Sunday, November 1, 2009

अब तो हो यह 'सपना प्रदेशÓ अपना प्रदेश

श्रीलाल शुक्ल ने अपने चर्चित उपन्यास 'राग दरबारीÓ में व्यंग्य किया है कि भारत की शिक्षा प्रणाली गांव की उस कुतिया की तरह है जिसे हर कोई दुलत्ती मारते हुए आगे बढ़ जाता है। इसमें अगर वे इतना और जोड़ देते कि इस कुतिया को कामधेनु बनाया जा सकता है बशर्ते हममें दृढ़ इच्छाशक्ति हो, हमारी प्राथमिकताओं में शिक्षा सबसे ऊपर हो, तो एक बेहद सटीक सूत्र बुना जा सकता है। मध्यप्रदेश की विडम्बना भी कमोवेश ऐसी ही रही है और कुछ हद तक अब भी है। मध्यप्रदेश के विकास के साथ इतनी गुत्थियां, इतनी चुनौतियां, इतनी विसंगतियां, इतनी पहेलियां, गुंथी हुई हैं कि उसे अगले कुछ वर्षों में अग्रणी राज्यों की पंक्ति में खड़ा करना उतना ही मुश्किल है जितना शिव का धनुष उठाना। यह संयोग ही कहा जाएगा कि शिव नामधारी राजनेता ने इस चुनौती को आगे बढ़कर स्वीकार करने का साहस जुटाया है। अपनी छवि और क्षमता में निरंतर परिष्कार का पुट बढ़ाते हुए शिवराज सिंह ने इस मोर्चे पर अपनी भवितव्यता को ही दाव पर लगा दिया है। वे अहर्निश अलख जगाते हुए हर उस सूत्र, हर उस सूझ को खंगालने में जुटे हैं जो विराट संभावनाओं के द्वार पर खड़े इस प्रदेश को 'बीमारूÓ राज्यों की उस अभिशप्त सूची से जल्द से जल्द उबार सकें जो अपने जन्म के समय से ही उस पर चस्पी है। बेशक सकारात्मक उपलब्धियों का ग्राफ निरंतर ऊंचा उठता जा रहा है, कालिमा घट रही है लालिमा बढ़ रही है मगर वह रोमांचक परिकल्पना कोई तिरेपन साल बाद अभी भी मृगतृष्णा बनी हुई है जिससे प्रेरित होकर राज्य पुनर्गठन आयोग ने इस राज्य को आने वाले वर्षों में देश की एक अत्यंत सशक्त इकाई निरूपित करते हुए उसकी अपार नैसर्गिक संपदा का गुणगान किया था। बकौल उसके, ''यह बहुत ही समृद्ध कृषि उत्पादन वाला राज्य होगा, क्योंकि इसमें शामिल होंगे गेहूं और चावल पैदा करने वाले विस्तृत क्षेत्र। इसके साथ ही इसमें समृद्ध खनिज भंडार हैं और साथ ही नदियों की होगी अपार जल राशि जिसके दोहन से सिंचाई के साथ ही विद्युत उत्पादन की ऐसी संरचना तैयार होगी जो न सिर्फ उसे तीव्र प्रगति के पथ पर आरूढ़ करेगा, बल्कि सारे देश का एक मजबूत आधार स्तंभ भी बनाएगा।ÓÓ अपनी पृथक-पृथक इकाइयों के साथ आपस में विलीन होने वाले राज्य ऐसे दैत्याकार सूबे की कल्पना से कांप उठे थे। इन आशंकाओं की तरफ न आयोग ने ध्यान दिया और न भारत सरकार ने। तमाम आपत्तियों का आयोग के पास ले देकर सिर्फ एक जवाब था - ''मध्यवर्ती भारत में एक सुसम्बद्ध, सशक्त और समर्थ इकाई होने के लाभ लंबे समय में इतने विशाल सिद्ध होंगे कि हमें नये मध्यप्रदेश के निर्माण की सिफारिश करने में कतई कोई झिझक नहीं है।