Friday, November 20, 2009

राजनीतिक शतरंज का मोहरा नहीं है किसान

राज्य में किसानों की मुसीबतें कम होने का नाम ही नहीं ले रही हैं। बेमौसम बेपनाह बारिश से किसानों के माथे पर आईं चिंता की रेखाएं मौसम सुहाना होने से कुछ कम हुईं तो अब खाद के अभाव का संकट उनके सामने खड़ा है। वैसे प्रदेश में बिजली का संकट ज्यादा गंभीर नहीं है लेकिन विद्युत वितरण कंपनी के दोषपूर्ण तौर तरीके से विभिन्न जिलों के कई गांवों में अंधेरा छाया है। इन तथ्यों के कारण किसान गुस्से में हैं और विरोध के लिए सड़कों पर उतर आए हैं। मसलन खाद की कमी से उत्तेजित किसानों ने बैतूल-इंदौर मार्ग पर चक्काजाम कर दिया और उन्हें इसके लिए लाठियां भी झेलनी पड़ीं। जबलपुर जिले में विद्युत मंडल होने के कारण किसानों को यह उम्मीद होना स्वाभाविक है कि उन्हें बिजली के मामले में मंडल की बेरुखी का शिकार नहीं होना पड़ेगा, लेकिन वे इस मामले में नाउम्मीद हुए हैं। जिले के 29 गांवों में अंधेरा पसरा हुआ है जो आमतौर पर विद्युत मंडल की बदइंतजामी का नमूना है। राज्य के अन्य हिस्सों में भी किसानों को खाद एवं बिजली की कमी का सामना करना पड़ रहा है। वैसे तो किसान देश-प्रदेश का सबसे बड़ा वोट बैंक है। इसलिए सभी राजनैतिक दल किसानों के हितों की रक्षा का राग अलापते रहते हैं लेकिन उनके हितों की कितनी चिंता उन्हें वास्तव में होती है यह उनकी दुर्दशा देखकर ही अहसास होता है। दरअसल चुनावों के वक्त किसानों से तमाम तरह के लुभावने वायदे राजनीतिक दलों द्वारा किये जाते हैं। यह सब उनसे वोट हासिल करने वाले टोटके ही होते हैं। लेकिन एक बार चुनाव जीत जाने के बाद राजनीतिक दल किसानों को भूल जाते हैं। मध्यप्रदेश में भी कमोवेश यही कुछ हो रहा है। विडंबना तो यह है कि किसानों के हितों को लेकर राज्य के दो मंत्रियों में भी मतभेद उभर आए हैं। कृषि मंत्री रामकृष्ण कुसमारिया ने कहा है कि हाल की बारिश से किसानों की फसलों को नुकसान हुआ है लेकिन गोपाल भार्गव ऐसा नहीं मानते। क्या किसानों के हितों के लिए भी पूरी सरकार एकजुट नहीं हो सकती। यदि राज्य सरकार को किसानों की तनिक भी चिंता है तो उसे तुरंत ही उनके हितों के लिए सक्रिय होना चाहिए। इस समय किसानों की सबसे बड़ी जरूरत खाद एवं बिजली ही है। सरकार को इनकी कमी दूर करने के लिए हरसंभव कदम उठाने चाहिए। यदि इस समय किसानों की जरूरत को पूरा करने के लिए शहरों की बिजली में भी कुछ कटौती करनी पड़े तो इस मामले में संकोच नहीं किया जाना चाहिए। यदि हाल की वर्षा से किसानों की फसलों को कुछ नुकसान हुआ है तो उसकी क्षतिपूर्ति भी की जानी चाहिए। अब किसानों में जागरूकता आ रही है और वह राजनीतिक दलों की शतरंज की बिसात पर मोहरा बनने के लिए तैयार नहीं हैं। यह बात सभी राजनीतिक दलों को भलीभांति समझ लेना चाहिए।

-सर्वदमन पाठक

Tuesday, November 17, 2009

सेहत के सुहाने सपने और कड़वा सच

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह का यह जुमला काफी चर्चित रहा है कि वे सपनों के सौदागर हैं। स्वाभाविक है कि राज्य सरकार अपने नेता की इस भूमिका को अपने कार्यों से लगातार पुख्ता करने की कोशिश करती रहती है। राज्य सरकार की एक नई घोषणा इसी हकीकत का अहसास कराती है। राज्य सरकार की इस घोषणा के अनुसार राज्य में बारह नए मेडिकल कालेज खोले जाएंगे। इस घोषणा से लोगों को यह सपना परोसने की कोशिश की गई है कि राज्य सरकार उनकी जिंदगी और सेहत की सुरक्षा को लेकर काफी गंभीर है और ताजा कदम इसी दिशा में है। इन मेडिकल कालेजों से राज्य को डाक्टरों की कमी से निजात पाने में मदद मिलेगी, यह कोई ऐसी बात नहीं है जिसे समझने के लिए लोगों को अपने माथे पर जोर देना पड़े लेकिन इसके साथ ही यह भी सोचना जरूरी है कि पहले से कार्यरत मेडिकल कालेजों की क्या हालत है और उनसे पास होने वाले डाक्टर किन परिस्थितियों से गुजर रहे हैं। राज्य सरकार के लिए इससे ज्यादा शर्मनाक बात क्या होगी कि देश में जिन सरकारी मेडिकल कालेजों की मान्यता मेडिकल कौंसिल आफ इंडिया द्वारा स्थगित कर दी गई है उनमें अधिकांश कालेज मध्यप्रदेश के ही हैं। दिलचस्प बात यह है कि राज्य सरकार का चिकित्सा शिक्षा विभाग इस मामले को लेकर कतई चिंतित नहीं है कि इन कालेजों से निकलने वाले डाक्टरों का क्या भविष्य होगा। यह कोई रहस्य नहीं है कि पिछले साल सीबीएसई की पीजी परीक्षा के जो फार्म आए थे, उसमें इन कालेजों का कोड शामिल नहीं था तब केंद्र की काफी मिन्नत के बाद इन कालेजों से उत्तीर्ण डाक्टरों को परीक्षा में शामिल होने की अनुमति दी गई थी। इस वर्ष भी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। एमसीआई अभी भी इन मेडिकल कालेजों में टीचिंग स्टाफ और अन्य सुविधाओं से संतुष्टï नहीं है और इस बात की कोई संभावना फिलहाल नजर नहीं आती कि इस बार भी उनके कालेज का कोड फार्म में शामिल होगा। इस बार भी वही कुछ होगा जो पिछले साल हुआ था लेकिन राज्य के चिकित्सा शिक्षा विभाग की नींद अभी भी टूटी नहीं है। यदि एमसीआई के रुख में कोई परिवर्तन नहीं आया तो इन कालेजों से उत्तीर्ण होने वाले डाक्टरों को राज्य के सरकारी चिकित्सालयों एवं अन्य राज्यों के चिकित्सालयों में नियुक्ति नहीं मिल सकेगी। राज्य सरकार अपने वेतन ढांचे के कारण राज्य के डाक्टरों में सरकारी चिकित्सालयों के प्रति भरोसा नहीं जगा पाई है जिसके परिणामस्वरूप नए डाक्टर तक सरकारी अस्पतालों की अपेक्षा प्रायवेट चिकित्सालयों में अपनी सेवाएं देना ज्यादा पसंद करते हैं। इसी वजह से सरकारी चिकित्सा प्रणाली अपंग सी पड़ी हुई है। फिर इस बात की क्या गारंटी है कि नए मेडिकल कालेजों से उत्तीर्ण होने वाले डाक्टर सरकारी चिकित्सालयों विशेषत: ग्रामीण चिकित्सालयों में अपनी सेवाएं देंगे। यदि डाक्टरी पेशे में आने वाले नवयुवकों में जनसेवा की भावना नहीं जगाई गई तो पब्लिक प्रायवेट पार्टनरशिप के तहत खोले जाने वाले मेडिकल कालेज भी प्रायवेट अस्पतालों में पूंजीपतियों के लिए तैनात रहने वाले डाक्टरों की नई फौज खड़ी कर दें तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। अत: राज्य सरकार को चिकित्सा शिक्षा के विस्तार के साथ साथ ऐसे चिकित्सा ढांचे को भी तैयार करना चाहिए जो गरीबों के कल्याण की भावना से प्रेरित हो और ग्रामीण एवं शहरी गरीबों के जीवन एवं सेहत की सुरक्षा व संवद्र्धन के लिए सरकारी चिकित्सालयों में अपनी सेवाएं दे और स्वस्थ प्रदेश के निर्माण में अपनी सार्थक भूमिका निभाए।



