राहुल गांधी इन दिनों देश की युवा राजनीति के सुपरस्टार बनकर उभरे हैं। उन्होंने अपनी अनूठी राजनीतिक शैली से देश की राजनीति की दिशा एवं दशा बदलने की जो संकल्पबद्धता प्रदर्शित की है, उसकी वजह से वे देश के लोगों के दिल में अपने लिए विशिष्टï जगह बनाने में सफल हुए हैं। देश को करीब से समझने के अपने भारत दर्शन अभियान के तहत राहुल अमेठी और रायबरेली से निकलकर बुंदेलखंड की सूखी धरती, छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों, सांप्रदायिकता से झुलसते उड़ीसा और कर्नाटक, भाजपा के दुर्ग गुजरात, वाम मोर्चे के गढ़ प.बंगाल के अलावा मध्यप्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, राजस्थान, केरल, तमिलनाडु सब जगह गए। कभी दलित के घर में रोटी खाई, तो कभी किसी गरीब की झोपड़ी में रात बिताई। राहुल के इन कामों का देश के कुछ प्रमुख नेताओं ने मजाक उड़ाने में कोर कसर नहीं छोड़ी। किसी ने उन्हें बच्चा कहा तो किसी ने उनके नहाने के साबुन तक पर कटाक्ष किया, लेकिन राहुल अपनी अग्निपरीक्षा में खरे उतरे और खामोशी से जनता के दिल में गहरे उतरते चले गए।राहुल गांधी ने हर मोर्चे पर कमोवेश यह भरोसा जगाया कि वे अपने करिश्मे से कांग्रेस को नई चमक और नए तेवर दे सकते हैं जिससे कालांतर में एक बार फिर कांग्रेस देश के कोने कोने में खुद को स्थापित कर सकती है।दरअसल गरीबों के इर्द गिर्द अपनी सियासी व्यूहरचना की। उन्होंने इनके दुख दर्द में हिस्सेदारी को अपनी राजनीति का प्रमुख उपकरण बनाया। यह देश की राजनीति की उस परंपरागत शैली से बिल्कुल अलग था जो चुनाव में येन केन प्रकारेण वोट कबाड़कर कुर्सी हासिल करने और फिर अपने स्वार्थ में डूब जाने के लिए ही जानी जाती है। राजनीतिक विरोधियों ने इसे पावर्टी टूरिज्म की संज्ञा तक दे डाली लेकिन यह वास्तविकता की ओर पीठ कर चलने जैसी कवायद ही थी क्योंकि देश में चारों ओर राहुल के जज्बे की तारीफ हो रही है।राजनीतिक नजरिये में बदलाव की इस पहल का चौतरफा परिणाम सामने आ रहा है। उत्तरप्रदेश में जहां कांग्रेस पराभव के चरम पर पहुंच चुकी थी, राहुल के दौरों और समाज के निचले तबके से तादात्म्य स्थापित करने के प्रयासों के कारण कांग्रेस को यह अहसास हो चला है कि उसके पुराने दिन लौट सकते हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में उनकी चौतरफा मोर्चेबंदी के कारण ही कांग्रेस सपा जैसी पार्टियों के साथ आकर खड़ी हो गई दिखती है। उप्र की मुख्यमंत्री मायावती तो राहुल के दौरों से इतनी घबरा गई हैं कि उनके पूर्व निर्धारित दौरों तक में सरकार ने जब तब अवरोध खड़े करने की कोशिश की है। यही हाल बिहार का है जहां कांग्रेस की दुर्गति के लिए जिम्मेदार लालू यादव के साथ अपना गठबंधन भंग कर राहुल ने पार्टी को अपनी दम पर चुनाव मैदान में उतारा। इसका परिणाम यह हुआ कि अब कांग्रेस वहां अपना खोया हुआ आत्मविश्वास पुन: हासिल कर चुकी है। पंजाब एवं मध्यप्रदेश में भी लोकसभा चुनाव में राहुल फैक्टर का असर साफ नजर आया जहां कई बुजुर्ग नेताओं को कांग्रेस के युवा प्रत्याशियों को पराजित कर दिखाया।