Monday, June 29, 2009

कैसे थमेगा मरीजों की मौतों का सिलसिला?

इन दिनों हमारे सरकारी चिकित्सालयों में चिकित्सा में किस कदर जानलेवा लापरवाही बरती जा रही है, सुल्तानिया अस्पताल में सोलह घंटे में हुई छह मौतें इसे ही बयान करती हैं। इस जनाना अस्पताल में पांच महिला मरीजों तथा एक बच्चे की मौत से जबर्दस्त दहशत का माहौल है। इन सिलसिलेवार मौतों से मरीजों तथा उनके परिजनों का अस्पताल पर से भरोसा उठ गया है और मरीजों में भगदड़ सी मच गई है। अस्पताल में डिस्चार्ज होने के लिए कुछ घंटे तक लगी रही मरीजों की लंबी लाइन इस बात की गवाह हैं कि अस्पताल में दाखिल मरीजों में अपने इलाज को लेकर आशंका घर कर गई है। दरअसल वास्तविकता यह है कि भोपाल के सबसे बड़े जनाना अस्पताल की सेहत काफी बिगड़ गई है और इससे पहले कि यह अस्पताल रूपी मरीज बेकाबू हो जाए, इसका समुचित इलाज जरूरी है। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि हमें उन लक्षणों का पता हो जिनकी वजह से यह अस्पताल रुग्ण है। यह कहना आसान है कि डाक्टर भगवान नहीं होता और जीवन एवं मौत ईश्वर के हाथ में होती है। लोग तो बीमारी के वक्त इसीलिए अस्पताल पहुंचते हैं कि वे डाक्टर को भगवान मानते हैं और यह भरोसा करते हैं कि डाक्टर भगवान की तरह ही उन्हें रोगमुक्त करेगा और उनके जीवन की रक्षा करेगा। यह संभव है कि डाक्टर की तमाम कोशिशों के बावजूद वह मरीज को न बचा सके लेकिन यदि इलाज में लापरवाही की वजह से मरीज की जान जाती है तो फिर इसके लिए इलाज करने वाले डाक्टर की जवाबदेही तय होनी ही चाहिए। 16 घंटे में छह मरीजों की मृत्यु को सिर्फ ईश्वर की इच्छा नहीं माना जा सकता। इतने गंभीर मामले में पर्याप्त जांच की जानी चाहिए और यदि इलाज में कोई लापरवाही का मामला सामने आता है तो फिर संबंधित डाक्टरों की जिम्मेदारी तय कर उन पर समुचित कार्रवाई सुनिश्चित की जानी चाहिए। इसके साथ ही अस्पताल की प्रतिष्ठïा पर इससे जो आघात लगा है, उसे बहाल करने के लिए हरसंभव उपाय किये जाने चाहिए। ये उपाय सुधारात्मक भी हो सकते हैं और दंडात्मक भी। प्रशासन ने इस दिशा में अपनी ओर से शुरुआत करते हुए अस्पताल अधीक्षक डा. नीरज बेदी को हटा दिया है। लेकिन यह कार्रवाई कुछ ऐसी ही है मानो दायें हाथ में मर्ज हो और बायां हाथ काट दिया जाए। प्रशासन ने इन मौतों में कोई चिकित्सकीय लापरवाही के प्रमाण नहीं पाए हैं लेकिन प्रशासनिक लापरवाही के कारण उन्हें सजा दे दी गई है। सवाल यही है कि क्या प्रशासनिक लापरवाही के कारण उन मरीजों की मौत हुई है?इस संबंध में अन्य पहलुओं पर भी विचार करना जरूरी है मसलन अस्पताल में जितने मरीजों के इलाज की क्षमता है और जितने मरीजों के हिसाब से यहां डाक्टरों का स्टाफ नियुक्त है, उससे काफी अधिक संख्या में यहां मरीजों का दाखिला होता है और स्वाभाविक रूप से उनका इलाज इन्हीं सीमित स्टाफ को करना होता है। आम तौर पर गंभीर महिला मरीजों को अन्य अस्पतालों से यहां रेफर किया जाता है तो फिर मौत जैसी त्रासदी की पूरी जिम्मेदारी इसी अस्पताल की कैसी मानी जा सकती है। प्रदेश में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र, जिला अस्पताल तथा स्पेश्यिलिटी अस्पताल का जो ढांचा है, उसे यदि सुदृढ़ता प्रदान की जाए तो बड़े अस्पतालों में भीड़ की समस्या का निदान किया जा सकता है। यदि यह अस्पताल लापरवाही का शिकार है तो इसके लिए ये कारण भी काफी हद तक जिम्मेदार हैं। अत: सिर्फ डाक्टरों को दोष देने और उन्हें दंडित करने से काम नहीं चलेगा बल्कि शासन प्रशासन को चिकित्सा एवं अन्य स्टाफ की भी समुचित व्यवस्था करनी होगी और उपरोक्त तमाम मुद्दों का समुचित समाधान खोजना होगा।
सर्वदमन पाठक

Thursday, June 25, 2009

जन सुनवाई: एक सार्थक पहल

भोपाल में जन सुनवाई का आयोजन कर पुलिस ने एक प्रशंसनीय पहल की है। इस पहल के तहत डीजीपी राउत सहित तमाम आला पुलिस अफसरों ने खुद जन सुनवाई में हिस्सा लिया और लोगों के मामलों को सुलझाने का प्रयास किया। जन सुनवाई में लोगों में काफी उत्साह देखा गया और नागरिकों ने इस अवसर का लाभ उठाते हुए पुलिस के समक्ष अपनी शिकायतें दर्ज कराईं और साथ ही पुलिस के व्यवहार को लेकर अपनी व्यथा भी बयां की। इनमें से अधिकांश लोग तो सिर्फ इसलिए व्यथित थे कि पुलिस थानों में उनकी रिपोर्ट नहीं लिखी गई। इस पहल से लोगों को यह अवसर मिला कि वे प्रदेश एवं जिले के सर्वोच्च पुलिस अधिकारी तक से रूबरू हो सकें और अपनी बात बिना किसी भय के कह सकें। यह सच है कि इस आयोजन में कई लोगों ने पुलिस के रवैये पर काफी असंतोष और आक्रोश व्यक्त किया और विभिन्न पुलिस अधिकारियों पर तो पक्षपात एवं रिश्वतखोरी के आरोप भी लगाये। ऐसे दोषारोपण में कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं था अगर कुछ आश्चर्यजनक थी तो वह थी पुलिस की सकारात्मक एवं पूर्वाग्रहरहित प्रतिक्रिया। वैसे पुलिस की छवि धूमिल होने के पीछे कई कारण हैं। जिनमें स्टाफ की कमी तथा संसाधनों का अभाव भी इसका प्रमुख कारण है। पुलिस के पास अपराधियों को पकडऩे तथा उनके खिलाफ कार्रवाई के लिए पर्याप्त बल नहीं होता। इस वजह से पैदल गश्त तो पूरी तरह से बंद कर दी गई है जो अपराधियों को पकडऩे में कारगर होती है। प्राय: देखा गया है कि अपराधियों से निपटने के लिए उनके पास अच्छे हथियार नहीं है। पहले कभी पुलिस जिस वाहन पर गश्त के लिए निकलती थी, वह मेटाडोर ही होती थी लेकिन अब उन्हें गश्त के लिए ज्यादातर मोटर साइकिलों का इस्तेमाल करते देखा जा सकता है। इतना ही नहीं, राजनीतिक एवं विशेषत: सत्ता के दखल के कारण पुलिस के हाथ बंध जाते हैं जिससे वास्तविक अपराधियों पर पुलिस हाथ नहीं डाल पाती। विभिन्न स्थानों पर मंत्रियों एवं राजनीतिक नेताओं की सिफारिश पर नाकाबिल पुलिस अफसरों की नियुक्तियां होती हैं जिससे पुलिस की कार्यप्रणाली में राजनीतिक पक्षपात की पूरी पूरी गुंजायश होती है हालांकि इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि कई पुलिस अफसरों के पक्षपात तथा भ्रष्टïाचार के कारण भी अपराधियों को संरक्षण एवं छूट मिल जाती है। कारण चाहे जो भी हों लेकिन इतना तो तय है कि अपराधियों तथा अपराध पर काबू न कर पाने के कारण पुलिस जनता के निशाने पर रहती है जो स्वाभाविक ही है। उम्मीद की जानी चाहिए कि जन सुनवाई के माध्यम से बिना किसी दबाव तथा पक्षपात के लोगों की शिकायतों को दूर करने का जो ईमानदार प्रयास पुलिस द्वारा किया गया है, इससे पुलिस के प्रति लोगों का नजरिया बदलने में मदद मिलेगी। सर्वदमन पाठक

