कभी भाजपा नीत केंद्र सरकार में वित्त तथा विदेश मंत्री जैसे महत्वपूर्ण पदों पर आसीन रहे जसवंत सिंह अब भाजपा के आंखों की किरकिरी बने हुए हैं। उनकी ताजा गतिविधियां यदि उनकी आगामी राजनीतिक व्यूहरचना का कोई संकेत देती हैं तो निश्चित ही वे निकट भविष्य में भाजपा के किसी प्रमुख प्रतिद्वंदी दल के साथ होंगे और अपने बौद्धिक चातुर्य का इस्तेमाल भाजपा को अधिकाधिक कमजोर करने में कर रहे होंगे।
-सर्वदमन पाठक


Saturday, August 22, 2009

लाखों हिंदू-मुसलमानों की हत्याओं के लिए जिम्मेदार जिन्ना महान कैसे?

दरअसल भाजपा के द्वारा स्वातंत्र्य वीर के रूप में सम्मानित सावरकर पहले ही द्विराष्टï्रवाद की धारणा के पक्ष में अपने विचार पेश कर चुके थे जिन्ना ने भी इसी विचार को आधार बनाकर मुहिम छेड़ी और देश के विभाजन की त्रासदी का खाका खींचा। राष्टï्रीय स्वयंसेवक संघ पहले से ही मानता रहा है कि देश विभाजन के लिए जिन्ना के साथ ही गांधी एवं नेहरू भी जिम्मेदार थे। जसवंत सिंह की नजर में जिन्ना क्यों महान थे यह तो पाठकों को जसवंत सिंह की पुस्तक पढऩे पर ही पता चल ही जाता है लेकिन ऊपरी तौर पर उन्होंने अंग्रेजी मीडिया को जो वक्तव्य दिया उसे देखने से जिन्ना के प्रति उनकी ऐसी दीवानगी साफ नजर जाती है जो पाकिस्तान परस्त व्यक्ति में ही हो सकती है। जसवंत सिंह ने जिन्ना के इतिहास के बारे में लगता है कि कुछ ज्यादा ही शोध किया होगा लेकिन वह कुछ भी करें, लेकिन सच छिप नहीं सकता । पहली बात तो ये किताब उस घटना की ही एक कड़ी है जिसके तहत श्री जसवंत के प्रिय नेता श्री आडवाणी को जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष कहने पर भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष पद से हटने को विवश होना पड़ा था। श्री आडवाणी ने उसके बाद अपनी जो जीवनी लिखी उसमें जिन्ना प्रकरण पर एक पूरा अध्याय ही समाहित किया- आई हैव नो रीग्रेट्स। जसवंत सिंह ने भी इसी तरह बिना किसी अफसोस के जिन्ना का प्रशस्ति गान किया है।जिन्ना के बारे में जसवंत हिंदुस्तान के लोगों को क्या नया बताना चाहते हैं जो देश के बौद्धिक वर्ग को पहले से मालूम नहीं है। यह ऐतिहासिक सच्चाई है कि जिन्ना कभी राष्टï्रवादी मुखौटे में नजर आते थे और लोकमान्य तिलक पर सन 1908 में जब देशद्रोह का मुकदमा अंग्रेज सरकार ने ठोंका तो जिन्ना उस मुकदमे की तिलक की ओर से पैरवी कर रहे थे। दादाभाई नौरोजी जब कोलकाता कांग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हुए तो जिन्ना उनके निजी सहायक के रूप में काम कर रहे थे। फिरोजशाह मेहता और गोपाल कृष्ण गोखले के साथ भी जिन्ना की अच्छा तारतम्य बैठने लगा था। लोकमान्य को उक्त मामले में सन 1908 में 6 साल की सजा हुई। इधर तिलक जेल गए उधर जिन्ना का राष्टï्रवाद काफूर हो गया। 1913 आते आते जिन्ना उस मुस्लिम लीग की गोद में जा बैठे जिस मुस्लिम लीग का उन्होंने बंग भंग के सवाल पर 1906 में जमकर विरोध किया था। उल्लेखनीय है कि मुस्लिम लीग का गठन 1906 में ढाका में हुआ था। 1915 में महात्मा गांधी का पदार्पण हिंदुस्तान की राजनीति में हुआ हालांकि गांधी दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह के बाद से ही देश में लोकनेता के रूप में पहले से ही प्रतिष्ठित हो चुके थे। भारत की गरीबी देखकर जब गांधी ने अपना ब्रिटिश चोला उतार फेंका और पूरे तौर पर देसी खादी की शरण में आ गए तो उनके साथ समूची कांग्रेस ने ही खादी का अनुसरण करना प्रारंभ कर दिया। गांधी राजनीति को धर्माधिष्ठिïत करना चाहते थे, आचरण की पवित्रता के भी वे आग्रही थे। लेकिन कांग्रेस की राजनीति में जिन्ना को ये पच नहीं रहा था। जिन्ना को गांधी की यह नैतिकता और लोकप्रियता फूटी आंखों नहीं सुहाती थी। जिन्ना द्वारा पाकिस्तान की संविधान सभा में दिए गए पहले भाषण को ही आधार बताते हुए आडवाणी ने उन्हें धर्मनिरपेक्ष कह दिया था और इसी भाषण को जसवंत सिंह ने भी हाथों हाथ लिया है। लेकिन इस भाषण की सच्चाई इतिहास के अध्येताओं से छुपी नहीं है। जिन्ना का पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के प्रति रवैया क्या था इसका एक उदाहरण और देखने को मिलता है। जिन्ना ने हिंदुओं के साथ, अपनी मातृभूमि के साथ धोखा किया ही, मुसलमानों के साथ भी उसने कम गद्दारी नहीं की। यही कारण है कि अपने अंत समय उन्हें खुद से काफी ग्लानि होने लगी थी और अंत में उन्होंने एक बेचैन आत्मा, एक अशांतविक्षिप्त मनोदशा में अपना शरीर छोड़ा। संसार के इतिहास में जिन्ना उन गिने चुनेे व्यक्तियों में एक थे जिन्होंने एक नए देश की स्थापना की और पृथ्वी के मानचित्र पर उसे अंकित किया। लेकिन विभाजन के बाद के दृश्यों ने उन्हें विचलित कर दिया था। प्रख्यात पत्रकार बीजी वर्गीज ने मोहम्मद अली जिन्ना द्वारा पाकिस्तान की संविधान सभा के समक्ष 11 अगस्त, 1947 को दिए गए भाषण को अमान्य कर दिया है। उन्होंनेे जसवंत सिंह की जिन्ना की जीवनी पर आधारित पुस्तक के लोकार्पण समारोह के पश्चात कहा कि विभाजन के अपराध से जिन्ना को बरी कर देना इतिहास के साथ अन्याय है। उन्होंने कहा जिन्ना के जिस भाषण को लेकर जिन्ना को सेकुलर ठहराने का प्रयास देश में हो रहा है वह भाषण जिन्ना ने अपने जीवित रहते ही अमान्य कर दिया था। उस भाषण के 6 महीने बाद ही जिन्ना ने सार्वजनिक रूप से अपने भाषण को वापस लेने की घोषणा कर दी थी जिसे अब कोई मान नहीं रहा है। उन्होंने कहा कि परिस्थिति उस समय ऐसी बन चुकी थी कि विभाजन के अतिरिक्त कोई चारा नहीं रह गया था। जहां तक जिन्ना का सवाल है तो वह अपने हावभाव-व्यवहार से कहीं से भी मुसलमान नहीं लगते थे। अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए उसने भारत विभाजन के कार्य में ब्रिटिश हुक्मरानों के इशारे पर काम किया। जिन्ना ने अपनी जिद में देश की एकता और अखण्डता को बनाए रखने के गांधी के प्रयासों को धता बता दिया। जसवंत सिंह की इस बात में सच्चाई हो सकती है कि जिन्ना की राष्टï्र के बंटवारे की योजना को नेहरू एवं पटेल ने स्वीकार कर लिया था लेकिन यह आधा सच है। पूरा सच यह है कि पटेल एवं नेहरू ने यह योजना तब स्वीकार की जब देश में जिन्ना एवं अंग्रेज हुकूमत की मिली जुली साजिश ेकारण देश में हिंदू मुसलमानों के बीच घृणा एवं भावनात्मक विरोध की खाई इतनी गहरी हो गई कि उसे भरना संभव न रहा।देश के द्वारा ठुकराई जा चुकी इस 'थीसिसÓ को जसवंत ने फिर से हवा दी है। वक्त का तकाजा है कि भाजपा एवं उसकी मातृ संस्था आरएसएस हमेशा के लिए इस मामले में अपना रुख साफ करे कि देश विभाजन के लिए कौन जिम्मेदार था, जिन्ना महान थे या नहीं, जिन्ना सेकुलर थे या नहीं। उन्हें यह भी तय करना होगा कि तमाम आलोचनाओं के बावजूद हिंदू हितों के पक्ष में ताकत के साथ खड़ी रहने वाला संघ और उसका राजनीतिक शिशु भाजपा क्या यह स्वीकार कर सकती है कि उसके ही नेताओं द्वारा डायरेक्ट एक्शन के तहत लाखों हिंदुओं की हत्या करवा देने वाले जिन्ना को महान या धर्मनिरपेक्ष बताया जाए।
-सर्वदमन पाठक

