Monday, October 19, 2009

कब्रबिज्जू नहीं, कद्रदान बनिये

भारत ऐसा देश है जहां जिंदा लोगों से ज्यादा मुर्दों की चर्चा होती है, उन्हें लेकर वैचारिक टकराव होता है, राजनीतिक रस्साकशी होती है, किसी इतिहास पुरूष की मूर्ति तोड़ी जाती है तो किसी धर्म ग्रंथ का पन्ना नोंचा जाता है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बावजूद कृतियों पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है । मूलत: इतिहास जीवी होने के कारण हम वर्तमान की चुनौतियों को सीधे स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं । इसके विपरीत दुनिया के अधिकांश देशों ने अतीत के तमाम बोझ को उतार फेंका है । उनके लिये वर्तमान ही सर्वस्व है । यही वजह है कि पश्चिम का कोई विचारक विचारधाराओं के अंत की घोषणा करता है तो दूसरा इतिहास के अंत की उद्भावना उछालता है । इतिहास का रथ ऐसे दावे-प्रतिदावों को रौंदता हुआ आगे बढ़ता रहा है । इतिहास एक निहायत ही उलझी हुई गुत्थी है, अनगिनत टुकड़ों में बंटी पहेली है, अपने-अपने चश्मे से काल खंडों को देखने, नायकों व खलनायकों को आंकने की प्रक्रिया है, समय के साये के पीछे भागने की मृगतृष्णा है जो विचारधारा के साथ बंधने पर कुदृष्टि की शक्ल अख्तियार कर वितंडावाद को बढ़ावा देती है । कुछ लोग तो महज चकल्लस के खातिर भी समय-असमय इतिहास एवं पुराणों से जुड़ा कोई भी मुद्दा गरमा देते हैं । इतिहास के साथ यह विसंगति प्रारंभ से है कि वह अपनेे समय के राजा-महाराजाओं व बादशाहों और सम्राटों के हाथों की कठपुतली रहा है । अत: उसे सच्ची-झूठी गाथाओं का पुलिंदा कहा जाता है । जिसका राज होता है, इतिहास उसके पीछे चलता है । जब केन्द्र में भाजपा सत्ता में थी तब इतिहासकारों का एक ऐसा जत्था उठ खड़ा हुआ जिसने पांच हजार साल के विराट भारतीय इतिहास के अनेक चरणों को सांस्कृतिक श्रेष्ठता का स्वर्णकाल घोषित कर हिन्दू दृष्टि व परंपरा का खुलकर प्रशस्ति किया । दूसरी ओर वामपंथी और उनके धर्म निरपेक्षतावादी हमसफर हिंदू दृष्टि को संकीर्ण, दकियानूस, कालातीत बताते हुये उसके अंतर्विरोधों पर लंबे समय से प्रहार करते रहे हैं । इतिहास लेखन में ये दोनों धाराएं आपस में टकराती रही हैं । इसके नतीजतन स्कूलों के पाठ्यक्रमों को बार-बार बदला गया है । इतिहास के बारे में यह कथन काफी मशहूर है कि जिस तरह युद्ध का मामला पूरी तरह सेनापतियों के हवाले नहीं किया जा सकता उसी प्रकार इतिहास लेखन पर भी पेशेवर इतिहासज्ञों का एकाधिकार स्वीकार नहीं किया जा सकता । इसलिये अकादमिक इतिहासकारों के साथ ही गैर अकादमिक मगर अध्ययनशील लोग भी इतिहास के यक्ष प्रश्नों से जूझते हैं तथा कभी-कभी ऐसी कालजयी कृतियां समाज को सौंप देते हैं जिनसे हमारी समझ के क्षितिज विस्तृत हो जाते हैं । स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी जन नायक और आधुनिक भारत के निर्माता पं. जवाहरलाल नेहरू की पुस्तक 'डिस्कवरी ऑफ इंडियाÓ इसी श्रेणी में आती है । उन्होंने जेल में रहते हुये यह ग्रंथ लिखा था । इसी तरह लोकमान्य इतिहास की आर्यों के मूल स्थान संबंधी मान्यताएं और 'गीता रहस्यÓ जैसी अनमोल कृति भी कारावास की अनूठी देन हैं । नेहरू तो उस विरली श्रेणी में आते हैं, जिन्होंने इतिहास केवल लिखा ही नहीं, बल्कि इतिहास रचा भी । अपनी बौद्धिक ऊंचाई, गहरी भाव भूमि व मोहक भंगिमाओं के बल पर न सिर्फ गांधीजी के सबसे चहेते हो गये बल्कि भारतीय जनता के भी सबसे लाड़ले नेता साबित हुये । जब स्वाधीन भारत में सत्ता के नेतृत्व का सवाल उठा तो बगैर किसी विरोध के उन्हें देश की बागडोर सौंप दी गयी । हालांकि इस स्थापना को लेकर देश में आम सहमति है कि अगर सरदार पटेल प्रधानमंत्री की कुर्सी पर होते तो भारत कहीं अधिक सशक्त राष्टï्र के रूप में उभरता । सरदार ज्यादा समय तक जीवित नहीं रहे । उनके परिदृश्य से हटते ही नेहरू का सरकार और पार्टी पर एकाधिकार कायम हो गया । साथ ही चल पड़ा व्यक्ति पूजा का सिलसिला, जो सीधे लोकतंत्र की आत्मा पर आघात पहुंचाता है तथा जिसकी चपेट में कई छोटे और बड़े दल आ गये हैं । इन तमाम बिन्दुओं पर काफी कुछ लिखा जा चुका है, किन्तु जिसे लेकर सबसे ज्यादा दहकते द्वंद्व हुये हैं वह है - भारत विभाजन में गांधी, जिन्ना, पं. नेहरू और पटेल की भूमिका । यह सही है कि जिन्ना ने अपने सार्वजनिक जीवन की शुरूआत धर्मनिरपेक्षता के साथ की थी । जब यह पाया कि कांग्रेस में नेतृत्व के शीर्ष स्तर पर पहुंचना मुमकिन नहीं है तो घोर मौका परस्त बनकर मुस्लिम लीग का दामन थाम लिया, उसके नेतृत्व को पीछे खिसकाकर सर्वेसर्वा हो गये । पाकिस्तान का नारा उछालकर मुस्लिम समाज में सांप्रदायिक अलगाव की जबरदस्त ज्वाला धधका दी । अंग्रेजों के लिये भारत को खंडित करने का इससे बेहतर मौका और क्या हो सकता था ? उनकी तरफ से कुछ ऐसी कूटनीतिक चालें चली गयीं कि लपटें और तेज हो गयीं । कांग्रेसी नेताओं ने विभाजन को टालने की हर संभव कोशिश की । गांधीजी ने यहां तक कहा दिया कि जिन्ना एकीकृत भारत के प्रधान मंत्री बन जाएं मगर उसे बांटे नहीं । सरदार पटेल ने गांधीजी पर दबाव डाला कि ऐसी आत्मघाती बातें नहीं करें । उधर नेहरू पर यह आरोप लगता रहा है कि वे लार्ड माउंटबेटन के इतने प्रभाव में थे कि बंटवारे के सुझाव पर तत्परतापूर्वक अपनी मुहर लगा दी । इन सब मुद्दों को लेकर बहसें होती रही हैं इसमें एक अजीबोगरीब आयाम कोई दो वर्ष पूर्व उस समय जुड़ गया जब भाजपा के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवानी ने जिन्ना की प्रशंसा करते हुये उसे खुल्लमखुल्ला धर्मनिरपेक्षतावादी कह दिया । इसे लेकर राजनीतिक भूचाल आ गया । नाराज संघ के निर्देश पर भाजपा का अध्यक्ष पद