Tuesday, June 23, 2009

कहीं संवैधानिक गतिभंग की ओर तो नहीं बढ़ रहा मध्यप्रदेश?

प्रदेश में कानून व्यवस्था के हालात तेजी से बिगड़ रहे हैं और राज्य सरकार उस पर काबू पाने में असफल सिद्ध हो रही है। अब तो राज्य संगठित अपराधों के सौदागरों की शरणस्थली में तब्दील हो चला है। सरकार एवं प्रशासन की जानी बूझी मूकदर्शिता ने कानून व्यवस्था की इस भयावहता में इजाफा किया है। इससे यही संदेह होता है कि सरकार की इस अकर्मण्यता के कारण मध्यप्रदेश कहीं संवैधानिक गतिभंग की गंभीर स्थिति की ओर तो नहीं बढ़ रहा है क्योंकि जहां राज्य सरकार राज्य में शांति कायम रखने तथा कानून व्यवस्था बनाए रखने के अपने संवैधानिक दायित्व को निभाने में असफल हो रही है वहीं नागरिकों का जीने का संवैधानिक अधिकार तक असुरक्षित हो गया है। भिंड मेें गत दिवस हुई इस घटना को ऐसे ही गंभीर संकेत के रूप में लिया जा सकता है जहां चार इंजीनियरों सहित छह लोगों का सरेआम अपहरण कर लिया गया। आश्चर्यजनक बात यह है कि कनेरा नहर परियोजना के अंतर्गत कार्यरत इन लोगों का अपहरण तब हुआ जब क्षेत्र में राज्य के कृषिमंत्री गोपाल भार्गव कृषि मेले का शुभारंभ कर रहे थे। इससे यह अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है कि या तो मंत्री के कार्यक्रम के बावजूद क्षेत्र में पर्याप्त पुलिस बंदोबस्त नहीं था या फिर पुलिस मंत्री की खातिर तवज्जो में इतनी व्यस्त थी कि आम लोगों की सुरक्षा की उसे कोई चिंता ही नहीं थी। आप कल्पना करें कि एक सरकारी नहर परियोजना के ठेकेदार को पहले तो बाकायदा धमकी दी जाती है और बाद में दस सशस्त्र लोग परियोजना स्थल पर आकर ठेकेदार से मारपीट करते हैं और छह लोगों का अपहरण कर ले जाते हैं लेकिन पुलिस ऐसी कुंभकर्णी निद्रा में सोई होती है कि उसका खोजी तथा गुप्तचर तंत्र इस गंभीर घटना की भनक पाने में तथा समय रहते ऐसी किसी भी घटना की संभावना को समाप्त करने के लिए आवश्यक कदम उठा सकने में पूरी तरह से नाकाम रहता है।इस मामले में पुलिस की अक्षमता की सबसे बड़ी स्वीकारोक्ति करते हुए खुद प्रदेश पुलिस के मुखिया श्री राउत ने बताया है कि अपहरणकर्ता उत्तरप्रदेश में भाग निकलने में कामयाब रहे हैं। यानी मध्यप्रदेश की पुलिस न केवल इस अपराध को समय रहते विफल करने में नाकाम रही बल्कि घटना के बाद क्षेत्र के चप्पे चप्पे में तैनात सौ सशस्त्र पुलिसकर्मी भी घटना को अंजाम देने के बाद भाग निकले अपराधियों को पकड़ नहीं सके। अभी दो दिन पूर्व ही भोपाल तथा जबलपुर में दो गेंगरेप में दो युवतियों की इज्जत तार तार कर दी गई। लेकिन भोपाल के बहुचर्चित गैंगरेप कांड में पुलिस तब हरकत में आई जब मुख्यमंत्री ने उसे कार्रवाई का अल्टीमेटम दे दिया। एक युवती पर बलात्कार का आरोपी लाल साईं कई महीनों तक खुला घूमता रहा लेकिन संभवत: राज्य सरकार के इशारे पर पुलिस जानबूझ कर निष्क्रिय बनी रही। अंतत: अदालती आदेश के बाद उसने थाने में आत्मसमर्पण किया। लेकिन पुलिस की यह बेशर्म दायित्वहीनता कुछ ऐसे सवाल छोड़ गई है जिसके उत्तर देना पुलिस के लिए आसान नहीं होगा।ये घटनाएं सिर्फ कुछ बानगी हैं। सच तो यह है कि प्रदेश लंबे समय से दिल दहला देने वाले अपराधों से जूझ रहा है। दबंगों द्वारा दलितों तथा गरीबों को शारीरिक तथा मानसिक यंत्रणा देने, उनके घर एवं खेत जला डालने और उनकी औरतों को बेइज्जत करने वाली घटनाएं जब तब घटती रहीं हैं लेकिन पुलिस ने कभी भी इन घटनाओं पर समुचित कार्रवाई की जरूरत महसूस नहीं की।संगठित अपराधियों के गिरोह और छिटपुट अपराधियों ने लोगों का जीना दूभर कर रखा है। और तो और, थाने में भी महिलाओं की इज्जत लूटे जाने और हवालात में बेकसूरों की मौत होने की घटनाएं भी अखबारों की सुखियों में रही हैं। अब निर्मम अपराधों से प्रदेश के लोग कराहने लगे हैं। दरअसल अपराधियों की वजह से लोगों का जीना तक मुहाल हो गया है। आखिर राज्य सरकार कब सुनेगी अपराधियों से त्रस्त लोगों की गुहार?
-सर्वदमन पाठक

Friday, June 19, 2009

नारी की इज्जत हो रही तार तार, कहां है सरकार?