कहीं से महान नहीं थे जिन्ना


जिस व्यक्ति ने धर्म के नाम पर देश का बंटवारा कराने में सबसे अहम भूमिका निभाई हो और जिसके कारण हुए भारी रक्तपात में लाखों बेगुनाह लोगों की जानें चली गई हों, उसे महान या धर्मनिरपेक्ष कहना भारत के इतिहास की सबसे करुणाजनक सच्चाई को नकारना है। कुछ पूर्वाग्रह से ग्रस्त चिंतक यह कहते नहीं थकते कि जिन्ना पूर्व में प्रखर धर्मनिरपेक्ष नेता थे तथा उन्होंने कांग्रेस में रहते हुए ऐसे संघर्ष में हिस्सेदारी की, जिसे राष्टï्रवादी कहा जा सकता है, लेकिन हकीकत कुछ और ही है। जिन्ना कांग्रेस में भी धर्मनिरपेक्ष नेता की तरह पेश नहीं आते थे। उन्हें तब भी आम हिन्दुस्तानियों की चिंता नहीं सताती थी। वे तो उस समय भी सिर्फ और सिर्फ मुसलमानों के हितों की वकालत ही करते थे। मुस्लिम लीग में शामिल होने के बाद उनके चेहरे पर से वह झीना सा मुखौटा भी उतर गया, जो कभी-कभी उनके धर्मनिरपेक्ष होने का भ्रम पैदा करता था। जिन्ना को कांग्रेस में सबसे अधिक आपत्ति महात्मा गांधी से होती थी। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि गांधी जैसे सर्वधर्म समभाव रखने वाले सहिष्णुता तथा उदारता के प्रतीक-पुरुष से घृणा करने वाला व्यक्ति महान एवं धर्मनिरपेक्ष हो सकता है। कांग्रेस से उनका मोहभंग इसीलिए होने लगा था, क्योंकि उनका सांप्रदायिक नजरिया बेनकाब हो गया था। 1934 में उनका सांप्रदायिक चेहरा खुलकर सामने आ गया एवं वे सिर्फ मुस्लिम हितों के हिमायत करते नजर आने लगे। उनकी सांप्रदायिक सोच के कारण ही भारत की आजादी का आंदोलन जो राष्ट्रीय एकता को प्रदर्शित करता था, विभाजित हो गया। सच तो यह है कि जिन्ना अपनी सांप्रदायिक सोच के चलते ही भारत विभाजन की अंग्रेजों की साजिश का मोहरा बन गए। यद्यपि 1946 के कैबिनेट कमीशन में इस बात के स्पष्टï संकेत थे कि उन्हें पाकिस्तान के गठन की मांग छोड़ देने पर प्रधानमंत्री तक बनाने का ऑफर महात्मा गांधी ने दिया था। लेकिन वे पाकिस्तान के गठन की अपनी मांग से टस से मस होने को तैयार नहीं हुए। उनकी इसी जिद के चलते 1945 से 1947 तक देश भर में भयावह हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए और इनमें बहुत से लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। 1947 का भारत विभाजन सिर्फ जिन्ना की जिद का परिणाम था, जिसमें रक्तपात एवं हत्याओं की जो विभीषिका देखी गई उसे याद करके आज भी दिल दहल उठता है। इस विभाजन का दर्द करोड़ों लोग किसी न किसी रूप में आज भी झेल रहे हैं। भाजपा नेता जसवंत सिंह ने जिन्ना को इतिहास पुरुष बताकर एक तरह से द्विराष्टï्रवाद के सिद्धांत पर अपनी सहमति की मोहर लगा दी है। यह शायद जसवंत सिंह की सबसे बड़ी राजनीतिक भूल है। वे शायद अपने वक्तव्य के माध्यम से यही संदेश देना चाहते हैं कि विभाजन के लिए सिर्फ जिन्ना ही नहीं बल्कि गांधी और नेहरू भी जिम्मेदार हैं। उनके कथन का सीधा सादा आशय यही है कि गांधी-नेहरू के संकीर्ण नजरिए के कारण देश का विभाजन हुआ। उनकी इस कलाबाजी से हिन्दुओं के उदारवादी चेहरे पर भी सवालिया निशान लग गया है, जो उनकी अपनी ही पार्टी की सोच से मेल नहीं खाता। यह बात तो समझ से परे है कि जिन्ना को अपनी ही पृष्ठïभूमि से इस तरह बगावत करने की जरूरत क्यों पड़ गई, लेकिन इतना तय है कि यदि वे समझते हैं कि उनकी इस चाल से उन्हें कोई राजनीतिक लाभ मिलेगा तो यह उनका भ्रम है, क्योंकि जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष मानने वाले इस देश में गिने-चुने लोग ही होंगे, क्योंकि यह ध्रुव सत्य है कि धर्म के नामपर देश को बांटने वाला कभी भी महान या धर्मानिरपेक्ष नहीं हो सकता।
-सर्वदमन पाठक

