Sunday, November 1, 2009

सपनों को सच करने की जिम्मेदारी

मध्यप्रदेश यानी वह राज्य जो भारत का हृदय प्रदेश तो है ही परंपरा, संस्कृति और संस्कारों से रसपगा एक क्षेत्र है जहां सौहार्द और सौजन्यता स्वभाव में ही घुल-मिल गई है। अभाव, उपेक्षा और राजनीति ने भी इस स्वभाव पर कोई प्रभाव नहीं डाला है और मप्र आज भी देश के सामने एक ऐसे उदाहरण के रूप में जिसके पास कहने को बहुत कुछ है। अपनी विरासत, सनातन परंपरा और सौहार्र्द को समेटे यह भूमि आज भी इसलिए लोगों के आकर्षण का केंद्र है। इतना ही नहीं, मध्य प्रदेश अपने विशाल आकार में कई प्रकार की संस्कृति, स्वभाव, बोलियों, लोकाचारों का प्रवक्ता है।
आज जब मप्र अपना स्थापना दिवस मना रहा है तो उसके सामने कमोबेश वही सवाल हैं जो हमारी पूरी हिंदी पट्टी को मथ रहे हैं। जिन्हें बीमारू राज्य कहा जा रहा है। विकास का सवाल आज की राजनीति में सबसे अहम है। मप्र की जनता के सामने इस समय सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह किस तरह से नई सदी में अपना चेहरा और चमकदार बनाए। मध्यप्रदेश या कोई भी राज्य सिर्फ अपने इतिहास और विरासत पर गर्व करता हुआ खड़ा नहीं रह सकता। गांवों में फैल रही बेचैनी, शहरों में बढ़ती भीड़, पलायन के किस्से, आदिवासियों और भूमिहीनों के संघर्ष से हम आंखेें नहीं मूंद सकते। आजादी के बाद के ये साल इस विशाल भूभाग में बहुत कुछ बदलते दिखे। किंतु इस समय के प्रश्न बेहद अलग हैं। विकास के मोर्चे पर कुछ नहीं हुआ कहना बेमानी होगा, किंतु इन प्रयासों के बावजूद अगर हम प्राथमिक शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी और बिजली के मोर्चे पर अपना आकलन करें तो तस्वीर बहुत साफ हो जाएगी। मध्यप्रदेश को शांति का टापू कहे जाने के बावजूद विकास के तमाम मानकों पर हमारी हालत पतली है। यह द्वंद शायद इसलिए कि लंबे समय तक प्रयास तो किए गए आम आदमी को इस प्रक्रिया का हिस्सा बनने से रोके रखा गया। प्रशासन की संवेदनशीलता, राजनीतिज्ञों की नैतिकता, राज्य के लोगों की विकास में हिस्सेदारी कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिस पर साफ दिल से बात होनी ही चाहिए। राज्य के सामने सबसे बड़ी चुनौती क्या है, किन प्रश्नों पर राज्य को प्राथमिकता के साथ जूझना चाहिए ये ऐसे सवाल हैं जिनसे टकराने का साहस हम नहीं करते। नौकरशाही जिस तरह से सत्ता और समाज की शक्तियों का अनुकूलन करती है वह बात भी चिंता में डालने वाली है। राजनीति नेतृत्व की अपनी विवशताएं और सीमाएं होती हैं। चुनाव-दर-चुनाव और उसमें जंग जीतने की जद्दोजहद राजनीति के नियामकों को इतना बेचारा बना देती है कि वे सही मुद्दों से जूझने के बजाय इन्हीं में काफी ताकत खर्च कर चुके होते हैं।
मप्र अपने आकार और प्रकार में अपनी स्थापना के समय से ही बहुत बड़ा था। सन् 2000 में छत्तीसगढ़ अलग होने के बाद मप्र के सामने अलग तरह की चुनौतियां खड़ी हुईं। जिसमें बिजली से लेकर आर्थिक संसाधनों की बात सामने थी। बावजूद इसके इसका आकार आज भी बहुत बड़ा है। सो प्रशासनिक नियंत्रण से साथ-साथ नीचे तक विकास कार्यक्रमों का पहुंचना एक बड़ी चुनौती होती है। मप्र एक ऐसा राज्य है जहां की योजनाओं को राष्ट्रीय स्तर पर सराहना मिली है। बावजूद इसके शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर काम किए जाने की जरूरत है। आज के दौर की चुनौतियों के मद्देनजर श्रेष्ठï मानव संसाधन का निर्माण एक ऐसा काम है जो हमारे युवाओं को बड़े अवसर दिलवा सकता है। इसके लिए शहरी क्षेत्रों के अलावा ग्रामीण क्षेत्रों के स्कूलों के लिए हम क्या कर सकते हैं यह सोचना बहुत जरूरी है। यह सोचने का विषय है कि लोग सरकारी