क्या हम मध्ययुगीन दौर में जी रहे हैं जहां नारियों की यातना एवं यौन यंत्रणा आम बात थी। मध्यप्रदेश के वर्तमान माहौल को देखकर तो यही महसूस होता है। शायद ही ऐसा कोई दिन बीतता हो जब प्रदेश के किसी न किसी हिस्से में महिलाओं के साथ दुव्र्यवहार तथा शारीरिक व मानसिक यंत्रणा की कोई न कोई खबर सुनाई न देती हो। आम तौर पर दबंगों द्वारा दलित तथा कमजोर तबके महिलाओं के साथ मारपीट तथा इज्जत से खिलवाड़ की खबरें कमोवेश प्रतिदिन अखबारों की सुखियों में शामिल होती हैं। लेकिन अब इस मामले में पानी सर से ऊपर निकल रहा है। पिछले दिन ही प्रदेश में दो स्थानों पर महिलाओं से सामूहिक बलात्कार की घटनाएं हुई हैं जिनमें से एक घटना संस्कारधानी जबलपुर में हुई है तो दूसरी घटना देश की सांस्कृतिक राजधानी कही जाने वाली भोपाल नगरी में हुई है जहां प्रदेश की तमाम आला सरकारी एवं प्रशासनिक हस्तियों का जमावड़ा रहता है। यह आश्चर्य ही है कि सरकार की नाक के नीचे बिना किसी खौफ के कुछ अपराधी युवकों ने एक दंपत्ति को अपनी कार में अगवा कर दिया और पुरुष की कनपटी पर पिस्तौल अड़ाकर उसकी पत्नी के साथ बलात्कार किया। बंबई निवासी उक्त दंपत्ति भोपाल के आसाराम बापू आश्रम में प्रवचन सुनने के बाद जब जा रहे थे तभी उन युवकों ने उन्हें लिफ्ट देने के बहाने उन्हें अगवा कर यह घृणित कृत्य किया। स्वाभाविक रूप से अगवा करने की यह घटना जब हुई तब ज्यादा रात नहीं हुई होगी लेकिन पुलिस का आसपास कोई अता पता नहीं था जो इस घटना को घटित होने के पहले विफल कर देती। दरअसल ऐसी घटनाओं का कारण यही है कि पुलिस तथा प्रशासन में अब ऐसे अपराधों को रोकने के प्रति प्रतिबद्धता तथा इच्छाशक्ति नहीं है। सच तो यह है कि पुलिस आजकल अपराध एवं अपराधियों पर नियंत्रण करने के बदले उनके साथ गलबहियां करती है और अपराधियों को पनाह देने में अधिक रुचि लेती है। यह कौन नहीं जानता कि पुलिस और अपराधियों के बीच आर्थिक स्वार्थों के कारण ही यह अपवित्र गठजोड़ होता है। तब पुलिस से अपराधियों पर नियंत्रण की उम्मीद कैसे की जा सकती है। इस मामले में राज्य सरकार को भी कम जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि राज्य की कानून व्यवस्था की समूची जिम्मेदारी राज्य सरकार की ही है। प्रशासन यदि उक्त यौन अपराधों को नहीं रोक पाता और सरकार बेखबर एवं लापरवाह बनी रहती है तो यह सरकार की संवेदनहीनता का ही प्रमाण है। अपराधियों को राजनीतिक संरक्षण भी उसकी इस संवेदनहीनता का एक अहम कारण है। हमारा समाज यदि ऐसे अपराधों का प्रतिकार नहीं करता तो हम सभ्य समाज के सदस्य कैसे कहला सकते हैं। यदि हमें ऐसे घृणित अपराधों को रोकना है तो हमें शासन को महसूस कराना होगा कि वह समाज को यौन अपराधों से मुक्त कराने, महिलाओं को सम्मानजनक जीवन जीने का वातावरण उपलब्ध कराने तथा अपराधों पर नियंत्रण करने के अपने दायित्व का निर्वाह नहीं करता तो जन असंतोष का ज्वार सत्ता प्रतिष्ठïान के लिए खतरा भी बन सकता है। यदि उसे लोगों के इस आक्रोश से बचना है तो उसे समाज में शांति एवं कानून व्यवस्था कायम करने की अपनी जिम्मेदारी निभानी ही होगी।
सर्वदमन पाठक

