Thursday, December 31, 2009

उठें और गर्मजोशी से गले लगाएं नए साल के सूरज को

परिवर्तन प्रकृति का नियम है। संभवत: यह ऐसी नियति है जिससे बचा ही नहीं जा सकता। लेकिन इसी परिवर्तन में हमारे सपने और संभावनाएं छिपी होती हैं। सन 2009 की विदाई और 2010 का आगाज ऐसे ही परिवर्तन का परिचायक है। पिछला साल निश्चित ही कुछ ऐसी खट्टïी मीठी यादें छोड़ गया है जो हमारे मस्तिष्क में किसी चलचित्र की तरह अंकित हो गई हैं। इनमें कई यादें हमें विचलित करने वाली हैं और कई यादें आनंदित करने वाली हैं लेकिन अब ये सभी अतीत का हिस्सा बन गई हैं और इसने हमारे अनुभव और सीख के कोष में इजाफा किया है। यही अनुभव हमारे जीवन पथ में आलोक फैला सकता है। नए साल का सूरज आपके दरवाजे पर दस्तक दे रहा है। यह सूरज उम्मीदों का नया प्रकाश लेकर आया है। आप ऊर्जा के इस असीम स्रोत का पूरी गर्मजोशी से स्वागत करें और नई ऊर्जा से अपने अधूरे सपनों को साकार करने के लिए जुट जाएं। दरअसल सपनों की पतंगें उतनी ही ऊंचाई छूती हैं जितना कि आपकी उमंगें जोर मारती हैं हालांकि इसमें किस्मत की तरंगों का भी योगदान होता है लेकिन वह इंसान ही क्या जो अपनी तदबीर से तकदीर को बदलने का माद्दा न रखता हो। जरूरत सिर्फ इसी बात की है कि हम अपनी ताकत को पहचानें और भाग्य को अपना साथ देने पर मजबूर कर दें। सूरज और सूरजमुखी मेेंएक रिश्ता है। सूरज के उदय के साथ ही सूरजमुखी के खिलने का सिलसिला शुरू हो जाता है। सूरजमुखी की यही फितरत होती है कि वह सूरज की ओर टकटकी लगाए देखता रहता है। सूरज तो हमें प्रकाश और ऊर्जा दोनों से ही नवाजता है लेकिन सवाल यही है कि क्या आप सूरजमुखी हैं। क्या आपमें इस प्रकाश एवं ऊर्जा को ग्रहण करने का जज्बा है। उत्तर आपके पास है। यदि आप नए साल पर अपने सपनों की बेल को परवान चढ़ाने के अभिलाषी हैं तो आपको अपने अंदर यही जज्बा पैदा करना होगा। फिर आपको कोई भी सफलता का आकाश छूने से नहीं रोक सकता। तो आइये, हम 2010 की उत्साह के साथ अगवानी करें और उजले सपने सजाने और उन्हें पूरे करने का संकल्प लें।
-सर्वदमन पाठक