Wednesday, August 19, 2009

शामत जमाखोरों की

मध्यप्रदेश में शक्कर व्यापारियों के गोदामों पर छापे की कार्रवाई शक्कर के दाम बढऩे की आशंकाओं पर लगाम लगाने के इरादे से की जा रही है। राज्य सरकार की इस कार्रवाई को इतने प्रभावी तरीके से चलाया जा रहा है जो शिवराज सरकार के कार्यकाल के लिए अभूतपूर्व ही माना जा सकता है। अभी तक इस कार्रवाई में करोड़ों रुपए की शक्कर पकड़ी गई है जो इस अभियान की व्यापकता को अपने आप ही बयां करती है। इस संबंध में राजनीतिक दबाव को भी राज्य सरकार ने पूरी तरह से दरकिनार कर अपनी इच्छाशक्ति का परिचय दिया है। यह विरोधाभास ही है कि जहां राज्य सरकार शक्कर जमाखोरों पर बेखौफ तरीके से कार्रवाई कर रही हैं वहीं केंद्रीय कृषिमंत्री शरद पवार शक्कर के मूल्यों में आने वाले दिनों में वृद्धि की आशंका जाहिर कर व्यापारियों को मनोवैज्ञानिक लाभ पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं। पवार यह बात जिस आधार पर कह रहे हैं, वह अभी विश्वासपूर्वक नहीं कहा जा सकता। पवार का मानना है कि इस वर्ष देश के एक बड़े हिस्से में सूखा पडऩे की संभावना है और इस स्थिति में गन्ने की फसल में कमी आ सकती है लेकिन अभी तो बारिश के मौसम का कम से कम एक माह शेष है इसलिए अभी से ऐसी आशंका व्यक्त करना विवेकपूर्ण नहीं है। इस संबंध में काबिले गौर है कि योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने कहा है कि इस माह के अंत तक मानसून फिर सक्रिय हो सकता है। वैसे भी यह रणनीतिक रूप से दोषपूर्ण है कि इस तरह से मूल्यवृद्धि की आशंका व्यक्त कर लोगों को आक्रांत किया जाए। राज्य सरकार ने जमाखोरों पर कार्रवाई का जो अभियान छेड़ा है वह अन्य राज्यों के लिए नजीर हो सकता है। अभी जरूरत इस बात की है कि सभी राज्य सरकारें अपने अपने राज्यों में पूरी ताकत के साथ जमाखोरों एवं मुनाफाखोरों के खिलाफ छापे की कार्रवाई करें ताकि अवैध ढंग से दबाकर रखी गई शक्कर जब्त की जा सके। यह कार्रवाई सिर्फ शक्कर व्यापारियों पर ही नहीं बल्कि सभी खाद्यान्न एवं जरूरी वस्तुओं के व्यापारियों पर की जाए ताकि कालाबाजारी की संभावना खत्म हो और इसकी प्रतिक्रियास्वरूप भावों में गिरावट आ सके क्योंकि मूल्यवृद्धि ने लोगों को सबसे ज्यादा प्रभावित कर रही है। केंद्र सरकार ने हालांकि इस संबंध में राज्य सरकारों को निर्देश दिये हैं लेकिन सिर्फ इससे काम नहीं चलने वाला है। इस संबंध में केंद्र को समुचित मानीटरिंग करना चाहिए ताकि इसे गति मिल सके। इसके अलावा यदि केंद्र सरकार यदि खाद्यान्न एवं शक्कर जैसी रोजमर्रा की वस्तुओं के बारे में मूल्यवृद्धि का हौवा न खड़ा करे तो जनता के ज्यादा हित में होगा।
-सर्वदमन पाठक