ÓÓ यह अलग बात है कि जब पं. जवाहरलाल नेहरू ने इस नये प्रदेश का नक्शा देखा तो हैरत भरे अंदाज में बोल उठे- यह क्या अजीब-सा प्रागैतिहासिक जीव-जंतु बना डाला! इतिहास और भूगोल की इस मिली-जुली साजिश का नतीजा यह हुआ कि राजनीतिक और प्रशासनिक रूप से बेमेल ऐसे इलाके एक झंडे के तले आ गए जो एक-दूसरे के लिए प्राय: अजनबी थे। तब के नेता और अफसरों को देखकर लगता था जैसे भोपाल में शंकर की बारात आ गई हो। किसी भी नई शुरुआत के लिए प्रारंभिक दौर बेहद महत्वपूर्ण होता है। उस दौरान जो बीज बोये जाते हैं, वे बुनियादी संस्कारों का हिस्सा हो जाते हैं । जैसा कि स्वाभाविक था, पहले इस नये प्रदेश ने क्षेत्रीयता के ढेरों जहरीले दंश झेले, राजनीतिक गुटबाजियों के बारूदी विस्फोटों से आसमान थर्राया और तात्कालिक राजनीतिक लाभों की खातिर योजनाओं के बनते-बिगड़ते घरौंदों के बीच विकास की टूटी-फूटी वर्णमाला ने आकार लिया। एक व्यंग्यकार ने तब एक जुमला उछाला था - इस प्रदेश को बनना था विनायक और बन गया बंदर! इसका यह मतलब हर्गिज नहीं कि प्रदेश पर बदकिस्मती की घनी घटाओं पर हमेशा बिजलियां ही कड़कती रही। क्षितिज पर कई सुनहरी रेखाएं भी उभरीं। सेवाओं का एकीकरण, डॉ. कैलाशनाथ काटजू के भगीरथी प्रयासों से चम्बल बांध का निर्माण, भोपाल में हेवी इलेक्ट्रिकल्स कारखाने की स्थापना आदि मंगलाचरण की कुछ ऐसी चमकदार उपलब्धियां हैं जिनकी कीर्ति गाथाएं आज भी तमाम क्षेपकों के बीच उजले पृष्ठों पर अंकित हैं। लंबे स्याह दौर की जकडऩ के कारण प्रदेश की पहचान गड्ड-मड्ड होती गई। कभी उसे 'डकैतों, डायमंडों और डिफेक्टरोंÓ का प्रदेश कहा गया तो कभी उसकी राजनीति को साजिश और शिष्टाचार की संज्ञा दी गई। एक दौर ऐसा भी आया जब धमाकेदार नुस्खे तलाशने के लिए कुछ मुख्य मंत्रियों ने 'थिंक टेकÓ का गठन किया मगर साथ ही राजनीति के 'सेप्टिक टेंकÓ भी पालते रहे। ऐसे माहौल में अच्छी से अच्छी सफलता की गाथाओं को भी वह विश्वसनीयता हासिल नहीं हो पाती है जिसकी वे हकदार होती हैं। राजनीति का अतिरेक और उससे जुड़ी विकृतियां सारे भारत की भयावह सच्चाई है। मध्यप्रदेश भी अगर इससे ग्रस्त रहा है तो इस पर विलाप करने से कुछ खास हासिल होने वाला नहीं है। हिंदी के प्रख्यात साहित्यकार अज्ञेय के एक उपन्यास का शीर्षक है - 'नदी के द्वीप ।Ó इसी तर्ज पर यह कहा जा सकता है कि हमने जो भी सफलताएं अर्जित की हैं या जो आगे भी अर्जित की जाने वाली हैं, उन्हें 'गटर के द्वीपÓ कहना अधिक सटीक होगा। राजनीतिक और सामाजिक बुराइयों के बीच से ही रास्ता बनाते हुए हमें अपनी उपलब्धियों के शिखर रचने होंगे, सफलताओं के द्वीप-समूह खड़े करने होंगे, यही हमारी संभावनाओं के सिंहद्वार हैं। मध्यप्रदेश कितना संकल्पवान हुआ है, यह तो आने वाला समय बताएगा, मगर इसके शब्दकोष में दो शब्द अपना सम्मोहन अभी भी बरकरार रखे हुए हैं। इनमें से एक है संवेदनशीलता और दूसरा स्वप्नदर्शिता। इस प्रदेश के कर्णधारों ने आधी सदी से भी ज्यादा समय तक इतने सपने पाले और परोसे हैं कि इसे अगर भारत का 'सपना प्रदेशÓ कहा जाए तो शायद अतिशयोक्ति नहीं होगी। शिवराज सिंह ने हाल में लीक से हटकर कुछ ऐसे उद्गार व्यक्त किए हैं जिनसे उन्होंने यह संदेश देने की कोशिश की है कि वे सपनों का संकल्पों से इस कदर अभिषेक करेंगे कि वे वरदानों में रूपांतरित हों और वह भी कम से कम समय में। उनके कार्यकाल के शेष चार वर्ष में अगर मध्यप्रदेश भारत के अग्रणी राज्यों की पंक्ति में शामिल हो जाता है तो यकीनन यह कामयाबी किसी वशीकरण या करिश्मे से कम नहीं होगी। जमीन