Monday, June 15, 2009

दरकती धरती, सिकुड़ता आसमान

दूसरी पार्टियों से भिन्न पहचान रखने का दावा करते हुए खुद को गौरवान्वित महसूस करने वाली भाजपा इन दिनों पार्टी के अंदर ही भिन्न भिन्न नेताओं के बीच चल रहे घमासान के लिए ही ज्यादा चर्चित है। लोकसभा चुनाव में भाजपा की जबर्दस्त पराजय के कारण पार्टी के भीतर लोगों में इतनी निराशा और गुस्सा है कि दलीय अनुशासन के तटबंध तक ध्वस्त हो रहे हैं। भाजपा के इस महाभारत में ठीक उसी तरह से मर्यादाएं टूट रही हैं जैसी कि कभी द्वापर के महाभारत में टूटी थीं। इतना ही नहीं, हार के कारणों की चर्चा के बहाने भाजपा में काफी समय से पनप रही प्रतिस्पर्धा भी विस्फोट की शक्ल ले रही है। सबसे दिलचस्प तथ्य यह है कि इसमें दल के वे नेता ज्यादा मुखर हैं जो या तो खुद चुनावी रणनीतिकारों में शामिल थे या फिर जिनकी सोची समझी निष्क्रियता के कारण पार्टी को पराजय का इतना कड़वा स्वाद चखना पड़ा। मसलन सुधीन्द्र कुलकर्णी प्रधानमंत्री पद के दावेदार लालकृष्ण आड़वाणी के राजनीतिक सलाहकार होने के कारण खुद चुनाव की व्यूहरचना में शामिल थे लेकिन अब वे पार्टी पर वैचारिक हमले में सबसे आगे हैं। उनके इस हमले से भाजपा के बड़े वर्ग का उत्तेजित होना स्वाभाविक है क्योंकि इस हमले का निशाना पार्टी का वैचारिक आधार ही है। कुलकर्णी ने तो सीधे तौर पर भाजपा एवं आरएसएस के संबंधों को इस पराजय के लिए जिम्मेदार ठहराया है और पार्टी को मजबूत करने के लिए इन संबंधों पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत रेखांकित की है। उन्होंने पार्टी में अंदरूनी टकराव को भी पराजय के लिए उत्तरदायी ठहराया है। पार्टी के कद्दावर नेताओं ने भी इस महाभारत में अपना अपना मोर्चा संभाल लिया है और आरोपों के विष बुझे तीर चलाने शुरू कर दिये हैं। मसलन पूर्व विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने इस हार के लिए जिम्मेदार दलीय नेताओं पर कार्रवाई किये जाने के बदले उन्हें उपकृत किये जाने का आरोप लगाया तो उनका निशाना हाल ही में राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष बनाए गए अरुण जेटली थे। हालांकि खुद जसवंत सिंह ने जिस तरह से पार्टी के चुनाव अभियान में सार्थक हिस्सेदारी न करके अपना नकारात्मक योगदान दिया, यह कोई छिपी हुई बात नहीं है। इस संबंध में ताजा बयान पार्टी के एक और वरिष्ठï नेता यशवंत सिन्हा का है जिनकी राय है कि पराजय की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए पार्टी के तमाम पदाधिकारियों को सामूहिक रूप से इस्तीफा दे देना चाहिए और फिर ये पद चुनाव से भरे जाने चाहिए। उन्होंने खुद पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा दे दिया है। उनकी भी पीड़ा यही है कि पार्टी की पराजय के लिए जिम्मेदार नेता आज भी विभिन्न पदों से चिपके हुए हैं। अरुण जेटली के एक लेख ने भी पार्टी के लिए कुछ असुविधाजनक स्थिति बनाई है हालांकि वे भी पार्टी की चुनावी रणनीति में अहम भूमिका निभाते रहे हैं। आरएसएस के वरिष्ठï नेता एमजी वैद्य को संघ और भाजपा के दूरी बनाने की बात इतनी नागवार गुजरी है कि उन्होंने कहा कि भाजपा चाहे तो यह दूरी बना सकती है लेकिन तब संघ का भाजपा से कोई संबंध नहीं होगा। हालांकि भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने स्पष्टï कर दिया है कि भाजपा संघ से कभी भी दूरी नहीं रखेगी। कारण चाहे जो भी हों, लेकिन यह तो तय ही है कि इस करारी पराजय ने पार्टी के मनोबल पर काफी गहरा असर डाला है और यदि इसके कारणों पर गंभीर मंथन कर इनके निदान की कोशिश नहीं की गई तो आने वाले समय में भाजपा का संकट और गहरा सकता है।इन सभी निष्कर्षों में ये बातें समान ही हैं- पार्टी के घटते जनाधार पर चिंता का इजहार और पार्टी के अंदरूनी टकराव एवं मतभेदों का चुनाव पर नकारात्मक असर। सवाल यही है कि भाजपा के लिए चुनाव के परिणामों का वास्तविक निहितार्थ क्या है और पार्टी उससे क्या सबक लेती है। सच तो यह है कि पार्टी का जनाधार और उसके नेतृत्व का ताना बाना पिछले पांच सालों में क्षतिग्रस्त हुआ है। पार्टी को चार राज्यों- आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, पश्चिमी बंगाल तथा केरल की कुल 143 सीटों में से एक ही सीट मिली है। वैसे इन राज्यों में पार्टी का जनाधार पहले भी कम था लेेकिन इन राज्यों की क्षेत्रीय पार्टियां भाजपा नीत राजग गठबंधन का हिस्सा हुआ करती थीं और इस वजह से उनसे चुनावी गठबंधन द्वारा भाजपा और राजग का प्रदर्शन इतना निराशाजनक नहीं होता था। विशेषत: आंध्र तथा तमिलनाडु में तो अच्छी खासी सफलता भाजपा नीत गठबंधन के खाते में दर्ज होती थी। अब इन क्षेत्रीय दलों का भाजपा से मोहभंग हो चुका है और इसी वजह से न तो अपने बलबूते पर और न ही अपने सहयोगियों के भरोसे इन राज्यों में भाजपा की कोई उपस्थिति बची है। इस मोहभंग का सबसे बड़ा कारण यह है कि इन दलों को भाजपा के साथ जुडऩे से अपना मुस्लिम वोट बैंक छिटकने का खतरा नजर आने लगा था। उत्तर पूर्व में भी भाजपा का लगभग सूपड़ा साफ हो गया है। भाजपा के लिए यही चिंता की बात होनी चाहिए कि आखिर पिछले पांच वर्षों में ऐसा क्या हो गया कि इन दलों को भाजपा से यह खतरा क्यों महसूस होनेे लगा। क्या इन पांच सालों में भाजपा में आरएसएस का दखल इस हद तक बढ़ गया है कि बहुल संस्कृति वाले इस देश में अखिल भारतीय दल के रूप में विस्तार की संभावनाओं पर प्रतिकूल असर पडऩे लगा है। यह कौन नहीं जानता कि भाजपा आरएसएस की ही राजनीतिक शाखा है लेकिन राजनीतिक दल के रूप में भाजपा की भी कुछ मजबूरियां हैं। यदि देश की पहचान सर्वसमावेशी संस्कृति ही भाजपा के सामाजिक आधार का मुख्य हिस्सा नहीं बनी तो भाजपा समूचे राष्टï्र में अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज कराने में कैसे सफल हो सकती है। पूर्व में भाजपा तथा आरएसएस में सप्रयास इतनी तार्किक दूरी बनाकर रखी जाती थी कि संघ और भाजपा एक ही नजर न आएं और भाजपा के एजेंडे पर संघ हावी न हो लेकिन पिछले कुछ वर्षों में यह दूरी मिटती जा रही है और वर्तमान चुनाव परिणाम इस तथ्य की ओर इंगित करते हैं। पार्टी में पुराने एवं बुजुर्ग नेताओं की इस कदर भरमार हो गई है कि पार्टी का चेहरा थका हुआ नजर आने लगा है और 60 फीसदी युवा मतदाताओं वाले देश में यह भी पार्टी के लिए चुनाव की दृष्टिï से नकारात्मक असर वाला मुद्दा रहा है।पार्टी में उच्च स्तर पर कुछ नेताओं के जमे रहने से पार्टी के अन्य कई वरिष्ठï नेताओं में एक तरह की कुंठा उपज रही है और पार्टी के अंदर अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा मिल रहा है। इस चुनाव में भी पार्टी की चुनावी संभावनाओं को प्रभावित करने में इस अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा का भी हाथ रहा है। लेकिन सबसे चिंतनीय पहलू यही है कि अभी भी पार्टी आत्मचिंतन के लिए तैयार नहीं है। पार्टी हाईकमान अनुशासन के नाम पर इस ंिचंता के स्वर को दबाने और चुनावी परिणामों की समीक्षा के नाम पर सिर्फ औपचारिकता निभा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेना चाहती है। संघ और भाजपा दोनों के लिए यह परीक्षा की घड़ी है। यक्ष प्रश्र यही है कि क्या संघ अपने ब्रेन चाइल्ड को विकास के लिए समुचित देने को तैयार है और क्या भाजपा राजनीतिक दल के रूप में अपने विस्तार के आकाश को सीमित होते देखती रहेगी और इस मजबूरी की जंजीरों को तोडऩे के बदले ऐसी ही पराजय की विडंबनाओं को झेलती रहेगी। इन यक्ष प्रश्रों के उत्तर पर ही भाजपा का भविष्य निर्भर करेगा।
् -सर्वदमन पाठक

