Friday, December 4, 2009

सियासत की गोटियां नहीं हैं गैस पीडित

सन 1984 को 2 एवं 3 दिसंबर की मध्यरात्रि भोपाल के लिये पीड़ा का सैलाब लेकर आई। इस रात को यूनियन कार्बाइड के संयंत्र से रिसी मिक गैस ने राजधानी में ऐसा वायु प्रलय मचाया कि यह झीलों का शहर आहों और आंसुओं की नदी में तब्दील हो गया। उस जानलेवा रात शहर में मौत नाच नाच कर मातम की मुनादी कर रही थी और शहर के तमाम लोग बदहवास से जान बचाने के लिए चारों तरफ भाग रहे थे। इस काली रात की सुबह हुई तो तमाम दुनिया यह जान चुकी थी कि बहुराष्टï्रीय कंपनी यूनियन कार्बाइड ने भोपाल की तकदीर में औद्योगिक त्रासदी के रूप में ऐसी भयावह इबारत लिख दी है कि जिसकी मिसाल दुनिया में नहीं मिलती। शहर के श्मसान एवं कब्रिस्तान भी मौत के आगोश में समाये बदकिस्मत लोगों के अंतिम संस्कार के लिए छोटे पड़ गए और मौत द्वारा फैलाए गए इस जाल से किसी तरह बच निकले लाखों लोगों में से बहुत से लोग आज भी ऐसी जिंदगी जीने को मजबूर हैं जो मौत से भी बदतर है। गैस त्रासदी की बरसी आते ही इन गैस पीडि़तों के घाव पर मरहम लगाने के नाम पर उन्हें मुआवजे, पुनर्वास तथा मुफ्त चिकित्सा उपलब्ध कराने जैसे कदमों की जानकारी वाले ब्रोशर जारी कर राज्य सरकारें अपनी पीठ थपथपाने की कोशिश कर लेती हैं लेकिन यक्ष प्रश्र यह है कि क्या इन गैस पीडि़तों को उनका हक मिल पाया है। इन गैस पीडि़तों को मुआवजा इस अंदाज में बांटा गया है मानो उनके आत्म सम्मान की बोली लगाई जा रही हो। आज भी अस्पतालों की अव्यवस्था इतनी भयावह है कि ये अस्पताल कई बार तो गैस पीडि़तों के यातनागृह नजर आते हैं। गैस प्रभावित बस्तियों में श्वास तथा अन्य कई गंभीर बीमारियों के कारण रेंगती जिंदगियां हर कदम पर देखी जा सकती हैं। अभी कल ही जारी हुई ईएसई की रिपोर्ट के अनुसार यूका कचरे के कारण इन बस्तियों का भूजल भी इतना जहरीला हो गया है कि आने वाली पीढिय़ों पर भी धीमी मौत का खतरा मंडराने लगा है। हम हर साल गैस कांड की बरसी पर मशाल जुलूस निकालकर और जंगी प्रदर्शन करके -डाउन विथ एंडरसन- तथा -मौत के सौदागरों को फांसी दो- जैसे नारे लगाते हैं लेकिन इस मुकदमे का यह आलम है कि गैस कांड के आरोपी मौत के सौदागर आज भी बेखौफ घूम रहे हैं। लोगों की धारणा है कि बहुराष्टï्रीय कंपनियों एवं सत्ता के बीच मिलीभगत भी इस विलंब के लिए जिम्मेदार है। इस मामले में कोई भी सरकार दूध की धुली नहीं रही है। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि विभिन्न राजनीतिक दल गैस पीडि़तों के नाम पर अपनी वोट बैंक की राजनीति साधने की कोशिश में जुटे हुए हैं। गैस पीडि़तों के ध्वजवाहक होने का दावा करने वाले कुछ संगठन भी जाने-अनजाने इसमें मददगार हो रहे हैं जो गैस पीडि़तों के साथ छल के अलावा कुछ नहीं है। इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि गैस पीडि़तों के हक की लड़ाई कमजोर पड़ रही है। उम्मीद की जानी चाहिए कि गैस कांड की पच्चीसवीं बरसी पर तो कम से कम सरकार, गैसपीडि़तों के संगठन, राजनीतिक दलों सहित वे तमाम पक्ष, जो खुद को गैसपीडि़तों का मसीहा बताते नहीं थकते, आत्म विश्लेषण एवं आत्मालोचन करेंगे और ईमानदारी से संकल्प करेंगे कि वे तब तक चैन की सांस नहीं लेंगे जब तक कि गैसपीडि़तों को पूरी तरह न्याय नहीं मिल जाता।

-सर्वदमन पाठक

No comments:

Post a Comment