कच्ची उमर में खून का जुनून
सर्वदमन पाठक
रायसेन के बरेली कस्बे में एक स्कूली छात्रा द्वारा मामूली विवाद पर अपनी दोस्त को जिंदा जला डालने की वारदात ने लोगों को सिहरा कर रख दिया है। एक ही कालोनी में आसपास रहने वाली इन छात्राओं के बीच कुछ हजार रुपयों की चोरी को लेकर कुछ समय से विवाद अवश्य चल रहा था लेकिन इस विवाद का अंजाम इतना भयावह होगा, यह तो कोई सोच भी नहीं सकता था। आरोपी किशोरी ने खुद यह स्वीकार किया है कि उसपर तथा उसके परिजनों पर चोरी का इल्जाम लगाए जाने से वह काफी गुस्से में थी। घटना की इस पृष्ठभूमि से यही अनुमान लगाया जा सकता है कि संभवत: आरोपों से परिवार की प्रतिष्ठा पर लगे आघात के कारण वह बदले की आग में जल उठी और उसने यह कदम उठा लिया। हालांकि आग से झुलसी छात्रा ने इससे इंकार किया है। बहरहाल कोई किशोर वय की बच्ची ऐसी बात से अपना दिमागी संतुलन इस हद तक खो देगी और अपनी ही दोस्त को केरोसिन डालकर आग के हवाले कर देने जैसी दर्दनाक मौत देने की कोशिश पर आमादा हो जाएगी, यह कल्पना ही कंपकंपी पैदा कर देने वाली है। अभी यह जानकारी नहीं मिली है कि क्या उक्त आरोपी किशोरी के परिवार की कोई आपराधिक पृष्ठभूमि है लेकिन इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि उसके दिमाग के किसी न किसी कोने में मनोवैज्ञानिक विकृति के बीज पहले से ही मौजूद रहे हों जिसकी वजह से उसके दिमाग में यह शैतानी ख्याल आया और सुनियोजित तरीके से इसे अंजाम देने में उसके हाथ भी नहीं कांपे। सामान्य रूप से परिष्कृत वातावरण में पले बढ़े बच्चे ऐसी जघन्य वारदात का दुस्साहस नहीं कर सकते। वैसे पिछले कुछ समय से स्कूली छात्रों द्वारा जघन्य अपराधों में लिप्त होने की घटनाएं बढ़ रही हैैं। मनोवैज्ञानिकों के लिए यह एक चिंता का विषय है कि आखिर पढऩे लिखने की छोटी उमर में अपराधों की ओर उनका रुझान क्यों बढ़ रहा है। उत्तेजना के अतिरेक में बहकर ऐसे अपराधों को अंजाम दे देना छात्रों के व्यवहार में पनप रहे गंभीर असंतुलन का परिणाम है और इसके लिए आज का माहौल ही अधिक जिम्मेदार है। दरअसल आर्थिक मजबूरियों की वजह से माता पिता अपनी व्यासायिक जिम्मेदारियों में इतने मशगूल रहते हैैं कि बच्चों की परवरिश पर ध्यान नही दे पाते। इतना ही नहीं, सांस्कृतिक अवमूल्यन के इस दौर में परिवार के भीतर भी माहौल तेजी से बिगड़ रहा है जिसकी वजह से बच्चों के मानस पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है और वे अपराध के रास्ते पर चल निकलते हैैं। दर्शकों में सनसनी तथा उत्सुकता पैदा करने के लिए फिल्मों तथा टीवी सीरियलों की विषय वस्तु में अपराध-कथाओं का खासा समावेश किया जा रहा है। किशोरों का कच्चा मन इनसे स्वाभाविक रूप से प्रभावित होकर अपराध की ओर प्रवृत्त हो जाता है। दरअसल अधिक से अधिक संसाधन जुटाने तथा आधुनिकता के नाम पर क्लब कल्चर जैसी पाश्चात्य जीवन शैली को अपनाने की अंधी दौड़ में हम उन किशोरों की अनदेखी कर रहे हैैं, जो देश के कल के नागरिक हैैं। यही अनदेखी किशोरों के कच्चे मन पर गहरा प्रतिकूल मनोवैज्ञानिक प्रभाव छोड़ रही है और इसके परिणाम स्वरूप वे अपराधी मानसिकता के शिकार हो रहे हैैं। हम यदि किशोर वय के बच्चों को संगीन जुर्म की गली में जाने से रोकना चाहते हैं तो हमें उनके पारिवारिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक परिवेश को परिष्कृत करना होगा।
सर्वदमन पाठक
