Thursday, December 31, 2009

उठें और गर्मजोशी से गले लगाएं नए साल के सूरज को

परिवर्तन प्रकृति का नियम है। संभवत: यह ऐसी नियति है जिससे बचा ही नहीं जा सकता। लेकिन इसी परिवर्तन में हमारे सपने और संभावनाएं छिपी होती हैं। सन 2009 की विदाई और 2010 का आगाज ऐसे ही परिवर्तन का परिचायक है। पिछला साल निश्चित ही कुछ ऐसी खट्टïी मीठी यादें छोड़ गया है जो हमारे मस्तिष्क में किसी चलचित्र की तरह अंकित हो गई हैं। इनमें कई यादें हमें विचलित करने वाली हैं और कई यादें आनंदित करने वाली हैं लेकिन अब ये सभी अतीत का हिस्सा बन गई हैं और इसने हमारे अनुभव और सीख के कोष में इजाफा किया है। यही अनुभव हमारे जीवन पथ में आलोक फैला सकता है। नए साल का सूरज आपके दरवाजे पर दस्तक दे रहा है। यह सूरज उम्मीदों का नया प्रकाश लेकर आया है। आप ऊर्जा के इस असीम स्रोत का पूरी गर्मजोशी से स्वागत करें और नई ऊर्जा से अपने अधूरे सपनों को साकार करने के लिए जुट जाएं। दरअसल सपनों की पतंगें उतनी ही ऊंचाई छूती हैं जितना कि आपकी उमंगें जोर मारती हैं हालांकि इसमें किस्मत की तरंगों का भी योगदान होता है लेकिन वह इंसान ही क्या जो अपनी तदबीर से तकदीर को बदलने का माद्दा न रखता हो। जरूरत सिर्फ इसी बात की है कि हम अपनी ताकत को पहचानें और भाग्य को अपना साथ देने पर मजबूर कर दें। सूरज और सूरजमुखी मेेंएक रिश्ता है। सूरज के उदय के साथ ही सूरजमुखी के खिलने का सिलसिला शुरू हो जाता है। सूरजमुखी की यही फितरत होती है कि वह सूरज की ओर टकटकी लगाए देखता रहता है। सूरज तो हमें प्रकाश और ऊर्जा दोनों से ही नवाजता है लेकिन सवाल यही है कि क्या आप सूरजमुखी हैं। क्या आपमें इस प्रकाश एवं ऊर्जा को ग्रहण करने का जज्बा है। उत्तर आपके पास है। यदि आप नए साल पर अपने सपनों की बेल को परवान चढ़ाने के अभिलाषी हैं तो आपको अपने अंदर यही जज्बा पैदा करना होगा। फिर आपको कोई भी सफलता का आकाश छूने से नहीं रोक सकता। तो आइये, हम 2010 की उत्साह के साथ अगवानी करें और उजले सपने सजाने और उन्हें पूरे करने का संकल्प लें।
-सर्वदमन पाठक