-सर्वदमन पाठक

पुलिस की भूमिका पर उठे सवाल

भोपाल के प्रमुख प्रापर्टी बिल्डर जयप्रकाश सिंह एवं उनके पुत्र की मौत ने शहर में जबर्दस्त सनसनी फैला दी है। इस मामले ने कई ऐसे सवाल खड़े कर दिये हैं जिनसे आज समाज एवं आम आदमी को जूझना पड़ रहा है। मसलन यह सवाल लोगों की जुबान पर है कि क्या संपन्नता से जुड़ी प्रतिस्पर्धा मौत का कारण बन सकती है। इसके साथ ही यह बात भी लोगों को शिद्दत से महसूस होती है कि पुलिस अपराधियों के सामने भीगी बिल्ली क्यों बनी रहती है। क्या अपराधियों से साठगांठ के कारण ही वह तमाम जघन्य अपराधों पर पुलिस मूकदर्शक बनी रहती है। इस मामले में जो हकीकत बेनकाब हुई है, उससे यह सवाल उभरा है। विभिन्न अखबारों में पुलिस के हवाले से छपी खबरों पर भरोसा किया जाए तो उनके मुताबिक जयप्रकाश सिंह का कुछ दिनों पूर्व अपहरण किया गया था और उसे इंदौर में रखकर उसके साथ मारपीट की गई थी। इस मारपीट के बल पर उससे एक फार्म हाउस पर कब्जे के कागजात पर हस्ताक्षर करवा लिए गए थे। इसके साथ ही कुछ गुंडों ने भोपाल आकर उसके परिजनों को धमकाया था कि यदि उन्होंने पुलिस को इसके बारे में बताया तो उन्हें खत्म कर दिया जाएगा। इस मामले में यह बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि जयप्रकाश सिंह थोड़े ही समय में संपन्नता की सीढिय़ां चढ़ गए थे और इस प्रक्रिया में संभवत: उनकी कुछ प्रभावी लोगों से शत्रुता हो गई हो। लेकिन इस मामले में एक शराब व्यवसायी द्वारा अपने हितों को साधने के लिए जिस तरह से किराये के गुंडों का इस्तेमाल किया गया और पुलिस इस मामले में खामोश और निष्क्रिय बनी रही, उससे पुलिस की भूमिका संदेह के दायरे में आ गई है। इतना ही नहीं, उक्त शराब व्यवसायी को पकडऩे गई पुलिस उसके निवास पर पर्ची देकर बेफिक्र हो गई मानो उक्त व्यवसायी खुद को पुलिस के सामने आत्मसमर्पण करने जा रहा हो जबकि वह चकमा देकर पिछले रास्ते से भाग निकला। इससे यह संदेह उपजना स्वाभाविक है कि क्या पुलिस ने उसको खुद ही भागने का मौका उपलब्ध कर दिया। यह मानना काफी कठिन है कि पुलिस को इस पूरे मामले की कोई खबर नहीं रही होगी लेकिन यदि यह मान भी लिया जाए तो फिर उसकी गुप्तचर शाखा की क्षमता पर सवाल उठ खड़ा होता है। इस तथ्य के मद्देनजर इस मामले की गंभीरता और ज्यादा बढ़ जाती है कि जयप्रकाश सिंह प्रदेश में सत्तारूढ़ भाजपा के राष्टï्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह का करीबी रिश्तेदार था और उसकी कई मंत्रियों और आईएएस अफसरों के यहां काफी गहरी पैठ थी। फिर भी वह अपहृत हुआ, जबर्दस्त मारपीट का शिकार हुआ, और अंतत: खुद खुदकुशी करने के मजबूर हो गया लेकिन इसके बावजूद पुलिस अपनी अक्षमता या संभवत: अपराधियों से साठगांठ के चलते निष्क्रिय बनी रही। यह सच है कि न्याय का यही तकाजा है कि पूरा सच सामने आए बिना किसी को भी दोषी ठहराना या संदेह के दायरे से मुक्त किया जाना उचित नहीं है लेकिन देखना यह है कि क्या इस मामले मेंं पूरी सच्चाई सामने आएगी और दोषियों को सजा मिल पाएगी। इसके साथ ही यह यक्ष प्रश्न भी उठता है कि क्या पुलिस अपराधों एवं अपराधियों के प्रति नरमी छोड़कर उनके जुल्मों से लोगों को निजात दिला पाएगी?



-सर्वदमन पाठक

Saturday, November 14, 2009

वंदे मातरम पर विवाद राष्टï्रविरोधी

यह भी एक विडंबना ही है कि भारत को मजहबों की संकीर्ण दीवारों में बांटने की सोची समझी साजिश के तहत राष्टï्र के गौरव चिन्हों के खिलाफ फतवे जारी किये जा रहे हैं और राष्टï्र की अस्मिता के झंडावरदार बनने वाले नेता खामोशी का रुख अख्तियार किये हुए हैं। यह सवाल देवबंद के दारुल उलूम द्वारा वंदेमातरम के खिलाफ जारी फतवे का जमायते उलेमा-ए-हिंद द्वारा समर्थन करने से उठ खड़ा हुआ है। इस मामले में सबसे अफसोस की बात यह है कि हमारे देश के गृहमंत्री पी चिदंबरम एवं एक अन्य मंत्री सचिन पायलट इस सम्मेलन में शिरकत करते हैं और इस फतवे के खिलाफ एक भी शब्द बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। इतना ही नहीं, सचिन पायलट तो बाकायदा इस फतवे का समर्थन करते हुए बोलते हैं कि इसे गाने के लिए किसी को विवश नहीं किया जा सकता। क्या ये मंत्री उस सरकार का प्रतिनिधित्व करने के अधिकारी हैं, जो पंथनिरपेक्षता के प्रति वचनबद्धता का दावा करते नहीं थकती। वंदे मातरम दरअसल भारत का गौरवगान ही है जिसे गाते हुए क्रांतिकारी राष्टï्र की आजादी के समर में हंसते हंसते अपने प्राणों की आहुति दे दिया करते थे। लेकिन आज आजादी के इसी तराने को देश को सांप्रदायिक आधार पर बांटने के नापाक इरादों के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। लेकिन इसका दोष सिर्फ इन सांप्रदायिक ताकतों को देना उचित नहीं होगा क्योंकि पिछले दो दशक से भारतीय राजनीति में आई तब्दीली भी इसके लिए जिम्मेदार है जिसके तहत हिन्दुस्तान में रहना होगा तो वंदे मातरम कहना होगा जैसे उत्तेजना फैलाने वाले नारों की बाढ़ आ गई थी। यदि इस गीत के ऐतिहासिक संदर्भ पर नजर डालें तो बंकिम चंद चटर्जी द्वारा रचित पुस्तक आनंदमठ का यह गीत इसमें भी एक क्रांति घोष ही है। यह भी एक विडंबना ही है कि मुस्लिम लीग ने देश के विभाजन के लिए वंदे मातरम के खिलाफ जो जहरीला अभियान चलाया था, आजाद भारत में भी कुछ राष्टï्रविरोधी मानसिकता के लोग इसे अपने सियासी फायदे के लिए जारी रखने की कोशिश कर रहे हैं। सच तो यह है कि वंदे मातरम के रूप में वे ऐसे मुद्दे को उठा रहे हैं जिसका समाधान राष्टï्र की आजादी के बाद हमारे संविधान में खोज लिया गया था। राष्ट्रीय गीत के खिलाफ जो तर्क पेश किए जा रहे हैं वही तर्क कभी मुस्लिम लीग ने देश के बंटवारे की मांग के समर्थन में गढ़े थे। मुस्लिम लीग ने 1940 में औपचारिक रूप से देश के बंटवारे की मांग से कुछ पहले ही वंदेमातरम के खिलाफ अभियान छेड़ दिया था। जिन्ना ने 1937 में मुस्लिम लीग कांफ्रेेंस में देश के विभाजन के लिए जो दलीलें रखी थीं उनमें राष्ट्रीय झंडे, वंदेमातरम और हिंदी का विरोध प्रमुख था। मुसलमानों को सांप्रदायिक रूप से हिंदुओं के खिलाफ खड़ा करने की साजिश के तहत जिन्ना ने यह दुष्प्रचार किया था कि झंडा, गीत और भाषा, तीनों ही हिंदुओं के प्रतीक चिह्नï हैं, इसलिए ये मुसलमानों को अस्वीकार्य हैं। बंटवारे की नियति को टालने के लिए भारत के राजनेताओं ने वंदेमातरम के पहले दो छंदों को ही राष्ट्रीय गीत के रूप में स्वीकारने की बात की, जिनमें उन उपहारों का वर्णन था, जो प्रकृति ने भारत पर न्यौछावर किए हैं, किंतु इसके बावजूद जिन्ना की हठधर्मिता के कारण जिन्ना की देश के बंटवारे और इस्लामिक राष्ट्र की स्थापना की महत्वाकांक्षा पूरी हो गई।
राष्टï्र-विभाजन तथा अलग मुस्लिम राष्ट्र की स्थापना के बावजूद भारत ने पंथनिरपेक्ष की नीति को ही अपना सैद्धांतिक आधार बनाया और अल्पसंख्यकों के अत्यंत ही छोटे से वर्ग की असहमति को भी नजरअंदाज न करते हुए वंदेमातरम के पहले दो छंदों को ही राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकार किया। इन दो छंदों में कहीं भी ऐसा कुछ नहीं है जिससे किसी धर्म के लोगों के भावनाओं को ठेस पहुंचे लेकिन इसके बावजूद जिन्ना की विचारधारा को न केवल सीना ठोक कर आगे बढ़ाने की हिमाकत की जा रही है बल्कि छद्म धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अपनी राजनीतिक दूकान चलाने वाले लोग इस राष्टï्रघाती प्रवृत्ति पर या तो खामोश हैं या फिर उसका परोक्ष समर्थन करते नजर आ रहे हैं। वंदे मातरम हमारी मातृभूमि का गीत है, जिसमें भारत पर प्रकृति के वरदान की बात कही गई है। इसमें अनेक नदियों, हरे-भरे खेत-खलिहानों और आच्छादित वृक्षों का वर्णन है। वंदे मातरम का विरोध करने वालों से यह पूछा जाना चाहिए कि उन्हें आपत्ति किस बात पर है? सदियों से सैकड़ों भाषाओं में कवियों ने प्रकृति और अपनी मातृभूमि की स्तुति की है। क्या हमें हर कवि की रचनाओं का सांप्रदायिक आधार पर मूल्यांकन करना चाहिए? हमारे संविधान निर्माता वंदेमातरम के प्रति आम जनमानस में सम्मान से भलीभांति परिचित थे। 14 अगस्त 1947 को संविधान सभा के ऐतिहासिक सत्र की शुरुआत सुचेता कृपलानी द्वारा वंदेमातरम के पहले पद को गाने से हुई।
संविधान सभा की अंतिम बैठक 24 जनवरी 1950 को हुई। इस बैठक की शुरुआत राष्ट्रगान पर अध्यक्ष डा. राजेंद्र प्रसाद के संबोधन से हुई। राजेंद्र प्रसाद ने कहा कि जन गण मन के रूप में संकलित शब्द और संगीत भारत का राष्ट्रगान है और स्वाधीनता संघर्ष में ऐतिहासिक भूमिका निभाने वाला वंदेमातरम जन गण मन के बराबर सम्मान का अधिकारी होगा। हस्ताक्षर समारोह के बाद पूर्णिमा बनर्जी और अन्य सदस्यों ने जन गण मन गाया और फिर लक्ष्मीकांता मैत्र तथा साथियों ने वंदेमातरम का गायन किया। संविधान सभा द्वारा तय कर दिये गए इस इस मुद्दे पर किसी को भी फिर से विवाद खड़ा करने अथवा राष्ट्रीय गीत का अपमान करने की अनुमति नहीं दी जा सकती। जमीयत का रुख किसी इस्लामी देश में सही हो सकता है, लेकिन यह भारत जैसे लोकतांत्रिक देश के बुनियादी सिद्धांतों के प्रतिकूल है। प्रश्न यह है कि आज जिस तरह वंदेमातरम पर आपत्ति जताई जा रही है उसी प्रकार कल क्या जन गण मन, अशोक चक्र पर उंगली उठाई जाएगी? जो लोग सामाजिक सौहार्द और भाईचारे को बढ़ावा देने के इच्छुक हैं उन्हें इस सिलसिले को हमेशा के लिए विराम देना ही होगा क्योंकि अल्पसंख्यक अधिकारों के नाम पर चल रहे इस सिलसिले ने फिरकापरस्ती को इस ऊंचाई पर पहुंचा दिया है कि वह कुछ सेकुलर प्रतीकों तक का निरादर करने लगी हैं।