Sunday, December 27, 2009

कांग्रेस: अतीत के गौरव को संजोकर रखने की चुनौती

भारतीय राष्टï्रीय कांग्रेस को देश के इतिहास में ऐसी गौरवशाली पार्टी के रूप में पहचान हासिल है जिसने न केवल राष्टï्र की आजादी की इबारत लिखी बल्कि स्वातंत्र्योत्तरकाल के अधिकांश वर्षों में देश को नेतृत्व प्रदान किया। इसके अलावा समाज सुधार में भी कांग्रेस ने अहम भूमिका निभाई। दिलचस्प बात यह है कि कांग्रेस की स्थापना ब्रिटिश सिविल सर्वेंट ए ओ ह्यïूम की पहल पर की गई थी और इसका उद्देश्य शिक्षित भारतीयों तथा ब्रिटिश राज के बीच नगरीय एवं राजनीतिक डायलाग के लिए एक फोरम प्रदान करना तथा उन्हें ब्रिटिश राज में उन्हें अधिक हिस्सेदारी का प्रलोभन देकर संतुष्टï करना था। प्रकारांतर से कहा जाए तो पहले स्वतंत्रता संग्राम के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी से ब्रिटिश राज को भारत का सत्ता हस्तांतरण हुआ तो ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों के विद्रोही तेवर को शिथिल करने के लिए पर्दे के पीछे से यह फोरम बनवाया था। अत: स्वाभाविक रूप से शुरुआती तौर पर इस फोरम का ब्रिटिश राज से कोई विरोध नहीं था। सच तो यह है कि तत्कालीन वायसराय लार्ड डफरिन की मंजूरी के बाद ही मुंबई में 28 दिसंबर 1885 को एलेन आक्टेवियन ह्यïूम, दादाभाई नैरोजी, दिनशा वाचा, वोमेश चंद्र बैनर्जी, सुरेद्रनाथ बैनर्जी, मनमोहन घोष और विलियम बेडरबर्न सहित 72 प्रतिनिधियों की उपस्थिति में कांग्रेस की स्थापना हुई थी और इसके प्रथम अध्यक्ष श्री वोमेश चंद्र बैनर्जी थे। प्रति वर्ष दिसंबर में मुंबई में इसकी बैठक होती थी।लेकिन कालांतर में कांग्रेस आजादी की राष्टï्रीय आकांक्षा को प्रतिबिंबित करने लगी और उसने आजादी के आंदोलन की कमान संभाल ली। 1907 में पार्टी दो भागों में बंट गई जिनमें गरम दल का नेतृत्व बाल गंगाधर तिलक के हाथ में था और गोपाल कृष्ण गोखले नरम दल का नेतृत्व कर रहे थे। इनमें से तिलक के नेतृत्व को जबर्दस्त जन समर्थन हासिल हुआ और इसके फलस्वरूप कांग्रेस ब्रिटिश आंदोलन के खिलाफ एक वृहत जनांदोलन में तब्दील हो गई। यह पार्टी देश के महानतम नेताओं की जननी रही है। गांधी युग के पहले तिलक, गोखले, विपिन चंद्र पाल, लाला लाजपत राय और मोहम्मद अली जिन्ना ने आजादी के आंदोलन को जन जन तक पहुंचाने मेें महती भूमिका निभाई। हालांकि बाद में मोहम्मद अली जिन्ना में मुस्लिम लीग के जरिये अलग राह पकड़ ली और देश के विभाजन व पाकिस्तान के गठन का मार्ग प्रशस्त कर देश के सीने में ऐसा घाव दे दिया जिसका दर्द आज भी राष्टï्र महसूस करता है। 1905 में बंगाल के विभाजन तथा उसके फलस्वरूप छेड़े गए स्वदेशी आंदोलन के दौरान सुरेंद्र नाथ बैनर्जी तथा हेनरी काटन कांग्रेस के माध्यम में व्यापक जनांदोलन छेड़ दिया।सन 1915 में महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे और गोखले गुट की मदद से उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष चुन लिया गया।श्री गांधी ने खिलाफत आंदोलन के साथ मिल कर एक गठबंधन बना लिया। खिलाफत आंदोलन तो बाद में टांय टांय फिस्स हो गया लेकिन इस गठबंधन के कारण कांग्रेस का एक और विभाजन हो गया। चित्तरंजन दास, एनी बेसेंट, मोतीलाल नेहरू जैसे कई नेता कांग्रेस से बाहर चले गए और उन्होंने स्वराज पार्टी का गठन कर लिया। महात्मा गांधी की लोकप्रियता के ज्वार तथा उनके सत्याग्रह से आकर्षित होकर वल्लभभाई पटेल, जवाहर लाल नेहरू, डा.खान अब्दुल गफ्फार खान, राजेन्द्र प्रसाद, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, कृपलानी, तथा मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे नेता कांग्रेस में शामिल हो गए। गांधीजी की लोकप्रियता और देश में राष्टï्रवाद की भावना के फलस्वरूप कांग्रेस आजादी के आंदोलन के साथ ही अछूतोद्धार, जाति प्रथा के उन्मूलन, र्धािर्मक कट्टïरता जैसी बुराइयों को दूर करने जैसे सामाजिक सुधार का भी हथियार बन गई।1929 में जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता मेें हुए लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज्य का लक्ष्य निर्धारित किया गया जो आजादी की जंग के इतिहास में एक मील का पत्थर है। 1939 में हुई त्रिपुरी कांग्रेस में सुभाष चंद्र बोस पार्टी के अध्यक्ष चुने गए लेकिन उन्हें बाद में पार्टी से निष्कासित कर दिया गया जबकि वे देश के लोगों में काफी अधिक लोकप्रिय थे। इससे कांग्रेस की प्रतिष्ठïा को निश्चित रूप से झटका लगा। इससे पार्टी से जुड़े कुछ समाजवादी वर्गों ने इससे किनाराकशी कर ली।1942 में कांग्रेस ने भारत छोड़ो आंदोलन का आव्हान किया जिसमें हालांकि कांग्रेस के शीर्ष नेताओं को पहले ही गिरफ्तार कर लिये जाने के बावजूद देशवासियों का जो जुनून दिखा उससे ब्रिटिश सरकार हिल गई एवं उसे अहसास होने लगा कि अब भारत के लोग गुलामी के बंधन तोड़कर ही रहेंगे।द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटिश सरकार ने वादा किया था कि यह भारत के लोगों ने इस युद्ध में ब्रिटेन का साथ दिया तो उसे आजादी दे दी जाएगी लेकिन वह अपने वादे से मुकर गई। इसके बाद कांग्रेस ने बड़े पैमाने पर जनांदोलन छेड़ दिया। सन1946 में नौसैनिकों के विद्रोह को हालांकि कांग्रेस ने स्वीकार नहीं किया पर इस विद्रोह से कांग्रेस के स्वातंत्र्य आंदोलन में निर्णायक मोड़ आया और अंतत: ब्रिटिश सरकार को भारत की आजादी के लिए मजबूर होना पड़ा। लेकिन जिन्ना की हठधर्मी के चलते देश का बंटवारा हुआ और पाकिस्तान बना। इस बंटवारे में लाखों बेगुनाहों की जानें गईं। इस घटनाक्रम से नाराज नाथूराम गोड़से ने राष्टï्रपिता महात्मा गांधी की हत्या कर कांग्रेस एवं देश को शोक के सागर में डुबो दिया।हालांकि गांधी जी ने कहा था कि देश की आजादी के साथ ही कांग्रेस का लक्ष्य पूर्ण हो गया है अत: अब कांग्रेस को भंग कर दिया जाना चाहिए लेकिन कांग्रेस के अधिकांश नेता चाहते थे कि देश की सत्ता की बागडोर कांग्रेस ही संभाले। इसी के फलस्वरूप आजादी के बाद केंद्र में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी और आजादी के आंदोलन के एक और दिग्गज नेता श्री वल्लभभाई पटेल उपप्रधानमंत्री बनाए गए। राजेंद्र प्रसाद इस सरकार के राष्टï्रपति थे। पटेल ने भोपाल, हैदराबाद सहित देश की तमाम रियासतों का विलीनीकरण कर आजादी को और मजबूती प्रदान की हालांकि कश्मीर के राजा का अदूदर्शितापूर्ण विलंब आज भी भारत के गले की हड्डïी बना हुआ है।1962 में चीनी आक्रमण के दौरान भारत की जबर्दस्त पराजय ने कांग्रेस सरकार के प्रति जन विश्वास को हिला कर रख दिया। प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री इसी सिलसिले में हुए समझौते के कारण ताशकंद में जान से हाथ धो बैठे और इंदिरा गांधी सत्ता संभाली लेकिन उसके बाद भी 1967 में कई राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकार सत्ता मेें आ गईं। राष्टï्रपति पद पर संजीव रेड्डïी को उम्मीदवार बनाने के दलीय फैसले पर इंदिरा गुट तथा सिंडिकेट गुट में मतभेद हो गए और 1969 में कांग्रेस का औपचारिक विभाजन हो गया। इंदिरा गांधी ने इंदिरा कांग्रेस का गठन किया जो बाद में असली कांग्रेस जैसी ही ताकतवर हो गई। वैसे इंदिरा गांधी के नेतृत्व में देश में पाकिस्तान के खिलाफ 1965 एवं 1971 की लड़ाई जीती और 71 की विजय तथा बंगलादेश के उदय के कारण तो उन्हें दुर्गा तक के संबोधन से नवाजा गया लेकिन इसके बावजूद जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में संपूर्ण क्रांति आंदोलन ने उनके चमत्कार को फीका कर दिया। इंदिरा जी ने इससे निपटने के लिए इमरजेंसी लगाया जिसका बिल्कुल उल्टा असर पड़ा और पांच दलों को मिलाकर बनाई गई जनता पार्टी ने चुनाव में इंदिरा गांधी सरकार को पराजित कर दिया। हालांकि इसके बाद भी प्रधानमंत्री के रूप में प्रतिष्ठिïत हुए मोरारजी देसाई भी पुराने कांग्रेस ही थे। चरण सिंह की बगावत से 20 माह मेें ही जनता सरकार गिर गई और इंदिरा गांधी एक बार पुन: जन विश्वास हासिल करने में सफल रहीं। 1984 में ब्लू स्टार आपरेशन के बाद इंदिराजी के अंगरक्षकों ने उनकी हत्या कर दी और इस इसके फलस्वरूप सिख विरोधी दंगों में हजारों सिख मौत के घाट उतार दिये गए। उधर इसके बाद हुए लोकसभा चुनाव में राजीव गांधी सहानुभूति की लहर पर सवार होकर प्रधानमंत्री आरूढ़ हो गए। राजीव गांधी सरकार भी बोफोर्स घोटाले के कारण 1989 में चुनाव में पराजित हो गई लेकिन कांग्रेस से बगावत कर जनता दल गठित करने वाले विश्वनाथ सिंह प्रधानमंत्री बन गए। हालांकि राम जन्म भूमि आंदोलन के कारण उनकी सरकार बीच में गिर गई और एक बार फिर नरसिंहराव के नेतृत्व में कांग्रेस ने देश की बागडोर संभाली। 1996 से 2004 तक देश में गैर कांग्रेसी सरकार रहीं लेकिन 2004 से पुन: कांग्रेस का करिश्मा सर चढ़ कर बोल रहा है और सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस देश के दिल पर राज कर रही है। मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस नीत यूपीए सरकार का सौम्य चेहरा देश में अलग पहचान बनाए हुए है और राहुल गांधी के रूप मेें कांग्रेस को नया युवराज मिल गया है जो देश के भविष्य के नेता के रूप मेें माना जा रहा है।
-सर्वदमन पाठक