Sunday, December 27, 2009

कांग्रेस: अतीत के गौरव को संजोकर रखने की चुनौती

भारतीय राष्टï्रीय कांग्रेस को देश के इतिहास में ऐसी गौरवशाली पार्टी के रूप में पहचान हासिल है जिसने न केवल राष्टï्र की आजादी की इबारत लिखी बल्कि स्वातंत्र्योत्तरकाल के अधिकांश वर्षों में देश को नेतृत्व प्रदान किया। इसके अलावा समाज सुधार में भी कांग्रेस ने अहम भूमिका निभाई। दिलचस्प बात यह है कि कांग्रेस की स्थापना ब्रिटिश सिविल सर्वेंट ए ओ ह्यïूम की पहल पर की गई थी और इसका उद्देश्य शिक्षित भारतीयों तथा ब्रिटिश राज के बीच नगरीय एवं राजनीतिक डायलाग के लिए एक फोरम प्रदान करना तथा उन्हें ब्रिटिश राज में उन्हें अधिक हिस्सेदारी का प्रलोभन देकर संतुष्टï करना था। प्रकारांतर से कहा जाए तो पहले स्वतंत्रता संग्राम के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी से ब्रिटिश राज को भारत का सत्ता हस्तांतरण हुआ तो ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों के विद्रोही तेवर को शिथिल करने के लिए पर्दे के पीछे से यह फोरम बनवाया था। अत: स्वाभाविक रूप से शुरुआती तौर पर इस फोरम का ब्रिटिश राज से कोई विरोध नहीं था। सच तो यह है कि तत्कालीन वायसराय लार्ड डफरिन की मंजूरी के बाद ही मुंबई में 28 दिसंबर 1885 को एलेन आक्टेवियन ह्यïूम, दादाभाई नैरोजी, दिनशा वाचा, वोमेश चंद्र बैनर्जी, सुरेद्रनाथ बैनर्जी, मनमोहन घोष और विलियम बेडरबर्न सहित 72 प्रतिनिधियों की उपस्थिति में कांग्रेस की स्थापना हुई थी और इसके प्रथम अध्यक्ष श्री वोमेश चंद्र बैनर्जी थे। प्रति वर्ष दिसंबर में मुंबई में इसकी बैठक होती थी।लेकिन कालांतर में कांग्रेस आजादी की राष्टï्रीय आकांक्षा को प्रतिबिंबित करने लगी और उसने आजादी के आंदोलन की कमान संभाल ली। 1907 में पार्टी दो भागों में बंट गई जिनमें गरम दल का नेतृत्व बाल गंगाधर तिलक के हाथ में था और गोपाल कृष्ण गोखले नरम दल का नेतृत्व कर रहे थे। इनमें से तिलक के नेतृत्व को जबर्दस्त जन समर्थन हासिल हुआ और इसके फलस्वरूप कांग्रेस ब्रिटिश आंदोलन के खिलाफ एक वृहत जनांदोलन में तब्दील हो गई। यह पार्टी देश के महानतम नेताओं की जननी रही है। गांधी युग के पहले तिलक, गोखले, विपिन चंद्र पाल, लाला लाजपत राय और मोहम्मद अली जिन्ना ने आजादी के आंदोलन को जन जन तक पहुंचाने मेें महती भूमिका निभाई। हालांकि बाद में मोहम्मद अली जिन्ना में मुस्लिम लीग के जरिये अलग राह पकड़ ली और देश के विभाजन व पाकिस्तान के गठन का मार्ग प्रशस्त कर देश के सीने में ऐसा घाव दे दिया जिसका दर्द आज भी राष्टï्र महसूस करता है। 1905 में बंगाल के विभाजन तथा उसके फलस्वरूप छेड़े गए स्वदेशी आंदोलन के दौरान सुरेंद्र नाथ बैनर्जी तथा हेनरी काटन कांग्रेस के माध्यम में व्यापक जनांदोलन छेड़ दिया।सन 1915 में महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे और गोखले गुट की मदद से उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष चुन लिया गया।श्री गांधी ने खिलाफत आंदोलन के साथ मिल कर एक गठबंधन बना लिया। खिलाफत आंदोलन तो बाद में टांय टांय फिस्स हो गया लेकिन इस गठबंधन के कारण कांग्रेस का एक और विभाजन हो गया। चित्तरंजन दास, एनी बेसेंट, मोतीलाल नेहरू जैसे कई नेता कांग्रेस से बाहर चले गए और उन्होंने स्वराज पार्टी का गठन कर लिया। महात्मा गांधी की लोकप्रियता के ज्वार तथा उनके सत्याग्रह से आकर्षित होकर वल्लभभाई पटेल, जवाहर लाल नेहरू, डा.खान अब्दुल गफ्फार खान, राजेन्द्र प्रसाद, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, कृपलानी, तथा मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे नेता कांग्रेस में शामिल हो गए। गांधीजी की लोकप्रियता और देश में राष्टï्रवाद की भावना के फलस्वरूप कांग्रेस आजादी के आंदोलन के साथ ही अछूतोद्धार, जाति प्रथा के उन्मूलन, र्धािर्मक कट्टïरता जैसी बुराइयों को दूर करने जैसे सामाजिक सुधार का भी हथियार बन गई।1929 में जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता मेें हुए लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज्य का लक्ष्य निर्धारित किया गया जो आजादी की जंग के इतिहास में एक मील का पत्थर है। 1939 में हुई त्रिपुरी कांग्रेस में सुभाष चंद्र बोस पार्टी के अध्यक्ष चुने गए लेकिन उन्हें बाद में पार्टी से निष्कासित कर दिया गया जबकि वे देश के लोगों में काफी अधिक लोकप्रिय थे। इससे कांग्रेस की प्रतिष्ठïा को निश्चित रूप से झटका लगा। इससे पार्टी से जुड़े कुछ समाजवादी वर्गों ने इससे किनाराकशी कर ली।1942 में कांग्रेस ने भारत छोड़ो आंदोलन का आव्हान किया जिसमें हालांकि कांग्रेस के शीर्ष नेताओं को पहले ही गिरफ्तार कर लिये जाने के बावजूद देशवासियों का जो जुनून दिखा उससे ब्रिटिश सरकार हिल गई एवं उसे अहसास होने लगा कि अब भारत के लोग गुलामी के बंधन तोड़कर ही रहेंगे।द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटिश सरकार ने वादा किया था कि यह भारत के लोगों ने इस युद्ध में ब्रिटेन का साथ दिया तो उसे आजादी दे दी जाएगी लेकिन वह अपने वादे से मुकर गई। इसके बाद कांग्रेस ने बड़े पैमाने पर जनांदोलन छेड़ दिया। सन1946 में नौसैनिकों के विद्रोह को हालांकि कांग्रेस ने स्वीकार नहीं किया पर इस विद्रोह से कांग्रेस के स्वातंत्र्य आंदोलन में निर्णायक मोड़ आया और अंतत: ब्रिटिश सरकार को भारत की आजादी के लिए मजबूर होना पड़ा। लेकिन जिन्ना की हठधर्मी के चलते देश का बंटवारा हुआ और पाकिस्तान बना। इस बंटवारे में लाखों बेगुनाहों की जानें गईं। इस घटनाक्रम से नाराज नाथूराम गोड़से ने राष्टï्रपिता महात्मा गांधी की हत्या कर कांग्रेस एवं देश को शोक के सागर में डुबो दिया।हालांकि गांधी जी ने कहा था कि देश की आजादी के साथ ही कांग्रेस का लक्ष्य पूर्ण हो गया है अत: अब कांग्रेस को भंग कर दिया जाना चाहिए लेकिन कांग्रेस के अधिकांश नेता चाहते थे कि देश की सत्ता की बागडोर कांग्रेस ही संभाले। इसी के फलस्वरूप आजादी के बाद केंद्र में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी और आजादी के आंदोलन के एक और दिग्गज नेता श्री वल्लभभाई पटेल उपप्रधानमंत्री बनाए गए। राजेंद्र प्रसाद इस सरकार के राष्टï्रपति थे। पटेल ने भोपाल, हैदराबाद सहित देश की तमाम रियासतों का विलीनीकरण कर आजादी को और मजबूती प्रदान की हालांकि कश्मीर के राजा का अदूदर्शितापूर्ण विलंब आज भी भारत के गले की हड्डïी बना हुआ है।1962 में चीनी आक्रमण के दौरान भारत की जबर्दस्त पराजय ने कांग्रेस सरकार के प्रति जन विश्वास को हिला कर रख दिया। प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री इसी सिलसिले में हुए समझौते के कारण ताशकंद में जान से हाथ धो बैठे और इंदिरा गांधी सत्ता संभाली लेकिन उसके बाद भी 1967 में कई राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकार सत्ता मेें आ गईं। राष्टï्रपति पद पर संजीव रेड्डïी को उम्मीदवार बनाने के दलीय फैसले पर इंदिरा गुट तथा सिंडिकेट गुट में मतभेद हो गए और 1969 में कांग्रेस का औपचारिक विभाजन हो गया। इंदिरा गांधी ने इंदिरा कांग्रेस का गठन किया जो बाद में असली कांग्रेस जैसी ही ताकतवर हो गई। वैसे इंदिरा गांधी के नेतृत्व में देश में पाकिस्तान के खिलाफ 1965 एवं 1971 की लड़ाई जीती और 71 की विजय तथा बंगलादेश के उदय के कारण तो उन्हें दुर्गा तक के संबोधन से नवाजा गया लेकिन इसके बावजूद जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में संपूर्ण क्रांति आंदोलन ने उनके चमत्कार को फीका कर दिया। इंदिरा जी ने इससे निपटने के लिए इमरजेंसी लगाया जिसका बिल्कुल उल्टा असर पड़ा और पांच दलों को मिलाकर बनाई गई जनता पार्टी ने चुनाव में इंदिरा गांधी सरकार को पराजित कर दिया। हालांकि इसके बाद भी प्रधानमंत्री के रूप में प्रतिष्ठिïत हुए मोरारजी देसाई भी पुराने कांग्रेस ही थे। चरण सिंह की बगावत से 20 माह मेें ही जनता सरकार गिर गई और इंदिरा गांधी एक बार पुन: जन विश्वास हासिल करने में सफल रहीं। 1984 में ब्लू स्टार आपरेशन के बाद इंदिराजी के अंगरक्षकों ने उनकी हत्या कर दी और इस इसके फलस्वरूप सिख विरोधी दंगों में हजारों सिख मौत के घाट उतार दिये गए। उधर इसके बाद हुए लोकसभा चुनाव में राजीव गांधी सहानुभूति की लहर पर सवार होकर प्रधानमंत्री आरूढ़ हो गए। राजीव गांधी सरकार भी बोफोर्स घोटाले के कारण 1989 में चुनाव में पराजित हो गई लेकिन कांग्रेस से बगावत कर जनता दल गठित करने वाले विश्वनाथ सिंह प्रधानमंत्री बन गए। हालांकि राम जन्म भूमि आंदोलन के कारण उनकी सरकार बीच में गिर गई और एक बार फिर नरसिंहराव के नेतृत्व में कांग्रेस ने देश की बागडोर संभाली। 1996 से 2004 तक देश में गैर कांग्रेसी सरकार रहीं लेकिन 2004 से पुन: कांग्रेस का करिश्मा सर चढ़ कर बोल रहा है और सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस देश के दिल पर राज कर रही है। मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस नीत यूपीए सरकार का सौम्य चेहरा देश में अलग पहचान बनाए हुए है और राहुल गांधी के रूप मेें कांग्रेस को नया युवराज मिल गया है जो देश के भविष्य के नेता के रूप मेें माना जा रहा है।
-सर्वदमन पाठक

Tuesday, December 22, 2009

कही- अनकही

विदेश मंत्री एस. एम. कृष्णा ने कहा- चीन से सीमा को लेकर हमारा मतभेद जरूर चल रहा है लेकिन यह 1962 नहीं, 2009 है। अब भारत की स्थिति ऐसी नहीं है कि कोई उसे डरा धमका सके।क्या आशय है उनका?भले ही 1962 की जंग मेंं भारत को चीन के हाथों पराजय झेलनी पड़ी हो और अपने एक बड़े भूभाग को खोना पड़ा हो लेकिन अब भारत ऐसी ताकत बन चुका है जिसे धमकियों अथवा ताकत की भाषा से झुकाया नहीं जा सकता। चीन की आपत्ति के बावजूद दलाई लामा की अरुणाचल यात्रा और इसके बाद ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का अरुणाचल दौरा इस बात का प्रमाण है कि भारत अब चीन की नाजायज मांगों को मानने के लिए न तो तैयार है और न ही उसकी ऐसी कोई बाध्यता है।क्या है हकीकत?यह सच है कि भारत ने सैन्य तथा असैन्य, दोनों ही क्षेत्रों में काफी जबर्दस्त प्रगति की है और आज दुनिया में उसे सबसे तेजी से बढ़ती आर्थिक शक्ति के रूप में देखा जा रहा है। अंतर्राष्टï्रीय राजनीति में भी उसे कहीं ज्यादा प्रतिष्ठïापूर्ण स्थान हासिल है अत: क्षमता की दृष्टिï से उसे किसी से कमतर नहीं आंका जा सका। चीन के ऐतराज के बावजूद मनमोहन सिंह तथा दलाई लामा की अरुणाचल यात्रा निश्चित ही विदेशमंत्री के इस दावे की पुष्टि करती है कि भारत को धमकियों से झुकाया नहीं जा सकता लेकिन यह वस्तु स्थिति का सिर्फ एक ही पहलू है। अरुणाचल में चीनी सैनिकों द्वारा घुसकर धमकाने की घटनाओं की केंद्र सरकार द्वारा अनदेखी और चीन की आपत्ति के बाद लेह( लद्दाख) में सड़क निर्माण पर रोक से इसकी दूसरी तस्वीर ही सामने आती है। भारत को 1962 की घटनाओं से सबक लेना चाहिए जब हिंदी चीनी भाई भाई के नारे के भ्रमजाल में उलझकर हमने चीन के नापाक इरादों का अंदाज लगाने में भूल की जिसका खमियाजा हम आज भी भुगत रहे हैं। जरूरत इस बात की है कि भारत चीन से सीमा विवाद सहित तमाम मुद्दों पर खुले दिल विचार तो करे लेकिन साथ ही उसकी किसी भी नाजायज मांग का सख्ती से प्रतिकार करे।