से जुड़े नेता और ''छोरा नर्मदा किनारे वालाÓÓ जैसे आत्मीय संबोधन से विभूषित होने के नाते शिवराज इस हकीकत से पूरी तरह वाकिफ हैं कि जन मानस में वादों के क्रियान्वयन की कसौटी अब काफी कड़क होती जा रही है। यह भोले विश्वासों और मीठे मुगालतों का समय नहीं है। पहले चुनावी वादे झुनझुना माने जाते थे। लोग सुनते थे और भूल जाते थे। मगर चुनाव-दर-चुनाव जागरूकता इस कदर बढ़ती जा रही है कि लुभावने वादे आशाओं के उन्मेष से भी आगे जाकर उम्मीदों के उन्माद में बदलने लगे हैं। इसे देखकर कुछ विचारवान नेता यहां तक कहने लगे हैं कि जब हम जनता के बीच जाते हैं तो कभी-कभी ऐसा लगता है कि वह हमारे पीछे नहीं चल रही है, बल्कि हमारा 'पीछाÓ कर रही है! यह खतरे की एक ऐसी घंटी है जिसकी अनसुनी नहीं की जा सकती। ऐसी सूरत में सबसे ज्यादा जरूरी यह है कि जितनी जल्दी हो शासक और शासित के बीच की दूरी मिटे, पारस्परिक विश्वास के सूत्र मजबूत हों। यह तभी संभव है जब जनता विकास और प्रशासन से जुड़े हर उस फैसले, हर उस प्रक्रिया से जीवंतता के साथ जुड़े जो उसकी नियति ही नहीं, बल्कि दैनंदिन जिंदगी से वास्ता रखती है। यही शिवराज के विकास दर्शन की केंद्रीय धुरी है। हमारी मौजूदा व्यवस्था की एक बड़ी खामी यह है कि सरकार और जनता के बीच राजनीतिक कार्यकर्ता के अलावा तरह-तरह के दंदी-फंदी-नंदी, परिजन, नाते-रिश्तेदार आ जाते हैं। इनमें से कुछ राजनीति में आगे बढऩे के रास्ते तलाशते हैं तो कुछ महज दलाली करते हैं। शिवराज सरकार ने इस दुष्चक्र से निजात दिलाने के लिए कुछ निहायत ही कल्पनाशील शुरुआतें की हैं। इनमें प्रमुख है - जन सुनवाई की एक सुव्यवस्थित, विस्तृत शृंखला। यह जन सुनवाई नियमित रूप से विभिन्न प्रशासनिक स्तरों पर की जा रही है। इसके तहत कोई भी व्यक्ति सीधे अपनी शिकायतें लेकर जा सकता है और उसका समाधान करा सकता है। संबंधित अफसरों की उपस्थिति इस काम के लिए अनिवार्य कर दी गई है। सुरक्षा के बढ़ते ताम-झाम के कारण सत्ता और जन के बीच संवाद के दायरे भी काफी समय से लगातार सिमटते जा रहे हैं। संवाद या तो दलगत दायरे तक सीमित हैं या सरकार की गोपनीय गुफाओं में कैद हैं। शिवराज ने इस बंधे बंधाये ढर्रे को तोड़ा है। अपने निवास पर समाज और जनता के अलग-अलग वर्गों को आमंत्रित कर खुली पंचायतों का एक नायाब तरीका अपनाकर उन्होंने पारस्परिक संवाद के जरिये गुत्थियों के सीधे समाधान खोजने का एक नायाब फार्मूला अपनाया है। मुख्यमंत्री के सामने खुलकर अपनी बात कहने का जिन्हें भी यह अवसर मिला है, वे इससे गदगद हैं। उन्हें मुख्यमंत्री की महिमामय मेजबानी भी मिली है और काफी कुछ मुरादें भी पूरी हुई हैं। इस शृंखला में नित नई कडिय़ां जुड़ती जा रही हैं। जाहिर है, जैसे-जैसे यह सिलसिला आगे बढ़ेगा, श्यामला हिल्स स्थित मुख्यमंत्री का सत्ता-साकेत नयी उम्मीदों के सूर्योदय के रूप में जाना जाने लगेगा। हम अपनी वर्षों पुरानी व्यवस्थाओं के पिरामिड रातों-रात ढहा नहीं सकते। परन्तु उनमें ताजा हवा के झोंके ला सकते हैं। इसमें कोई कोर-कसर क्यों छोड़ी जाए? लालफीताशाही के खात्मे के लिए इस किस्म के गैर रस्मी तरीकों