-सर्वदमन पाठक

Thursday, November 12, 2009

कौन जिम्मेदार है अनहोनी की इस संभावना के लिए

ग्वालियर हवाई अड्डे पर मध्यप्रदेश के राज्यपाल रामेश्वर ठाकुर और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह का विमान उतरने के ठीक पहले जो भयावह गफलत हुई, वह लापरवाही की पराकाष्ठïा ही कही जा सकती है। इस सनसनीखेज वाकये के अनुसार विमानतल पर विमान की लैंडिंग के ठीक पहले वहां वायुसेना के दो वाहन आ गए जिसके कारण एकबारगी तो महामहिम एवं मुख्यमंत्री की सुरक्षा दांव पर लग गई थी। इस सिलसिले में विमान के पायलट की प्रत्युत्पन्नमति की तारीफ करनी होगी जिसने रनवे के पास वाहनों को देखते ही विमान उतारने के बजाय उठा दिया और कुछ समय तक हवा में उड़ाने के बाद सुरक्षित तरीके से उसे रनवे पर उतार दिया। वायुसेनाध्यक्ष का कहना है कि उस वक्त रनवे पर दो कुत्ते कहीं से आ गए थे और उनके हटाने के लिए ये वाहन वहां पहुंचे थे। यह बात अभी रहस्य ही बनी हुई है कि आखिर इतनी कड़ी सुरक्षा के बावजूद रनवे पर ये कुत्ते कहां से आ गए लेकिन यह कोई रहस्य नहीं है कि इस खबर के आने के बाद काफी समय तक शासन- प्रशासन सांसत में रहा और प्रदेश के नागरिकों के माथे पर ंिचंता की लकीरें खिंची रहीं। सुरक्षा में भयावह चूक के इस मामले की गंभीरता इस बात से और बढ़ जाती है कि राष्टï्रपति प्रतिभा पाटिल वायुसेना के कार्यक्रम में शामिल होने के लिए वहां पहुंचने वाली थी और इस घटना के कुछ ही देर बाद राष्टï्रपति का विमान इसी विमानतल पर उतरने वाला था। सवाल यह है कि एयर ट्रेफिक कंट्रोल द्वारा अनुमति दिये जाने के बाद ही राज्यपाल एवं मुख्यमंत्री का विमान वहां उतर रहा था तो फिर उस दौरान रनवे खाली क्यों नहीं रखा गया और सुरक्षा सुनिश्चित क्यों नहीं की गई। चूंकि विमानों में महत्वपूर्ण हस्तियों के सफर करने के कारण उनकी सुरक्षा के लिए सुरक्षा की दोषरहित व्यवस्था होती है तब इतनी भारी सुरक्षा व्यवस्था के बावजूद वहां ऐन वक्त पर कुत्ते आ जाना आश्चर्यजनक ही है। इस घटना की भयावहता को देखते हुए राज्य सरकार ने जो सख्त रुख अपनाया, वह उचित ही है क्योंकि यह राज्य के संवैधानिक प्रमुख और सरकार के मुखिया की सुरक्षा में चूक से जुड़ा मामला है। दरअसल इस घटना के लिए सरसरी तौर पर वायुसेना तथा एयर ट्रेफिक कंट्रोल सीधे तौर पर जवाबदेह हैं अत: उन्हें राज्य सरकार के प्रमुख सचिव द्वारा उठाए गए मुद्दों के साथ ही तमाम उन पहलुओं की जांच करनी चाहिए जो इससे जुड़े हो सकते हैं। इसके साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि इस जांच की रिपोर्ट में दोषी पाए जाने वाले कर्मचारियों एवं अधिकारियों पर समुचित कार्रवाई हो ताकि इस तरह की घटना की पुनरावृत्ति न हो सके।

-सर्वदमन पाठक

Monday, November 9, 2009

बढ़ते अपराधों की चुनौती

यह महज संयोग है या नए गृहमंत्री को चुनौती देने की सोची समझी साजिश, इस पर विवाद हो सकता है लेकिन इस हकीकत से कोई इंकार नहीं कर सकता कि उमाशंकर गुप्ता के गृहमंत्री के रूप से शपथ लेने के बाद से ही भोपाल मेें अपराधों की बाढ़ सी आ गई है। बजरंग दल नेता की हत्या, पंचशील नगर के बदमाशों के बीच ताजा हिंसक झड़प और मुफ्ती के बेटे पर फायरिंग तो सिर्फ इसकी बानगी मात्र हैं। कहा जा सकता है कि अपराधियों के हौसले तो कई सालों से बुलंद हैं और अंधाधुंध अपराधों का सिलसिला इसी का प्रतिफल है, जिसे रातों रात बंद नहीं किया जा सकता। लेकिन इस बात की क्या दलील है कि भोपाल में अपराध अचानक ही बढ़ क्यों गए हैं। इस मामले में श्री गुप्ता की जवाबदेही इसलिए भी ज्यादा है क्योंकि वे भोपाल की सरजमीं पर पले बढ़े नेता हैं और उन्हें भोपाल के बाशिंदों ने चुनकर विधानसभा में भेजा है। वे भोपाल की नस नस से वाकिफ हैं और उन्हें उन तमाम कारणों और कारकों की जानकारी है जो भोपाल को अपराधियों की शरणस्थली के रूप में तब्दील करने के लिए जिम्मेदार हैं। इसी वजह से भोपालवासियों को यह उम्मीद होना स्वाभाविक है कि श्री गुप्ता के हाथों में गृह मंत्रालय का भार आने के बाद इस शहर में अमन चैन कायम हो सकेगा। शहर में अपराधों में इजाफे से उनकी इन उम्मीदों को झटका लगा है। प्रशासन की इस असफलता का ठीकरा कांग्रेस ने श्री गुप्ता के सिर पर फोडऩे की कोशिश करते हुए उनके बंगले में ही अपराधियों के छिपे होने का सनसनीखेज आरोप लगा दिया है। हालांकि यह आरोप बेबुनियाद सिद्ध हो गया है लेकिन इससे यह संकेत तो मिल ही गया है कि यदि भोपाल में अपराधियों एवं अपराध पर जल्दी से जल्दी शिकंजा नहीं कसा गया तो फिर इस मामले में सियासत का खेल और भी नीचे गिर सकता है। दरअसल नए गृहमंत्री को अपराधियों द्वारा दी जा रही चुनौती को स्वीकार कर उनपर शिकंजा कसने की चौतरफा मोर्चेबंदी करनी चाहिए। इसके लिए पुलिस को तो सख्त से सख्त से कार्रवाई के निर्देश दिये ही जाना चाहिए लेकिन इसके साथ ही दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करते हुए यह स्पष्टï संदेश देना चाहिए कि इन अपराधियों को कोई भी राजनीतिक संरक्षण बचा नहीं पाएगा।
सच तो यह है कि न केवल भोपाल बल्कि संपूर्ण प्रदेश में जघन्य अपराधों का ग्राफ काफी बढ़ा है और इस वजह से लोगों का सुख चैन छिन गया है। उन्हें अपने जीवन पर असुरक्षा की छाया मंडराती दिख रही है। इतना ही नहीं, प्रदेश में औद्योगिक विकास के लिए भी शांति पहली शर्त है। प्रदेश के नागरिकों को सुरक्षा एवं शांति का विश्वास दिलाना और औद्योगिक विकास के लिए शांति का माहौल पैदा करना राज्य सरकार की जिम्मेदारी है और अब इस दायित्व की बागडोर श्री गुप्ता के हाथों में है। उम्मीद की जानी चाहिए कि वे लोगों की उम्मीदों पर खरे उतरेंगे और प्रदेश में कानून एवं व्यवस्था का राज पुन: कायम करने में अहम भूमिका निभाएंगे।

