Tuesday, October 27, 2009

पुलिस हिरासत में मौत?

संवैधानिक प्रावधान के अनुसार तो पुलिस पर लोगों की जान माल की रक्षा की जिम्मेदारी होती है लेकिन वह बार बार इसके ठीक विपरीत आचरण करती नजर आती है। राज्य सरकार की नाक के नीचे राजधानी भोपाल में पुलिस हिरासत में मौत की खबर इसी हकीकत को रेखांकित करती है। इस त्रासद हादसे के चश्मदीद गवाहों के बयान पर गौर करें तो यही बात स्पष्टï रूप से उभर कर सामने आती है कि पुलिस ने दो बेगुनाह युवकों को लूट के इल्जाम में धर दबोचा और अपराध कबूल करवाने के लिए उनकी इस बेरहमी से पिटाई की कि बाद में एक युवक ने दम तोड़ दिया। अपनी परंपरा के अनुसार अब पुलिस यह कहानी गढऩे में जुटी है कि उसने तो पूछताछ के बाद ही उसे छोड़ दिया था और वह अपनी मौत मर गया। इसके लिए पुलिस उन तमाम हथकंडों का इस्तेमाल कर रही है जिसके लिए वह जानी जाती है। मसलन मृतक युवक के साथी पर दबाव बनाया जा रहा है कि वह पुलिस द्वारा गढ़ी जा रही कहानी की तस्दीक कर दे। अन्य चश्मदीदों पर भी दबाव की पुलिसिया रणनीति अपनाई जा रही है। एसपी ने खुद डीजी को पत्र लिखकर इसकी न्यायिक जांच कराने की सिफारिश की है लेकिन संभावना यही है कि इसकी प्रशासनिक जांच की घोषणा कर इस घटना से उठे जन आक्रोश को शांत कर दिया जाए और पुलिस की दोषमुक्ति का रास्ता भी साफ कर दिया जाए क्योंकि यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि प्रशासनिक जांच आम तौर पर पुलिस को बरी करने के सरकारी तौर तरीके के तौर पर ही जानी जाती रही है। पुलिस हिरासत में मौत का यह कोई पहला मामला नहीं है। दरअसल पुलिस हिरासत में मौत आए दिन अखबारों एवं प्रिंट मीडिया की सुर्खियों में रहती है और पुलिस उसके बाद कमोवेश ऐसी ही कहानी गढ़ती नजर आती है जैसी कि इस मामले में गढ़ी गई है। न्यायालय कई बार ऐसे निर्देश दे चुकी है कि पुलिस अपनी कार्यशैली में चारित्रिक बदलाव लाए ताकि उसका चेहरा मानवीय नजर आए और लोग भय खाने और उससे दूर भागने के बदले उसे सहयोग करें लेकिन पुलिस आज भी उतनी ही खूंखार नजर आती है जितनी कि वह पहले थी। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि पुलिस आज अपराधियों से गठजोड़ जैसी चारित्रिक गिरावट और खूंखार चेहरे के कारण अपराधों की रोकथाम वाली एजेंसी की अपनी पहचान खो बैठी है और आम तौर पर अपराधियों की तरह ही व्यवहार करती नजर आती है। एक बेगुनाह को शारीरिक यंत्रणा देकर मौत के घाट उतार देना ऐसे ही अपराध की श्रेणी में आता है। ऐसे अपराध को प्रश्रय देना या इसमें शामिल अपराधियों को बचाने के प्रयास करना भी उससे कम बड़ा अपराध नहीं है। अत: इसकी निष्पक्ष जांच होनी चाहिए और दोषी पुलिसकर्मियों को उनके किये की सजा अवश्य मिलनी चाहिए । उन्हें जांच के जरिये बचाने का कोई भी प्रशासनिक अथवा सरकारी प्रयास नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन पुलिस के चेहरे पर लगी अमानवीयता की कालिख तो तभी दूर होगी जब पुलिस के आचरण में आवश्यक सुधार किया जाए और उन्हें मानवीयता के सांचे में ढाला जाए। देश की शीर्ष अदालत ने कभी कहा था कि पुलिस बल अपराधियों का संगठित गिरोह बन गया है। देखना यही है कि पुलिस अपने इस बदनुमां धब्बे को धोने और अपनी कर्तव्यपरायण छवि बहाल करने के लिए कोई संकल्पशीलता का परिचय देती है या सब कुछ यों ही चलता रहता है।
-सर्वदमन पाठक

2 comments:

  1. पुलिस तो अपने मनमाने ढंग से कार्य करती है,करें भी तो क्या???

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