रायसेन के बरेली कस्बे में एक स्कूली छात्रा द्वारा मामूली विवाद पर अपनी दोस्त को जिंदा जला डालने की वारदात ने लोगों को सिहरा कर रख दिया है। एक ही कालोनी में आसपास रहने वाली इन छात्राओं के बीच कुछ हजार रुपयों की चोरी को लेकर कुछ समय से विवाद अवश्य चल रहा था लेकिन इस विवाद का अंजाम इतना भयावह होगा, यह तो कोई सोच भी नहीं सकता था। आरोपी किशोरी ने खुद यह स्वीकार किया है कि उसपर तथा उसके परिजनों पर चोरी का इल्जाम लगाए जाने से वह काफी गुस्से में थी। घटना की इस पृष्ठभूमि से यही अनुमान लगाया जा सकता है कि संभवत: आरोपों से परिवार की प्रतिष्ठा पर लगे आघात के कारण वह बदले की आग में जल उठी और उसने यह कदम उठा लिया। हालांकि आग से झुलसी छात्रा ने इससे इंकार किया है। बहरहाल कोई किशोर वय की बच्ची ऐसी बात से अपना दिमागी संतुलन इस हद तक खो देगी और अपनी ही दोस्त को केरोसिन डालकर आग के हवाले कर देने जैसी दर्दनाक मौत देने की कोशिश पर आमादा हो जाएगी, यह कल्पना ही कंपकंपी पैदा कर देने वाली है। अभी यह जानकारी नहीं मिली है कि क्या उक्त आरोपी किशोरी के परिवार की कोई आपराधिक पृष्ठभूमि है लेकिन इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि उसके दिमाग के किसी न किसी कोने में मनोवैज्ञानिक विकृति के बीज पहले से ही मौजूद रहे हों जिसकी वजह से उसके दिमाग में यह शैतानी ख्याल आया और सुनियोजित तरीके से इसे अंजाम देने में उसके हाथ भी नहीं कांपे। सामान्य रूप से परिष्कृत वातावरण में पले बढ़े बच्चे ऐसी जघन्य वारदात का दुस्साहस नहीं कर सकते। वैसे पिछले कुछ समय से स्कूली छात्रों द्वारा जघन्य अपराधों में लिप्त होने की घटनाएं बढ़ रही हैैं। मनोवैज्ञानिकों के लिए यह एक चिंता का विषय है कि आखिर पढऩे लिखने की छोटी उमर में अपराधों की ओर उनका रुझान क्यों बढ़ रहा है। उत्तेजना के अतिरेक में बहकर ऐसे अपराधों को अंजाम दे देना छात्रों के व्यवहार में पनप रहे गंभीर असंतुलन का परिणाम है और इसके लिए आज का माहौल ही अधिक जिम्मेदार है। दरअसल आर्थिक मजबूरियों की वजह से माता पिता अपनी व्यासायिक जिम्मेदारियों में इतने मशगूल रहते हैैं कि बच्चों की परवरिश पर ध्यान नही दे पाते। इतना ही नहीं, सांस्कृतिक अवमूल्यन के इस दौर में परिवार के भीतर भी माहौल तेजी से बिगड़ रहा है जिसकी वजह से बच्चों के मानस पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है और वे अपराध के रास्ते पर चल निकलते हैैं। दर्शकों में सनसनी तथा उत्सुकता पैदा करने के लिए फिल्मों तथा टीवी सीरियलों की विषय वस्तु में अपराध-कथाओं का खासा समावेश किया जा रहा है। किशोरों का कच्चा मन इनसे स्वाभाविक रूप से प्रभावित होकर अपराध की ओर प्रवृत्त हो जाता है। दरअसल अधिक से अधिक संसाधन जुटाने तथा आधुनिकता के नाम पर क्लब कल्चर जैसी पाश्चात्य जीवन शैली को अपनाने की अंधी दौड़ में हम उन किशोरों की अनदेखी कर रहे हैैं, जो देश के कल के नागरिक हैैं। यही अनदेखी किशोरों के कच्चे मन पर गहरा प्रतिकूल मनोवैज्ञानिक प्रभाव छोड़ रही है और इसके परिणाम स्वरूप वे अपराधी मानसिकता के शिकार हो रहे हैैं। हम यदि किशोर वय के बच्चों को संगीन जुर्म की गली में जाने से रोकना चाहते हैं तो हमें उनके पारिवारिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक परिवेश को परिष्कृत करना होगा।
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