-सर्वदमन पाठक

Thursday, November 5, 2009

सियासी मोहरा नहीं है किसान

यह किसानों का दुर्भाग्य ही है कि उनको वोट बंैक के रूप में इस्तेमाल करने वाली सरकारें सत्ता में आते ही उन्हें भूल जाती हैं। आम तौर पर प्रकृति के भरोसे रहने वाले किसानों को वैसे ही कृषि कार्य के लिए काफी मुसीबतों से गुजरना होता है, फिर सरकारों की बेरुखी से तो उनकी मुुश्किलें दुगुनी हो जाती हैं। न केवल मध्यप्रदेश बल्कि देश के कई अन्य प्रदेशों में भी इस वर्ष कई स्थानों पर बारिश औसत से कम हुई है अत: किसानों को बोहनी में ही काफी परेशानियों से गुजरना पड़ा है। इसके बाद फिर उनके सामने बीज का संकट उपस्थित हो गया। जैसे तैसे किसानों ने बुआई की तो अब खाद का संकट उनके सामने है। हालत यह है कि किसानों को समुचित मात्रा में खाद उपलब्ध नहीं हो पा रही है। इतना ही नहीं, उसे जो खाद नसीब हो रही है, वह भी नकली या असली, इस बात का कोई भरोसा नहीं है। दरअसल नकली खाद का एक पूरा रैकेट काम कर रहा है। इसके कई पक्ष हैं मसलन खाद उत्पादक अधिक से अधिक मुुनाफा कमाने के लिए नकली खाद का निर्माण करते हैं और उन्हें सरकारी अफसरों का पूरा पूरा संरक्षण प्राप्त होता है। नकली खाद उत्पादन का गोरखधंधा इसलिए बेरोकटोक चलता रहता है क्योंकि इसे सत्ता में बैठे नेताओं का भी संरक्षण होता है। इस समय प्रदेश में किसानों का सबसे बड़ा संकट यही है कि उन्हें पर्याप्त मात्रा में खाद उपलब्ध नहीं है। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि राज्य सरकार ने अपनी जरूरतों का ठीक से आकलन नहीं किया और इस वजह से केंद्र से उसे समुचित मात्रा में खाद नहीं मिल पाई। लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है। केंद्र एव राज्यों के बीच एक गर्हित राजनीतिक खेल खेला जा रहा है, जिसमें किसान मोहरा बने हुए हैं। जहां केंद्र इस खाद संकट का दोष राज्यों पर मढऩे की कोशिश कर रहा है, वहीं राज्य सरकारें इसके लिए केंद्र सरकार को जिम्मेदार ठहरा रही हैं। किसानों की पूरी अर्थव्यवस्था कृषि पर टिकी होती है अत: होना तो यह चाहिए कि किसानों को उनके कृषि कार्य के लिए हरसंभव सुविधा एवं साधन मुहैया कराये जाएं और इसमें कोई राजनीति आड़े न आए लेकिन हमारे राजनीतिक दल उनके हितों की कीमत पर भी अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने से बाज नहीं आते। सरकार एवं प्रशासन को इस मामले में सतर्कता बरतनी चाहिए कि किसानों को उनके कृषि कार्य के लिए हरसंभव सहूलियतें मिलें। इसके लिए पहले से योजना तैयार की जानी चाहिए जिससे गफलत न हो। किसानों को यदि समय पर एवं समुचित मात्रा में बिजली, बीज एवं खाद न मिले तो इसकी जिम्मेदारी तय होना चाहिए। इसके लिए जो भी प्रशासनिक अधिकारी जिम्मेदार हों, उन पर कार्रवाई की जानी चाहिए। इस संबंध में कोई भी बहानेबाजी की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। यदि किसानों को जागरूकता का परिचय देते हुए एकजुट होकर उनके साथ हो रहे अन्याय का प्रतिरोध करना चाहिए। यदि किसान जागरूक हो गए तो कोई भी सरकार उनके हितों की उपेक्षा नहीं कर सकेगी।
-सर्वदमन पाठक

Tuesday, November 3, 2009

पुलिस फिर कटघरे में

राज्य के लोगों को एक और राज्य की बसों से सफर की सुविधा नहीं मिलेगी। दरअसल अब महाराष्ट्र सरकार ने भी मध्यप्रदेश में अपनी बसें चलाने से इंकार कर दिया है। महाराष्टï्र ऐसा पहला राज्य नहीं है जिसने मध्यप्रदेश में अपनी बसें ले जाने से इंकार किया है। इसके पूर्व गुजरात तथा उप्र की बसों की भी म.प्र. से आवाजाही बंद हो चुकी है। महाराष्ट्र राज्य सड़क परिवहन निगम ने इस कदम को उठाने के लिए जो दलील दी है, वह राज्य के लिए काफी अफसोसजनक है। उसने कहा है कि मध्यप्रदेश पुलिस द्वारा परेशान किये जाने के कारण उसे अपनी बसें बंद करनी पड़ रही हैं। महाराष्टï्र परिवहन निगम का आरोप है कि प्रायवेट आपरेटरों के इशारे पर म.प्र. पुलिस यह कार्रवाई कर रही है। यह ऐसा आरोप है जो मध्यप्रदेश पुलिस के चरित्र को बेनकाब करता है। आश्चर्यजनक तो यह है कि प्रशासन ऐसे मामलों में कमोवेश चुप्पी साधे रहता है। राज्य के यातायात विभाग के प्रमुख सचिव राजन कटोच ने भी ऐसा ही कुछ रुख अख्तियार करते हुए कहा है कि उन्हें इसकी कोई जानकारी नहीं है। सवाल यह भी है कि जनता की असुविधा में इजाफे के इस मामले में राज्य सरकार क्या कार्रवाई करेगी। मध्यप्रदेश की जनसंख्यात्मक तस्वीर कुछ ऐसी है कि इन तीनों राज्यों के काफी बाशिंदे प्रदेश में आकर बसे हैं और विभिन्न तीज त्यौहारों पर वे अपने गृह राज्यों में रहने वाले अपने परिजनों तथा रिश्तेदारों के पास जाते रहते हैं। इन बसों के बंद होने से इन्हें परेशानी होना स्वाभाविक है। यह राज्य सरकार की जिम्मेदारी है कि वह राज्य के लोगों के हितों का संरक्षण करे जो कि उत्तरप्रदेश, गुजरात तथा महाराष्टï्र की परिवहन निगम की बसें मध्यप्रदेश में न चलाने के फैसले से प्रभावित हो रहे हैं। इसके लिए दो स्तरों पर कार्रवाई की जा सकती है जिसके अंतर्गत उन राज्यों की सरकारों तथा राज्य परिवहन निगमों से बात करके उन्हें इस बात का भरोसा दिलाया जाए कि राज्य की पुलिस उन्हें अनावश्यक रूप से परेशान नहीं करेगी। इससे उनकी मुख्य शिकायत दूर होने और इस समस्या का समाधान निकलनेे का मार्ग प्रशस्त होगा। लेकिन इसके साथ ही राज्य सरकार को पुलिस पर भी अंकुश लगाना चाहिए ताकि वह प्रायवेट बस आपरेटरों के हाथों में न खेले। वैसे यह कोई महाराष्टï्र परिवहन निगम की ही शिकायत नहीं है बल्कि पुलिस के चारित्रिक पतन से प्रदेश के लोग भी परेशान हैं। अपराधियों तथा अपराध पर नकेल कसने के बदले पुलिस आम तौर पर उनको संरक्षण देती और निरपराधों को परेशान करती देखी जाती है। इसके पीछे कई कारण होते हैं लेकिन इनमें सबसे बड़ा कारण यह होता है कि उनकी अपराधियों से आर्थिक साठगांठ होती है। राज्य में आजकल जो अराजकता तथा अव्यवस्था का नजारा है, उसकी वजह यही है। वक्त का तकाजा है कि प्रदेश की पुलिस के चेहरे की कालिख को दूर किया जाए और उसे चरित्रवान चेहरा दिया जाए ताकि इस तरह की शिकायतों पर विराम लग सके।
-सर्वदमन पाठक