न्याय के अंजाम तक पहुंचे वसुंधरा प्रकरण

पुलिस के दावों के मुताबिक उसने फैशन टेक्नालाजी की छात्रा और बाहुबली पूर्व विधायक अशोक वीर विक्रम सिंह भैया राजा की नातिन वसुंधरा बुंदेला की मौत की गुत्थी अंतत: सुलझा ली है। प्रदेश में सनसनी फैला देने वाले इस लोमहर्षक हत्याकांड में जिन लोगों की गिरफ्तारी की गई हैं, उनमें खुद भैया राजा का नाम सबसे अधिक चौंकाने वाला है। अन्य गिरफ्तार आरोपियों में भी या तो भैयाराजा के रिश्तेदार हैं या फिर उनके नौकर। वसुंधरा बुंदेला की हत्या कई दिनों से मीडिया की सुर्खियों में है और पुलिस सूत्रों के हवाले से इस संबंध में मीडिया को जो जानकारियां उपलब्ध कराई गई हैं, उन्हें देखते हुए ही ये गिरफ्तारियां की गई हैं। हकीकत यह है कि पुलिस को इस संबंध में जो भी सुराग हाथ लगे थे उनके अनुसार शक की सुई भैया राजा के इर्द गिर्द ही घूम रही थी। अलबत्ता इस हाई प्रोफाइल प्रकरण में पुलिस पर राजनीतिक दबाव के जो आरोप लगाए जा रहे थे, पुलिस की कार्रवाई से फिलहाल निराधार सिद्ध हुए हैं। गृहमंत्री का यह बयान पुलिस की वस्तुपरक जांच में काफी मददगार रहा है कि बेगुनाह को बेवजह परेशान नहीं किया जाएगा लेकिन पुलिस पर इस सिलसिले में दवाब का कोई सवाल ही नहीं है। दरअसल यह सैद्धांतिक रूप से सही है कि जब तक किसी व्यक्ति पर दोष प्रमाणित न हो जाए तब तक उसे अपराधी नहीं माना जा सकता लेकिन इसके साथ ही यह भी उतना ही सच है कि जब तक अदालत किसी व्यक्ति को निर्दोष करार न दे दे तब तक उसे बेगुनाह भी नहीं माना जा सकता। भैया राजा को भी इस मामले में अपवाद नहीं माना जा सकता।जहां तक भैया राजा का सवाल है, वे छतरपुर में आतंक का पर्याय रहे हैं और उन पर हत्या सहित कई संगीन मुकदमे चल चुके हैं। यह अलग बात है कि उन पर कोई भी आरोप सिद्ध नहीं हो पाया। छतरपुर में तो उनके अपराधों से जुड़े किस्से लोगों की जुबान पर हैं। खुद भैया राजा खुद को इस मामले में बेगुनाह बता रहे हैं और पुलिस पर प्रताडऩा का आरोप लगा रहे हैं लेकिन पुलिस का दावा है कि उसके पास वसुंधरा की हत्या की साजिश में शामिल होने तथा घटना से जुड़े प्रमाण नष्टï करने के सिलसिले में राजा भैया के खिलाफ पक्के सबूत हैं और इसी आधार पर उन्हें गिरफ्तार किया गया है। पुलिस ने पहले भैया राजा की नौकरानी तथा रिश्ते की एक अन्य नातिन को हिरासत में लेकर सख्ती से पूछताछ की है और उनके द्वारा दी गई जानकारी के आधार पर ही उसने भैया राजा को गिरफ्तार किया है। हादसे से जुड़े समूचे घटनाक्रम से यह आभास अवश्य होता है कि इस मामले की जांच को राजनीतिक रूप से प्रभावित करने की कोशिशें यदा कदा चलती रही हैं। मसलन जब राजा भैया को पूछताछ के लिए थाने बुलाया गया था तो वे यह कहकर वहां से चले गए कि उन्हें मुख्यमंत्री से मिलने जाना है। यह अपने आप में पुलिस पर राजनीतिक दवाब डालने का परोक्ष प्रयास ही था। उनकी पत्नी एवं भाजपा की विधायक आशा देवी ने खुद मुख्यमंत्री तथा अन्य भाजपा नेताओं से मिलकर इस मामले में भैया राजा को निर्दोष बताते हुए उनके साथ इंसाफ की मांग की। लेकिन सरकार, भारतीय जनता पार्टी दोनों ने ही इस मामले में दखल करने से स्पष्टï तौर पर इंकार कर स्पष्टï कर दिया है कि कानून अपना काम करेगा। खुद भैया राजा यह दावा कर रहे हैं कि वे इस मामले में निर्दोष हैं और उन्हें बेवजह फंसाया जा रहे है। यदि उन्हें अपने निर्दोष होने का भरोसा है तो उन्हें अपने राजनीतिक रसूख के बेवजह इस्तेमाल से इस आपराधिक मामले को प्रभावित करने की कोशिश करने के बदले न्याय प्रणाली पर भरोसा करना चाहिए और इस बात का इंतजार करना चाहिए कि अदालत उन्हें निर्दोष सिद्ध करे।
-सर्वदमन पाठक