के कितने उत्साहवद्र्धक लाभ हो सकते हैं, इसे इन प्रयोगों ने बखूबी दिखा दिया है। सत्ताधीशों के लिए आम आदमी से हरसंभव तरीके से जुडऩा इसलिए भी खास तौर से लाजिमी हो गया है, क्योंकि स्थानीय शासन संस्थाएं, जिनमें विभिन्न शहर, निकाय और पंचायतें आती हैं, काफी हद तक भीड़ तंत्र का शिकार हो चुकी हैं। जिन संस्थाओं को संविधान में ऐतिहासिक संशोधनों के जरिये लोकतंत्र के भवन में भूतल का दर्जा दिया गया था, वे मलबे में तब्दील हो रही हैं। विधान सभाएं भी अपनी बेहद निर्णायक भूमिका के प्रति समुचित न्याय नहीं कर पा रही हैं। राजनीतिक दलों के तौर-तरीके तो जग जाहिर हैं। उन्होंने जनता को अपनी राजनीति का ईंधन तो बहुत बनाया है, लेकिन उन्हें इंजन नहीं बनने दिया है। यदि शिवराज सिंह जनता की सुसुप्त रचनात्मक क्षमता के दोहन के प्रबल पक्षधर के रूप में उभरकर सामने आए हैं तो इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि वे जनोन्मुखी व्यवस्था के जबरदस्त हिमायती हैं और उसे उसकी अंतिम परिणति तक पहुंचाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। समाज के विभिन्न वर्गों के सुझावों को आमंत्रित करने की दिशा में भी उनकी पहल कुछ कम महत्वपूर्ण नहीं है। इसके लिए वेबसाइट जैसे माध्यमों का सहारा लिया गया है। लोकतंत्र की वास्तविक शक्ति लोक है। जहां भी उसकी उपस्थिति जितनी प्रभावी, जितनी व्यापक होगी, लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के झरने दूर-दूर तक जाएंगे और हरीतिमा को सींचेंगे। इन तमाम वर्षों में प्रशासन तंत्र का आकार-प्रकार इतने अनाप-शनाप ढंग से बढ़ा है कि देश में विशेषत: हिन्दी क्षेत्रों में समाज घट रहा है, राज बढ़ रहा है। यह असंतुलन लोकतंत्र के लिए घातक है। शिवराज सिंह का दृढ़ विश्वास है कि समाज की व्यवस्थाओं, उसके अंग-प्रत्यंगों के सक्रिय होने पर ही चहुंमुखी विकास का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। मध्यप्रदेश के पिछड़ेपन के कई कारण हैं और यह सब इसके बावजूद हैं कि यहां एक से एक अच्छे मुख्यमंत्री रहे हैं, किन्तु वे केन्द्रीय नेतृत्व के प्रति दास्यभाव के कारण इतने दब्बू रहे हैं कि उसके सामने दृढ़ता से अपने प्रदेश के हितों से जुड़े दावे नहीं ठोक सके। सच तो यह है कि मध्यप्रदेश केन्द्र का बंधक राज्य रहा है। दूसरे, विकास की रणनीति भी तत्कालिक राजनीतिक लाभों और क्षेत्रीय खींच-तान पर ही अधिकतर टिकी रही। मध्यप्रदेश इस अर्थ में भी अजीबोगरीब है कि जहां अन्य राज्यों में घटनाएं घटित होती हैं, म.प्र. में विस्फोटित होती हैं। ऐसे उदाहरण मौजूद हैं जब तीन चैथाई बहुमत हासिल करने के बाद भी मुख्यमंत्री को अपनी कुर्सी खोनी पड़ी। बहरहाल अब जो दौर आया है उसमें राजनीति का अच्छा या बुरा होना किसी प्रदेश के विकास की एकमात्र मुख्य शर्त नहीं रह गई है। प्रगति की असल कुंजी है - उद्यम की संस्कृति, ज्ञान विज्ञान के क्षितिजों का विस्तार, आगे बढऩे की उमंग। काफी समय तक उद्यम की संस्कृति के ध्वजाधारी मध्यप्रदेश में बाहर के प्रदेशों से आए लोग रहे हैं। अभी भी इनकी काफी तादाद है। हालांकि यह राहत का विषय है कि