Saturday, June 13, 2009

संघ से संबंधों की समीक्षा करे भाजपा


-सुधीन्द्र कुलकर्णी
हाल के लोकसभा चुनाव के नतीजों ने भारतीय मतदाताओं के व्यवहार के बारे में मेरे दो विश्वासों को और मजबूत किया है। पहला, जिस लोकतंत्र में स्वतंत्र एवं निष्पक्ष तरीके से चुनाव होते हों, वहां चुनावी नतीजों में कहीं कोई गड़बड़ी नहीं हो सकती और भारतीय लोकतंत्र अपनी तमाम कमियों के बावजूद इस परंपरा का वाहक है कि यहां स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव होते हैं। दूसरे शब्दों में कोई भी दल या गठबंधन सिर्फ भाग्य के भरोसे चुनाव नहीं जीता है। उनकी विजय के पीछे निश्चित ही तार्किक आधार है और यह 15वीं लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस की विजय के बारे में भी सच है। मेरा दूसरा विश्वास यह है कि ऐसा कुछ अवश्य होता है जिसे राष्टï्रीय धारणा या राष्टï्र का सामूहिक विचार कहा जा सकता है और संपूर्ण राष्टï्र के तौर पर यही तर्क काम करता है। सामूहिक विचार की अवधारणा सामूहिक मनोविज्ञान और संगठनात्मक व्यवहार के अध्ययन की दृष्टिï से बहुत ही जटिल विषय है। देश मानव समूहों का एक स्वाभाविक संगठनात्मक ढांचा होता है और भारत जैसे जीवंत सभ्यता वाले देश में तो लोग खास परिस्थितियों में उनके लिए क्या अच्छा है यह भलीभांति जानते हैं। इसमें आंतरिक राजनीतिक स्थिति का सर्वे करके, विदेशी परिदृश्य का आकलन करके और विभिन्न विचारों को नापतौल कर देश के लोग किसी ठोस एवं विवेकशील निष्कर्ष पर पहुंचते हैं। यों तो चुनावों में तमाम जातिगत, सांप्रदायिक तथा क्षेत्रीय कारकों पर विस्तार से चर्चा होती है लेकिन इन सबसे परे राष्टï्रीय धारणा एवं विवेकशीलता के एकजुट स्वरूप द्वारा मतदाता अपना अंतिम फैसला देते हैं। मेरी राय के अनुसार हाल के चुनावों में राष्टï्रीय विचार परिवर्तन एवं स्थिरता के दो विकल्पों के बीच झूल रहा था। चूंंकि 2004 से 2009 के बीच कांग्रेस नीत यूपीए सरकार की उपलब्धियों में राष्टï्रीय रोजगार गारंटी योजना जैसी कुछ पहल को छोड़कर कुछ भी असाधारण नहीं था अत: परिवर्तन वक्त का तकाजा था। यूपीए सरकार का ट्रैक रिकार्ड कुछ पैमानों पर औसत और अधिकांश मायनों में निराशाजनक था। सिर्फ उपलब्धियों के आधार पर ही निर्णय किया जाता तो सरकार को जाना ही था लेकिन सिर्फ उपलब्धियों के आधार पर मतदाता शायद ही किसी सरकार को बेदखल करते हैं। वे टिकाऊ एवं स्थायी विकल्प भी चाहते हैं। चुनाव अभियान के दौरान टेलीविजन पर हुई कुछ बहसों में मैंने कहा था कि राजनीतिक दलों एवं टिप्पणीकारों से कहीं ज्यादा भारत के लोग केन्द्र की राजनीतिक स्थिरता को अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। इतिहास की घटनाओं के मद्ïदेनजर वे यह भलीभांति जानते हैं कि नई दिल्ली में केन्द्र सरकार की राजनीतिक अस्थिरता देश के लिए और उनकी खुद की दैनंदिन जिंदगी के लिए नुकसानदेह है। उनकी नजरों में कुछ हद तक विदेशी कारणों से उत्पन्न हुए आर्थिक संकट और भारत के पड़ोस, विशेषता पाकिस्तान में उथल पुथल को देखते हुए देश में स्थिर सरकार की कहीं ज्यादा जरूरत है। उनका मानना था कि अस्थिर गठबंधन सरकार का ध्यान अपने आंतरिक झगड़ों को सुलझाने और अपनी रक्षा में अपनी ऐनर्जी खर्च करने की ओर अधिक होगा, देश के सामने आसन्न चुनौतियों से निपटने में कम। देश के लोगों को उस समय सबसे ज्यादा खुशी होती जब स्थिरता के भरोसे के साथ सकारात्मक परिवर्तन के जोरदार संभावना होती। भाजपा एवं उसका गठबंधन लोगों की इन अपेक्षाओं को पूरा करने में विफल रहा। चार बड़े राज्यों- आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, केरल तथा पश्चिमी बंगाल में, जहां लोकसभा की कुल 143 सीटें हैं भाजपा की खुद की शक्ति लगभग शून्य रही। 2009 में इन राज्यों में भाजपा का कोई सहयोगी दल नहीं था और 1998 से 2004 के बीच राजग सरकार के दौरान भाजपा के जो सहयोगी दल इन राज्यों में थे, वे इस चुनाव में मुस्लिम वोटों को खोने की आशंका के कारण उसका साथ छोड़ गये थे। पिछले पांच सालों में इस आशंका को दूर करने के लिए भाजपा ने कुछ नहीं किया। इसके अलावा जब बीजू जनतादल ने इस वर्ष मार्च में भाजपा से नाता तोड़ा तो केन्द्र में स्थायी सरकार देने की भाजपा की शक्ति और क्षीण हो गई। इस प्रकार लोगों की यह धारणा बनी कि नई दिल्ली में यदि भविष्य में कोई भाजपा नीत गठबंधन की सरकार बनी तो वह अफरातफरी वाली सरकार होगी जो अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए गैर-कांग्रेस, गैर- कम्युनिस्ट दलों पर निर्भर होगी। भाजपा इसके बावजूद चुनावों में बेहतर प्रदर्शन करके इतनी सीटें ला सकती थी कि सरकार के बदलाव की जनता की उम्मीदों को वह प्रतिबिंबित कर सके। लेकिन कभी अनुशासित और एकजुट मानी जाने वाली इस पार्टी में केन्द्र तथा राज्यों के स्तर पर अंदरूनी टकराव और दरार इतनी भयावह थी कि नये समर्थकों को आकृष्टï करना तो दूर, इसके अपने समर्पित मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग ही इससे दूर हो गया। इसके विपरीत अनुवांशिक शासन तथा चापलूसी की संस्कृति की प्रतीक कांग्रेस में भाजपा की तुलना में कहीं ज्यादा एकजुटता प्रदर्शित हुई। मीडिया द्वारा भाजपा में एकजुटता की कमी को उछाले जाने के कारण इसके शासन तथा विकास के एजेण्डे के सकारात्मक पहलू भी पीछे चले गये। यही वजह थी कि भाजपा परिवर्तन की एजेण्ट और स्थिरता की गारंटर, दोनों ही पैमाने पर लोगोंं की उम्मीदों पर खरी नहीं उतर सकी। भाजपा की यही असफलता कांग्रेस की उपलब्धि बन गई। चूंकि वांछित परिवर्तन लोगों को असंभव लगने लगा इसलिए देश के लोगों ने स्थिरता को पसंद किया। कांग्रेस को लोगों ने मजबूरी में पसंद किया लेकिन उसे इतनी संसदीय शक्ति प्रदान की कि वह स्थायी सरकार दे सके। भाजपा के लिए आने वाले दिन बहुत ही मुश्किल हैं। उसकी समस्याएं बहुआयामी हैं। संसदीय चुनाव में पराजय के बाद भाजपा के लिए यह वक्त का तकाजा ही है कि विचारधारा, पार्टी की संगठनात्मक सेहत, विभिन्न स्तरों पर नेतृत्व, गठबंधनों का प्रबंधन तथा कई अन्य पहलुओं पर भाजपा पूरी ईमानदारी तथा निर्ममता के साथ आलोचनात्मक आत्मविश्लेषण करे। संघ से संबंधों को लेकर भी पार्टी को आत्म मंथन करना चाहिए। यदि भाजपा शार्टकट के बजाय राष्टï्रीय विचार से प्रेरणा ले तो पार्टी के लिए पूर्ववत शक्तिशाली बनना मुश्किल नहीं है। भाजपा अतीत में भी कई अग्रिपरीक्षाओं में कामयाब रही है और वह एक बार फिर इस अग्रिपरीक्षा में निश्चित ही सफल होगी।
प्रस्तुति: सर्वदमन पाठक