Thursday, December 17, 2009

जीत के जश्र के साथ हार पर आत्मचिंतन भी जरूरी

माननीय मुख्यमंत्री जी, आपके आसमान छूते मनोबल को मैं बारंबार प्रणाम करता हूं। इसी मनोबल के कारण तो आपने इतने कम समय में उपलब्धियों के आकाश को स्पर्श किया है जो प्रदेश के अन्य किसी भी भाजपा नेता के लिए सपना ही है। आपके नेतृत्व में प्रदेश में भाजपा ने दुबारा जनादेश हासिल किया और उसके कुछ माह बाद ही लोकसभा चुनाव में भाजपा को जबर्दस्त झटका लगा लेकिन दोनों ही स्थितियों में आपके मनोबल में कोई भी गिरावट नहीं आई। नगरीय निकायों के चुनाव के तुरंत बाद आई आपकी उत्साहपूर्ण प्रतिक्रिया आपके मनोबल की इसी यथास्थिति का विस्तार है। यह अलग बात है कि आपकी सरकार की नाक के नीचे भोपाल में नगर निगम परिषद पर कांग्रेस ने कब्जा कर लिया है और मेयर पद के चुनाव का परिणाम भाजपा प्रत्याशी कृष्णा गौर की जीत कम और कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में मैदान में उतारी गई नितांत ही अपरिचित उम्मीदवार आभा सिंह की हार ज्यादा है। यदि यह कहा जाए कि भोपाल के मेयर का पद भाजपा को कांग्रेस ने तश्तरी में रख कर दे दिया है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।दरअसल आपको उच्च मनोबल के स्थायी भाव को थोड़ा विराम देकर यह आत्मचिंतन तो करना ही चाहिए कि आखिर भोपाल के अधिकांश वार्डों में भाजपा हार कैसे गई। यक्ष प्रश्न यह है कि राजधानी जो सत्ता का शक्ति केंद्र तथा स्नायु तंत्र होती है, वहां अधिकांश वार्डों में जनता भाजपा प्रत्याशियों से रूठ कैसे गई। यदि आप खुद राजधानी की गलियों में घूम कर देखें तो आपको इस प्रश्र का उत्तर आसानी से मिल जाएगा। आजकल राजधानी की सड़कों एवं गलियों का यह आलम है कि यह किसी पिछड़े देहात से भी कहीं ज्यादा ऊबड़ खाबड़ हैं। इस पर सफर करते हुए हमें यह अहसास होता है कि हम चंद्र धरातल की सैर कर रहे हैं। नेहरू नगर और उसके आसपास की बस्तियों में तो इसी कारण सड़क हादसों की संख्या में खासा इजाफा हुआ है। लेकिन जब इसकी शिकायत संबंधित भाजपा पार्षदों से की गई तो उन्होंने उसे पूरी तरह अनसुना कर दिया। यही कारण था कि कई बस्तियों में तो भाजपा प्रत्याशियों को या उनके समर्थन में प्रचार करने वाले भाजपा कार्यकर्ताओं को मतदाताओं ने कई स्थानों पर घुसने तक नहीं दिया। इतना ही नहीं, भोपाल नगर निगम का पिछले पांच साल के कार्यकाल का परिदृश्य देखा जाए तो इसमें विपक्ष की रुचि जन समस्याओं को सुलझाने में कम और निगम के कामकाज में बाधा खड़ी करने में ज्यादा रही। कोलार नगर पालिका भी फिलहाल राजनीति के अखाड़े जैसी ही नजर आती है जिसमें आए दिन सत्तारूढ़ पक्ष एवं विपक्ष में रस्साकशी के कारण जन समस्याओं से जुड़ी मांगें नक्कारखाने में तूती की आवाज की तरह बेअसर रह जाती हैं। राजधानी प्रदेश का हृदय है। यदि प्रदेश में अपनी जीत का परचम फैलाने वाली भाजपा राजधानी में नगर निगम परिषद का चुनाव हार जाए तो ऐसा लगता है कि मानो राजमुकुट का हीरा ही गायब हो गया हो।वक्त का तकाजा है कि आप भोपाल शहर की राजनीतिक संस्कृति में आई विकृतियों को दूर करने और यहां की जन सुविधाओं को महानगरीय स्वरूप प्रदान करने में अपनी समुचित भूमिका निभाएं।
-सर्वदमन पाठक

Wednesday, December 16, 2009

कमला बुआ की जीत के निहितार्थ

मध्यप्रदेश के नगरीय निकायों की चुनावी जंग में सबसे दिलचस्प फैसला सागर से आया है जहां महापौर पद के चुनाव में किन्नर कमला बुआ ने भाजपा तथा कांग्रेस सहित तमाम प्रत्याशियों को चारों खाने चित्त कर अपना विजय ध्वज लहरा दिया है। इस परिणाम से भाजपा एवं कांग्रेस का चकित और लज्जित होना स्वाभाविक है क्योंकि एक किन्नर के हाथों उनकी इज्जत लुट गई है। लेकिन सागर की चुनावी फिजा से वाकिफ पर्यवेक्षकों को इस परिणाम से कोई आश्चर्य नहीं हुआ है क्योंकि इन दलों से उपजी नाउम्मीदी से सागर के मतदाता इस बुरी तरह निराश एवं हताश थे और वे उन्हें ऐसा झटका देने का मन बना चुके थे जिसे भुला पाना भी इन पार्टियों के लिए मुश्किल हो। इसी रणनीति के तहत वहां से मेयर पद के लिए किन्नर प्रत्याशी खड़ी की गई और सागरवासियों उसे भरपूर वोट देकर उसकी जीत को सुनिश्चित किया। इस फैसले के जरिये सागरवासियों ने यह संदेश इन पार्टियों को दे दिया कि किन्नर उनकी अपेक्षा कहीं ज्यादा भरोसेमंद है। निश्चित ही पार्टियों के लिए यह फैसला एक अपमान के कड़वे घूंट की तरह रहा है लेकिन सागरवासियों के इस फैसले के लिए ये पार्टियां खुद ही जिम्मेदार हैं क्योंकि उन्होंने सागर के विकास के लिए वस्तुत: कुछ नहीं किया। पूर्व में यहां की राजनीति पर कांग्रेस का कब्जा था और पिछले एक दशक से तो सियासी आधार पर चुनी जाने वाली वहां की तमाम लोकतांत्रिक संस्थाओं पर भाजपा का वर्चस्व है। सांसद, विधायक एवं नगरीय निकाय तक हर जगह उसी का बोलबाला नजर आता है और प्रदेश में उसी की सरकार है लेकिन सागर विकास के लिए तरसता रहा है। औद्योगिक विकास के नाम पर वहां के नेताओं ने ढेर सारे सब्जबाग सागरवासियों को दिखाए लेकिन वहां आज भी उद्योगों का नितांत अभाव है जिसकी वजह से बेइंतहा बेरोजगारी का आलम है। हालत यह है कि देश के शीर्षस्थ विश्वविद्यालयों में शुमार गौर विश्वविद्यालय बेरोजगारों की फेक्टरी में तब्दील हो गया दिखता है। वहां नगरीय सुविधाओं का तो भारी टोटा है ही, नगरीय चेतना जगाने के लिए भी कोई प्रयास नहीं किया गया है और उसके लिए भाजपा एवं कांग्रेस को जवाबदेही से कतई बरी नहीं किया जा सकता। कमला जान की जीत के माध्यम से लोगों ने सिर्फ इन दलों को नकारा ही नहीं है बल्कि काफी हद तक उनके बड़बोलेपन के प्रति उपजे आक्रोश को प्रदर्शित किया है। देखना है कि अपनी इस अपमानजनक हार से सबक लेकर भाजपा और कांग्रेस पुन: जनता के प्रति अपने दायित्वों के निर्वाह का संकल्प लेती हैं या नहीं।
-सर्वदमन पाठक

Tuesday, December 15, 2009

अथ पुलिस पिटाई कथा

भोपाल में पुलिस के मनोबल की क्या स्थिति है, यह एक घटना से बखूबी समझा जा सकता है। इस घटना का लब्बोलुवाब यही है कि छेड़छाड़ और मारपीट के एक आरोपी को ले जा रही पुलिस की जीप पर कुछ बदमाशों ने हमला कर दिया। इन बदमाशों ने जीप में तोडफ़ोड़ कर दी और पुलिसकर्मियों की पिटाई कर आरोपी को छुड़ा ले गए। हमारे रणबांकुरे पुलिस जवान इन बदमाशों से निरीह से पिटते रहे। यह अलग बात है कि बाद में उक्त आरोपी को पुलिस में गिरफ्त में ले लिया। अब आप कल्पना कर सकते हैं कि जो पुलिस बदमाशों के हाथों पिट जाएगी, वह इन बदमाशों से लोगों की रक्षा कैसे कर पाएगी। वैसे यह कोई पहला वाकया नहीं है जब बदमाश पुलिस पर भारी पड़े हैं। निकट अतीत में प्रदेश में कई स्थानों पर ऐसी कई घटनाएं हो चुकी हैं जिसमें पुलिस की बेचारगी झलकती है। थानों का घेराव आम बात हो ही गई है, कई स्थानों पर थानों पर हमले भी हुए हैं। इसको आप पुलिस की लाचारगी नहीं तो और क्या कहेंगे। लेकिन इसके लिए कई कारक जिम्मेदार हैं, जिन पर गंभीरता के साथ विचार की जरूरत है। मसलन पुलिस आम तौर पर निरपराधों को ही अपना निशाना बनाती है और अपराधियों से हफ्ता वसूलकर उन्हें बख्शती रहती है। इससे लोगों में आक्रोश भड़कना स्वाभाविक है। जब यह आक्रोश सीमा पार कर जाता है तो फिर बिना किसी अंजाम की परवाह किये लोग पुलिस से प्रतिशोध लेने की ठान लेते हैं। यदि पुलिस इस मामले में आत्मालोचन करे तो उसे आम लोगों के आक्रोश का कारण समझ में आ जाएगा। दरअसल पुलिस का चारित्रिक पतन ही उसकी इस दुर्दशा के लिए जिम्मेदार है। यदि पुलिस अपनी मूल ड्यूटी भूलकर सरकारी हितों को साधने के लिए काम करना शुरू कर दे तो इसे भी पुलिस के चारित्रिक पतन की श्रेणी में रखा जा सकता है। सिर्फ सरकार ही क्यों, पुलिस अफसरों के अलग अलग राजनीतिक आका होते हैं जिनमें विपक्ष के नेता भी शामिल हैं। उक्त तमाम कारकों का स्वाभाविक परिणाम यही होता है कि विभिन्न राजनीतिक नेताओं एवं राजनीतिक दलों से जुड़े अपराधियों पर पुलिस आम तौर पर हाथ नहीं डालती। कई बार पुलिस उन पर हाथ डालने की जुर्रत करती है तो उन्हें राजनीतिक कार्यकर्ताओं के गुस्से का शिकार होना पड़ता है। भोपाल में तो यह आए दिन की बात हो गई है कि सत्तारूढ़ दल के किसी भी कार्यकर्ता को पुलिस किसी आरोप में पकड़कर लाती है तो इस राजनीतिक दल के कार्यकर्ताओं का हुजूम पुलिस थाने पहुंच जाता है और पुलिस अफसरों और पुलिस कर्मियों से दुव्र्यवहार और कई बार तो झूमाझटकी करके उक्त आरोपी को छुड़ा ले जाता है। कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में यही कुछ कांग्रेस करती थी जिसके इक्का दुक्का उदाहरण आज भी देखे जा सकते हैं। यदि पुलिस को इस दुर्गति से मुक्ति पानी है तो उसे चारित्रिक सुधार करना होगा और राजनीतिक कारणों से अपराधियों को पकडऩे या छोडऩे की प्रवृत्ति छोडऩी होगी। इसके साथ ही माफिया एवं अपराधियों के हाथों में खेलना और निरपराधों को उनके इशारे पर फंसाना बंद करना होगा लेकिन जब तक पुलिस के अभियान में सरकार का सहयोग न मिले, तब तक यह अभियान सफल होना संभव नहीं है।
-सर्वदमन पाठक