Tuesday, August 18, 2009

क्या रंग लाएगा जसवंत का जिन्ना प्रेम

लगभग चार साल पहले ही भाजपा के शीर्ष नेता और पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के दावेदार श्री लालकृष्ण आडवाणी द्वारा मोहम्मद अली जिन्ना के गुणगान पर भाजपा तथा उसकी पैतृक संस्था आरएसएस में एक तूफान सा उठ खड़ा हुआ था। यह शायद पहली बार ही हुआ था कि आरएसएस के संस्कार में पले बढ़े किसी शीर्ष नेता ने इस तरह से पाकिस्तान के संस्थापक के कसीदे पढ़े थे। भाजपा तथा संघ की ओर से उठा यह खिलाफत का तूफान इतना तेज था कि आडवाणी जैसी हस्ती के सामने भी भाजपा के भीतर अस्तित्व का संकट पैदा हो गया था। यह संकट तभी हल हो सका था जब आड़वाणी ने इस बयान से कमोवेश किनाराकशी कर ली थी। दरअसल यह बयान संघ की घोषित नीति एवं चिंतन के ठीक विपरीत ही था अत: यह विश्वास करने की पर्याप्त गुंजाइश है कि श्री आडवाणी ने यह बयान संघ एवं पार्टी को विश्वास में लिये बिना नहीं दिया होगा। इसका उद्देश्य यही हो सकता था कि भाजपा के प्रति मुस्लिम वोटरों को आकर्षित किया जाए लेकिन देश में हुई इसकी विस्फोटक प्रतिक्रिया ने संघ और भाजपा को अपने इस प्रयोग से तौबा करने को मजबूर कर दिया और फिर संभवत: एक सुनियोजित रणनीति के तहत संघ एवं भाजपा ने इसका विरोध कर यह दिखाने की कोशिश की कि ये आडवाणी के नितांत ही निजी विचार थे और आडवाणी ने इसमेंं अपनी भूमिका बखूबी निभाते हुए अपने बयान को वापस ले लिया। भाजपा एवं संघ का यह आडवाणी विरोध बातूनी जमाखर्च से ज्यादा कुछ नहीं था, यह बाद में हमारे सामने आया जब उन्हीं आडवाणी को प्रधानमंत्री पद के लिए पार्टी की ओर से दावेदार बनाया गया और संघ ने उस पर आसानी से मुहर लगा दी।अब एक और शीर्ष भाजपा नेता जसवंत सिंह को मोहम्मद अली जिन्ना के गुणगान का बुखार चढ़ा है। जहां श्री आडवाणी ने जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष बताया था वहीं जसवंत सिंह ने अपनी पुस्तक में उन्हें महान व्यक्ति बताया है। ये वही जसवंत सिंह हैं जो कंधार कांड को अंजाम देने वाले आतंकवादियों को सुरक्षित कंधार छोड़ आए थे। उन्होंने अपने बयान को प्रमाणित करने के लिए महात्मा गांधी के ऐसे ही बयान का हवाला दिया है। यह अलग बात है कि महात्मा गांधी ने बयान तब दिया था जब देश आजादी की लड़ाई में एकजुट होकर संघर्ष कर रहा था और जिन्ना भी इसी एकजुटता का हिस्सा थे। जिन्ना ने बाद में द्विराष्टï्रवाद की थ्योरी के तहत पाकिस्तान के निर्माण के लिए न केवल संघर्ष का आह्वïान किया बल्कि उनके द्वारा किये गये डायरेक्ट एक्शन के आह्वïान के तहत असंख्य बेकसूर हिंदुओं का कत्लेआम हुआ। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को जो जबर्दस्त पराजय मिली उसके बाद यह बहस तेज हो गई है कि भाजपा सिर्फ हिंदू वोटरों के बलबूते केंद्र में अपनी दम पर सत्तासीन नहीं हो सकती। आडवाणी के राजनीतिक सलाहकार रहे सुधीन्द्र कुलकर्णी ने इस बदलाव की पुरजोर वकालत करते हुए अखबारों में लेख भी लिखे हैं। प्रगट रूप से भाजपा ने इस बदलाव से इंकार कर दिया है और खुद भाजपा के राष्टï्रीय अध्यक्ष श्री राजनाथ सिंह ने स्पष्ट रूप से कहा है कि भाजपा का हिंदुत्व की कोर विचारधारा से हटने का कोई इरादा नहीं है लेकिन इसके बावजूद पार्टी के भीतर जब तब बदलाव के इस विचार की प्रतिध्वनि सुनाई देती रही है। इस सिलसिले में यह संदेह उपजना स्वाभाविक है कि लोकसभा में भाजपा की नंबर दो नेता सुषमा स्वराज द्वारा अभी चंद दिन पहले ही मुसलमानों की एक बैठक में दिया गया यह बयान 'गर्व से कहो हम मुसलमान हैंÓ क्या इसी सोची समझी रणनीति का हिस्सा है। कभी 'गर्व से कहो हम हिंदू हैंÓ का नारा बुलंद करने वाली भाजपा की इस प्रखर नेत्री का यह आश्चर्यजनक हृदय परिवर्तन आखिर किस दिशा में संकेत करता है।यह कोई रहस्य नहीं है कि भाजपा संघ की ही राजनीतिक शाखा है और इसी वजह से भाजपा के कार्यकलापों पर संघ के चिंतन की छाया साफ दिखाई पड़ती है। संघ और भाजपा के बीच संबंधों को लेकर पार्टी के अंदर चाहे कितनी भी बहस चलती रही हो लेकिन भाजपा ने बार बार यही सिद्ध किया है कि वह सिर्फ राष्टï्रीय स्वयंसेवक संघ का शिशु ही है और इसके अलावा उसकी कोई पृथक पहचान नहीं है। केंद्र एवं राज्यों में जब भी भाजपा सरकारें बनी हैं, तमाम आलोचना के बावजूद वे संघ के सीधे नियंत्रण में काम करती रही हैं जो इस तथ्य का अकाट्य प्रमाण है। संघ खुद को हिंदू धर्मावलंबियों का सबसे बड़ा हितैषी बताता है अत: उसके द्वारा नियंत्रित राजनीतिक संस्था भाजपा प्रत्यक्ष रूप से इससे अलग नहीं हो सकती। तो फिर यह सवाल उठना अस्वाभाविक नहीं है कि आखिर भाजपा के नेताओं में खुद को मुस्लिमों का हमदर्द बताने की होड़ क्यों लगी हुई है? क्या संघ भी भाजपा को केंद्र की सत्ता का रास्ता आसान बनाने के लिए हिंदू चेहरे में बदलाव की छूट देने के लिए तैयार है? क्या यह बदलाव नरम हिंदुत्व से भी एक कदम आगे होगा? क्या भाजपा अपने सत्ता सुख के लिए संघ की शह पर हिंदुत्व के ध्वजवाहक का रोल छोड़कर मुस्लिमों सहित तमाम अल्पसंख्यकों के हितसाधक का मुखौटा लगाने जा रही है? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो देश के आम मतदाताओं के मन-मस्तिष्क को मथ रहे हैं। लेकिन इससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या भाजपा दो नाव पर पैर रखने के इस दुस्साहसिक उपक्रम के बावजूद अपने हिंदू वोट बैंक को सुरक्षित रख पाएगी? यदि इसमें संघ की सहमति है तो फिर संघ को भी हिंदुओं के प्रति अपनी निष्ठïा को साबित करने के लिए कालांतर में नई अग्रि परीक्षा से गुजरना होगा।
-सर्वदमन पाठक