Monday, November 2, 2009

विकास हेतु एकजुट हों

मध्यप्रदेश के स्थापना दिवस पर आयोजित समारोह में मध्यप्रदेश के सर्वांगीण विकास के लिए राजनीतिक एकजुटता का प्रदर्शन एक श्लाघनीय पहल है। यह राजनीतिक एकजुटता की पहल मुख्यमंत्री ने की और विपक्षी दलों ने इस पहल पर रचनात्मक रिस्पान्स प्रदर्शित किया। यह कोई अस्वाभाविक बात नहीं थी क्योंकि प्रदेश का विकास कोई राजनीतिक लाभ हानि जैसा संकीर्ण मुद्दा नहीं है, जिस पर राजनीति की जाए। यदि राजनीतिक दल समझते हैं कि उक्त कार्यक्रम में की गई यह पहल जनता के बीच उनकी छवि उजली करने के लिए कारगर हो सकती है भले ही इसे सिर्फ जुबानी जमा खर्च तक सीमित रखा जाए तो यह उनकी गलतफहमी है। उन्हें याद रखना चाहिए कि जनता उनकी गतिविधियों को लगातार मानीटर करती रहती है और इस बात की बारीकी से पड़ताल करती रहती है कौन सा दल उसका सच्चा हमदर्द है और कौन सा दल उसका हितैषी होने का पाखंड रचता है। दरअसल इस राजनीतिक एकजुटता की शुरुआत जितनी जल्दी से जल्दी हो सके, की जानी चाहिए क्योंकि राजनीतिक गुटबाजी के ही कारण राज्य को काफी नुकसान होता रहा है। सबसे बड़ी बात यह है कि इससे प्रदेश का विकास प्रभावित होता है। अब अवसर आ गया है कि इसकी प्रभावी ढंग से शुरुआत की जाए। ऐसे बहुत से क्षेत्र हैं जहां यह शुरुआत की जा सकती है। मसलन बिजली उत्पादन के क्षेत्र में विपक्ष एवं सरकार को एकजुट होना चाहिए ताकि इस दिशा में तेजी से कदम बढ़ाए जा सकें। यह कोई राजनीतिक गुटबाजी का विषय नहीं है लेकिन इस पर राजनीतिक गुटबाजी लगातार हावी रहती है। दिग्विजय सिंह के नेतृत्व वाली पिछली कांग्रेस सरकार बिजली संकट के कारण ही पराजित हुई थी और वर्तमान सरकार की साख भी बिजली की अपर्याप्त उपलब्धता के कारण दांव पर लगी है। अब राज्य सरकार इसके लिए कांग्रेस नीत केंद्र सरकार को जिम्मेदार ठहरा रही है जबकि कांग्रेस शिवराज सिंह सरकार पर इसके लिए दोषारोपण कर रही है। यदि केंद्र और राज्य में सत्तारूढ़ दल इस मुद्दे पर सहयोग करते हुए इसे हल करने की कोशिश करें तो शायद यह रणनीति ज्यादा कारगर होगी। राज्य में औद्योगिक विकास में भी यदि कांग्रेस एवं भाजपा के बीच एकजुटता हो तो राज्य सरकार उद्योगों के ब्लू प्रिंट तैयार करने एवं उन्हें मूर्त रूप देेने में तेजी ला सकती है जबकि केंद्र सरकार की ओर से भी उसे बिना किसी अवरोध के हरी झंडी दी जा सकती है। इस सत्ता विपक्ष सहयोग का सबसे बड़ा फायदा भ्रष्टïाचार उन्मूलन में हो सकता है। यदि सत्ता एवं विपक्ष यह ठान लेंं कि वे भ्रष्टï अफसरों और भ्रष्टï राजनीतिक नेताओं को संरक्षण नहीं देंगे तो फिर किसी की क्या मजाल कि वह प्रदेश की जनता की खून पसीने की कमाई का पैसा सार्वजनिक कल्याण के बदले अपने ऐशो आराम में खर्च कर सके। लेकिन इन सब कदमों के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति की जरूरत है। सवाल यही है कि राजनीतिक दल राज्य के जनता के हित में यह इच्छाशक्ति दिखा पाएंगे।
-सर्वदमन पाठक