Thursday, December 10, 2009

चुनाव यज्ञ में सार्थक हिस्सेदारी करें

मध्यप्रदेश में होने जा रहे विभिन्न नगर निकाय चुनावों मेें मतदान का अंतिम दौर 14 दिसंबर को संपन्न हो जाएगा और प्रत्याशियों की किस्मत सील हो जाएगी। चुनाव प्रचार का जितना सघन अभियान इस नगर निकाय चुनाव में देखा गया है, वह नगरीय चुनाव में शायद ही देखने मिलता है। यह चुनाव कांग्रेस और भाजपा के बीच शक्ति प्रदर्शन जैसा प्रतीत हो रहा है और इन दोनों पार्टियों के प्रत्याशियों ने अपनी पूरी ताकत चुनाव में झोंकी हैं। संसाधनों का अंधाधुंध इस्तेमाल इसका प्रमाण है। इतना ही नहीं, बाहुबल के जरिये भी मतदाताओं को प्रभावित करने का भरपूर प्रयास किया गया है। कई क्षेत्रों में निर्दलीय व अन्य दलों के प्रत्याशियों के रूप मेें खड़े हुए बाहुबली अथवा धनपति भी अपनी चुनावी संभावनाओं को उज्जवल बनाने के लिए बाहुबल एवं धनबल का सहारा लेने से बाज नहीं आए हैं। इधर यह भी खबर है कि मतदाताओं से परिचय पत्र न मांगने के भी निर्देश दिये गए हैं जिससे फर्जी मतदान की संभावना को बल मिला है। यह आश्चर्यजनक है कि यह सब कुछ बिना किसी खास अवरोध के किया जा रहा है। इससे यही महसूस होता है कि इसमें किसी भी कोई ऐतराज नहीं है मानो मौका लगते ही सत्ता एवं विपक्ष में बैठे तमाम दल और प्रत्याशी इस मामले में बहती गंगा में हाथ धो लेना चाहते हों। यदि इस निर्देश से फर्जी मतदान को बढ़ावा मिलता है तो यह निश्चित ही लोकतंत्र के साथ खिलवाड़ होगा। दरअसल फर्जी मतदान मतदाताओं के अधिकार पर डाका ही है। जब सरकार एवं विपक्ष दोनों ही इस सिलसिले में जानबूझकर मौन हैं तो फिर सारी जिम्मेदारी मतदाताओं पर ही आ टिकती है। मतदाताओं को इस राजनीतिक साजिश को नाकामयाब करने के लिए आगे आना चाहिए और मतदान के दिन यथाशीघ्र अपने वोट का इस्तेमाल करना चाहिए ताकि कोई उनके वोट को फर्जी तरीके से न डाल सके। लेकिन सिर्फ इससे ही उनका फर्ज खत्म नहीं हो जाता। उन्हें यह भी तय करना होगा कि उनका वोट ऐसे ईमानदार एवं योग्य प्रत्याशियों के पक्ष में गिरे जिनमें जनसेवा का जज्बा हो। सिर्फ महंगे प्रचार या भावनात्मक ब्लेकमेल से प्रभावित होकर वोट डालना अपने मताधिकार का दुरुपयोग ही है। यदि आप राजनीति को परिष्कृत करना चाहते हैं तो फिर शालीनता की राजनीति के हिमायतियों के पक्ष में ही अपने वोट का इस्तेमाल करें। राजनीति की विकृतियों को दूर करके ही देश-प्रदेश को आगे ले जाया जा सकता है। इसमें एक प्रमुख विकृति पुरुषवादी सोच भी भी है। राज्य एवं केंद्र सरकार ने तमाम तरह के संशोधन कर इस विकृति को दूर करने का प्रयास किया है लेकिन आप भी मतदान के जरिये इसमें अपना योगदान दे सकते हैं। आपको सिर्फ यह करना है कि आप उस प्रत्याशी के पक्ष में अपना वोट डालें जो महिलाओं के प्रति सम्मानजनक नजरिया रखता हो। आपकी यह सोच राजनीति को एक रचनात्मक दिशा मिलने में मददगार होगी। आपसे यही उम्मीद है कि आप लोकतंत्र को सुदृढ़ता प्रदान करने के लिए न केवल अपना वोट डालेंगे बल्कि यह भी सुनिश्चित करेंगे कि आपका वोट सुयोग्य प्रत्याशी के पक्ष में ही पड़े।
-सर्वदमन पाठक

