यह भी एक विडंबना ही है कि भारत को मजहबों की संकीर्ण दीवारों में बांटने की सोची समझी साजिश के तहत राष्टï्र के गौरव चिन्हों के खिलाफ फतवे जारी किये जा रहे हैं और राष्टï्र की अस्मिता के झंडावरदार बनने वाले नेता खामोशी का रुख अख्तियार किये हुए हैं। यह सवाल देवबंद के दारुल उलूम द्वारा वंदेमातरम के खिलाफ जारी फतवे का जमायते उलेमा-ए-हिंद द्वारा समर्थन करने से उठ खड़ा हुआ है। इस मामले में सबसे अफसोस की बात यह है कि हमारे देश के गृहमंत्री पी चिदंबरम एवं एक अन्य मंत्री सचिन पायलट इस सम्मेलन में शिरकत करते हैं और इस फतवे के खिलाफ एक भी शब्द बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। इतना ही नहीं, सचिन पायलट तो बाकायदा इस फतवे का समर्थन करते हुए बोलते हैं कि इसे गाने के लिए किसी को विवश नहीं किया जा सकता। क्या ये मंत्री उस सरकार का प्रतिनिधित्व करने के अधिकारी हैं, जो पंथनिरपेक्षता के प्रति वचनबद्धता का दावा करते नहीं थकती। वंदे मातरम दरअसल भारत का गौरवगान ही है जिसे गाते हुए क्रांतिकारी राष्टï्र की आजादी के समर में हंसते हंसते अपने प्राणों की आहुति दे दिया करते थे। लेकिन आज आजादी के इसी तराने को देश को सांप्रदायिक आधार पर बांटने के नापाक इरादों के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। लेकिन इसका दोष सिर्फ इन सांप्रदायिक ताकतों को देना उचित नहीं होगा क्योंकि पिछले दो दशक से भारतीय राजनीति में आई तब्दीली भी इसके लिए जिम्मेदार है जिसके तहत हिन्दुस्तान में रहना होगा तो वंदे मातरम कहना होगा जैसे उत्तेजना फैलाने वाले नारों की बाढ़ आ गई थी। यदि इस गीत के ऐतिहासिक संदर्भ पर नजर डालें तो बंकिम चंद चटर्जी द्वारा रचित पुस्तक आनंदमठ का यह गीत इसमें भी एक क्रांति घोष ही है। यह भी एक विडंबना ही है कि मुस्लिम लीग ने देश के विभाजन के लिए वंदे मातरम के खिलाफ जो जहरीला अभियान चलाया था, आजाद भारत में भी कुछ राष्टï्रविरोधी मानसिकता के लोग इसे अपने सियासी फायदे के लिए जारी रखने की कोशिश कर रहे हैं। सच तो यह है कि वंदे मातरम के रूप में वे ऐसे मुद्दे को उठा रहे हैं जिसका समाधान राष्टï्र की आजादी के बाद हमारे संविधान में खोज लिया गया था। राष्ट्रीय गीत के खिलाफ जो तर्क पेश किए जा रहे हैं वही तर्क कभी मुस्लिम लीग ने देश के बंटवारे की मांग के समर्थन में गढ़े थे। मुस्लिम लीग ने 1940 में औपचारिक रूप से देश के बंटवारे की मांग से कुछ पहले ही वंदेमातरम के खिलाफ अभियान छेड़ दिया था। जिन्ना ने 1937 में मुस्लिम लीग कांफ्रेेंस में देश के विभाजन के लिए जो दलीलें रखी थीं उनमें राष्ट्रीय झंडे, वंदेमातरम और हिंदी का विरोध प्रमुख था। मुसलमानों को सांप्रदायिक रूप से हिंदुओं के खिलाफ खड़ा करने की साजिश के तहत जिन्ना ने यह दुष्प्रचार किया था कि झंडा, गीत और भाषा, तीनों ही हिंदुओं के प्रतीक चिह्नï हैं, इसलिए ये मुसलमानों को अस्वीकार्य हैं। बंटवारे की नियति को टालने के लिए भारत के राजनेताओं ने वंदेमातरम के पहले दो छंदों को ही राष्ट्रीय गीत के रूप में स्वीकारने की बात की, जिनमें उन उपहारों का वर्णन था, जो प्रकृति ने भारत पर न्यौछावर किए हैं, किंतु इसके बावजूद जिन्ना की हठधर्मिता के कारण जिन्ना की देश के बंटवारे और इस्लामिक राष्ट्र की स्थापना की महत्वाकांक्षा पूरी हो गई।
राष्टï्र-विभाजन तथा अलग मुस्लिम राष्ट्र की स्थापना के बावजूद भारत ने पंथनिरपेक्ष की नीति को ही अपना सैद्धांतिक आधार बनाया और अल्पसंख्यकों के अत्यंत ही छोटे से वर्ग की असहमति को भी नजरअंदाज न करते हुए वंदेमातरम के पहले दो छंदों को ही राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकार किया। इन दो छंदों में कहीं भी ऐसा कुछ नहीं है जिससे किसी धर्म के लोगों के भावनाओं को ठेस पहुंचे लेकिन इसके बावजूद जिन्ना की विचारधारा को न केवल सीना ठोक कर आगे बढ़ाने की हिमाकत की जा रही है बल्कि छद्म धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अपनी