Sunday, November 1, 2009

अब तो हो यह 'सपना प्रदेशÓ अपना प्रदेश

श्रीलाल शुक्ल ने अपने चर्चित उपन्यास 'राग दरबारीÓ में व्यंग्य किया है कि भारत की शिक्षा प्रणाली गांव की उस कुतिया की तरह है जिसे हर कोई दुलत्ती मारते हुए आगे बढ़ जाता है। इसमें अगर वे इतना और जोड़ देते कि इस कुतिया को कामधेनु बनाया जा सकता है बशर्ते हममें दृढ़ इच्छाशक्ति हो, हमारी प्राथमिकताओं में शिक्षा सबसे ऊपर हो, तो एक बेहद सटीक सूत्र बुना जा सकता है। मध्यप्रदेश की विडम्बना भी कमोवेश ऐसी ही रही है और कुछ हद तक अब भी है। मध्यप्रदेश के विकास के साथ इतनी गुत्थियां, इतनी चुनौतियां, इतनी विसंगतियां, इतनी पहेलियां, गुंथी हुई हैं कि उसे अगले कुछ वर्षों में अग्रणी राज्यों की पंक्ति में खड़ा करना उतना ही मुश्किल है जितना शिव का धनुष उठाना। यह संयोग ही कहा जाएगा कि शिव नामधारी राजनेता ने इस चुनौती को आगे बढ़कर स्वीकार करने का साहस जुटाया है। अपनी छवि और क्षमता में निरंतर परिष्कार का पुट बढ़ाते हुए शिवराज सिंह ने इस मोर्चे पर अपनी भवितव्यता को ही दाव पर लगा दिया है। वे अहर्निश अलख जगाते हुए हर उस सूत्र, हर उस सूझ को खंगालने में जुटे हैं जो विराट संभावनाओं के द्वार पर खड़े इस प्रदेश को 'बीमारूÓ राज्यों की उस अभिशप्त सूची से जल्द से जल्द उबार सकें जो अपने जन्म के समय से ही उस पर चस्पी है। बेशक सकारात्मक उपलब्धियों का ग्राफ निरंतर ऊंचा उठता जा रहा है, कालिमा घट रही है लालिमा बढ़ रही है मगर वह रोमांचक परिकल्पना कोई तिरेपन साल बाद अभी भी मृगतृष्णा बनी हुई है जिससे प्रेरित होकर राज्य पुनर्गठन आयोग ने इस राज्य को आने वाले वर्षों में देश की एक अत्यंत सशक्त इकाई निरूपित करते हुए उसकी अपार नैसर्गिक संपदा का गुणगान किया था। बकौल उसके, ''यह बहुत ही समृद्ध कृषि उत्पादन वाला राज्य होगा, क्योंकि इसमें शामिल होंगे गेहूं और चावल पैदा करने वाले विस्तृत क्षेत्र। इसके साथ ही इसमें समृद्ध खनिज भंडार हैं और साथ ही नदियों की होगी अपार जल राशि जिसके दोहन से सिंचाई के साथ ही विद्युत उत्पादन की ऐसी संरचना तैयार होगी जो न सिर्फ उसे तीव्र प्रगति के पथ पर आरूढ़ करेगा, बल्कि सारे देश का एक मजबूत आधार स्तंभ भी बनाएगा।ÓÓ अपनी पृथक-पृथक इकाइयों के साथ आपस में विलीन होने वाले राज्य ऐसे दैत्याकार सूबे की कल्पना से कांप उठे थे। इन आशंकाओं की तरफ न आयोग ने ध्यान दिया और न भारत सरकार ने। तमाम आपत्तियों का आयोग के पास ले देकर सिर्फ एक जवाब था - ''मध्यवर्ती भारत में एक सुसम्बद्ध, सशक्त और समर्थ इकाई होने के लाभ लंबे समय में इतने विशाल सिद्ध होंगे कि हमें नये मध्यप्रदेश के निर्माण की सिफारिश करने में कतई कोई झिझक नहीं है।ÓÓ यह अलग बात है कि जब पं. जवाहरलाल नेहरू ने इस नये प्रदेश का नक्शा देखा तो हैरत भरे अंदाज में बोल उठे- यह क्या अजीब-सा प्रागैतिहासिक जीव-जंतु बना डाला! इतिहास और भूगोल की इस मिली-जुली साजिश का नतीजा यह हुआ कि राजनीतिक और प्रशासनिक रूप से बेमेल ऐसे इलाके एक झंडे के तले आ गए जो एक-दूसरे के लिए प्राय: अजनबी थे। तब के नेता और अफसरों को देखकर लगता था जैसे भोपाल में शंकर की बारात आ गई हो। किसी भी नई शुरुआत के लिए प्रारंभिक दौर बेहद महत्वपूर्ण होता है। उस दौरान जो बीज बोये जाते हैं, वे बुनियादी संस्कारों का हिस्सा हो जाते हैं । जैसा कि स्वाभाविक था, पहले इस नये प्रदेश ने क्षेत्रीयता के ढेरों जहरीले दंश झेले, राजनीतिक गुटबाजियों के बारूदी विस्फोटों से आसमान थर्राया और तात्कालिक राजनीतिक लाभों की खातिर योजनाओं के बनते-बिगड़ते घरौंदों के बीच विकास की टूटी-फूटी वर्णमाला ने आकार लिया। एक व्यंग्यकार ने तब एक जुमला उछाला था - इस प्रदेश को बनना था विनायक और बन गया बंदर! इसका यह मतलब हर्गिज नहीं कि प्रदेश पर बदकिस्मती की घनी घटाओं पर हमेशा बिजलियां ही कड़कती रही। क्षितिज पर कई सुनहरी रेखाएं भी उभरीं। सेवाओं का एकीकरण, डॉ. कैलाशनाथ काटजू के भगीरथी प्रयासों से चम्बल बांध का निर्माण, भोपाल में हेवी इलेक्ट्रिकल्स कारखाने की स्थापना आदि मंगलाचरण की कुछ ऐसी चमकदार उपलब्धियां हैं जिनकी कीर्ति गाथाएं आज भी तमाम क्षेपकों के बीच उजले पृष्ठों पर अंकित हैं। लंबे स्याह दौर की जकडऩ के कारण प्रदेश की पहचान गड्ड-मड्ड होती गई। कभी उसे 'डकैतों, डायमंडों और डिफेक्टरोंÓ का प्रदेश कहा गया तो कभी उसकी राजनीति को साजिश और शिष्टाचार की संज्ञा दी गई। एक दौर ऐसा भी आया जब धमाकेदार नुस्खे तलाशने के लिए कुछ मुख्य मंत्रियों ने 'थिंक टेकÓ का गठन किया मगर साथ ही राजनीति के 'सेप्टिक टेंकÓ भी पालते रहे। ऐसे माहौल में अच्छी से अच्छी सफलता की गाथाओं को भी वह विश्वसनीयता हासिल नहीं हो पाती है जिसकी वे हकदार होती हैं। राजनीति का अतिरेक और उससे जुड़ी विकृतियां सारे भारत की भयावह सच्चाई है। मध्यप्रदेश भी अगर इससे ग्रस्त रहा है तो इस पर विलाप करने से कुछ खास हासिल होने वाला नहीं है। हिंदी के प्रख्यात साहित्यकार अज्ञेय के एक उपन्यास का शीर्षक है - 'नदी के द्वीप ।Ó इसी तर्ज पर यह कहा जा सकता है कि हमने जो भी सफलताएं अर्जित की हैं या जो आगे भी अर्जित की जाने वाली हैं, उन्हें 'गटर के द्वीपÓ कहना अधिक सटीक होगा। राजनीतिक और सामाजिक बुराइयों के बीच से ही रास्ता बनाते हुए हमें अपनी उपलब्धियों के शिखर रचने होंगे, सफलताओं के द्वीप-समूह खड़े करने होंगे, यही हमारी संभावनाओं के सिंहद्वार हैं। मध्यप्रदेश कितना संकल्पवान हुआ है, यह तो आने वाला समय बताएगा, मगर इसके शब्दकोष में दो शब्द अपना सम्मोहन अभी भी बरकरार रखे हुए हैं। इनमें से एक है संवेदनशीलता और दूसरा स्वप्नदर्शिता। इस प्रदेश के कर्णधारों ने आधी सदी से भी ज्यादा समय तक इतने सपने पाले और परोसे हैं कि इसे अगर भारत का 'सपना प्रदेशÓ कहा जाए तो शायद अतिशयोक्ति नहीं होगी। शिवराज सिंह ने हाल में लीक से हटकर कुछ ऐसे उद्गार व्यक्त किए हैं जिनसे उन्होंने यह संदेश देने की कोशिश की है कि वे सपनों का संकल्पों से इस कदर अभिषेक करेंगे कि वे वरदानों में रूपांतरित हों और वह भी कम से कम समय में। उनके कार्यकाल के शेष चार वर्ष में अगर मध्यप्रदेश भारत के अग्रणी राज्यों की पंक्ति में शामिल हो जाता है तो यकीनन यह कामयाबी किसी वशीकरण या करिश्मे से कम नहीं होगी। जमीन से जुड़े नेता और ''छोरा नर्मदा किनारे वालाÓÓ जैसे आत्मीय संबोधन से विभूषित होने के नाते शिवराज इस हकीकत से पूरी तरह वाकिफ हैं कि जन मानस में वादों के क्रियान्वयन की कसौटी अब काफी कड़क होती जा रही है। यह भोले विश्वासों और मीठे मुगालतों का समय नहीं है। पहले चुनावी वादे झुनझुना माने जाते थे। लोग सुनते थे और भूल जाते थे। मगर चुनाव-दर-चुनाव जागरूकता इस कदर बढ़ती जा रही है कि लुभावने वादे आशाओं के उन्मेष से भी आगे जाकर उम्मीदों के उन्माद में बदलने लगे हैं। इसे देखकर कुछ विचारवान नेता यहां तक कहने लगे हैं कि जब हम जनता के बीच जाते हैं तो कभी-कभी ऐसा लगता है कि वह हमारे पीछे नहीं चल रही है, बल्कि हमारा 'पीछाÓ कर रही है! यह खतरे की एक ऐसी घंटी है जिसकी अनसुनी नहीं की जा सकती। ऐसी सूरत में सबसे ज्यादा जरूरी यह है कि जितनी जल्दी हो शासक और शासित के बीच की दूरी मिटे, पारस्परिक विश्वास के सूत्र मजबूत हों। यह तभी संभव है जब जनता विकास और प्रशासन से जुड़े हर उस फैसले, हर उस प्रक्रिया से जीवंतता के साथ जुड़े जो उसकी नियति ही नहीं, बल्कि दैनंदिन जिंदगी से वास्ता रखती है। यही शिवराज के विकास दर्शन की केंद्रीय धुरी है। हमारी मौजूदा व्यवस्था की एक बड़ी खामी यह है कि सरकार और जनता के बीच राजनीतिक कार्यकर्ता के अलावा तरह-तरह के दंदी-फंदी-नंदी, परिजन, नाते-रिश्तेदार आ जाते हैं। इनमें से कुछ राजनीति में आगे बढऩे के रास्ते तलाशते हैं तो