Tuesday, December 8, 2009

चुनावी विकृतियों पर अंकुश जरूरी

मध्यप्रदेश में नगर निकाय चुनाव का प्रचार अभियान अपने अंतिम चरण में है। चाहे मेयर का चुनाव हो या पार्षदों का, स्वाभाविक रूप से इस बार भी पूर्व की तरह ही कांग्रेस एवं भाजपा के बीच ही प्रमुख टक्कर है। कुछ क्षेत्रों में अवश्य ही विद्रोही प्रत्याशी इन दलों के समीकरण को बिगाड़ रहे हैं और इक्का दुक्का स्थानों में बसपा, सपा भी जोर मार रही है, यह अलग बात है कि इनकी यह कोशिश कहां तक रंग लाती है। दरअसल दोनों ही प्रमुख दल कई निर्वाचन क्षेत्रों में गुटबाजी के कारण गलत प्रत्याशियों को मैदान में उतारने का खमियाजा भुगत रहे हैं। सभी दलों में कमोवेश इस पर खासी नाराजी है कि पार्टी के प्रति निष्ठïा एवं सेवाओं को दरकिनार कर ऐसे लोगों को प्रत्याशी बनाया गया है जो कि अयोग्य एवं अक्षम हैं। लेकिन अब तीर कमान से निकल चुका है और असंतुष्टïों को या तो मना लिया गया है या फिर चुनाव में यह कोशिश की जा रही है कि उनके असंतोष का पार्टी की संभावनाओं पर ज्यादा असर न पड़े। अब तो सभी प्रत्याशियों का पूरा जोर इसी बात पर है कि अंतिम चरण के प्रचार मेें मतदाताओं को अपनी खूबियों और प्रतिद्वंदी की खराबियों के बारे में येन केन प्रकारेण आश्वस्त कर दिया जाए और इसके लिए हर उस हथकंडे का इस्तेमाल किया जा रहा है जो परवान चढ़ सकता है। भले ही यह स्थानीय स्तर का चुनाव हो लेकिन इसमें भी वैसा ही माहौल देखा जा रहा है जैसा कि विधानसभा एवं लोकसभा चुनाव में देखा जाता है।इसमें भी बाहुबल और धनबल का प्रभाव साफ देखा जा सकता है। कई चुनाव क्षेत्रों में यह चुनावी जंग किसी जंग की तरह ही लड़ी जा रही है जिसमें सभी कुछ जायज होता है। लोगों को प्रलोभन देकर वोट बंटोरना तो आम बात है। आखिर ऐसे चुनावी वायदे भी तो नाजायज प्रलोभन ही हैं, जिन्हें पूरा किया जाना मुमकिन न हो। चप्पे चप्पे पर प्रचार करते आलीशान वाहन और अचानक उग आई कार्यकर्ताओं की फौज चुनावी सरगर्मी को बखूबी बयां कर सकती है। कई स्थानों पर हिंसा की खबरें सामने आ रही हैं जो चुनावी माहौल में आई विकृति का ही प्रतीक है। इस बात की भी संभावना जताई जा रही है कि चुनाव में फर्जी मतदान की बड़े पैमाने पर कोशिश हो सकती है। फर्जी मतदान दरअसल लोकतंत्र की मूल भावना को क्षति पहुंचाता है क्योंकि इससे कई स्थानों पर वे प्रत्याशी जीत जाते हैं जिन्हें जनता चुनना नहीं चाहती। सरकार यदि चाहती है कि चुनाव जन आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करें तो उसे फर्जी मतदान की किसी भी कोशिश को सख्ती से रोकना चाहिए। इसी तरह से प्रलोभन और बाहुबल के बल पर चुनाव जीतने के मंसूबे बांध बैठे प्रत्याशियों पर भी नकेल कसी जानी चाहिए ताकि ऐन चुनाव के वक्त उन्हें इसका लाभ न मिल सके।चुनावी विकृतियों पर अंकुश लगाने के लिए सबसे अधिक आवश्यक यह है कि मतदाताओं में चेतना आए और वे गलत तरीके अपनाने वाले प्रत्याशियों पर भरोसा न करें और उन्हीं प्रत्याशियों को चुनें जो उनके भरोसे पर खरे उतर सकें क्योंकि सिर्फ सरकार या प्रशासन के बल पर यह लोकतांत्रिक यज्ञ सफल नहीं हो सकता।
-सर्वदमन पाठक

Friday, December 4, 2009


सियासत की गोटियां नहीं हैं गैस पीडित

सन 1984 को 2 एवं 3 दिसंबर की मध्यरात्रि भोपाल के लिये पीड़ा का सैलाब लेकर आई। इस रात को यूनियन कार्बाइड के संयंत्र से रिसी मिक गैस ने राजधानी में ऐसा वायु प्रलय मचाया कि यह झीलों का शहर आहों और आंसुओं की नदी में तब्दील हो गया। उस जानलेवा रात शहर में मौत नाच नाच कर मातम की मुनादी कर रही थी और शहर के तमाम लोग बदहवास से जान बचाने के लिए चारों तरफ भाग रहे थे। इस काली रात की सुबह हुई तो तमाम दुनिया यह जान चुकी थी कि बहुराष्टï्रीय कंपनी यूनियन कार्बाइड ने भोपाल की तकदीर में औद्योगिक त्रासदी के रूप में ऐसी भयावह इबारत लिख दी है कि जिसकी मिसाल दुनिया में नहीं मिलती। शहर के श्मसान एवं कब्रिस्तान भी मौत के आगोश में समाये बदकिस्मत लोगों के अंतिम संस्कार के लिए छोटे पड़ गए और मौत द्वारा फैलाए गए इस जाल से किसी तरह बच निकले लाखों लोगों में से बहुत से लोग आज भी ऐसी जिंदगी जीने को मजबूर हैं जो मौत से भी बदतर है। गैस त्रासदी की बरसी आते ही इन गैस पीडि़तों के घाव पर मरहम लगाने के नाम पर उन्हें मुआवजे, पुनर्वास तथा मुफ्त चिकित्सा उपलब्ध कराने जैसे कदमों की जानकारी वाले ब्रोशर जारी कर राज्य सरकारें अपनी पीठ थपथपाने की कोशिश कर लेती हैं लेकिन यक्ष प्रश्र यह है कि क्या इन गैस पीडि़तों को उनका हक मिल पाया है। इन गैस पीडि़तों को मुआवजा इस अंदाज में बांटा गया है मानो उनके आत्म सम्मान की बोली लगाई जा रही हो। आज भी अस्पतालों की अव्यवस्था इतनी भयावह है कि ये अस्पताल कई बार तो गैस पीडि़तों के यातनागृह नजर आते हैं। गैस प्रभावित बस्तियों में श्वास तथा अन्य कई गंभीर बीमारियों के कारण रेंगती जिंदगियां हर कदम पर देखी जा सकती हैं। अभी कल ही जारी हुई ईएसई की रिपोर्ट के अनुसार यूका कचरे के कारण इन बस्तियों का भूजल भी इतना जहरीला हो गया है कि आने वाली पीढिय़ों पर भी धीमी मौत का खतरा मंडराने लगा है। हम हर साल गैस कांड की बरसी पर मशाल जुलूस निकालकर और जंगी प्रदर्शन करके -डाउन विथ एंडरसन- तथा -मौत के सौदागरों को फांसी दो- जैसे नारे लगाते हैं लेकिन इस मुकदमे का यह आलम है कि गैस कांड के आरोपी मौत के सौदागर आज भी बेखौफ घूम रहे हैं। लोगों की धारणा है कि बहुराष्टï्रीय कंपनियों एवं सत्ता के बीच मिलीभगत भी इस विलंब के लिए जिम्मेदार है। इस मामले में कोई भी सरकार दूध की धुली नहीं रही है। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि विभिन्न राजनीतिक दल गैस पीडि़तों के नाम पर अपनी वोट बैंक की राजनीति साधने की कोशिश में जुटे हुए हैं। गैस पीडि़तों के ध्वजवाहक होने का दावा करने वाले कुछ संगठन भी जाने-अनजाने इसमें मददगार हो रहे हैं जो गैस पीडि़तों के साथ छल के अलावा कुछ नहीं है। इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि गैस पीडि़तों के हक की लड़ाई कमजोर पड़ रही है। उम्मीद की जानी चाहिए कि गैस कांड की पच्चीसवीं बरसी पर तो कम से कम सरकार, गैसपीडि़तों के संगठन, राजनीतिक दलों सहित वे तमाम पक्ष, जो खुद को गैसपीडि़तों का मसीहा बताते नहीं थकते, आत्म विश्लेषण एवं आत्मालोचन करेंगे और ईमानदारी से संकल्प करेंगे कि वे तब तक चैन की सांस नहीं लेंगे जब तक कि गैसपीडि़तों को पूरी तरह न्याय नहीं मिल जाता।

