Wednesday, October 14, 2009

आत्मघाती आस्था

मुरैना जिले के सांवरिया गांव में एक साधु का आत्मदाह रोंगटे खड़े कर देने वाली घटना है। हैरत की बात तो यह है कि इस घटना के दौरान पुलिस मौजूद थी लेकिन वह पूरी तरह से मूकदर्शक बनी रही। दरअसल यह घटना धर्म के नाम पर बनाई गई ऐसी अवैज्ञानिक धारणा का परिणाम है जिससे उपजी मनोवैज्ञानिक विकृतियां आत्मघात की हद तक जा सकती हैं। उक्त साधु को भी यह गलतफहमी हो गई थी कि वह खुद को अग्रि को समर्पित कर मोक्ष प्राप्त कर लेगा। यह घटना पुलिस की निष्क्रियता एवं अकर्मण्यता को भी रेखांकित करती है क्योंकि उक्त साधु ने यह कदम अकस्मात ही नहीं उठाया बल्कि वह पूरे गांव में घूम घूम कर इसकी घोषणा करता रहा। पुलिस को भी इसके बारे में अग्रिम रूप से जानकारी थी और पुलिस को वहां भेजा भी गया था लेकिन पुलिस ने इस दिल दहला देने वाले हादसे के रोकने के लिए कुछ नहीं किया। एक पुलिस अधिकारी ने प्रेस कांफ्रेस में इस घटना को महाराज जी के समाधि लेने जैसा कदम बताते हुए इसे महिमामंडित करने का प्रयास किया। इससे यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि पुलिस भी साधु से चमत्कृत थी और इसी वजह से उसने इसे रोकने की इच्छाशक्ति नहीं दिखाई। इस पूरे मामले पर राज्य सरकार की प्रतिक्रिया भी कम आश्चर्यजनक नहीं रही। गृहमंत्री जगदीश देवड़ा ने तो इस पर जो प्रतिक्रिया दी, वह सरकार की संवेदनशीलता पर ही प्रश्र चिन्ह लगा गई। उन्होंने दोषी पुलिसकर्मियों पर सख्त कार्रवाई की घोषणा करने के बदले इसे जांच का विषय बताकर जाने अनजाने में इसकी गंभीरता को कम करने का प्रयास किया है। संभवत: प्रदेश की सत्ता पर काबिज पार्टी का धार्मिक रुझान भी इसका एक कारण हो सकता है। लेकिन इस घटना के समय साधु को रोकने के बदले उसकी जय जयकार करने वाली भीड़ को भी इस मामले में कम दोषी नहीं माना जा सकता जो आस्था के नाम पर भावनाओं के ऐसे ज्वार में बह रही थी जिसका वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं था। यह आत्मदाह भी सती प्रकरण जैसा ही मामला है जो भीड़ के मनोविज्ञान पर आधारित है। पुलिस ने कई बार सती होने की घटना अथवा उसके प्रयास पर आपराधिक प्रकरण दर्ज कर कानून सम्मत कार्रवाई की है और दिग्विजय सरकार के शासनकाल में तो सती होने संबंधी एक दो प्रकरणों पर पूरे गांव पर सामूहिक जुर्माना भी लगाया गया था तब इस मामले में पुलिस ने सख्ती के साथ कार्रवाई क्यों नहीं की, यह समझ से परे है। पुलिस का यह तर्क गले नहीं उतरता कि कार्रवाई करने पर भीड़ के हिंसक होने का खतरा था। भीड़ की हिंसा का भय दिखाकर यदि पुलिस अपने कर्तव्य से मुंह मोड़ ले तो फिर ऐसी पुलिस पुलिस के नाम पर धब्बा ही है। राज्य सरकार को इस मामले की गंभीरता को महसूस करते हुए फर्ज न निभाने वाले पुलिस कर्मियों पर तो समुचित कार्रवाई करनी ही चाहिए, उन लोगों पर भी सामूहिक रूप से कार्रवाई होना चाहिए जो जय जयकार करने वाली भीड़ का हिस्सा बनकर परोक्ष रूप से इस घटना को अंजाम देने में मदद कर रहे थे।
-सर्वदमन पाठक

2 comments:

  1. आपने एक बहुत ही गम्भीर मुददे पर सही बात कही है।
    धनतेरस की हार्दिक शुभकामनाएँ।
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  2. आपका रोष सही है, लेकिन मुझे लगता है कि इस मामले में पुलिस को ज़्यादा दोषी नहीं ठहराया जा सकता. पुलिस ऐसे मामलों में चाहकर भी कुछ ख़ास कर भी नहीं सकती. क्योंकि इसकी असली जड़ लोगों की मानसिक जड़ता में छुपी हुई है और इसके लिए ज़िम्मेदार हमारी राजनीति है, जिसने उन्हें जान-बूझ कर जड़ बनाए रखा है. जब इस राजनीति का इलाज नहीं होता तब तक कुछ भी बेहतर उम्मीद नहीं की जा सकती.

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