Tuesday, December 22, 2009

कही- अनकही

विदेश मंत्री एस. एम. कृष्णा ने कहा- चीन से सीमा को लेकर हमारा मतभेद जरूर चल रहा है लेकिन यह 1962 नहीं, 2009 है। अब भारत की स्थिति ऐसी नहीं है कि कोई उसे डरा धमका सके।क्या आशय है उनका?भले ही 1962 की जंग मेंं भारत को चीन के हाथों पराजय झेलनी पड़ी हो और अपने एक बड़े भूभाग को खोना पड़ा हो लेकिन अब भारत ऐसी ताकत बन चुका है जिसे धमकियों अथवा ताकत की भाषा से झुकाया नहीं जा सकता। चीन की आपत्ति के बावजूद दलाई लामा की अरुणाचल यात्रा और इसके बाद ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का अरुणाचल दौरा इस बात का प्रमाण है कि भारत अब चीन की नाजायज मांगों को मानने के लिए न तो तैयार है और न ही उसकी ऐसी कोई बाध्यता है।क्या है हकीकत?यह सच है कि भारत ने सैन्य तथा असैन्य, दोनों ही क्षेत्रों में काफी जबर्दस्त प्रगति की है और आज दुनिया में उसे सबसे तेजी से बढ़ती आर्थिक शक्ति के रूप में देखा जा रहा है। अंतर्राष्टï्रीय राजनीति में भी उसे कहीं ज्यादा प्रतिष्ठïापूर्ण स्थान हासिल है अत: क्षमता की दृष्टिï से उसे किसी से कमतर नहीं आंका जा सका। चीन के ऐतराज के बावजूद मनमोहन सिंह तथा दलाई लामा की अरुणाचल यात्रा निश्चित ही विदेशमंत्री के इस दावे की पुष्टि करती है कि भारत को धमकियों से झुकाया नहीं जा सकता लेकिन यह वस्तु स्थिति का सिर्फ एक ही पहलू है। अरुणाचल में चीनी सैनिकों द्वारा घुसकर धमकाने की घटनाओं की केंद्र सरकार द्वारा अनदेखी और चीन की आपत्ति के बाद लेह( लद्दाख) में सड़क निर्माण पर रोक से इसकी दूसरी तस्वीर ही सामने आती है। भारत को 1962 की घटनाओं से सबक लेना चाहिए जब हिंदी चीनी भाई भाई के नारे के भ्रमजाल में उलझकर हमने चीन के नापाक इरादों का अंदाज लगाने में भूल की जिसका खमियाजा हम आज भी भुगत रहे हैं। जरूरत इस बात की है कि भारत चीन से सीमा विवाद सहित तमाम मुद्दों पर खुले दिल विचार तो करे लेकिन साथ ही उसकी किसी भी नाजायज मांग का सख्ती से प्रतिकार करे।