-सर्वदमन पाठक

Tuesday, December 1, 2009

आतंकवाद का पैैैशाचिक चेहरा

एक पुलिसकर्मी सहित तीन लोगों को गोलियों से भून डालने की खंडवा में हुई आतंकवादी वारदात प्रदेश में आतंकवाद के पुन: सिर उठाने का संकेत है। सरकार की यह स्वीकारोक्ति भी इसका प्रमाण है कि इस घटना के पीछे आतंकवादी हाथ होने की संभावना है। यदि मीडिया की खबरों पर भरोसा किया जाए तो सिमी के कार्यकर्ताओं की धरपकड़ का बदला लेने के लिए यह कार्रवाई की गई है। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि इस वारदात को अंजाम देने वाला आतंकवादी भाग निकला और उसे अभी तक पकड़ा नहीं जा सका है। यदि कोई आतंकवादी बेगुनाहों की जान लेने के अपने नापाक मंसूबों को सरे बाजार अंजाम देकर फरार होने में सफल हो जाए तो इससे पुलिस सहित समूची सुरक्षा व्यवस्था की क्षमता तो संदेह के दायरे में आती ही है, उन लोगों के मानवीय फर्ज पर भी सवाल उठना स्वाभाविक है जो घटना के वक्त वहां मौजूद थे और इस घटना के चश्मदीद गवाह थे लेकिन उन्होंने राष्टï्र के इस दुश्मन को पकडऩे का जज्बा नहीं दिखाया। राष्टï्र के प्रति अपनी निष्ठïाएं इतनी कमजोर क्यों होनी चाहिए कि आतंकवाद उस पर भारी पड़ जाए। सवाल यह भी है कि आखिर हमें अपनी सुरक्षा के लिए सिर्फ पुलिस तथा सुरक्षा बलों पर ही आश्रित क्यों रहना चाहिए। राज्य सरकार ने इस घटना के बाद संकल्प व्यक्त किया है कि इसके आरोपी को शीघ्र ही सींखचों के पीछे लाया जायेगा और इसे इसकी करनी की समुचित सजा दिलाई जाएगी। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने घटना के शहीदों को श्रद्धांजलि देते हुए कहा है कि राज्य में आतंकवाद को समूल नष्टï किया जाएगा। राज्य सरकार की यह घोषणा कुछ भरोसा अवश्य दिलाती है लेकिन वास्तविकता पर नजर डालें तो यही प्रतीत होता है कि पिछले कुछ सालों में प्रदेश में आतंकवादी गतिविधियां काफी फैलती रही हैं। विशेषत: सिमी की गतिविधियों में कुछ वर्षों से काफी इजाफा हुआ है। मालवा में तो मानो आतंकवाद की फैक्टरी ही चल रही थी। इतना ही नहीं, आतंकवाद की प्रतिक्रियास्वरूप भी यहां एक तरह के उग्रवाद ने सिर उठा लिया था और सरकार इसका खात्मा करने में सफल नहीं रही। आतंकवाद के सफाये के लिए जरूरी है कि शासन प्रशासन इसके लिए पूरी ईमानदारी से अभियान चलाए और वोट बैंक की खातिर किसी भी तरह के आतंकवाद के प्रति नरम रुख न अपनाए। उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार आतंकवाद के सफाये के अपने वादे पर खरी उतरेगी और प्रदेश में विकास के लिए जरूरी शांति का वातावरण बनाने में कामयाब होगी।

-सर्वदमन पाठक

Friday, November 20, 2009

राजनीतिक शतरंज का मोहरा नहीं है किसान

राज्य में किसानों की मुसीबतें कम होने का नाम ही नहीं ले रही हैं। बेमौसम बेपनाह बारिश से किसानों के माथे पर आईं चिंता की रेखाएं मौसम सुहाना होने से कुछ कम हुईं तो अब खाद के अभाव का संकट उनके सामने खड़ा है। वैसे प्रदेश में बिजली का संकट ज्यादा गंभीर नहीं है लेकिन विद्युत वितरण कंपनी के दोषपूर्ण तौर तरीके से विभिन्न जिलों के कई गांवों में अंधेरा छाया है। इन तथ्यों के कारण किसान गुस्से में हैं और विरोध के लिए सड़कों पर उतर आए हैं। मसलन खाद की कमी से उत्तेजित किसानों ने बैतूल-इंदौर मार्ग पर चक्काजाम कर दिया और उन्हें इसके लिए लाठियां भी झेलनी पड़ीं। जबलपुर जिले में विद्युत मंडल होने के कारण किसानों को यह उम्मीद होना स्वाभाविक है कि उन्हें बिजली के मामले में मंडल की बेरुखी का शिकार नहीं होना पड़ेगा, लेकिन वे इस मामले में नाउम्मीद हुए हैं। जिले के 29 गांवों में अंधेरा पसरा हुआ है जो आमतौर पर विद्युत मंडल की बदइंतजामी का नमूना है। राज्य के अन्य हिस्सों में भी किसानों को खाद एवं बिजली की कमी का सामना करना पड़ रहा है। वैसे तो किसान देश-प्रदेश का सबसे बड़ा वोट बैंक है। इसलिए सभी राजनैतिक दल किसानों के हितों की रक्षा का राग अलापते रहते हैं लेकिन उनके हितों की कितनी चिंता उन्हें वास्तव में होती है यह उनकी दुर्दशा देखकर ही अहसास होता है। दरअसल चुनावों के वक्त किसानों से तमाम तरह के लुभावने वायदे राजनीतिक दलों द्वारा किये जाते हैं। यह सब उनसे वोट हासिल करने वाले टोटके ही होते हैं। लेकिन एक बार चुनाव जीत जाने के बाद राजनीतिक दल किसानों को भूल जाते हैं। मध्यप्रदेश में भी कमोवेश यही कुछ हो रहा है। विडंबना तो यह है कि किसानों के हितों को लेकर राज्य के दो मंत्रियों में भी मतभेद उभर आए हैं। कृषि मंत्री रामकृष्ण कुसमारिया ने कहा है कि हाल की बारिश से किसानों की फसलों को नुकसान हुआ है लेकिन गोपाल भार्गव ऐसा नहीं मानते। क्या किसानों के हितों के लिए भी पूरी सरकार एकजुट नहीं हो सकती। यदि राज्य सरकार को किसानों की तनिक भी चिंता है तो उसे तुरंत ही उनके हितों के लिए सक्रिय होना चाहिए। इस समय किसानों की सबसे बड़ी जरूरत खाद एवं बिजली ही है। सरकार को इनकी कमी दूर करने के लिए हरसंभव कदम उठाने चाहिए। यदि इस समय किसानों की जरूरत को पूरा करने के लिए शहरों की बिजली में भी कुछ कटौती करनी पड़े तो इस मामले में संकोच नहीं किया जाना चाहिए। यदि हाल की वर्षा से किसानों की फसलों को कुछ नुकसान हुआ है तो उसकी क्षतिपूर्ति भी की जानी चाहिए। अब किसानों में जागरूकता आ रही है और वह राजनीतिक दलों की शतरंज की बिसात पर मोहरा बनने के लिए तैयार नहीं हैं। यह बात सभी राजनीतिक दलों को भलीभांति समझ लेना चाहिए।