Thursday, August 13, 2009

सपनों के लाक्षागृह में दम तोड़ती आजादी

आजादी की सालगिरह असीम गौरव की अनुभूति का महापर्व है। अगणित परवानों ने अपने प्राणों को तिल-तिल जलाकर आजादी की यह शमां रोशन की है। शहादत की इस महान परंपरा की वजह से ही आज हम आजादी की हवा में सांस ले रहे हैं। स्वतंत्रता दिवस इन शहीदों के प्रति श्रद्धावनत होने का दिन है। आजादी का यह संघर्ष अंग्रेजों के शिकंजे से देश की मुक्ति का संघर्ष तो था, लेकिन यह सिर्फ सत्ता-परिवर्तन का ही संघर्ष नहीं था। इस संघर्ष के पीछे शहीदों के कुछ सपने थे। उनका एक अहम सपना यह था कि देश का तकदीर लेखन देश के आम आदमी के हाथ में हो। इसकी सत्ता जनता जनार्दन के हाथों में केंद्रित हो, ताकि राष्टï्र की खुशहाली का वास्तविक इतिहास लिखा जा सके। भारत के आर्थिक स्रोतों से ब्रिटेन की समृद्धि की औपनिवेशिक साजिश से मुक्ति तो उनका प्राथमिक उद्देश्य था ही, लेकिन उनकी यह आकांक्षा कतई नहीं थी कि सत्ता चंद पूंजीपतियों तथा उनके दलालों के हाथ की कठपुतली बनकर रह जाए और आम जनता सरकार के नाम पर एक शोषक तंत्र के हाथों से निकलकर दूसरे शोषक तंत्र के हाथों में फंस जाए। पंद्रह अगस्त 1947 को इन्हीं सपनों का अक्स देश के लोगों की आंखों में देखा जा सकता था। सपनों की दुनिया में खोये हम आजादी के शुरुआती वर्षों में इतने उत्साह से इतनी उमंग से आजादी की सालगिरह मनाते कि पूरा वातावरण खुशी का पर्याय दिखता था। हर गली, हर कूचे, हर स्थान तिरंगे झंडों, बंदनवारों और उमंग में डोलते जश्र मनाते लोगों का हुजूम देखा जा सकता था। अब यह महापर्व एक रस्म अदायगी की शक्ल ले चुका है। आजादी का जश्र खंडित सपनों के बोझ तले दब गया है। वास्तविकता यह है कि आम आदमी आजादी के बाद हमारे राजनीतिज्ञों, नौकरशाहों एवं पूंजीपतियों की मिलीभगत से इस बुरी तरह ठगा गया है कि उसे यह आजादी बेमानी सी लगने लगी है। अब तो लोग यह तक कहने लगे हैं कि इससे तो अंग्रेजी शासन ज्यादा अच्छा था। इससे अधिक दुखद और निराशाजनक स्थिति क्या हो सकती है कि देश का एक वर्ग पराधीनता को स्वाधीनता से बेहतर मानने लगे? लेकिन यह उनके सपनों के कुचले जाने की प्रतिक्रिया है, जिसे बहुत अस्वाभाविक नहीं माना जा सकता। निराशा का यह अतिरेक एक ऐसे खतरे का संकेत है, जिसकी अनदेखी करना आक्रोश के विस्फोट की संभावना को आकार देना ही होगा। अत: वक्त का तकाजा है कि हम राष्टï्र की स्वप्र सजी आंखों में निराशा का अंधियारा भर देने वाले त्रासद सफर के कारणों की छानबीन कर उनके समाधान के उपाय खोजें।यह कहना नाइंसाफी होगी कि हमारे मुल्क ने आजादी के बाद तरक्की नहीं की है। देशभर में फैले उद्योगों की गगनचुंबी चिमनियां राष्टï्र के विकास की कहानी अपने आप ही कह रही हैं। आज तो अमेरिका सहित विश्व की सभी बड़ी आर्थिक ताकतें भारत को औद्योगिक दृष्टिï से इक्कीसवीं सदी का सबसे अधिक संभावनावान देश मानने लगी हैं। खाद्यान्न के मामले में भारत आत्मनिर्भरता प्राप्त कर चुका है। भारत ने परमाणु शक्ति के रूप में दुनिया को यह अहसास करा दिया है कि अब उसकी अनदेखी विश्व की महाशक्ति भी नहीं कर सकतीं। मिसाइल टेक्नोलॉजी के नये आयाम रच कर देश ने रक्षा का नया संकल्प जताया। आम आदमी के होंठों पर मुस्कान लाने के लिए बहुत ही जनकल्याणकारी योजनाएं भी बनाई गईं एवं चलाई गई हैं। लेकिन सवाल यह है कि प्रगति की तमाम मंजिलों को तय करने के बावजूद आज देश का आम आदमी निराश, हताश क्यों है? उनका मन बुझा हुआ क्यों है? सच तो यह है कि देश का विकास एकांगी ही रहा है। इस विकास में अपना खून पसीना बहाने वाला गरीब, सर्वहारा वर्ग और गरीब होता गया है, जबकि इनके श्रम का शोषण कर अमीर और अमीर हो गए हैं। विकास के लाभ आमतौर पर गरीबों तक पहुंचे नहीं हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि जीवन में खुशहाली का उनका सपना खंडित होकर बिखर रहा है। यही वजह है कि आजादी के प्रति उनमें उत्साह और गौरव का भाव तिरोहित होता जा रहा है। आजाद भारत में आम आदमी के सपनों के महल को खंडहर में तब्दील करने के लिए सर्वाधिक दोषी देश की गर्हित राजनीति ही है। हमारे संविधान निर्माताओं ने देश को सुचारु रूप से चलाने के लिए लोकतांत्रिक शासन प्रणाली का मार्ग चुना था, जिसका उद्देश्य यही था कि सत्ता के सूत्र आम जनता के हाथों में केंद्रित हों, ताकि वह अपनी मर्जी की सरकार चुन सके और यदि सरकार वादा खिलाफी करे तो उसे सत्ता से बेदखल कर सजा दे सके, लेकिन वह राजनीतिक दलों एवं उसके नेताओं की नीयत को भांप नहीं सकी। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि खुशहाली लाने के लुभावने वादे करके जनता का विश्वास जीतने वाले नेता अपने सभी वादे भूलकर निजी स्वार्थों की पूर्ति में जुट गए। ये राजनीतिक नेता इसी उद्देश्य से पूंजीपतियों के हाथों की कठपुतली बन गए और सत्ता के लाभों की बंदरबांट करने लगे। शर्म की बात तो यह है कि कालांतर में इसमें गुनाहों की काली दुनिया के सरगना भी शरीक हो गए। इस अपवित्र गठजोड़ ने समूचे प्रशासनतंत्र को अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए रिश्वत एवं भ्रष्टïाचार का आदी बना दिया। इस कुचक्र के सामने आम आदमी के हित गौण हो गए। ऐसा नहीं है कि जनता ने इस कुचक्र को तोडऩे के लिए अपनी ओर से कोई कोशिश न की हो। पांच बार जनता ने वोट की ताकत से केंद्र की सत्ता पलट दी है। राज्यों में तो जनता ने यह सत्ता परिवर्तन न जाने कितनी बार किया है। लेकिन इससे सिर्फ सत्ता ही बदली है सत्ता का चरित्र नहीं बदला। कमोबेश सभी दल और सरकारें जनता के विश्वास को छलने एवं कुचलने में एक-दूसरे को हराने की प्रतिस्पर्धा ही करती रहीं। सभी सरकारों ने जनता के हितों की समान रूप से अनदेखी की। सत्ताधीशों ने देश को किस कदर नोंचा खसौटा है इसके उदाहरण महाराष्टï्र का शक्कर घोटाला एवं सीमेंट घोटाला तथा केंद्र का प्रतिभूति घोटाला एवं हवाला कांड, दूरसंचार निविदा घोटाला जैसे न जाने कितने कुख्यात कांड हैं। दुर्भाग्यजनक तो यह है कि कई केंद्रीय मंत्री एवं राज्यपाल तक सत्ता के दुरुपयोग एवं भ्रष्टïाचार के विभिन्न मामलों में अदालती आरोपों के कटघरे में पहुंच चुके हैं। बोफोर्स घोटाले की सच्चाई चाहे जो हो, लेकिन इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि इसी घोटाले की वजह से राजीव गांधी अपना चुनावी समर हार गए थे। पी.वी. नरसिम्हा राव भी झामुमो सांसद रिश्वत कांड एवं लखुभाई पाठक धोखाधड़ी कांड में अदालती प्रकरण में फंसे चुके थे। ये घोटाले तो हिमनद में डूबी उस हिमशिला जैसे हैं जिसका ऊपरी सिरा ही हमें दिख रहा है। भ्रष्टïाचार में आकंठ डूबे कितने ही नेताओं ने स्विस बैंक के गोपनीय खातों में अपना काला धन जमा करके अपनी तमाम काली करतूतों के बावजूद जनता की नजरों मेें खुद को पाक साफ सिद्ध करने का इंतजाम कर लिया है, वहीं उन्होंने अपनी ऐशोआराम भरी जिंदगी बिताने की पूरी तैयारी कर ली है। आरक्षण के नाम पर सुविधाओं की बंदरबांट ही हुई है। इससे कमजोर वर्ग को जो लाभ मिलना था वह उन्हें नहीं मिल सका। इसके प्रचार द्वारा वोट बैंक निर्माण की कोशिशें अवश्य हुईं। आरक्षण आज भी जारी है, जबकि शुरुआत में एक निश्चित अवधि तक ही आरक्षण व्यवस्था का निर्णय लिया गया था। आरक्षण वास्तव में अनुसूचित जाति तथा पिछड़े वर्गों को नाकाबिल बनाकर रखने की ही एक साजिश मानी जा सकती है, लेकिन कोई भी दल इस सच को बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। वी.पी. सिंह ने तो मंडल का जाल फैलाकर विभेदकारी आरक्षण व्यवस्था की जड़ें और गहरी कर दी हैं। आर्थिक सुधार एवं नई आर्थिक नीतियों के तहत बहुराष्टï्रीय कंपनियों सहित विदेश के कई बड़े व्यापारिक घराने भारत के बाजार पर कब्जा करने के लिए टूट पड़े हैं। इसके फलस्वरूप रोजमर्रा की चीजों सहित विभिन्न वस्तुओं की कीमतें आसमान छू रही हैं और सरकार इन पर काबू पाने में बुरी तरह असफल हो रही है। हमारा सबसे बड़ा संकट राष्टï्रीय चरित्र का लोप है। इसी वजह से हमारा चिंतन आत्मकेंद्रित हो गया है तथा इसमें राष्टï्र हित का भाव लुप्त हो गया है। हम अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए राष्टï्र का नुकसान करने में भी नहीं चूकते। समाज में आई इस गिरावट की प्रतिच्छाया ही राजनीति एवं प्रशासन में दिखाई देती है। उपरोक्त सभी बुराइयों की जड़ यही राष्टï्रीय चरित्र का ह्रïास है और इसका निदान राष्टï्रीय चरित्र के निर्माण में ही निहित है। सर्वप्रथम हमें खुद को भारत माता का सच्चा सपूत बनाना होगा। अपने संकीर्ण हितों के लिए राष्टï्रीय हितों को नजरअंदाज करने की प्रवृत्ति को तिलांजलि देनी होगी। संपूर्ण समाज राष्टï्रीय चरित्र के निर्माण का बीड़ा उठा ले और इसमें बाधक बनने वाले राजनीतिज्ञों एवं प्रशासकों एवं उनसे जुड़े लोगों को सबक सिखाने की ठान ले तो क्या मजाल ये सभी अपने स्वार्थों की खातिर जनहित को दरकिनार कर सकें।
-सर्वदमन पाठक