राहुल गांधी का यह करिश्मा कोई आकस्मिक घटना नहीं है। उन्होंने राजनीति में अभी तक का सफर पुख्ता कदमों से तय किया है। 19 जून 1970 को जन्मे तथा मार्डन स्कूल नई दिल्ली, दून स्कूल में अपनी स्कूली शिक्षा और उसके बाद हार्वर्ड विश्वविद्यालय, रालिन्स कालेज फ्लोरिडा, ट्रिनिटी कालेज केम्ब्रिज से उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले राहुल ने राजनीति में हड़बड़ी में कदम नहीं उठाए। कुछ समय तक प्रसिद्ध मेनेजमेंट गुरु माइकल पोर्टर में सेवाएं देने वाले श्री राहुल गांधी ने जनवरी 2004 तक राजनीति में प्रवेश के सवालो को नकारते रहे लेकिन अपनी मां एवं कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के साथ विभिन्न सभाओं एवं फोरम पर शिरकत कर देश के राजनीतिक तेवर का जायजा लेते रहे। फिर माहौल को अपने अनुकूल पाकर मार्च 2004 में सबको चौंकाते हुए उन्होंने अमेठी से लोकसभा चुनाव लडऩे का ऐलान कर दिया और अपनी बहन प्रियंका के सहयोग से यह चुनाव एक लाख से अधिक वोटों से जीतने में कामयाब रहे। तभी उन्हें कांग्रेस में प्रमुख भूमिका दिये जाने की मांग उठने लगी थी लेकिन उन्होंने कांग्रेस की कार्यशैली से पूरी तरफ वाकिफ होने और कांग्रेस कार्यकर्ताओं का विश्वास अर्जित करने के बाद ही 24 सितंबर 2007 को कांग्रेस महासचिव का पद संभाला। यह कोई रहस्य नहीं है कि वे खुद मंत्री पद स्वीकारने का प्रधानमंत्री का आग्रह अस्वीकार कर चुके हैं। इससे यह बात साफ हो ही जाती है कि उनमें भी अपनी मां सोनिया गांधी की तरह ही पदलिप्सा लेशमात्र नहीं है। यह बात अलग है कि देश उन्हें नए नेता के रूप में देख रहा है। उनकी सोच यही रही है कि राजनीति मेें युवाओं को बढ़ावा दिये जाने से ही राजनीतिक वातावरण सुधर सकेगा और उन्होंने इसे कार्य रूप में भी परिणित कर दिखाया। उन्होंने समूचे देश में युवा एवं प्रतिभावान लोगों के सहारे कांग्रेस को आगे ले जाने का बीड़ा उठाया है। ज्योतिरादित्य सिंधिया, जतिन प्रसाद एवं सचिन पायलट जैसे युवा नेता राहुल गांधी की टीम का हिस्सा हैं जो साफ सुथरी एवं ईमानदार छवि के लिए जाने जाते हैं। उनकी युवा शक्ति पर आधारित तथा गरीबों के दुख दर्द को महसूस करने एवं उन्हें दूर करने का जज्बा रखने वाली राजनीति का जादू निश्चित ही देश पर बखूबी चल रहा है लेकिन राहुल के नेतृत्व के आगे चुनौतियां भी कम नहीं हैं। देश में सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती महंगाई उनकी सबसे बड़ी चुनौती है। भारत के पड़ौसियों की बदनीयती भरी नीतियों विशेषत: आतंकवाद से समुचित तरीके से न निपट पाने के कारण भी देश के लोगों में आक्रोश बढ़ रहा है। क्या राहुल गांधी अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर महंगाई पर नियंत्रण तथा आतंकवाद पर शिकंजा कसने के लिए सरकार को प्रेरित कर पाएंगे। उनकी सफलता इस सवाल के उत्तर पर भी काफी हद तक तय करेगी।
-सर्वदमन पाठक
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