न्याय के अंजाम तक पहुंचे वसुंधरा प्रकरण

पुलिस के दावों के मुताबिक उसने फैशन टेक्नालाजी की छात्रा और बाहुबली पूर्व विधायक अशोक वीर विक्रम सिंह भैया राजा की नातिन वसुंधरा बुंदेला की मौत की गुत्थी अंतत: सुलझा ली है। प्रदेश में सनसनी फैला देने वाले इस लोमहर्षक हत्याकांड में जिन लोगों की गिरफ्तारी की गई हैं, उनमें खुद भैया राजा का नाम सबसे अधिक चौंकाने वाला है। अन्य गिरफ्तार आरोपियों में भी या तो भैयाराजा के रिश्तेदार हैं या फिर उनके नौकर। वसुंधरा बुंदेला की हत्या कई दिनों से मीडिया की सुर्खियों में है और पुलिस सूत्रों के हवाले से इस संबंध में मीडिया को जो जानकारियां उपलब्ध कराई गई हैं, उन्हें देखते हुए ही ये गिरफ्तारियां की गई हैं। हकीकत यह है कि पुलिस को इस संबंध में जो भी सुराग हाथ लगे थे उनके अनुसार शक की सुई भैया राजा के इर्द गिर्द ही घूम रही थी। अलबत्ता इस हाई प्रोफाइल प्रकरण में पुलिस पर राजनीतिक दबाव के जो आरोप लगाए जा रहे थे, पुलिस की कार्रवाई से फिलहाल निराधार सिद्ध हुए हैं। गृहमंत्री का यह बयान पुलिस की वस्तुपरक जांच में काफी मददगार रहा है कि बेगुनाह को बेवजह परेशान नहीं किया जाएगा लेकिन पुलिस पर इस सिलसिले में दवाब का कोई सवाल ही नहीं है। दरअसल यह सैद्धांतिक रूप से सही है कि जब तक किसी व्यक्ति पर दोष प्रमाणित न हो जाए तब तक उसे अपराधी नहीं माना जा सकता लेकिन इसके साथ ही यह भी उतना ही सच है कि जब तक अदालत किसी व्यक्ति को निर्दोष करार न दे दे तब तक उसे बेगुनाह भी नहीं माना जा सकता। भैया राजा को भी इस मामले में अपवाद नहीं माना जा सकता।जहां तक भैया राजा का सवाल है, वे छतरपुर में आतंक का पर्याय रहे हैं और उन पर हत्या सहित कई संगीन मुकदमे चल चुके हैं। यह अलग बात है कि उन पर कोई भी आरोप सिद्ध नहीं हो पाया। छतरपुर में तो उनके अपराधों से जुड़े किस्से लोगों की जुबान पर हैं। खुद भैया राजा खुद को इस मामले में बेगुनाह बता रहे हैं और पुलिस पर प्रताडऩा का आरोप लगा रहे हैं लेकिन पुलिस का दावा है कि उसके पास वसुंधरा की हत्या की साजिश में शामिल होने तथा घटना से जुड़े प्रमाण नष्टï करने के सिलसिले में राजा भैया के खिलाफ पक्के सबूत हैं और इसी आधार पर उन्हें गिरफ्तार किया गया है। पुलिस ने पहले भैया राजा की नौकरानी तथा रिश्ते की एक अन्य नातिन को हिरासत में लेकर सख्ती से पूछताछ की है और उनके द्वारा दी गई जानकारी के आधार पर ही उसने भैया राजा को गिरफ्तार किया है। हादसे से जुड़े समूचे घटनाक्रम से यह आभास अवश्य होता है कि इस मामले की जांच को राजनीतिक रूप से प्रभावित करने की कोशिशें यदा कदा चलती रही हैं। मसलन जब राजा भैया को पूछताछ के लिए थाने बुलाया गया था तो वे यह कहकर वहां से चले गए कि उन्हें मुख्यमंत्री से मिलने जाना है। यह अपने आप में पुलिस पर राजनीतिक दवाब डालने का परोक्ष प्रयास ही था। उनकी पत्नी एवं भाजपा की विधायक आशा देवी ने खुद मुख्यमंत्री तथा अन्य भाजपा नेताओं से मिलकर इस मामले में भैया राजा को निर्दोष बताते हुए उनके साथ इंसाफ की मांग की। लेकिन सरकार, भारतीय जनता पार्टी दोनों ने ही इस मामले में दखल करने से स्पष्टï तौर पर इंकार कर स्पष्टï कर दिया है कि कानून अपना काम करेगा। खुद भैया राजा यह दावा कर रहे हैं कि वे इस मामले में निर्दोष हैं और उन्हें बेवजह फंसाया जा रहे है। यदि उन्हें अपने निर्दोष होने का भरोसा है तो उन्हें अपने राजनीतिक रसूख के बेवजह इस्तेमाल से इस आपराधिक मामले को प्रभावित करने की कोशिश करने के बदले न्याय प्रणाली पर भरोसा करना चाहिए और इस बात का इंतजार करना चाहिए कि अदालत उन्हें निर्दोष सिद्ध करे।
-सर्वदमन पाठक

Thursday, December 17, 2009

जीत के जश्र के साथ हार पर आत्मचिंतन भी जरूरी

माननीय मुख्यमंत्री जी, आपके आसमान छूते मनोबल को मैं बारंबार प्रणाम करता हूं। इसी मनोबल के कारण तो आपने इतने कम समय में उपलब्धियों के आकाश को स्पर्श किया है जो प्रदेश के अन्य किसी भी भाजपा नेता के लिए सपना ही है। आपके नेतृत्व में प्रदेश में भाजपा ने दुबारा जनादेश हासिल किया और उसके कुछ माह बाद ही लोकसभा चुनाव में भाजपा को जबर्दस्त झटका लगा लेकिन दोनों ही स्थितियों में आपके मनोबल में कोई भी गिरावट नहीं आई। नगरीय निकायों के चुनाव के तुरंत बाद आई आपकी उत्साहपूर्ण प्रतिक्रिया आपके मनोबल की इसी यथास्थिति का विस्तार है। यह अलग बात है कि आपकी सरकार की नाक के नीचे भोपाल में नगर निगम परिषद पर कांग्रेस ने कब्जा कर लिया है और मेयर पद के चुनाव का परिणाम भाजपा प्रत्याशी कृष्णा गौर की जीत कम और कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में मैदान में उतारी गई नितांत ही अपरिचित उम्मीदवार आभा सिंह की हार ज्यादा है। यदि यह कहा जाए कि भोपाल के मेयर का पद भाजपा को कांग्रेस ने तश्तरी में रख कर दे दिया है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।दरअसल आपको उच्च मनोबल के स्थायी भाव को थोड़ा विराम देकर यह आत्मचिंतन तो करना ही चाहिए कि आखिर भोपाल के अधिकांश वार्डों में भाजपा हार कैसे गई। यक्ष प्रश्न यह है कि राजधानी जो सत्ता का शक्ति केंद्र तथा स्नायु तंत्र होती है, वहां अधिकांश वार्डों में जनता भाजपा प्रत्याशियों से रूठ कैसे गई। यदि आप खुद राजधानी की गलियों में घूम कर देखें तो आपको इस प्रश्र का उत्तर आसानी से मिल जाएगा। आजकल राजधानी की सड़कों एवं गलियों का यह आलम है कि यह किसी पिछड़े देहात से भी कहीं ज्यादा ऊबड़ खाबड़ हैं। इस पर सफर करते हुए हमें यह अहसास होता है कि हम चंद्र धरातल की सैर कर रहे हैं। नेहरू नगर और उसके आसपास की बस्तियों में तो इसी कारण सड़क हादसों की संख्या में खासा इजाफा हुआ है। लेकिन जब इसकी शिकायत संबंधित भाजपा पार्षदों से की गई तो उन्होंने उसे पूरी तरह अनसुना कर दिया। यही कारण था कि कई बस्तियों में तो भाजपा प्रत्याशियों को या उनके समर्थन में प्रचार करने वाले भाजपा कार्यकर्ताओं को मतदाताओं ने कई स्थानों पर घुसने तक नहीं दिया। इतना ही नहीं, भोपाल नगर निगम का पिछले पांच साल के कार्यकाल का परिदृश्य देखा जाए तो इसमें विपक्ष की रुचि जन समस्याओं को सुलझाने में कम और निगम के कामकाज में बाधा खड़ी करने में ज्यादा रही। कोलार नगर पालिका भी फिलहाल राजनीति के अखाड़े जैसी ही नजर आती है जिसमें आए दिन सत्तारूढ़ पक्ष एवं विपक्ष में रस्साकशी के कारण जन समस्याओं से जुड़ी मांगें नक्कारखाने में तूती की आवाज की तरह बेअसर रह जाती हैं। राजधानी प्रदेश का हृदय है। यदि प्रदेश में अपनी जीत का परचम फैलाने वाली भाजपा राजधानी में नगर निगम परिषद का चुनाव हार जाए तो ऐसा लगता है कि मानो राजमुकुट का हीरा ही गायब हो गया हो।वक्त का तकाजा है कि आप भोपाल शहर की राजनीतिक संस्कृति में आई विकृतियों को दूर करने और यहां की जन सुविधाओं को महानगरीय स्वरूप प्रदान करने में अपनी समुचित भूमिका निभाएं।
-सर्वदमन पाठक