Wednesday, June 10, 2009

टूटे कई मुंगेरी लालों के हसीन सपने


मतदाताओं की चतुराई पर शंका जताने वाले राजनीतिक विश्लेषकों के लिए लोकसभा चुनाव के नतीजे करारा तमाचा हैं। जन अदालत ने अपने फैसले से कांग्रेस नीत यूपीए सरकार को बहुमत की दहलीज पर पहुंचाकर एक बार फिर सत्ता के कलश कंगूरे पर इठलाने का अवसर प्रदान कर दिया है, वहीं दूसरी ओर एनडीए की किस्मत में पराभव की ऐसी नियति लिख दी है जिससे वह अठारह वर्ष पहले जूझ रही थी। इतना ही नहीं, लालू तथा पासवान जैैसे बड़बोले नेताओं की हैसियत को जनता ने राजनीति के ड्राइंगरूम में सजे गुलदस्ते से उठाकर इतिहास के कूड़ेदान में फेेंक दिया है। विश्व राजनीति की वर्तमान सच्चाई की ओर पीठ करके चलने वाले वामपंथी दलों को परमाणु करार पर यूपीए सरकार से समर्थन वापिसी का इतना भारी खमियाजा उठाना पड़ेगा, इसकी उन्हें शायद ही कोई कल्पना रही होगी। केरल में उन्हें कांग्रेस के हाथों तगड़ी शिकस्त तो झेलनी ही पड़ी है लेकिन उन्हें अपने ही गढ़ पश्चिमी बंगाल में कांग्रेस-तृणमूल कांग्रेस गठबंधन के हाथों पराजित होने की जिस अनहोनी का सामना करना पड़ा है उससे आने वाले विधानसभा चुनाव में सत्ता खोने का खतरा उनके सिर पर मंडराने लगा है। उधर उड़ीसा में ऐन चुनाव से पहले भाजपा से किनाराकशी करने वाला नवीन पटनायक के नेतृत्व वाला बीजद विधानसभा चुनाव में जबर्दस्त कामयाबी हासिल कर पुन: सत्ता पर काबिज होने जा रहा है जबकि आंध्र में कांग्रेस के एक बार फिर सत्तासीन होने का रास्ता साफ होता दिख रहा है। कांग्रेस नीत यूपीए की इस चुनावी आंधी में प्रमुख विपक्षी दल भाजपा का घरोंदा इतनी बुरी तरह तबाह हो गया है कि खुद प्रधानमंत्री पद के दावेदार लालकृष्ण आडवाणी ने इस पराजय से घबराकर राजनीति से ही तौबा करने की पेशकश कर दी है। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश में कांग्रेस 21 सीटों पर जीत दर्ज कराकर सपा एवं बसपा के समकक्ष आकर खड़ी हो गई है और इस तरह उसने यह सिद्ध कर दिया है कि आने वाले समय में वह भी राज्य की सत्ता की प्रमुख दावेदार बन सकती है वहीं दूसरे सबसे बड़े राज्य बिहार में लालू पासबान का किला ढह जाने से कांग्रेस के प्रमुख प्रतिस्पर्धी दल के रूप में उभरने की संभावनाएं बलवती हो गई हैं। देश के दिल दिल्ली तथा देश की औद्योगिक राजधानी मुंबई में कांग्रेस नीत गठबंधन ने अपने प्रतिद्वंदी दलों का पूरी तरफ सफाया कर दिया है और रणबांकुरों का प्रदेश राजस्थान कांग्रेस के शौर्यपूर्ण प्रदर्शन के कारण भाजपा के सपनों का लाक्षागृह बनकर रह गया है। गुजरात एवं छत्तीसगढ़ में अवश्य ही भाजपा ने अपनी उम्मीद के अनुरूप प्रदर्शन किया हालांकि मध्यप्रदेश में उसका प्रदर्शन विधानसभा चुनाव की तुलना में काफी फीका रहा। जनता का यह फैसला भले ही अपने पूर्वाग्रह के चश्मे से देखने वाले दलों केे लिए समझ से परे हो लेकिन इसके निहितार्थ बिल्कुल ही स्पष्टï हैं। यह जनादेश विपक्ष के नकारात्मक चुनाव प्रचार के खिलाफ है जो सिर्फ सरकार की आलोचना पर ही केंद्रित था और जिसमें जनता के कल्याण के लिए किसी भी कार्यक्रम एवं नीतियों की कोई जगह नहीं थी। प्रधानमंत्री पर किये गये व्यक्तिगत हमले भी लोगों की नाराजी का एक बड़ा कारण बने और जनता ने इसे राष्टï्रीय गरिमा के खिलाफ मानते हुए राजग गठबंधन को अपनी वोट की ताकत से सबक सिखा दिया। मुद्रास्फीति में लगातार गिरावट के कारण महंगाई के मुद्दे पर विपक्षी हमलों की हवा निकल गई तो वहीं कंधार कांड के लिए बदनाम राजग के लिए आतंकवाद का मुद्दा बैक फायर कर गया। राजग के लिए एक मात्र तसल्ली की बात यह रही कि नीतीश सरकार द्वारा विकास तथा सामाजिक समरसता के लिए उठाए गए कदमों ने बिहार में राजग को एकतरफा जीत दिला दी।जनता ने यूपीए एवं विशेषत: कांग्रेस को ऐतिहासिक रूप से चमकदार सफलता दिलाकर मनमोहन सिंह के पुन: प्रधानमंत्री बनने के राह के तमाम कांटे हटा दिये हैं वहीं प्रधानमंत्री पद पाने के कुछ मुंगेरी लालों के हसीन सपनों को चकनाचूर कर उन्हेें यह संदेश दे दिया है कि अपनी महत्वाकांक्षाओं के आसमान में उडऩे के बदले राष्टï्र हित में वे नई सरकार के साथ सहयोग करें वरना उन्हें भी लोगों के प्रकोप का उसी तरह सामना करना पड़ सकता है जैसा कि इस चुनाव में विपक्ष को करना पड़ा है। -सर्वदमन पाठक