छोडऩा पड़ा । इसे दुस्साहस कहा जाए या अकादमिक उन्मेष कि हाल में भाजपा के वरिष्ठ नेता व पूर्व विदेश मंत्री जसवंतसिंह ने भारत विभाजन को लेकर एक भरा-पूरा ग्रंथ प्रकाशित कर दिया । उसमें उसी जिन्ना राग को गूंथ दिया जिसके कारण आडवानी को दंडित होना पड़ा था । इस बार पार्टी और संघ दोनों के तेवर और अधिक कड़े हो गये और बिना ''अपील, दलील और वकीलÓÓ के जसवंतसिंह को पार्टी से बाहर कर दिया गया । अभिव्यक्ति के स्वतंत्रता के पक्षधरों ने जसवंत का जरूर साथ दिया । उनका कहना था कि अकादमिक मामले अकादमिक स्तर पर ही निबटाये जाने चाहिये, तर्क का जवाब तर्क से दिया जाना चाहिये । राजनीति को इससे अलग-थलग रखा जाना चाहिये । मगर भाजपा उन्हें क्षमा करने को तैयार नहीं हुई । इस सारे प्रकरण में फिर भी यह सवाल तो उठता ही है कि जो दोहरी भूमिका को अंजाम देते हैं, राजनीति में सक्रिय रहते हैं और लेखन में भी प्रवृत्त रहना चाहते हैं, उन्हें क्या ऐसे विवादों में पडऩा चाहिये जो तरह-तरह के तनावों में जी रहे देश की चेतना को एक और विवाद में झोंक दे । इस मामले में मौलाना आजाद से सबक सीखा जाना चाहिये जिन्होंने अपने सीने में दबाये अप्रिय प्रसंगों को अपनी मौत के तीस साल बाद उजागर करने की हिदायत दी थी । भारत विभाजन को लेकर चाहे गांधी को गुनहगार घोषित किया जाए या नेहरू और पटेल को कोसें, असल जिम्मेवार तो जिन्ना ही थे, इसपर दो राय कैसे हो सकती हैं? जिन्ना ने नफरत का एक ऐसा तूफान खड़ा कर दिया कि उसकी शर्तों को मानने के अलावा कोई चारा ही नहीं था । इसलिये भारत विभाजन का दोषी कौन, यह बहस बेमतलब है । सच तो यह है कि हम अपने इतिहास पुरूषों व जन नायकों के कद्रदान न होकर कब्रबिज्जू हो गये हैं । जिस तरह कब्रबिज्जू कब्रस्तान में दफनायी गयीं लाशों को कुतरने की फिराक में लगा रहता है, वैसे ही हम भी अपने इतिहास पुरूषों की छवियों पर खरौंचें पैदा करते रहते हैं, उनकी कमियों के तिल को ताड़ बनाने का प्रयास करते हैं । गांधी जैसे युग पुरूष पर कीचड़ उछालने से बड़ी क्या कोई और बेतुकी बात हो सकती है? उनकी महानता उतनी ही निर्विवाद है जितनी सागर की गहराई व हिमालय की ऊंचाई । हमारी आज की राजनीति और इतिहास के छुद्र लेखक कभी गांधी को आंबेडकर से लड़ाते हैं, कभी नेहरू की पटेल से कुश्ती कराते हैं, कभी जिन्ना के जिन्न के पीछे पड़ जाते हैं । जितना ये नेता अपने जीवन काल में नहीं लड़े उससे ज्यादा उन्हें अब 'लड़ायाÓ जा रहा है । इतिहास में जब तक सनसनीखेज मसाला ढूंढने, सुर्खियां बटोरने की दुष्प्रपृत्ति रहेगी तब तक मरने के बाद भी हम अपने महापुरूषों को, चैन से सोने नहीं देंगे । किसी ने सही कहा है - ''जिनके नाम इतिहास में दर्ज नहीं हैं, वे सचमुच सौभाग्यशाली हैं। मदनमोहन जोशी वरिष्ठ पत्रकार

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