Wednesday, December 16, 2009

कमला बुआ की जीत के निहितार्थ

मध्यप्रदेश के नगरीय निकायों की चुनावी जंग में सबसे दिलचस्प फैसला सागर से आया है जहां महापौर पद के चुनाव में किन्नर कमला बुआ ने भाजपा तथा कांग्रेस सहित तमाम प्रत्याशियों को चारों खाने चित्त कर अपना विजय ध्वज लहरा दिया है। इस परिणाम से भाजपा एवं कांग्रेस का चकित और लज्जित होना स्वाभाविक है क्योंकि एक किन्नर के हाथों उनकी इज्जत लुट गई है। लेकिन सागर की चुनावी फिजा से वाकिफ पर्यवेक्षकों को इस परिणाम से कोई आश्चर्य नहीं हुआ है क्योंकि इन दलों से उपजी नाउम्मीदी से सागर के मतदाता इस बुरी तरह निराश एवं हताश थे और वे उन्हें ऐसा झटका देने का मन बना चुके थे जिसे भुला पाना भी इन पार्टियों के लिए मुश्किल हो। इसी रणनीति के तहत वहां से मेयर पद के लिए किन्नर प्रत्याशी खड़ी की गई और सागरवासियों उसे भरपूर वोट देकर उसकी जीत को सुनिश्चित किया। इस फैसले के जरिये सागरवासियों ने यह संदेश इन पार्टियों को दे दिया कि किन्नर उनकी अपेक्षा कहीं ज्यादा भरोसेमंद है। निश्चित ही पार्टियों के लिए यह फैसला एक अपमान के कड़वे घूंट की तरह रहा है लेकिन सागरवासियों के इस फैसले के लिए ये पार्टियां खुद ही जिम्मेदार हैं क्योंकि उन्होंने सागर के विकास के लिए वस्तुत: कुछ नहीं किया। पूर्व में यहां की राजनीति पर कांग्रेस का कब्जा था और पिछले एक दशक से तो सियासी आधार पर चुनी जाने वाली वहां की तमाम लोकतांत्रिक संस्थाओं पर भाजपा का वर्चस्व है। सांसद, विधायक एवं नगरीय निकाय तक हर जगह उसी का बोलबाला नजर आता है और प्रदेश में उसी की सरकार है लेकिन सागर विकास के लिए तरसता रहा है। औद्योगिक विकास के नाम पर वहां के नेताओं ने ढेर सारे सब्जबाग सागरवासियों को दिखाए लेकिन वहां आज भी उद्योगों का नितांत अभाव है जिसकी वजह से बेइंतहा बेरोजगारी का आलम है। हालत यह है कि देश के शीर्षस्थ विश्वविद्यालयों में शुमार गौर विश्वविद्यालय बेरोजगारों की फेक्टरी में तब्दील हो गया दिखता है। वहां नगरीय सुविधाओं का तो भारी टोटा है ही, नगरीय चेतना जगाने के लिए भी कोई प्रयास नहीं किया गया है और उसके लिए भाजपा एवं कांग्रेस को जवाबदेही से कतई बरी नहीं किया जा सकता। कमला जान की जीत के माध्यम से लोगों ने सिर्फ इन दलों को नकारा ही नहीं है बल्कि काफी हद तक उनके बड़बोलेपन के प्रति उपजे आक्रोश को प्रदर्शित किया है। देखना है कि अपनी इस अपमानजनक हार से सबक लेकर भाजपा और कांग्रेस पुन: जनता के प्रति अपने दायित्वों के निर्वाह का संकल्प लेती हैं या नहीं।
-सर्वदमन पाठक