Tuesday, June 9, 2009

संकल्प शक्ति की धनी अंबिका सोनी

अंबिका सोनी अपनी प्रभावोत्पादक कार्यशैली तथा सूझबूझ से राजनीतिक विरादरी में सभी को चमत्कृत करती रही हैं और उनके इसी आकर्षण के कारण उन्हें मनमोहन सिंह के नेतृत्व में गठित नए मंत्रिमंडल में सूचना एवं प्रसारण मंत्री के रूप में विशेष दायित्व सौंपा गया है। दरअसल पिछली सरकार में बतौर पर्यटन एवं संस्कृति मंत्री उन्होंने इन्क्रेडिबल इंडिया की जो मार्केटिंग की और देश ेमें पर्यटन की संभावनाओं को विस्तार देने की कोशिश की, यह उनके इसी करिश्मे का पुरस्कार है। उनके पर्यटन मंत्री रहते ही देश ने विदेशी पर्यटकों को आकर्षित करने में 12 से 14 प्रतिशत की वृद्धि दर हासिल की। इसी दौरान पर्यटकों की सुरक्षा के लिए प्रभावी कदम उठाये गये और राज्यों को पर्यटन पुलिस बलों की स्थापना के लिये तैयार किया गया। हालांकि यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से उनके अंतरंग संबंध हैं क्योंकि कई ऐसे महत्वपूर्ण मौकों पर उन्होंने अपने रणनीतिक कौशल से ऐसी मुहिम को अंजाम दिया है जो पार्टी के लिए जरूरी थी। 13 नवम्बर 1943 को लाहौर में भारतीय सिविल सेवा के अधिकारी के घर जन्मी अम्बिका सोनी ने अपनी शिक्षा दीक्षा दिल्ली विश्वविद्यालय के इन्द्रप्रस्थ कॉलेज और क्यूबा में हवाना विश्वविद्यालय में हासिल की। सोनी पिछले लगभग 35 वर्ष से पूरी वफादारी से कांग्रेस से जुड़ी हुई हैं। उनकी इसी वफादारी और संगठन के प्रति समर्पण के मद्देनजर उन्हें पिछली बार मंत्री पद दिया गया था। वह पहली बार 1975 में युवा कांग्रेस की अध्यक्ष बनीं। 1976 में वह राज्यसभा की सदस्य बनीं और 1998 में पार्टी ने उन्हें अखिल भारतीय महिला कांग्रेस की अध्यक्ष बनाया। इसके अगले वर्ष उन्हें अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की महासचिव की जिम्मेदारी सौंपी गई। वर्ष 2004 में वह फिर राज्यसभा में आईं। पिछली सरकार में वह पर्यटन एवं संस्कृति मंत्री रहीं। इस बीच वह कई समितियों की सदस्य रह चुकी हैं। सोनी ने अक्टूबर 1961 में उदय सी सोनी से विवाह किया। उनके एक पुत्र है।अंबिका सोनी के साथ विवाद भी जुड़े रहे हैं। सच तो यह है कि उनका व्यक्तित्व इतना गतिशील है कि विवाद उनके साथ स्वाभाविक रूप से जुड़ जाते हैं। कांग्रेस में उनके प्रवेश के साथ विवादों का यह सिलसिला शुरू हुआ जो आज भी चल रहा है। दरअसल वे संजय गांधी की गतिशीलता से प्रभावित होकर कांग्रेस में आई थीं। सेतु समुद्रम योजना के मामले में सर्वोच्च न्यायालय में संस्कृति मंत्रालय द्वारा पेश किया गया वह हलफनामा भी काफी विवादास्पद रहा था जिसमें श्रीराम के अस्तित्व पर सवालिया निशान लगाया गया था। संस्कृति मंत्री के रूप में अंबिका सोनी को भी इस विवाद की आंच महसूस हुई थी। इसमें विशेष बात यह थी कि एक अन्य मंत्री जयराम रमेश ने इस मामले से पूरी तरह पल्ला झाड़ लिया था। महात्मा गांधी की धरोहर को भारत लाने के मामले में भी विवाद ने उन्हें घेर लिया। नीलामी में ये धरोहर हासिल करने वाले शराब निर्माता, विजय माल्या का कहना था कि यह उन्होंने अपनी इच्छा से किया था जबकि अंबिका सोनी के बयान के मुताबिक केन्द्र सरकार की रणनीति के तहत ही विजय माल्या ने उक्त धरोहर हासिल की थी। किसी शराब विक्रेता के मार्फत मद्यपान के घोर विरोधी महात्मा गांधी की धरोहर हासिल करने के सरकार के दावे के औचित्य पर भी सवाल उठाए गए लेकिन तमाम विवादों के बावजूद उन्होंने मंत्रिमंडल के सदस्य के रूप में अथवा कांग्रेस की अहम पदाधिकारी के रूप में सौंपे गये तमाम दायित्वों को उन्होंने बखूबी निभाया है।सूचना एवं प्रसारण मंत्री के रूप में भी उनकी जिम्मेदारियां और चुनौतियां कम नहीं हैं। प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रानिक मीडिया की बदलती भूमिकाओं से इन चुनौतियों में इजाफा हुआ है। इनवेस्टिगेटिव रिपोर्टिंग के कारण जहां प्रेस की प्रतिष्ठïा में इजाफा हुआ है। भ्रष्टïाचार तथा अनियमितताओं को रोकने के लिए शासन एवं प्रशासन में पारदर्शिता वक्त का तकाजा है और मीडिया के तमाम प्रयास इस हकीकत की ओर ही इशारा करते हैं। ऐसे में जरूरी है कि सरकार प्रेस की आजादी को नए परिप्रेक्ष्य में देखे और महसूस करे। लेकिन ऐसी रिपोर्टिंग से गोपनीयता के निजी अधिकार के हनन की संभावनाएं भी बढ़ी हैं। सरकार पर राजनीतिक एवं प्रशासनिक कारणों से प्रेस की आजादी पर प्रत्यक्ष एवं परोक्ष अंकुश रखने के लिए दबाव आते रहते हैं। सूचना एवं प्रसारण मंत्री के रूप में उनकी सबसे कठिन परीक्षा यह है कि वे इन दबावों को कैसे निष्प्रभावी करती हैं और प्रेस की आजादी को कैसे अक्षुण्ण रखती हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि वे अपनी इस भूमिका के साथ न्याय करेंगी। सर्वदमन पाठक