राजनीतिक दूकान चलाने वाले लोग इस राष्टï्रघाती प्रवृत्ति पर या तो खामोश हैं या फिर उसका परोक्ष समर्थन करते नजर आ रहे हैं। वंदे मातरम हमारी मातृभूमि का गीत है, जिसमें भारत पर प्रकृति के वरदान की बात कही गई है। इसमें अनेक नदियों, हरे-भरे खेत-खलिहानों और आच्छादित वृक्षों का वर्णन है। वंदे मातरम का विरोध करने वालों से यह पूछा जाना चाहिए कि उन्हें आपत्ति किस बात पर है? सदियों से सैकड़ों भाषाओं में कवियों ने प्रकृति और अपनी मातृभूमि की स्तुति की है। क्या हमें हर कवि की रचनाओं का सांप्रदायिक आधार पर मूल्यांकन करना चाहिए? हमारे संविधान निर्माता वंदेमातरम के प्रति आम जनमानस में सम्मान से भलीभांति परिचित थे। 14 अगस्त 1947 को संविधान सभा के ऐतिहासिक सत्र की शुरुआत सुचेता कृपलानी द्वारा वंदेमातरम के पहले पद को गाने से हुई।
संविधान सभा की अंतिम बैठक 24 जनवरी 1950 को हुई। इस बैठक की शुरुआत राष्ट्रगान पर अध्यक्ष डा. राजेंद्र प्रसाद के संबोधन से हुई। राजेंद्र प्रसाद ने कहा कि जन गण मन के रूप में संकलित शब्द और संगीत भारत का राष्ट्रगान है और स्वाधीनता संघर्ष में ऐतिहासिक भूमिका निभाने वाला वंदेमातरम जन गण मन के बराबर सम्मान का अधिकारी होगा। हस्ताक्षर समारोह के बाद पूर्णिमा बनर्जी और अन्य सदस्यों ने जन गण मन गाया और फिर लक्ष्मीकांता मैत्र तथा साथियों ने वंदेमातरम का गायन किया। संविधान सभा द्वारा तय कर दिये गए इस इस मुद्दे पर किसी को भी फिर से विवाद खड़ा करने अथवा राष्ट्रीय गीत का अपमान करने की अनुमति नहीं दी जा सकती। जमीयत का रुख किसी इस्लामी देश में सही हो सकता है, लेकिन यह भारत जैसे लोकतांत्रिक देश के बुनियादी सिद्धांतों के प्रतिकूल है। प्रश्न यह है कि आज जिस तरह वंदेमातरम पर आपत्ति जताई जा रही है उसी प्रकार कल क्या जन गण मन, अशोक चक्र पर उंगली उठाई जाएगी? जो लोग सामाजिक सौहार्द और भाईचारे को बढ़ावा देने के इच्छुक हैं उन्हें इस सिलसिले को हमेशा के लिए विराम देना ही होगा क्योंकि अल्पसंख्यक अधिकारों के नाम पर चल रहे इस सिलसिले ने फिरकापरस्ती को इस ऊंचाई पर पहुंचा दिया है कि वह कुछ सेकुलर प्रतीकों तक का निरादर करने लगी हैं।
-सर्वदमन पाठक
वन्दे मातरम
ReplyDeleteवन्दे मातरम
वन्दे मातरम
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आपकी बात से पूरी तरह सहमत. इस तरह का दुष्प्रचार कर देश्विभाजन की भूमिका तैयार की जा रही है.
जय हिंद
आज जब कोई तथाकथित बुद्दिजीवी मुसलमान या इसाई हिन्दुओ को गाली देना चाहता है तो सीधे संघ पर निसाना साधता है, जबकि वास्तविक निशाना संघ नहीं, हिन्दू है क्योंकि वह जानता है कि संघ के नाम पर किया गया प्रहार प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर हिन्दुओ पर आघात करता है इसलिए वह संघ को माध्यम बनाता है !
ReplyDeleteक्योंकि छद्म युद लड़ना कायरो की बहुत पुरानी फितरत है ! हिन्दू योधा सूर्यास्त के बाद हथियार नहीं चलाता था, भला हो इन मुग़ल आक्रमणकारियों का जिन्होंने इस परिपाटी को तोड़ रात के अँधेरे में आक्रमण करने की नै नींव डाली !
ये मत सोचिये कि मैं यहाँ संघ की वकालात कर रहा हूँ, मेरा तो सिर्फ यह कहना है कि कौंग्रेस द्वारा प्रथम विश्व युद्घ के तुंरत बाद से मुस्लिम तुष्टीकरण शुरु कर दिया गया था, तब तो संघ का कोई ख़ास बर्चास्वा नहीं था, कोई बीजेपी नहीं थी, तब क्यों १९४७ का विभाजन हुआ ? इसका सीधा मतलब यह है कि जो ये लोग यह बहाना आज करते है कि हिन्दू और संघ ये वो कर रहा है इसलिए ये भड़क रहे है सरासर गलत है ! वास्तविकता यह है कि ये लोग शान्ति से रह ही नहीं सकते और इन्हें पत्थर फेंकने के बहाने चाहिए !
इसी से कुछ लोगों की रो
ReplyDeleteटी-दाल चल रही है, तो क्या करिएगा?
बिल्कुल सही कहा आपने, सहमत हूँ। इस परमेरी राय जरुर पढ़े इस लिंक पर ........
ReplyDelete"माँ को इज्जत देनें मे अगर शर्म आती है तो कहीं डुब मरो"
http://mithileshdubey.blogspot.com/2009/11/blog-post_05.html