स्कूलों में अपने बच्चों को भेजने से परहेज क्यों करने लगे हैं। ऐसे में यहां से निकल रही पीढ़ी का भविष्य क्या है। इसी तरह उच्चशिक्षा में हो रहा बाजारीकरण एक बड़ी चुनौती है। हमारे सरकारी शिक्षण तंत्र का ध्वस्त होना कहीं इरादतन निजी क्षेत्रों के लिए दिया जा रहा अवसर तो नहीं है। यही हालात स्वास्थ्य के क्षेत्र में हैं। बुंदेलखंड और वहां के प्रश्न आज राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा के केंद्र में हैं। पानी का संकट लगभग पूरे राज्य के अधिकांश इलाकों का संकट है। शहरों और अधिकतम मध्यवर्ग को केंद्र में रखकर किया जा रहा विकास एक सामाजिक संकट सरीखा बन गया है। मप्र जैसे संवेदनशील राज्य को इस प्रश्न पर भी सोचने की जरूरत है। अपनी प्राकृतिक विरासतों को सहेजने की चिंता भी इसी से जुड़ी है। यह प्रसन्नता की बात है कि जीवनदायिनी नर्मदा के बारे में अब कुछ गंभीरता दिखने लगी है। अमृतलाल बेगड़ और अनिल दवे के प्रयासों से समाज का ध्यान भी इस ओर गया है। मध्यप्रदेश में पंचायतों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए राज्य सरकार खुद आगे आई, यह एक बहुत ही सकारात्मक संकेत है। अब आवश्यकता इस बात की है कि इन सभी महिला-पुरुष प्रतिनिधियों का गुणात्मक और कार्यात्मक विकास किया जाए। क्योंकि जानकारी के अभाव में कोई भी प्रतिनिधि अपने समाज या गांव के लिए कारगर साबित नहीं हो सकता। जनप्रतिनिधियों के नियमित प्रशिक्षण कार्यक्रम और गांव के प्रतिनिधियों के प्रति प्रशासनिक अधिकारियों की संवेदनात्मक दृष्टि का विकास बहुत जरूरी है। सरकार ने जब एक अच्छी नियति से पंचायती राज को स्वीकार किया है तब यह भी जरूरी है कि वह अपने संसाधनों के सही इस्तेमाल के लिए प्रतिनिधियों को प्रेरित भी करे। राज्य में बड़ी संख्या में आदिवासी समाज के लोग हैं उनके प्रश्न और चिंताएं अलग हैं। हमें उनका भी सोचना होगा। महिलाओं के साथ अत्याचार और उत्पीडऩ के मामले में भी मप्र का रिकार्ड बहुत बेहतर नहीं है। साथ ही सामंतशाही के बीज भी अभी कुछ इलाकों में पसरे हुए दिखते हैं। नक्सलवाद की चुनौती भी कुछ क्षेत्रों में मौजूद है। उस पर अब केंद्र सरकार का भी ध्यान गया है। ऐसे बहुत से प्रश्नों से टकराना और दो-दो हाथ करना सिर्फ हमारे सत्ताधीशों की नहीं हमारी भी जिम्मेदारी है। सामाजिक शक्तियों की एकजुटता और प्रभावी होना भी जरूरी है, क्योंकि वही राजसत्ता पर नियंत्रण कर सकती है। इससे अंतत: लोकतंत्र सही मायनों में प्रभावी होगा। भाजपा और उसके नेता शिवराज सिंह चौहान पर राज्य की जनता ने लगातार भरोसा जताते हुए बड़ी जिम्मेदारी सौंपी है। विरासत में मिली इन तमाम चुनौतियों की तरफ देखना और उनके जायज समाधान खोजना किसी भी राजसत्ता की जिम्मेदारी है। मुख्यमंत्री को इतिहास की इस घड़ी में यह अवसर मिला है कि वे इस वृहतर भूगोल को उसकी तमाम समस्याओं के बीच एक नया आयाम दे सकें। सालों-साल से न्याय और विकास की प्रतीक्षा में खड़े मप्र की सेवा के हर क्षण का रचनात्मक उपयोग करें। बहुत चुनौतीपूर्ण और कंटकाकीर्ण मार्ग होने के बावजूद उन्हें इन चुनौतियों को स्वीकार करना ही होगा, क्योंकि सपनों को सच करने की जिम्मेदारी मध्यप्रदेश के भूगोल और इतिहास दोनों ने उन्हें दी है। जाहिर है वे इन चुनौतियों से भागना भी नहीं चाहेंगे। अब जबकि मप्र की राजनीति में युवा चेहरों के हाथ में कमान है, हमें अपने तंत्र को ज्यादा संवेदनशील, ज्यादा बेहतर, ज्यादा मानवीय और सरोकारी बनाने की कोशिशें करनी चाहिए। स्थापना दिवस का यही संकल्प राज्य के माथे पर सौभाग्य का टीका साबित होगा।
-संजय द्विवेदी

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