Tuesday, December 15, 2009

अथ पुलिस पिटाई कथा

भोपाल में पुलिस के मनोबल की क्या स्थिति है, यह एक घटना से बखूबी समझा जा सकता है। इस घटना का लब्बोलुवाब यही है कि छेड़छाड़ और मारपीट के एक आरोपी को ले जा रही पुलिस की जीप पर कुछ बदमाशों ने हमला कर दिया। इन बदमाशों ने जीप में तोडफ़ोड़ कर दी और पुलिसकर्मियों की पिटाई कर आरोपी को छुड़ा ले गए। हमारे रणबांकुरे पुलिस जवान इन बदमाशों से निरीह से पिटते रहे। यह अलग बात है कि बाद में उक्त आरोपी को पुलिस में गिरफ्त में ले लिया। अब आप कल्पना कर सकते हैं कि जो पुलिस बदमाशों के हाथों पिट जाएगी, वह इन बदमाशों से लोगों की रक्षा कैसे कर पाएगी। वैसे यह कोई पहला वाकया नहीं है जब बदमाश पुलिस पर भारी पड़े हैं। निकट अतीत में प्रदेश में कई स्थानों पर ऐसी कई घटनाएं हो चुकी हैं जिसमें पुलिस की बेचारगी झलकती है। थानों का घेराव आम बात हो ही गई है, कई स्थानों पर थानों पर हमले भी हुए हैं। इसको आप पुलिस की लाचारगी नहीं तो और क्या कहेंगे। लेकिन इसके लिए कई कारक जिम्मेदार हैं, जिन पर गंभीरता के साथ विचार की जरूरत है। मसलन पुलिस आम तौर पर निरपराधों को ही अपना निशाना बनाती है और अपराधियों से हफ्ता वसूलकर उन्हें बख्शती रहती है। इससे लोगों में आक्रोश भड़कना स्वाभाविक है। जब यह आक्रोश सीमा पार कर जाता है तो फिर बिना किसी अंजाम की परवाह किये लोग पुलिस से प्रतिशोध लेने की ठान लेते हैं। यदि पुलिस इस मामले में आत्मालोचन करे तो उसे आम लोगों के आक्रोश का कारण समझ में आ जाएगा। दरअसल पुलिस का चारित्रिक पतन ही उसकी इस दुर्दशा के लिए जिम्मेदार है। यदि पुलिस अपनी मूल ड्यूटी भूलकर सरकारी हितों को साधने के लिए काम करना शुरू कर दे तो इसे भी पुलिस के चारित्रिक पतन की श्रेणी में रखा जा सकता है। सिर्फ सरकार ही क्यों, पुलिस अफसरों के अलग अलग राजनीतिक आका होते हैं जिनमें विपक्ष के नेता भी शामिल हैं। उक्त तमाम कारकों का स्वाभाविक परिणाम यही होता है कि विभिन्न राजनीतिक नेताओं एवं राजनीतिक दलों से जुड़े अपराधियों पर पुलिस आम तौर पर हाथ नहीं डालती। कई बार पुलिस उन पर हाथ डालने की जुर्रत करती है तो उन्हें राजनीतिक कार्यकर्ताओं के गुस्से का शिकार होना पड़ता है। भोपाल में तो यह आए दिन की बात हो गई है कि सत्तारूढ़ दल के किसी भी कार्यकर्ता को पुलिस किसी आरोप में पकड़कर लाती है तो इस राजनीतिक दल के कार्यकर्ताओं का हुजूम पुलिस थाने पहुंच जाता है और पुलिस अफसरों और पुलिस कर्मियों से दुव्र्यवहार और कई बार तो झूमाझटकी करके उक्त आरोपी को छुड़ा ले जाता है। कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में यही कुछ कांग्रेस करती थी जिसके इक्का दुक्का उदाहरण आज भी देखे जा सकते हैं। यदि पुलिस को इस दुर्गति से मुक्ति पानी है तो उसे चारित्रिक सुधार करना होगा और राजनीतिक कारणों से अपराधियों को पकडऩे या छोडऩे की प्रवृत्ति छोडऩी होगी। इसके साथ ही माफिया एवं अपराधियों के हाथों में खेलना और निरपराधों को उनके इशारे पर फंसाना बंद करना होगा लेकिन जब तक पुलिस के अभियान में सरकार का सहयोग न मिले, तब तक यह अभियान सफल होना संभव नहीं है।
-सर्वदमन पाठक

Thursday, December 10, 2009

चुनाव यज्ञ में सार्थक हिस्सेदारी करें

मध्यप्रदेश में होने जा रहे विभिन्न नगर निकाय चुनावों मेें मतदान का अंतिम दौर 14 दिसंबर को संपन्न हो जाएगा और प्रत्याशियों की किस्मत सील हो जाएगी। चुनाव प्रचार का जितना सघन अभियान इस नगर निकाय चुनाव में देखा गया है, वह नगरीय चुनाव में शायद ही देखने मिलता है। यह चुनाव कांग्रेस और भाजपा के बीच शक्ति प्रदर्शन जैसा प्रतीत हो रहा है और इन दोनों पार्टियों के प्रत्याशियों ने अपनी पूरी ताकत चुनाव में झोंकी हैं। संसाधनों का अंधाधुंध इस्तेमाल इसका प्रमाण है। इतना ही नहीं, बाहुबल के जरिये भी मतदाताओं को प्रभावित करने का भरपूर प्रयास किया गया है। कई क्षेत्रों में निर्दलीय व अन्य दलों के प्रत्याशियों के रूप मेें खड़े हुए बाहुबली अथवा धनपति भी अपनी चुनावी संभावनाओं को उज्जवल बनाने के लिए बाहुबल एवं धनबल का सहारा लेने से बाज नहीं आए हैं। इधर यह भी खबर है कि मतदाताओं से परिचय पत्र न मांगने के भी निर्देश दिये गए हैं जिससे फर्जी मतदान की संभावना को बल मिला है। यह आश्चर्यजनक है कि यह सब कुछ बिना किसी खास अवरोध के किया जा रहा है। इससे यही महसूस होता है कि इसमें किसी भी कोई ऐतराज नहीं है मानो मौका लगते ही सत्ता एवं विपक्ष में बैठे तमाम दल और प्रत्याशी इस मामले में बहती गंगा में हाथ धो लेना चाहते हों। यदि इस निर्देश से फर्जी मतदान को बढ़ावा मिलता है तो यह निश्चित ही लोकतंत्र के साथ खिलवाड़ होगा। दरअसल फर्जी मतदान मतदाताओं के अधिकार पर डाका ही है। जब सरकार एवं विपक्ष दोनों ही इस सिलसिले में जानबूझकर मौन हैं तो फिर सारी जिम्मेदारी मतदाताओं पर ही आ टिकती है। मतदाताओं को इस राजनीतिक साजिश को नाकामयाब करने के लिए आगे आना चाहिए और मतदान के दिन यथाशीघ्र अपने वोट का इस्तेमाल करना चाहिए ताकि कोई उनके वोट को फर्जी तरीके से न डाल सके। लेकिन सिर्फ इससे ही उनका फर्ज खत्म नहीं हो जाता। उन्हें यह भी तय करना होगा कि उनका वोट ऐसे ईमानदार एवं योग्य प्रत्याशियों के पक्ष में गिरे जिनमें जनसेवा का जज्बा हो। सिर्फ महंगे प्रचार या भावनात्मक ब्लेकमेल से प्रभावित होकर वोट डालना अपने मताधिकार का दुरुपयोग ही है। यदि आप राजनीति को परिष्कृत करना चाहते हैं तो फिर शालीनता की राजनीति के हिमायतियों के पक्ष में ही अपने वोट का इस्तेमाल करें। राजनीति की विकृतियों को दूर करके ही देश-प्रदेश को आगे ले जाया जा सकता है। इसमें एक प्रमुख विकृति पुरुषवादी सोच भी भी है। राज्य एवं केंद्र सरकार ने तमाम तरह के संशोधन कर इस विकृति को दूर करने का प्रयास किया है लेकिन आप भी मतदान के जरिये इसमें अपना योगदान दे सकते हैं। आपको सिर्फ यह करना है कि आप उस प्रत्याशी के पक्ष में अपना वोट डालें जो महिलाओं के प्रति सम्मानजनक नजरिया रखता हो। आपकी यह सोच राजनीति को एक रचनात्मक दिशा मिलने में मददगार होगी। आपसे यही उम्मीद है कि आप लोकतंत्र को सुदृढ़ता प्रदान करने के लिए न केवल अपना वोट डालेंगे बल्कि यह भी सुनिश्चित करेंगे कि आपका वोट सुयोग्य प्रत्याशी के पक्ष में ही पड़े।
-सर्वदमन पाठक