कुछ महज दलाली करते हैं। शिवराज सरकार ने इस दुष्चक्र से निजात दिलाने के लिए कुछ निहायत ही कल्पनाशील शुरुआतें की हैं। इनमें प्रमुख है - जन सुनवाई की एक सुव्यवस्थित, विस्तृत शृंखला। यह जन सुनवाई नियमित रूप से विभिन्न प्रशासनिक स्तरों पर की जा रही है। इसके तहत कोई भी व्यक्ति सीधे अपनी शिकायतें लेकर जा सकता है और उसका समाधान करा सकता है। संबंधित अफसरों की उपस्थिति इस काम के लिए अनिवार्य कर दी गई है। सुरक्षा के बढ़ते ताम-झाम के कारण सत्ता और जन के बीच संवाद के दायरे भी काफी समय से लगातार सिमटते जा रहे हैं। संवाद या तो दलगत दायरे तक सीमित हैं या सरकार की गोपनीय गुफाओं में कैद हैं। शिवराज ने इस बंधे बंधाये ढर्रे को तोड़ा है। अपने निवास पर समाज और जनता के अलग-अलग वर्गों को आमंत्रित कर खुली पंचायतों का एक नायाब तरीका अपनाकर उन्होंने पारस्परिक संवाद के जरिये गुत्थियों के सीधे समाधान खोजने का एक नायाब फार्मूला अपनाया है। मुख्यमंत्री के सामने खुलकर अपनी बात कहने का जिन्हें भी यह अवसर मिला है, वे इससे गदगद हैं। उन्हें मुख्यमंत्री की महिमामय मेजबानी भी मिली है और काफी कुछ मुरादें भी पूरी हुई हैं। इस शृंखला में नित नई कडिय़ां जुड़ती जा रही हैं। जाहिर है, जैसे-जैसे यह सिलसिला आगे बढ़ेगा, श्यामला हिल्स स्थित मुख्यमंत्री का सत्ता-साकेत नयी उम्मीदों के सूर्योदय के रूप में जाना जाने लगेगा। हम अपनी वर्षों पुरानी व्यवस्थाओं के पिरामिड रातों-रात ढहा नहीं सकते। परन्तु उनमें ताजा हवा के झोंके ला सकते हैं। इसमें कोई कोर-कसर क्यों छोड़ी जाए? लालफीताशाही के खात्मे के लिए इस किस्म के गैर रस्मी तरीकों के कितने उत्साहवद्र्धक लाभ हो सकते हैं, इसे इन प्रयोगों ने बखूबी दिखा दिया है। सत्ताधीशों के लिए आम आदमी से हरसंभव तरीके से जुडऩा इसलिए भी खास तौर से लाजिमी हो गया है, क्योंकि स्थानीय शासन संस्थाएं, जिनमें विभिन्न शहर, निकाय और पंचायतें आती हैं, काफी हद तक भीड़ तंत्र का शिकार हो चुकी हैं। जिन संस्थाओं को संविधान में ऐतिहासिक संशोधनों के जरिये लोकतंत्र के भवन में भूतल का दर्जा दिया गया था, वे मलबे में तब्दील हो रही हैं। विधान सभाएं भी अपनी बेहद निर्णायक भूमिका के प्रति समुचित न्याय नहीं कर पा रही हैं। राजनीतिक दलों के तौर-तरीके तो जग जाहिर हैं। उन्होंने जनता को अपनी राजनीति का ईंधन तो बहुत बनाया है, लेकिन उन्हें इंजन नहीं बनने दिया है। यदि शिवराज सिंह जनता की सुसुप्त रचनात्मक क्षमता के दोहन के प्रबल पक्षधर के रूप में उभरकर सामने आए हैं तो इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि वे जनोन्मुखी व्यवस्था के जबरदस्त हिमायती हैं और उसे उसकी अंतिम परिणति तक पहुंचाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। समाज के विभिन्न वर्गों के सुझावों को आमंत्रित करने की दिशा में भी उनकी पहल कुछ कम महत्वपूर्ण नहीं है। इसके लिए वेबसाइट जैसे माध्यमों का सहारा लिया गया है। लोकतंत्र की वास्तविक शक्ति लोक है। जहां भी उसकी उपस्थिति जितनी प्रभावी, जितनी व्यापक होगी, लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के झरने दूर-दूर तक जाएंगे और हरीतिमा को सींचेंगे। इन तमाम वर्षों में प्रशासन तंत्र का आकार-प्रकार इतने अनाप-शनाप ढंग से बढ़ा है कि देश में विशेषत: हिन्दी क्षेत्रों में समाज घट रहा है, राज बढ़ रहा है। यह असंतुलन लोकतंत्र के लिए घातक है। शिवराज सिंह का दृढ़ विश्वास है कि समाज की व्यवस्थाओं, उसके अंग-प्रत्यंगों के सक्रिय होने पर ही चहुंमुखी विकास का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। मध्यप्रदेश के पिछड़ेपन के कई कारण हैं और यह सब इसके बावजूद हैं कि यहां एक से एक अच्छे मुख्यमंत्री रहे हैं, किन्तु वे केन्द्रीय नेतृत्व के प्रति दास्यभाव के कारण इतने दब्बू रहे हैं कि उसके सामने दृढ़ता से अपने प्रदेश के हितों से जुड़े दावे नहीं ठोक सके। सच तो यह है कि मध्यप्रदेश केन्द्र का बंधक राज्य रहा है। दूसरे, विकास की रणनीति भी तत्कालिक राजनीतिक लाभों और क्षेत्रीय खींच-तान पर ही अधिकतर टिकी रही। मध्यप्रदेश इस अर्थ में भी अजीबोगरीब है कि जहां अन्य राज्यों में घटनाएं घटित होती हैं, म.प्र. में विस्फोटित होती हैं। ऐसे उदाहरण मौजूद हैं जब तीन चैथाई बहुमत हासिल करने के बाद भी मुख्यमंत्री को अपनी कुर्सी खोनी पड़ी। बहरहाल अब जो दौर आया है उसमें राजनीति का अच्छा या बुरा होना किसी प्रदेश के विकास की एकमात्र मुख्य शर्त नहीं रह गई है। प्रगति की असल कुंजी है - उद्यम की संस्कृति, ज्ञान विज्ञान के क्षितिजों का विस्तार, आगे बढऩे की उमंग। काफी समय तक उद्यम की संस्कृति के ध्वजाधारी मध्यप्रदेश में बाहर के प्रदेशों से आए लोग रहे हैं। अभी भी इनकी काफी तादाद है। हालांकि यह राहत का विषय है कि इनमें से अधिकांश ने अपने पुराने प्रादेशिक बाने उतारकर स्वयं को मध्यप्रदेशीय मानना प्रारंभ कर दिया है। मध्यप्रदेश के प्रारंभिक दो-तीन दशकों में यहां प्राय: हर क्षेत्र में बाहरी राज्यों से आए इतने चेहरों का घटाटोप उमड़ा कि शिखर पदों पर मध्यप्रदेश की माटी से जुड़ी प्रतिभाओं को खोजना मुश्किल हो गया था। परिस्थितियां अब बदल रही हैं। धरती पुत्रों में भी आकाश छूने की चाहत तेजी से बढ़ रही है। यदि शिक्षा की उच्च गुणवत्ता की हम अब भी गारंटी दे सकें तो राज्य में अमध्यप्रदेशीयता से कहीं अधिक मध्यप्रदेशीयता की धारा बलवती होगी और अपनी स्थापना के समय से पहचान के जिस संकट को यह प्रदेश झेल रहा है, उससे उसे कालांतर में निजात मिल सकती है। तब 'सपना प्रदेशÓ और 'अपना प्रदेशÓ एकाकार हो जाएंगे। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने हाल में 'मध्य प्रदेश बनाओÓ तथा 'अपना मध्यप्रदेशÓ जैसे जो प्रेरक नारे उछाले हैं, उसके लिए मध्यप्रदेशीयता की मजबूत आधारशिला रखना आवश्यक है। इससे अपने हाथों अपनी नियति संवारने का जज्बा केवल बढ़ेगा ही नहीं, छलांग भरेगा। इस अमृत-बिंदु से प्रदेश से अंतरंग जुड़ाव का एक सशक्त सिलसिला चल पड़ेगा। अपनत्व की अनुभूति गहरी होते ही सामाजिक व आर्थिक अभिशापों के विरुद्ध धर्म युद्ध की सुविचारित शुरुआत हो सकेगी। यदि देश में बंगाली, आंध्राइट, तमिलियन, महाराष्ट्रियन, केरलाइट, पंजाबी, हरियाणवी, बिहारी और यूपियन, उत्तर प्रदेशीयद्ध जैसे ढेरों पहचान चिह्न अपनी प्रखर प्रादेशिकता के साथ प्रचलन में हैं, तो 'एम पी-यनÓ या मध्यप्रदेशीय जैसी कोई पृथक पहचान स्थापित करने से हम आखिर कब तक परहेज करेंगे? अपनी विशिष्ट अस्मिता को लेकर कब तक लुंज पुंज बने रहेंगे? एक बार यह पहचान अपना कवच-कुंडल हो जाए तो इससे मध्यप्रदेश को 'अपना प्रदेशÓ मानने की मानसिकता बलवती होगी, साथ ही जिस सकारात्मक पहचान के संकट से मुक्ति पाने के लिए हम छटपटाते रहे हैं, उस पर भी पटाक्षेप करने में मदद मिल सकेगी। विश्व बैंक के एक विशेषज्ञ दल ने वर्षों पहले कहा था कि भारत के अन्य राज्य जहां बीसवीं सदी के सूबे हैं, वहीं मध्यप्रदेश का भाग्योदय इक्कीसवीं सदी में होगा। इस दल का मंतव्य था कि मध्यप्रदेश 21वीं सदी का राज्य इस मायने में है कि जब अन्य राज्य अपने प्राकृतिक संसाधनों का अधिकतर या पूरी तरह दोहन कर चुके होंगे, तब मध्यप्रदेश संभवत: अकेला ऐसा राज्य होगा, जिसके पास अनछुए नैसर्गिक स्त्रोतों के नायाब और बेशुमार भण्डार होंगे। मध्यप्रदेश जब अपनी नदियों को बांधना शुरू करेगा, तब तक कितने ही राज्यों के बांध बूढ़े हो चुके होंगे। देर से यात्रा शुरू करने के भी अपने कुछ लाभ हो सकते हैं। आज हम इसी पायदान पर खड़े हैं। यह वह दौर होगा जब यह प्रदेश अपने मुकुट में एक-एक कर इतने बेशकीमती मोती जड़ेगा कि देश में इसकी कुछ वैसी ही चमकदार पहचान बन सकेगी जिसके लिए वह लंबे अरसे से तरस रहा है।
-मदनमोहन जोशी