इनमें से अधिकांश ने अपने पुराने प्रादेशिक बाने उतारकर स्वयं को मध्यप्रदेशीय मानना प्रारंभ कर दिया है। मध्यप्रदेश के प्रारंभिक दो-तीन दशकों में यहां प्राय: हर क्षेत्र में बाहरी राज्यों से आए इतने चेहरों का घटाटोप उमड़ा कि शिखर पदों पर मध्यप्रदेश की माटी से जुड़ी प्रतिभाओं को खोजना मुश्किल हो गया था। परिस्थितियां अब बदल रही हैं। धरती पुत्रों में भी आकाश छूने की चाहत तेजी से बढ़ रही है। यदि शिक्षा की उच्च गुणवत्ता की हम अब भी गारंटी दे सकें तो राज्य में अमध्यप्रदेशीयता से कहीं अधिक मध्यप्रदेशीयता की धारा बलवती होगी और अपनी स्थापना के समय से पहचान के जिस संकट को यह प्रदेश झेल रहा है, उससे उसे कालांतर में निजात मिल सकती है। तब 'सपना प्रदेशÓ और 'अपना प्रदेशÓ एकाकार हो जाएंगे। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने हाल में 'मध्य प्रदेश बनाओÓ तथा 'अपना मध्यप्रदेशÓ जैसे जो प्रेरक नारे उछाले हैं, उसके लिए मध्यप्रदेशीयता की मजबूत आधारशिला रखना आवश्यक है। इससे अपने हाथों अपनी नियति संवारने का जज्बा केवल बढ़ेगा ही नहीं, छलांग भरेगा। इस अमृत-बिंदु से प्रदेश से अंतरंग जुड़ाव का एक सशक्त सिलसिला चल पड़ेगा। अपनत्व की अनुभूति गहरी होते ही सामाजिक व आर्थिक अभिशापों के विरुद्ध धर्म युद्ध की सुविचारित शुरुआत हो सकेगी। यदि देश में बंगाली, आंध्राइट, तमिलियन, महाराष्ट्रियन, केरलाइट, पंजाबी, हरियाणवी, बिहारी और यूपियन, उत्तर प्रदेशीयद्ध जैसे ढेरों पहचान चिह्न अपनी प्रखर प्रादेशिकता के साथ प्रचलन में हैं, तो 'एम पी-यनÓ या मध्यप्रदेशीय जैसी कोई पृथक पहचान स्थापित करने से हम आखिर कब तक परहेज करेंगे? अपनी विशिष्ट अस्मिता को लेकर कब तक लुंज पुंज बने रहेंगे? एक बार यह पहचान अपना कवच-कुंडल हो जाए तो इससे मध्यप्रदेश को 'अपना प्रदेशÓ मानने की मानसिकता बलवती होगी, साथ ही जिस सकारात्मक पहचान के संकट से मुक्ति पाने के लिए हम छटपटाते रहे हैं, उस पर भी पटाक्षेप करने में मदद मिल सकेगी। विश्व बैंक के एक विशेषज्ञ दल ने वर्षों पहले कहा था कि भारत के अन्य राज्य जहां बीसवीं सदी के सूबे हैं, वहीं मध्यप्रदेश का भाग्योदय इक्कीसवीं सदी में होगा। इस दल का मंतव्य था कि मध्यप्रदेश 21वीं सदी का राज्य इस मायने में है कि जब अन्य राज्य अपने प्राकृतिक संसाधनों का अधिकतर या पूरी तरह दोहन कर चुके होंगे, तब मध्यप्रदेश संभवत: अकेला ऐसा राज्य होगा, जिसके पास अनछुए नैसर्गिक स्त्रोतों के नायाब और बेशुमार भण्डार होंगे। मध्यप्रदेश जब अपनी नदियों को बांधना शुरू करेगा, तब तक कितने ही राज्यों के बांध बूढ़े हो चुके होंगे। देर से यात्रा शुरू करने के भी अपने कुछ लाभ हो सकते हैं। आज हम इसी पायदान पर खड़े हैं। यह वह दौर होगा जब यह प्रदेश अपने मुकुट में एक-एक कर इतने बेशकीमती मोती जड़ेगा कि देश में इसकी कुछ वैसी ही चमकदार पहचान बन सकेगी जिसके लिए वह लंबे अरसे से तरस रहा है।
-मदनमोहन जोशी

1 comment:

  1. निं:संदेह एक दिन ऐसा ही होगा..बहुत ही जानकारीपूर्ण और सार्थक लेख है ...आपका आभार..

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