Tuesday, December 8, 2009

चुनावी विकृतियों पर अंकुश जरूरी

मध्यप्रदेश में नगर निकाय चुनाव का प्रचार अभियान अपने अंतिम चरण में है। चाहे मेयर का चुनाव हो या पार्षदों का, स्वाभाविक रूप से इस बार भी पूर्व की तरह ही कांग्रेस एवं भाजपा के बीच ही प्रमुख टक्कर है। कुछ क्षेत्रों में अवश्य ही विद्रोही प्रत्याशी इन दलों के समीकरण को बिगाड़ रहे हैं और इक्का दुक्का स्थानों में बसपा, सपा भी जोर मार रही है, यह अलग बात है कि इनकी यह कोशिश कहां तक रंग लाती है। दरअसल दोनों ही प्रमुख दल कई निर्वाचन क्षेत्रों में गुटबाजी के कारण गलत प्रत्याशियों को मैदान में उतारने का खमियाजा भुगत रहे हैं। सभी दलों में कमोवेश इस पर खासी नाराजी है कि पार्टी के प्रति निष्ठïा एवं सेवाओं को दरकिनार कर ऐसे लोगों को प्रत्याशी बनाया गया है जो कि अयोग्य एवं अक्षम हैं। लेकिन अब तीर कमान से निकल चुका है और असंतुष्टïों को या तो मना लिया गया है या फिर चुनाव में यह कोशिश की जा रही है कि उनके असंतोष का पार्टी की संभावनाओं पर ज्यादा असर न पड़े। अब तो सभी प्रत्याशियों का पूरा जोर इसी बात पर है कि अंतिम चरण के प्रचार मेें मतदाताओं को अपनी खूबियों और प्रतिद्वंदी की खराबियों के बारे में येन केन प्रकारेण आश्वस्त कर दिया जाए और इसके लिए हर उस हथकंडे का इस्तेमाल किया जा रहा है जो परवान चढ़ सकता है। भले ही यह स्थानीय स्तर का चुनाव हो लेकिन इसमें भी वैसा ही माहौल देखा जा रहा है जैसा कि विधानसभा एवं लोकसभा चुनाव में देखा जाता है।इसमें भी बाहुबल और धनबल का प्रभाव साफ देखा जा सकता है। कई चुनाव क्षेत्रों में यह चुनावी जंग किसी जंग की तरह ही लड़ी जा रही है जिसमें सभी कुछ जायज होता है। लोगों को प्रलोभन देकर वोट बंटोरना तो आम बात है। आखिर ऐसे चुनावी वायदे भी तो नाजायज प्रलोभन ही हैं, जिन्हें पूरा किया जाना मुमकिन न हो। चप्पे चप्पे पर प्रचार करते आलीशान वाहन और अचानक उग आई कार्यकर्ताओं की फौज चुनावी सरगर्मी को बखूबी बयां कर सकती है। कई स्थानों पर हिंसा की खबरें सामने आ रही हैं जो चुनावी माहौल में आई विकृति का ही प्रतीक है। इस बात की भी संभावना जताई जा रही है कि चुनाव में फर्जी मतदान की बड़े पैमाने पर कोशिश हो सकती है। फर्जी मतदान दरअसल लोकतंत्र की मूल भावना को क्षति पहुंचाता है क्योंकि इससे कई स्थानों पर वे प्रत्याशी जीत जाते हैं जिन्हें जनता चुनना नहीं चाहती। सरकार यदि चाहती है कि चुनाव जन आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करें तो उसे फर्जी मतदान की किसी भी कोशिश को सख्ती से रोकना चाहिए। इसी तरह से प्रलोभन और बाहुबल के बल पर चुनाव जीतने के मंसूबे बांध बैठे प्रत्याशियों पर भी नकेल कसी जानी चाहिए ताकि ऐन चुनाव के वक्त उन्हें इसका लाभ न मिल सके।चुनावी विकृतियों पर अंकुश लगाने के लिए सबसे अधिक आवश्यक यह है कि मतदाताओं में चेतना आए और वे गलत तरीके अपनाने वाले प्रत्याशियों पर भरोसा न करें और उन्हीं प्रत्याशियों को चुनें जो उनके भरोसे पर खरे उतर सकें क्योंकि सिर्फ सरकार या प्रशासन के बल पर यह लोकतांत्रिक यज्ञ सफल नहीं हो सकता।
-सर्वदमन पाठक