Tuesday, August 11, 2009

बंटते दिल, बंटती बस्तियां

इमरान हाशमी वैसे तो बालीवुड के एक अदना से कलाकार हैं जिनकी किसिंग बाय के रूप में एक बदनामी भरी पहचान है लेकिन उनके एक बयान पर हुई अत्यंत ही तल्ख प्रतिक्रिया ने उसे अप्रत्याशित रूप से चर्चित कर दिया है। शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे ने तो इमरान हाशमी को हलकट, चिंदी और ऐसे ही कई संबोधनों से नवाज दिया है। दरअसल उसके बयान ने उस कड़वी हकीकत को रेखांकित कर दिया है जिसने लघु भारत कहे जाने वाले इस महानगर को कई दशकों से सामाजिक एवं राजनीतिक रूप से विभाजित कर रखा है। इमरान हाशमी ने कहा है कि उसे एक हिंदू गृहनिर्माण सोसायटी में वायदे के बावजूद मकान नहीं मिल सका है। दिलचस्प बात यह है कि श्री ठाकरे की प्रतिक्रिया श्री महेश भट्टï के प्रति इतनी तीखी नहीं रही हालांकि उन्होंने पुरजोर तरीके से इमरान खान की वकालत की थी। दरअसल मुंबई में आई चारित्रिक तब्दीली का ही असर है। पहले सिर्फ शिवसेना ही इस चरित्र का प्रतिनिधित्व करती थी लेकिन अब महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना भी उसी राह पर चल पड़ी है और उसको मिल रहा जनसमर्थन यह दर्शाता है कि महाराष्टï्र में ऐसी राजनीतिक फसल के लिए पर्याप्त खाद पानी मौजूद है। सिर्फ मुंबई ही क्यों, देश के अन्य प्रमुख शहर भी सांप्रदायिक घृणा का दंश झेल रहे हैं और भोपाल शहर भी इससे अछूता नहीं है। भोपाल में आजकल आबादी का सांप्रदायिक आधार पर किस तेजी से ध्रुवीकरण हो रहा है, इसे शहर के विभिन्न हिस्सों में आ रहे जनसंख्यात्मक बदलाव से आसानी से महसूस किया जा सकता है। वैसे तो हम इसे गंगा जमुनी संस्कृति का शहर कहते हुए नहीं थकते लेकिन इससे हकीकत झुठलाई नहीं जा सकती। यह वही भोपाल है जिसको भोपाल नवाब की जिद के कारण भारत की आजादी के कई साल बाद तक आजादी की खुली हवा में सांस लेने के लिए इंतजार करना पड़ा। दरअसल देश की जो तीन रियासतें स्वतंत्रता के बाद भी भारतीय संघ में विलय नहीं हुई थीं, उनमें भोपाल भी एक था। बाद में बल्लभभाई पटेल की सूझबूझ और सख्ती के फलस्वरूप भोपाल रियासत का भारतीय संघ में विलय संभव हुआ। विलय के बाद अवश्य ही भोपाल में विभिन्न समुदायों के बीच सद्भाव एवं मेलजोल के प्रयास तेज हुए और इसके अपेक्षित परिणाम सामने आए लेकिन जब तब होने वाली छिटपुट साम्प्रदायिक घटनाओं से इस प्रक्रिया में अवरोध आता रहा। विशेषत: 1992 में बाबरी ध्वंस के बाद हुए दंगों से तो हिंदुओं और मुसलमानों के दिलों में एक दूसरे के प्रति नफरत का ऐसा भाव पैदा हो गया जिसे आज तक नहीं भरा जा सका है। आतंकवादी घटनाओं में हाल के वर्षों में हुए इजाफे ने यह भाव और गहरा ही किया है। दोनों के दिलों के बीच इस बंटवारे का सबसे बड़ा असर यह हुआ है कि उनकी बस्तियां भी बंट चली हैं। तमाम कोशिशों के बावजूद यह प्रक्रिया थमने के बजाय बढ़ती जा रही है। जहां शहर की मुस्लिम बहुल बस्तियों से हिंदू अपना डेरा समेट रहे हैं वहीं हिंदू बहुल बस्तियों से मुसलमान पलायन कर मुस्लिम बहुल बस्तियों में बसते जा रहे हैं। यदि इस तरह का कोई सर्वेक्षण किया जाए कि 1992 के दंगों के पहले और इसके सत्रह साल बाद आज मुस्लिम बहुल बस्तियों में हिंदुओं की आबादी के अनुपात में क्या अंतर आया है और इसी अवधि में हिंदू बहुल बस्तियों में मुसलमानों की आबादी के अनुपात में क्या अंतर आया है, तो यह बात प्रमाणित हो जाएगी। इतना ही नहीं, विभिन्न नई कालोनियों में भी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हो चला है। बिल्डरों एवं प्रापर्टी ब्रोकरों ने अपने स्वार्थों के कारण इसे प्रश्रय दिया है। यदि भोपाल के परिप्रेक्ष्य में इसे बड़े कैनवास में देखें तो पुराने भोपाल मेें मुस्लिम आबादी का ध्रुवीकरण हुआ है तो नए भोपाल में हिंदू आबादी का घनत्व बढ़ा है। दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि आबादी का यह बदलाव इन वर्षों में इसीलिए तेज हुआ है क्योंकि राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव ने इसमें उत्प्रेरक का काम किया है। राष्टï्र के हितों एवं एकता की कीमत पर अपने अपने वोट बैंक को मजबूत करने की राजनीतिक दलों की बढ़ती हुई प्रवृत्ति इसका सबसे बड़ा कारण है। भाजपा तो रामजन्म भूमि आंदोलन के फलस्वरूप घटी इस घटना के कारण ही केंद्रीय सत्ता पर काबिज होने में सफल रही थी इसलिए हिंदू वोटों के प्रति उसका एकतरफा रुझान स्वाभाविक था लेकिन धर्मनिरपेक्षता का ढिंढोरा पीटते रहने वाली कांग्रेस ने भी जुबानी जमाखर्च के अलावा सांप्रदायिक सौहार्द की पुनस्र्थापना के लिए कुछ नहीं किया। तब इसमें अचरज की बात ही क्या है कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस एवं भाजपा की सरकारों के दो दो बार सत्ता सिंहासन पर आरूढ़ होने के बावजूद दिलों एवं बस्तियों का यह बंटवारा तीव्र से तीव्रतर होता गया है।भोपाल सहित तमाम शहरों में यह बंटवारा इतना गहरा हो चला है कि देश के भावनात्मक रूप से बंटने का खतरा ही उत्पन्न हो गया है। दिल में खिंची ये रेखाएं जमीन पर खींची जाने वाली विभाजन की रेखाओं से कहीं ज्यादा खतरनाक हैं। राष्टï्रीय एकता का तकाजा है कि विभिन्न सम्प्रदायों के बीच मेलजोल तथा सद्भाव की प्रभावी मुहिम शुरू की जाए और दिली विभाजन की इन लकीरों को मिटाने के लिए ईमानदारी से प्रयास किये जाएं ताकि राष्टï्रीय एकता सुदृढ़ हो और समूचा राष्टï्र एकजुट होकर अपने सामने आने वाली चुनौतियों का सामना कर सके।
- सर्वदमन पाठक