सपनों को सच करने की जिम्मेदारी

मध्यप्रदेश यानी वह राज्य जो भारत का हृदय प्रदेश तो है ही परंपरा, संस्कृति और संस्कारों से रसपगा एक क्षेत्र है जहां सौहार्द और सौजन्यता स्वभाव में ही घुल-मिल गई है। अभाव, उपेक्षा और राजनीति ने भी इस स्वभाव पर कोई प्रभाव नहीं डाला है और मप्र आज भी देश के सामने एक ऐसे उदाहरण के रूप में जिसके पास कहने को बहुत कुछ है। अपनी विरासत, सनातन परंपरा और सौहार्र्द को समेटे यह भूमि आज भी इसलिए लोगों के आकर्षण का केंद्र है। इतना ही नहीं, मध्य प्रदेश अपने विशाल आकार में कई प्रकार की संस्कृति, स्वभाव, बोलियों, लोकाचारों का प्रवक्ता है।
आज जब मप्र अपना स्थापना दिवस मना रहा है तो उसके सामने कमोबेश वही सवाल हैं जो हमारी पूरी हिंदी पट्टी को मथ रहे हैं। जिन्हें बीमारू राज्य कहा जा रहा है। विकास का सवाल आज की राजनीति में सबसे अहम है। मप्र की जनता के सामने इस समय सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह किस तरह से नई सदी में अपना चेहरा और चमकदार बनाए। मध्यप्रदेश या कोई भी राज्य सिर्फ अपने इतिहास और विरासत पर गर्व करता हुआ खड़ा नहीं रह सकता। गांवों में फैल रही बेचैनी, शहरों में बढ़ती भीड़, पलायन के किस्से, आदिवासियों और भूमिहीनों के संघर्ष से हम आंखेें नहीं मूंद सकते। आजादी के बाद के ये साल इस विशाल भूभाग में बहुत कुछ बदलते दिखे। किंतु इस समय के प्रश्न बेहद अलग हैं। विकास के मोर्चे पर कुछ नहीं हुआ कहना बेमानी होगा, किंतु इन प्रयासों के बावजूद अगर हम प्राथमिक शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी और बिजली के मोर्चे पर अपना आकलन करें तो तस्वीर बहुत साफ हो जाएगी। मध्यप्रदेश को शांति का टापू कहे जाने के बावजूद विकास के तमाम मानकों पर हमारी हालत पतली है। यह द्वंद शायद इसलिए कि लंबे समय तक प्रयास तो किए गए आम आदमी को इस प्रक्रिया का हिस्सा बनने से रोके रखा गया। प्रशासन की संवेदनशीलता, राजनीतिज्ञों की नैतिकता, राज्य के लोगों की विकास में हिस्सेदारी कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिस पर साफ दिल से बात होनी ही चाहिए। राज्य के सामने सबसे बड़ी चुनौती क्या है, किन प्रश्नों पर राज्य को प्राथमिकता के साथ जूझना चाहिए ये ऐसे सवाल हैं जिनसे टकराने का साहस हम नहीं करते। नौकरशाही जिस तरह से सत्ता और समाज की शक्तियों का अनुकूलन करती है वह बात भी चिंता में डालने वाली है। राजनीति नेतृत्व की अपनी विवशताएं और सीमाएं होती हैं। चुनाव-दर-चुनाव और उसमें जंग जीतने की जद्दोजहद राजनीति के नियामकों को इतना बेचारा बना देती है कि वे सही मुद्दों से जूझने के बजाय इन्हीं में काफी ताकत खर्च कर चुके होते हैं।
मप्र अपने आकार और प्रकार में अपनी स्थापना के समय से ही बहुत बड़ा था। सन् 2000 में छत्तीसगढ़ अलग होने के बाद मप्र के सामने अलग तरह की चुनौतियां खड़ी हुईं। जिसमें बिजली से लेकर आर्थिक संसाधनों की बात सामने थी। बावजूद इसके इसका आकार आज भी बहुत बड़ा है। सो प्रशासनिक नियंत्रण से साथ-साथ नीचे तक विकास कार्यक्रमों का पहुंचना एक बड़ी चुनौती होती है। मप्र एक ऐसा राज्य है जहां की योजनाओं को राष्ट्रीय स्तर पर सराहना मिली है। बावजूद इसके शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर काम किए जाने की जरूरत है। आज के दौर की चुनौतियों के मद्देनजर श्रेष्ठï मानव संसाधन का निर्माण एक ऐसा काम है जो हमारे युवाओं को बड़े अवसर दिलवा सकता है। इसके लिए शहरी क्षेत्रों के अलावा ग्रामीण क्षेत्रों के स्कूलों के लिए हम क्या कर सकते हैं यह सोचना बहुत जरूरी है। यह सोचने का विषय है कि लोग सरकारी स्कूलों में अपने बच्चों को भेजने से परहेज क्यों करने लगे हैं। ऐसे में यहां से निकल रही पीढ़ी का भविष्य क्या है। इसी तरह उच्चशिक्षा में हो रहा बाजारीकरण एक बड़ी चुनौती है। हमारे सरकारी शिक्षण तंत्र का ध्वस्त होना कहीं इरादतन निजी क्षेत्रों के लिए दिया जा रहा अवसर तो नहीं है। यही हालात स्वास्थ्य के क्षेत्र में हैं। बुंदेलखंड और वहां के प्रश्न आज राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा के केंद्र में हैं। पानी का संकट लगभग पूरे राज्य के अधिकांश इलाकों का संकट है। शहरों और अधिकतम मध्यवर्ग को केंद्र में रखकर किया जा रहा विकास एक सामाजिक संकट सरीखा बन गया है। मप्र जैसे संवेदनशील राज्य को इस प्रश्न पर भी सोचने की जरूरत है। अपनी प्राकृतिक विरासतों को सहेजने की चिंता भी इसी से जुड़ी है। यह प्रसन्नता की बात है कि जीवनदायिनी नर्मदा के बारे में अब कुछ गंभीरता दिखने लगी है। अमृतलाल बेगड़ और अनिल दवे के प्रयासों से समाज का ध्यान भी इस ओर गया है। मध्यप्रदेश में पंचायतों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए राज्य सरकार खुद आगे आई, यह एक बहुत ही सकारात्मक संकेत है। अब आवश्यकता इस बात की है कि इन सभी महिला-पुरुष प्रतिनिधियों का गुणात्मक और कार्यात्मक विकास किया जाए। क्योंकि जानकारी के अभाव में कोई भी प्रतिनिधि अपने समाज या गांव के लिए कारगर साबित नहीं हो सकता। जनप्रतिनिधियों के नियमित प्रशिक्षण कार्यक्रम और गांव के प्रतिनिधियों के प्रति प्रशासनिक अधिकारियों की संवेदनात्मक दृष्टि का विकास बहुत जरूरी है। सरकार ने जब एक अच्छी नियति से पंचायती राज को स्वीकार किया है तब यह भी जरूरी है कि वह अपने संसाधनों के सही इस्तेमाल के लिए प्रतिनिधियों को प्रेरित भी करे। राज्य में बड़ी संख्या में आदिवासी समाज के लोग हैं उनके प्रश्न और चिंताएं अलग हैं। हमें उनका भी सोचना होगा। महिलाओं के साथ अत्याचार और उत्पीडऩ के मामले में भी मप्र का रिकार्ड बहुत बेहतर नहीं है। साथ ही सामंतशाही के बीज भी अभी कुछ इलाकों में पसरे हुए दिखते हैं। नक्सलवाद की चुनौती भी कुछ क्षेत्रों में मौजूद है। उस पर अब केंद्र सरकार का भी ध्यान गया है। ऐसे बहुत से प्रश्नों से टकराना और दो-दो हाथ करना सिर्फ हमारे सत्ताधीशों की नहीं हमारी भी जिम्मेदारी है। सामाजिक शक्तियों की एकजुटता और प्रभावी होना भी जरूरी है, क्योंकि वही राजसत्ता पर नियंत्रण कर सकती है। इससे अंतत: लोकतंत्र सही मायनों में प्रभावी होगा। भाजपा और उसके नेता शिवराज सिंह चौहान पर राज्य की जनता ने लगातार भरोसा जताते हुए बड़ी जिम्मेदारी सौंपी है। विरासत में मिली इन तमाम चुनौतियों की तरफ देखना और उनके जायज समाधान खोजना किसी भी राजसत्ता की जिम्मेदारी है। मुख्यमंत्री को इतिहास की इस घड़ी में यह अवसर मिला है कि वे इस वृहतर भूगोल को उसकी तमाम समस्याओं के बीच एक नया आयाम दे सकें। सालों-साल से न्याय और विकास की प्रतीक्षा में खड़े मप्र की सेवा के हर क्षण का रचनात्मक उपयोग करें। बहुत चुनौतीपूर्ण और कंटकाकीर्ण मार्ग होने के बावजूद उन्हें इन चुनौतियों को स्वीकार करना ही होगा, क्योंकि सपनों को सच करने की जिम्मेदारी मध्यप्रदेश के भूगोल और इतिहास दोनों ने उन्हें दी है। जाहिर है वे इन चुनौतियों से भागना भी नहीं चाहेंगे। अब जबकि मप्र की राजनीति में युवा चेहरों के हाथ में कमान है, हमें अपने तंत्र को ज्यादा संवेदनशील, ज्यादा बेहतर, ज्यादा मानवीय और सरोकारी बनाने की कोशिशें करनी चाहिए। स्थापना दिवस का यही संकल्प राज्य के माथे पर सौभाग्य का टीका साबित होगा।
-संजय द्विवेदी