Friday, December 4, 2009


सियासत की गोटियां नहीं हैं गैस पीडित

सन 1984 को 2 एवं 3 दिसंबर की मध्यरात्रि भोपाल के लिये पीड़ा का सैलाब लेकर आई। इस रात को यूनियन कार्बाइड के संयंत्र से रिसी मिक गैस ने राजधानी में ऐसा वायु प्रलय मचाया कि यह झीलों का शहर आहों और आंसुओं की नदी में तब्दील हो गया। उस जानलेवा रात शहर में मौत नाच नाच कर मातम की मुनादी कर रही थी और शहर के तमाम लोग बदहवास से जान बचाने के लिए चारों तरफ भाग रहे थे। इस काली रात की सुबह हुई तो तमाम दुनिया यह जान चुकी थी कि बहुराष्टï्रीय कंपनी यूनियन कार्बाइड ने भोपाल की तकदीर में औद्योगिक त्रासदी के रूप में ऐसी भयावह इबारत लिख दी है कि जिसकी मिसाल दुनिया में नहीं मिलती। शहर के श्मसान एवं कब्रिस्तान भी मौत के आगोश में समाये बदकिस्मत लोगों के अंतिम संस्कार के लिए छोटे पड़ गए और मौत द्वारा फैलाए गए इस जाल से किसी तरह बच निकले लाखों लोगों में से बहुत से लोग आज भी ऐसी जिंदगी जीने को मजबूर हैं जो मौत से भी बदतर है। गैस त्रासदी की बरसी आते ही इन गैस पीडि़तों के घाव पर मरहम लगाने के नाम पर उन्हें मुआवजे, पुनर्वास तथा मुफ्त चिकित्सा उपलब्ध कराने जैसे कदमों की जानकारी वाले ब्रोशर जारी कर राज्य सरकारें अपनी पीठ थपथपाने की कोशिश कर लेती हैं लेकिन यक्ष प्रश्र यह है कि क्या इन गैस पीडि़तों को उनका हक मिल पाया है। इन गैस पीडि़तों को मुआवजा इस अंदाज में बांटा गया है मानो उनके आत्म सम्मान की बोली लगाई जा रही हो। आज भी अस्पतालों की अव्यवस्था इतनी भयावह है कि ये अस्पताल कई बार तो गैस पीडि़तों के यातनागृह नजर आते हैं। गैस प्रभावित बस्तियों में श्वास तथा अन्य कई गंभीर बीमारियों के कारण रेंगती जिंदगियां हर कदम पर देखी जा सकती हैं। अभी कल ही जारी हुई ईएसई की रिपोर्ट के अनुसार यूका कचरे के कारण इन बस्तियों का भूजल भी इतना जहरीला हो गया है कि आने वाली पीढिय़ों पर भी धीमी मौत का खतरा मंडराने लगा है। हम हर साल गैस कांड की बरसी पर मशाल जुलूस निकालकर और जंगी प्रदर्शन करके -डाउन विथ एंडरसन- तथा -मौत के सौदागरों को फांसी दो- जैसे नारे लगाते हैं लेकिन इस मुकदमे का यह आलम है कि गैस कांड के आरोपी मौत के सौदागर आज भी बेखौफ घूम रहे हैं। लोगों की धारणा है कि बहुराष्टï्रीय कंपनियों एवं सत्ता के बीच मिलीभगत भी इस विलंब के लिए जिम्मेदार है। इस मामले में कोई भी सरकार दूध की धुली नहीं रही है। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि विभिन्न राजनीतिक दल गैस पीडि़तों के नाम पर अपनी वोट बैंक की राजनीति साधने की कोशिश में जुटे हुए हैं। गैस पीडि़तों के ध्वजवाहक होने का दावा करने वाले कुछ संगठन भी जाने-अनजाने इसमें मददगार हो रहे हैं जो गैस पीडि़तों के साथ छल के अलावा कुछ नहीं है। इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि गैस पीडि़तों के हक की लड़ाई कमजोर पड़ रही है। उम्मीद की जानी चाहिए कि गैस कांड की पच्चीसवीं बरसी पर तो कम से कम सरकार, गैसपीडि़तों के संगठन, राजनीतिक दलों सहित वे तमाम पक्ष, जो खुद को गैसपीडि़तों का मसीहा बताते नहीं थकते, आत्म विश्लेषण एवं आत्मालोचन करेंगे और ईमानदारी से संकल्प करेंगे कि वे तब तक चैन की सांस नहीं लेंगे जब तक कि गैसपीडि़तों को पूरी तरह न्याय नहीं मिल जाता।

-सर्वदमन पाठक

Tuesday, December 1, 2009

आतंकवाद का पैैैशाचिक चेहरा

एक पुलिसकर्मी सहित तीन लोगों को गोलियों से भून डालने की खंडवा में हुई आतंकवादी वारदात प्रदेश में आतंकवाद के पुन: सिर उठाने का संकेत है। सरकार की यह स्वीकारोक्ति भी इसका प्रमाण है कि इस घटना के पीछे आतंकवादी हाथ होने की संभावना है। यदि मीडिया की खबरों पर भरोसा किया जाए तो सिमी के कार्यकर्ताओं की धरपकड़ का बदला लेने के लिए यह कार्रवाई की गई है। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि इस वारदात को अंजाम देने वाला आतंकवादी भाग निकला और उसे अभी तक पकड़ा नहीं जा सका है। यदि कोई आतंकवादी बेगुनाहों की जान लेने के अपने नापाक मंसूबों को सरे बाजार अंजाम देकर फरार होने में सफल हो जाए तो इससे पुलिस सहित समूची सुरक्षा व्यवस्था की क्षमता तो संदेह के दायरे में आती ही है, उन लोगों के मानवीय फर्ज पर भी सवाल उठना स्वाभाविक है जो घटना के वक्त वहां मौजूद थे और इस घटना के चश्मदीद गवाह थे लेकिन उन्होंने राष्टï्र के इस दुश्मन को पकडऩे का जज्बा नहीं दिखाया। राष्टï्र के प्रति अपनी निष्ठïाएं इतनी कमजोर क्यों होनी चाहिए कि आतंकवाद उस पर भारी पड़ जाए। सवाल यह भी है कि आखिर हमें अपनी सुरक्षा के लिए सिर्फ पुलिस तथा सुरक्षा बलों पर ही आश्रित क्यों रहना चाहिए। राज्य सरकार ने इस घटना के बाद संकल्प व्यक्त किया है कि इसके आरोपी को शीघ्र ही सींखचों के पीछे लाया जायेगा और इसे इसकी करनी की समुचित सजा दिलाई जाएगी। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने घटना के शहीदों को श्रद्धांजलि देते हुए कहा है कि राज्य में आतंकवाद को समूल नष्टï किया जाएगा। राज्य सरकार की यह घोषणा कुछ भरोसा अवश्य दिलाती है लेकिन वास्तविकता पर नजर डालें तो यही प्रतीत होता है कि पिछले कुछ सालों में प्रदेश में आतंकवादी गतिविधियां काफी फैलती रही हैं। विशेषत: सिमी की गतिविधियों में कुछ वर्षों से काफी इजाफा हुआ है। मालवा में तो मानो आतंकवाद की फैक्टरी ही चल रही थी। इतना ही नहीं, आतंकवाद की प्रतिक्रियास्वरूप भी यहां एक तरह के उग्रवाद ने सिर उठा लिया था और सरकार इसका खात्मा करने में सफल नहीं रही। आतंकवाद के सफाये के लिए जरूरी है कि शासन प्रशासन इसके लिए पूरी ईमानदारी से अभियान चलाए और वोट बैंक की खातिर किसी भी तरह के आतंकवाद के प्रति नरम रुख न अपनाए। उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार आतंकवाद के सफाये के अपने वादे पर खरी उतरेगी और प्रदेश में विकास के लिए जरूरी शांति का वातावरण बनाने में कामयाब होगी।

-सर्वदमन पाठक