Thursday, August 6, 2009

बुंदेलखंड के हितैषी हैं तो क्षुद्र राजनीति छोड़ें


बुंदेलखंड देश के सर्वाधिक पिछड़े क्षेत्रों में से है। विकास की रोशनी से महरूम एवं उद्योगों के लिए तरसते इस क्षेत्र के बाशिंदे बेइंतहा बेरोजगारी और निर्धनता का जीवन जीने को अभिशप्त हैं इसलिए होना तो यह चाहिए था कि औद्योगीकरण तथा विकास के जरिये क्षेत्र में खुशहाली लाने और लोगों का जीवन स्तर उठाने की प्रभावी रणनीति बनाई जाए और इसको अमलीजामा पहनाने के लिए ठोस प्रयास किए जाएं लेकिन विडंबना यह है कि राजनीति के शतरंज में मोहरे की तरह इस्तेमाल होते रहना और अपनी बदकिस्मती पर आंसू बहाते रहना इस क्षेत्र की नियति बन गई है। इसकी ताजा मिसाल है बुंदेलखंड विकास प्राधिकरण के गठन एवं क्षेत्र की मदद के लिए लगभग 9000 करोड़ के पैकेज प्राप्त करने की राहुल गांधी की पहल और इसके विरोध में होने वाला हंगामाखेेज एवं उत्तेजनापूर्ण नाटक। इस सियासी नाटक की शुरुआत तब हुई जब कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मुलाकात कर बुंदेलखंड विकास प्राधिकरण का गठन किये जाने और क्षेत्र के विकास के लिए लगभग 9000 करोड़ के पैकेज की मांग की। राहुल जिन जिलों को मिलाकर बुंदेलखंड प्राधिकरण का गठन करवाना चाहते हैं उनमें 6 जिले मप्र और 7 जिले उप्र के सीमा में आते हैं। इस पहल पर अभी केंद्र की मंजूरी मिलनी शेष है लेकिन इस पर राजनीतिक शतरंज की बिसात अवश्य बिछ गई और शह और मात का खेल शुरू हो गया। इन दोनों राज्यों में सत्तारूढ़ तथा केंद्र मेंं विपक्ष की भूमिका निभाने वाली राजनीतिक पार्टियों ने आनन फानन में राहुल के प्रस्ताव के खिलाफ मोर्चा संभालते हुए इसे संघीय ढांचे का उल्लंघन एवं राज्यों के कामकाज में केंद्र का दखल निरूपित किया। ये ऐसे आरोप थे कि अन्य राज्यों में सत्तारूढ़ राजनीतिक दल भी प्रस्ताव के विरोधियों के साथ लामबंद हो गये। मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने राहुल की इस पहल को बचकाना बताया तो उप्र में बसपा और सपा ने उसे क्षुद्र राजनीतिक चाल बताया। इनके गुस्से की बानगी संसद में भी देखी गई जहां हंगामे की वजह से संसद की कार्रवाई भी अवरुद्ध हो चुकी है। दिलचस्प बात यह है कि केंद्र सरकार ने संसद में स्पष्टï घोषणा कर दी कि इस आशय का कोई प्रस्ताव सरकार के विचाराधीन नहीं है लेकिन विरोध थमने का नाम ही नहीं ले रहा। हकीकत तो यह है कि इस मामले में विभिन्न दलों द्वारा अपनी अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने का प्रयास किया जा रहा है। जहां तक कांग्रेस की बात है, इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि राहुल की इस पहल के इर्द-गिर्द ही कांग्रेस बुंदेलखंड में अपनी राजनीतिक व्यूह रचना रचे और उसी के अनुरूप अपने कदम आगे बढ़ाए। दरअसल इस प्रस्ताव का राज्य सरकारों एवं अन्य दलों द्वारा किया जा रहा विरोध राहुल गांधी एंड कंपनी के लिए मुंह मांगी मुराद की तरह ही है। कांग्रेस को इस विरोध की वजह से यह प्रचार करने में सहूलियत होगी कि कांग्रेस ने तो बुंदेलखंड क्षेत्र के संपूर्ण विकास के लिए ही प्राधिकरण का गठन और 9000 करोड़ के पैकेज की पहल की थी लेकिन इन राज्यों की सरकारों के विरोध के वजह से यह प्रस्ताव अवरुद्ध हो गया। इसमें लेशमात्र भी संदेह नहीं है कि समूचे बुंदेलखंड को मिलाकर अलग राज्य के गठन की मांग काफी लंबे समय से उठती रही है जिसे वहां की जनता का भरपूर समर्थन हासिल है। यह प्राधिकरण इस मांग की दिशा में शुरुआती कदम हो सकता है। गौरतलब है कि छत्तीसगढ़, उत्तरांचल जैसे राज्यों के गठन के बाद इन क्षेत्रों का विकास तेज गति से हुआ है राहुल गांधी का प्रस्ताव बुंदेलखंड के लोगों की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करता है। गौरतलब है कि पिछले चार सालों से संपूर्ण बुंदेलखंड क्षेत्र भयावह सूखे से कराहता रहा है, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में काफी बड़े पैमाने पर पलायन हुआ है। हालांकि दोनों राज्यों की सरकारों ने अपनी क्षमता के अनुसार इस संकट से निपटने के लिए बुंदेलखंड को आर्थिक मदद दी है लेकिन वह इतनी अपर्याप्त रही जैसे ऊंट के मुंह में जीरा। इसके फलस्वरूप इन क्षेत्रों में राज्य सरकारों के प्रति लोगों में नाराजी बढ़ी है। केन्द्र ने यहां भी राजनीति करते हुए इन राज्यों की पुरजोर गुहार के बावजूद उस समय बुंदेलखंड के लिए कोई पैकेज नहीं दिया और इस तरह प्रकारांतर से राज्य सरकारों की अलोकप्रियता को बढ़ाने में मदद दी। संपूर्ण बुंदेलखंड को एक अलग प्रशासनिक इकाई के रूप में मान्यता दी जाए और इसके तमाम संसाधनों को इसके विकास पर खर्च किया जाए तो क्षेत्र में विकास तथा गरीबी-उन्मूलन की उम्मीद की जा सकती है। राहुल द्वारा प्रस्तावित प्राधिकरण इसका मार्ग प्रशस्त कर सकता है इसका अहसास उप्र एवं मप्र की सरकारों को भी है। उन्हें लगता है कि यदि बुंदेलखंड विकास प्राधिकरण की बेल मड़वे चढ़ी तो कांग्रेस इससे पैदा होने वाली राजनीतिक फसल को काट सकती है जो उनके राजनीतिक हितों पर जबर्दस्त कुठाराघात होगा।भाजपा,बसपा एवं सपा भी अपने वोट बैंक में सेंध लगने के डर से बुंदेलखंड प्राधिकरण का विरोध कर रही है। बुंदेलखंड विकास प्राधिकरण का गठन तथा इस क्षेत्र के लिए विशेष पैकेज की पहल और इसका विरोध दोनों ही सियासती दावपेंच से जुड़े हैं। केंद्र एवं राज्यों में सत्ता एवं विपक्ष की अलग अलग भूमिका निभा रहे ये दल यदि वास्तव में बुंदेलखंड की जनता के हितैषी हैं तो फिर उन्हें अपना रुख राजनीतिक तराजू में तौलकर तय नहीं करना चाहिए। यदि बुंदेलखंड विकास प्राधिकरण के जरिये इस क्षेत्र के लोगों के विकास का सपना सच हो सकता है तो फिर उसे सियासती हथियार के तौर पर इस्तेमाल नहीं होना चाहिए और सियासी कारणों से इसका समर्थन एवं विरोध बंद होना चाहिए। आदर्श स्थिति तो यह होगी कि केंद्र सरकार इस मामले में दोनों राज्य सरकारों को विश्वास में ले ताकि इस महत्वपूर्ण पहल पर क्षुद्र राजनीति बंद हो और यह बुंदेलखंड की खुशहाली का प्रभावी उपकरण बन सके।
सर्वदमन पाठक