Sunday, June 7, 2009

मंत्री को रिश्वत


आज के माहौल में यह एक आश्चर्यजनक बात ही लगती है कि किसी मंत्री को रिश्वत दी जाए और वह न केवल उसे ठुकरा दे बल्कि मंत्री के दबाव के कारण रिश्वत आफर करने वाले अधिकारी एवं उससे जुड़े दलाल को पकडऩे के लिए पुलिस को कार्रवाई करनी पड़े लेकिन मध्यप्रदेश में घटित ऐसी ही खबर अखबारी सुर्खियों में रही है। इस खबर के अनुसार राज्य के लोक स्वास्थ्य मंत्री श्री गौरीशंकर बिसेन को भिंड के एक कार्यपालन यंत्री ने अपना निलंबन रद्द करने के लिए पांच लाख रुपए की रिश्वत देने की पेशकश की जिसका सूत्रधार कथित रूप से भाजपा का ही एक नेता था। चर्चा यही है कि श्री बिसेन ने अपनी ईमानदारी का परिचय देते हुए इस प्रयास को विफल कर दिया। यह एक अलग बात है कि लोगों को इस खबर पर भरोसा नहीं हो पा रहा है और इसका कारण यही है कि आजकल भ्रष्टïाचार सारे समाज में फैल गया है और इसका सबसे बड़ा स्रोत शासन- प्रशासन ही है। यदि यह कहा जाए कि आज की संसदीय व्यवस्था में सरकारें भ्रष्टïाचार की भागीरथी बन गई हैं और मंत्री इस भ्रष्टïाचार की धाराएं तो कतई अतिशयोक्ति नहीं होगी। राज्य की पिछली सरकारों और वर्तमान राज्य सरकार के मंत्रियों पर भी भ्रष्टïाचार के गंभीर आरोप लगते रहे हैं अत: मंत्रियों की ईमानदारी पर से लोगों का भरोसा ही उठ गया है। इस रिश्वत कांड की सच्चाई चाहे जो भी हो लेकिन मंत्रियों के चारित्रिक पतन के कारण लोग इस विरले मामले पर भी तरह तरह की चर्चाएं करने देखे जा रहे हैं जिनमें एक चर्चा यह है कि रिश्वत की राशि काफी कम थी इसलिए मंत्री जी को तैश आ गया। विशेषत: विपक्ष में बैठी कांग्रेस को, जिसकी सत्ता भ्रष्टïाचार का पर्याय ही बन गई थी, मंत्री की बात पच नहीं रही और उसे यह पूरा का पूरा मामला संदिग्ध लग रहा है। वैसे अब इस मामले में कोई भी पार्टी दूध की धुली नहीं रह गई है। जब सारे कुएं में भांग घुली हो तो फिर यह कल्पना ही मुश्किल लगती है कि एक मंत्री इस कदर ईमानदार होगा कि वह आई हुई लक्ष्मी को यों ठुकरा देगा। चाहे जो भी हो, यदि श्री बिसेन ने स्वप्रेरणा से ईमानदारी के ऐसे विरले पाए जाने वाले आचरण का परिचय दिया है तो वह स्वागत योग्य ही है। अच्छा हो कि यह सिलसिला आगे बढ़े और अधिक से अधिक मंत्रियों को यह सद्बुद्धि आए कि वे अपने जन-दायित्वों का पूरी ईमानदारी से निर्वाह करें वरना जन अदालत में उसे दंडित होने से कोई नहीं बचा सकेगा। -सर्वदमन पाठक

Saturday, June 6, 2009

वही अर्जुन, वही बाण......

मनुज बली नहीं होत है, समय होत बलवान।भीलन लूटी गोपिका, वही अर्जुन वही बाण॥
वर्तमान राजनीतिक घटनाक्रम ने यह सिद्ध कर दिया है कि महाभारत में अपने गांडीव की टंकार से विरोधियों का दिल दहला देने वाले द्वापर के अर्जुन ही नहीं बल्कि पिछले लगभग चार दशकों से मध्यप्रदेश एवं राष्टï्रीय राजनीति में चाणक्य सी पहचान रखने वाले सियासी पुरोधा अर्जुन की भी यही नियति है। मनमोहन सिंह के नेतृत्व में शुरू हो रही यूपीए मंत्रिमंडल की दूसरी पारी में अर्जुन सिंह को शरीक न किये जाने का फैसला यही संकेत देता है कि अपनी अचूक सियासी निशानबाजी के लिए जाने जाने वाले इस महारथी का राजनीतिक सफर अब अवसान के करीब है। उनके इस राजनीतिक पराभव का आभास दो माह पूर्व ही हो चला था जब वे लोकसभा चुनाव में अपने अनुयायियों को तो दूर, अपने पुत्र- पुत्री तक को लोकसभा का टिकट दिलाने में नाकामयाब रहे। इस फैसले का प्रतिकार करते हुए अर्जुन सिंह की पुत्री बीना सिंह ने अपने गृह निर्वाचन क्षेत्र से निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लडऩे की घोषणा की तो कांग्रेस आला कमान को यह संदेह होना स्वाभाविक था कि इसमें कहीं न कहीं खुद अर्जुन सिंह की मौन सहमति है। अर्जुन सिंह ने अपनी पुत्री के खिलाफ खुद प्रचार करने की बात कहकर इस संदेह को दूर करने की भरसक कोशिश की लेकिन वे तमाम कोशिशों के बावजूद इस संदेह को दूर करने में सफल नहीं हो सके और उनके आंसुओं ने उनकी विवशता और उनके पुत्री मोह दोनों को उजागर कर दिया। पार्टी हितों के खिलाफ काम करने के इन्हीं आरोपों की कीमत उन्हें केंद्रीय मंत्री का पद खोकर चुकानी पड़ी है। वैसे उनकी आत्मकथा में कही गई कुछ बातों से उठा विवाद भी कांग्रेस आलाकमान की नजरों में उनकी विश्वसनीयता को कम करने के लिए कम जिम्मेदार नहीं है। बहरहाल यह कोई रहस्य नहीं है कि मध्यप्रदेश तथा केंद्र में काफी मुश्किल दौर में कांग्रेस की विजय पताका को फहराने में उन्होंनेे अहम भूमिका निभाई है। लेकिन उन्होंने अपनी राजनीतिक कार्यशैली से जितने समर्थक बनाए , उससे कहीं काफी ज्यादा विरोधियों को पैदा किया और इसी वजह से उनका राजनीतिक ग्राफ भी काफी उतार चढ़ाव भरा रहा। मसलन 1985 में विधानसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री पद पर आरूढ़ होने के कुछ ही दिन बाद उन्हें पंजाब में आतंकवाद से निपटने के लिए गवर्नर बनाकर भेज दिया गया। उनके दामन पर चुरहट लाटरी कांड की बदनामी के छींटे भी पड़े । इस बदनामी की वजह से ही नवें दशक के अंतिम दौर में उन्हें मुख्यमंत्री पद छोडऩा पड़ा। कई बार तो निष्ठïाओं के कारण उन्हें नुकसान उठाना पड़ा। नरसिंह राव सरकार में भी वे मानव संसाधन विकास मंत्री रहते उन्होंने तिवारी कांग्रेस का गठन किया और इससे उनकी राजनीतिक साख को जो नुकसान पहुंचा, उसकी भरपाई कभी नहीं हो सकी। विभिन्न चुनावों में उनकी पराजय इसका जीता जागता प्रमाण है।मनमोहन सिंह सरकार में मानव संसाधन विकास मंत्री के तौर पर उन्होंने पाठ्यक्रमों में जो परिवर्तन किये, वह भाजपा की हिंदुत्ववादी विचारधारा के खिलाफ थे और इसी कारण वे भाजपा सरकारों के निशाने पर रहे। बहरहाल मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल से उनको बाहर रखा जाना यही दर्शाता है कि वे अब कांग्रेस आलाकमान के विश्वासपात्रों की सूची से बाहर हो चुके हैं और कांग्रेस की इस बेरुखी के कारण उनके सम्मानजनक राजनीतिक पुनर्वास की तमाम संभावनाएं क्षीण हो चुकी हैं। -सर्वदमन पाठक