Thursday, December 13, 2012


 अन्नदाता की मौतों पर राजनीति

सर्वदमन पाठक

यह विडंबना ही है कि किसान एक बार फिर राजनीति की बिसात पर मोहरे की तरह इस्तेमाल हो रहा है। मध्यप्रदेश विधानसभा में किसानों की खुदकुशी पर सरकार को घेरने का कांग्र्रेस का प्रयास और सत्ता पक्ष द्वारा इसका प्रतिकार इसी तरह की राजनीति का हिस्सा है। सदन में प्रश्नकाल के दौरान सरकार द्वारा दिया गया जवाब इस राजनीति की वजह बन गया है। इस जवाब में सरकार ने स्वीकार किया है कि राज्य में पिछले आठ माह में 655 किसानों तथा 886 कृषि मजदूरों ने खुदकुशी की है। प्रकारांतर से कहा जाए तो सरकारी आंकड़ों के अनुसार राज्य में प्रतिदिन आठ किसान और कृषि मजदूर मौत को गले लगा रहे हैैं। विपक्ष का आरोप है कि किसानों के प्रति सरकार की संवेदनहीन नीतियों के कारण वे खुदकुशी करने को मजबूर हो रहे हैैं वहीं सरकार का दावा है कि इनकी खुदकुशी की वजह कृषि संबंधी परेशानियां नहीं हैं, बल्कि वे अन्य कारणों से आत्महत्या कर रहे हैैं। विधानसभाध्यक्ष ईश्वरदास रोहाणी ने किसानों की खुदकुशी को व्यवसाय से न जोड़े जाने की बात की जिसका यही निहितार्थ था कि इस मामले को राजनीति से जुड़ी निर्मम बहस से बाहर निकालने तथा इसे मानवीय पहलू से देखने की जरूरत है लेकिन उनकी इस समझाइश को सत्ता एवं विपक्ष दोनों ने ही अनसुना कर दिया।
यदि तथ्यों के प्रकाश में अन्नदाताओं की मौतों का विश्लेषण किया जाए तो विरोधाभासी दृश्य उभरकर सामने आता है। सरकार ने अपने कार्यकाल में किसानों के हित में कई योजनाएं एवं कार्यक्रम चलाए हैैं। किसानों को ब्याजमुक्त ऋण जैसे कई कार्यक्रम इसके गवाह हैैं। सरकार का दावा है कि पिछली कांग्र्रेस सरकार की तुलना में उसने किसानों को काफी सुविधाएं मुहैया कराई हैैं। लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है। राज्य सरकार की योजनाओं का उद्देश्य भले ही किसानों की मदद करना हो लेकिन इनमें जमकर भ्रष्टाचार हुआ है और इसी वजह से इन योजनाओं का लाभ किसानों को समुचित रूप से नहीं मिल पाया है। किसानों के लिए आवंटित भारी भरकम राशि का एक बड़ा हिस्सा भ्रष्ट अफसरों तथा भ्रष्ट नेताओं की जेब में चला गया और इसका परिणाम यह हुआ कि किसानों पर बदकिस्मती का साया ज्यों का त्यों बना रहा। इतना ही नहीं, फसलों के मौसम में किसानों को कम बिजली मिलने से वे अपेक्षा से काफी कम फसल ही ले सके। नकली बीज और खाद की आपूर्ति में भारी किल्लत ने उनकी परेशानियों को दुगना कर दिया। चूंकि किसानों की पूरी अर्थव्यवस्था कृषि पर ही निर्भर करती है और अच्छी फसलों की आशा में वे कर्ज ले लेते हैैं इसलिए फसलों की बर्बादी से उन पर विपत्ति आना स्वाभाविक ही था। अवसाद की ऐसी ही स्थिति उनकी खुदकुशी का कारण बनी हो, इस संभावना से पूरी तरह इंकार नहीं किया जा सकता।
यह सही है कि प्रदेश के किसानों में असंतोष की एक लहर सी उठती देखी जा रही है और विपक्ष किसानों के इस असंतोष को भुनाने में जुटा हुआ है। किसानों की खुदकुशी का मुद्दा उछालने के पीछे भी उसकी यही रणनीति काम कर रही है लेकिन राज्य सरकार इस संवेदनशील मामले से जिस संवेदनहीन तरीके से निपटने की कोशिश कर रही है, वह उसके लिए आत्मघाती ही है। किसानों की खुदकुशी की यदि समुचित जांच की जाए तो उसके कारणों का पता लगाया जा सकता है और कृषि संबंधी कारणों से जिन किसानों की मौतों की बात जांच में उजागर होती है उन्हें मुआवजा देकर सरकार कुछ हद तक किसानों की सहानुभूति हासिल कर सकती है। इससे किसान पुत्र मुख्यमंत्री की छवि तो निखरेगी ही, ग्र्रामीण क्षेत्रों में सरकार के पक्ष में वातावरण बनाने में भी मदद मिलेगी। अच्छा यही होगा कि किसानों को राजनीतिक मोहरे के रूप में इस्तेमाल करने के बदले सत्ता और विपक्ष उनकी पीड़ाओं पर मरहम लगाने तथा उनकी मुश्किलों को हल करने के लिए मिलजुल कर सार्थक प्रयास करे।

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