Monday, August 3, 2009

'सांस्कृतिक पुलिसिंगÓ की बेजा कोशिश


भारतीय संस्कृति को अपने नजरिये से परिभाषित करने तथा उसके अनुरूप सामाजिक आचरण के लिए उत्तेजनापूर्ण मुहिम चलाते रहने के लिए बजरंग दल एवं उनके करीबी संगठन पहले से ही अपनी अलग पहचान रखते हैं। इधर राज्य में भाजपा सरकार के सत्ता में आने के बाद वैचारिक समानता के कारण उनके इस जुनून को काफी बढ़ावा मिला है। कान्हा फन सिटी में रेन डांस के दौरान हुआ हंगामा इसी जुनून का एक नमूना है। इस सनसनीखेज घटनाक्रम में संस्कृति बचाओ मंच के लगभग सौ कार्यकर्ताओं ने रेन डांस को बंद करने की मांग करते हुए पथराव कर वहां अफरातफरी फैला दी। इसके बाद पहुंचे बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने अव्यवस्था की रही सही कसर पूरी कर दी। इन कार्यकर्ताओं को इस बात पर ऐतराज था कि इसमें मुंबई से बार बालाएं बुलाई गई हैं और इसमें बिना अनुमति के शराब परोसी जा रही है। पुलिस मूकदर्शक बनी इस घटना को देखती रही और उसने बजरंग दल एवं संस्कृति बचाओ मंच के हिंसा पर उतारू कार्यकर्ताओं को नियंत्रित करने की कोई कोशिश नहीं की। अलबत्ता पुलिस ने जिस ताबड़तोड़ तरीके से फन सिटी के दर्शकों एवं आयोजकों से पूछताछ कर हड़कंप मचाया उससे दर्शकों में भगदड़ अवश्य मच गई। थाने में भी इन कार्यकर्ताओं का हंगामा तब तक शांत नहीं हुआ जब तक कि उनके दोनों आरोपों को पुलिस ने नकार नहीं दिया। पुलिस ने अपनी पूछताछ में पाया कि इस आयोजन में शराब परोसने की अनुमति बाकायदा प्रशासन द्वारा दी गई थी और इस रेन डांस में भाग लेने वाली मुंबई की बार गर्ल नहीं बल्कि भोपाल की रहने वाली लड़कियां थीं। इस रेन डांस पर यह ऐतराज अवश्य हो सकता है कि ये डांस काफी अश्लील था और बजरंग दल कार्यकर्ताओं की इस दलील में कुछ भी गलत नहीं है कि रेन डांस अथवा अन्य किसी नाम पर किये जाने वाले अश्लील डांस पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए। यदि वे मानते हैं कि इससे समाज में विकृतियां फैलने का खतरा होता है तो यह उनका हक है कि वे इसे रोकने के लिए कानून संगत तरीके से कोशिश करें। मध्यप्रदेश में ऐसी सरकार है जो कि उनके जैसे ही वैचारिक सांचे में ढली है। वे अपनी इस विशिष्टï स्थिति का फायदा उठाते हुए उनकी नजर में अश्लील एवं भारतीय संस्कृति को लज्जित करने वाले किसी भी कार्यक्रम पर पाबंदी लगवा सकते हैं बशर्ते कि यह कार्रवाई कानून सम्मत एवं न्यायसंगत हो। लेकिन इसके लिए कानून हाथों में लेना कहां तक उचित है? आखिरकार ऐेसे उत्पात से राज्य सरकार की ही छवि धूमिल हो रही है अत: राज्य सरकार को ऐसी गैरकानूनी तथा हिंसक हरकतों पर अंकुश लगाने के लिए चाक चौबंद व्यवस्था के निर्देश देने चाहिए। पुलिस को भी अपनी जिम्मेदारी ईमानदारी से निभाना चाहिए। यदि ऐसे कार्यक्रम कानून के अनुरूप न हों सामाजिक विद्रूपता को बढ़ावा देने वाले हों तो उन पर रोक लगाने की कार्रवाई बिना हिचक के की जानी चाहिए लेकिन किसी को कानून हाथ में लेने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए।
-सर्वदमन पाठक