-सर्वदमन पाठक

Tuesday, November 17, 2009

सेहत के सुहाने सपने और कड़वा सच

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह का यह जुमला काफी चर्चित रहा है कि वे सपनों के सौदागर हैं। स्वाभाविक है कि राज्य सरकार अपने नेता की इस भूमिका को अपने कार्यों से लगातार पुख्ता करने की कोशिश करती रहती है। राज्य सरकार की एक नई घोषणा इसी हकीकत का अहसास कराती है। राज्य सरकार की इस घोषणा के अनुसार राज्य में बारह नए मेडिकल कालेज खोले जाएंगे। इस घोषणा से लोगों को यह सपना परोसने की कोशिश की गई है कि राज्य सरकार उनकी जिंदगी और सेहत की सुरक्षा को लेकर काफी गंभीर है और ताजा कदम इसी दिशा में है। इन मेडिकल कालेजों से राज्य को डाक्टरों की कमी से निजात पाने में मदद मिलेगी, यह कोई ऐसी बात नहीं है जिसे समझने के लिए लोगों को अपने माथे पर जोर देना पड़े लेकिन इसके साथ ही यह भी सोचना जरूरी है कि पहले से कार्यरत मेडिकल कालेजों की क्या हालत है और उनसे पास होने वाले डाक्टर किन परिस्थितियों से गुजर रहे हैं। राज्य सरकार के लिए इससे ज्यादा शर्मनाक बात क्या होगी कि देश में जिन सरकारी मेडिकल कालेजों की मान्यता मेडिकल कौंसिल आफ इंडिया द्वारा स्थगित कर दी गई है उनमें अधिकांश कालेज मध्यप्रदेश के ही हैं। दिलचस्प बात यह है कि राज्य सरकार का चिकित्सा शिक्षा विभाग इस मामले को लेकर कतई चिंतित नहीं है कि इन कालेजों से निकलने वाले डाक्टरों का क्या भविष्य होगा। यह कोई रहस्य नहीं है कि पिछले साल सीबीएसई की पीजी परीक्षा के जो फार्म आए थे, उसमें इन कालेजों का कोड शामिल नहीं था तब केंद्र की काफी मिन्नत के बाद इन कालेजों से उत्तीर्ण डाक्टरों को परीक्षा में शामिल होने की अनुमति दी गई थी। इस वर्ष भी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। एमसीआई अभी भी इन मेडिकल कालेजों में टीचिंग स्टाफ और अन्य सुविधाओं से संतुष्टï नहीं है और इस बात की कोई संभावना फिलहाल नजर नहीं आती कि इस बार भी उनके कालेज का कोड फार्म में शामिल होगा। इस बार भी वही कुछ होगा जो पिछले साल हुआ था लेकिन राज्य के चिकित्सा शिक्षा विभाग की नींद अभी भी टूटी नहीं है। यदि एमसीआई के रुख में कोई परिवर्तन नहीं आया तो इन कालेजों से उत्तीर्ण होने वाले डाक्टरों को राज्य के सरकारी चिकित्सालयों एवं अन्य राज्यों के चिकित्सालयों में नियुक्ति नहीं मिल सकेगी। राज्य सरकार अपने वेतन ढांचे के कारण राज्य के डाक्टरों में सरकारी चिकित्सालयों के प्रति भरोसा नहीं जगा पाई है जिसके परिणामस्वरूप नए डाक्टर तक सरकारी अस्पतालों की अपेक्षा प्रायवेट चिकित्सालयों में अपनी सेवाएं देना ज्यादा पसंद करते हैं। इसी वजह से सरकारी चिकित्सा प्रणाली अपंग सी पड़ी हुई है। फिर इस बात की क्या गारंटी है कि नए मेडिकल कालेजों से उत्तीर्ण होने वाले डाक्टर सरकारी चिकित्सालयों विशेषत: ग्रामीण चिकित्सालयों में अपनी सेवाएं देंगे। यदि डाक्टरी पेशे में आने वाले नवयुवकों में जनसेवा की भावना नहीं जगाई गई तो पब्लिक प्रायवेट पार्टनरशिप के तहत खोले जाने वाले मेडिकल कालेज भी प्रायवेट अस्पतालों में पूंजीपतियों के लिए तैनात रहने वाले डाक्टरों की नई फौज खड़ी कर दें तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। अत: राज्य सरकार को चिकित्सा शिक्षा के विस्तार के साथ साथ ऐसे चिकित्सा ढांचे को भी तैयार करना चाहिए जो गरीबों के कल्याण की भावना से प्रेरित हो और ग्रामीण एवं शहरी गरीबों के जीवन एवं सेहत की सुरक्षा व संवद्र्धन के लिए सरकारी चिकित्सालयों में अपनी सेवाएं दे और स्वस्थ प्रदेश के निर्माण में अपनी सार्थक भूमिका निभाए।



-सर्वदमन पाठक

पुलिस की भूमिका पर उठे सवाल

भोपाल के प्रमुख प्रापर्टी बिल्डर जयप्रकाश सिंह एवं उनके पुत्र की मौत ने शहर में जबर्दस्त सनसनी फैला दी है। इस मामले ने कई ऐसे सवाल खड़े कर दिये हैं जिनसे आज समाज एवं आम आदमी को जूझना पड़ रहा है। मसलन यह सवाल लोगों की जुबान पर है कि क्या संपन्नता से जुड़ी प्रतिस्पर्धा मौत का कारण बन सकती है। इसके साथ ही यह बात भी लोगों को शिद्दत से महसूस होती है कि पुलिस अपराधियों के सामने भीगी बिल्ली क्यों बनी रहती है। क्या अपराधियों से साठगांठ के कारण ही वह तमाम जघन्य अपराधों पर पुलिस मूकदर्शक बनी रहती है। इस मामले में जो हकीकत बेनकाब हुई है, उससे यह सवाल उभरा है। विभिन्न अखबारों में पुलिस के हवाले से छपी खबरों पर भरोसा किया जाए तो उनके मुताबिक जयप्रकाश सिंह का कुछ दिनों पूर्व अपहरण किया गया था और उसे इंदौर में रखकर उसके साथ मारपीट की गई थी। इस मारपीट के बल पर उससे एक फार्म हाउस पर कब्जे के कागजात पर हस्ताक्षर करवा लिए गए थे। इसके साथ ही कुछ गुंडों ने भोपाल आकर उसके परिजनों को धमकाया था कि यदि उन्होंने पुलिस को इसके बारे में बताया तो उन्हें खत्म कर दिया जाएगा। इस मामले में यह बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि जयप्रकाश सिंह थोड़े ही समय में संपन्नता की सीढिय़ां चढ़ गए थे और इस प्रक्रिया में संभवत: उनकी कुछ प्रभावी लोगों से शत्रुता हो गई हो। लेकिन इस मामले में एक शराब व्यवसायी द्वारा अपने हितों को साधने के लिए जिस तरह से किराये के गुंडों का इस्तेमाल किया गया और पुलिस इस मामले में खामोश और निष्क्रिय बनी रही, उससे पुलिस की भूमिका संदेह के दायरे में आ गई है। इतना ही नहीं, उक्त शराब व्यवसायी को पकडऩे गई पुलिस उसके निवास पर पर्ची देकर बेफिक्र हो गई मानो उक्त व्यवसायी खुद को पुलिस के सामने आत्मसमर्पण करने जा रहा हो जबकि वह चकमा देकर पिछले रास्ते से भाग निकला। इससे यह संदेह उपजना स्वाभाविक है कि क्या पुलिस ने उसको खुद ही भागने का मौका उपलब्ध कर दिया। यह मानना काफी कठिन है कि पुलिस को इस पूरे मामले की कोई खबर नहीं रही होगी लेकिन यदि यह मान भी लिया जाए तो फिर उसकी गुप्तचर शाखा की क्षमता पर सवाल उठ खड़ा होता है। इस तथ्य के मद्देनजर इस मामले की गंभीरता और ज्यादा बढ़ जाती है कि जयप्रकाश सिंह प्रदेश में सत्तारूढ़ भाजपा के राष्टï्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह का करीबी रिश्तेदार था और उसकी कई मंत्रियों और आईएएस अफसरों के यहां काफी गहरी पैठ थी। फिर भी वह अपहृत हुआ, जबर्दस्त मारपीट का शिकार हुआ, और अंतत: खुद खुदकुशी करने के मजबूर हो गया लेकिन इसके बावजूद पुलिस अपनी अक्षमता या संभवत: अपराधियों से साठगांठ के चलते निष्क्रिय बनी रही। यह सच है कि न्याय का यही तकाजा है कि पूरा सच सामने आए बिना किसी को भी दोषी ठहराना या संदेह के दायरे से मुक्त किया जाना उचित नहीं है लेकिन देखना यह है कि क्या इस मामले मेंं पूरी सच्चाई सामने आएगी और दोषियों को सजा मिल पाएगी। इसके साथ ही यह यक्ष प्रश्न भी उठता है कि क्या पुलिस अपराधों एवं अपराधियों के प्रति नरमी छोड़कर उनके जुल्मों से लोगों को निजात दिला पाएगी?



-सर्वदमन पाठक

Saturday, November 14, 2009

वंदे मातरम पर विवाद राष्टï्रविरोधी

यह भी एक विडंबना ही है कि भारत को मजहबों की संकीर्ण दीवारों में बांटने की सोची समझी साजिश के तहत राष्टï्र के गौरव चिन्हों के खिलाफ फतवे जारी किये जा रहे हैं और राष्टï्र की अस्मिता के झंडावरदार बनने वाले नेता खामोशी का रुख अख्तियार किये हुए हैं। यह सवाल देवबंद के दारुल उलूम द्वारा वंदेमातरम के खिलाफ जारी फतवे का जमायते उलेमा-ए-हिंद द्वारा समर्थन करने से उठ खड़ा हुआ है। इस मामले में सबसे अफसोस की बात यह है कि हमारे देश के गृहमंत्री पी चिदंबरम एवं एक अन्य मंत्री सचिन पायलट इस सम्मेलन में शिरकत करते हैं और इस फतवे के खिलाफ एक भी शब्द बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। इतना ही नहीं, सचिन पायलट तो बाकायदा इस फतवे का समर्थन करते हुए बोलते हैं कि इसे गाने के लिए किसी को विवश नहीं किया जा सकता। क्या ये मंत्री उस सरकार का प्रतिनिधित्व करने के अधिकारी हैं, जो पंथनिरपेक्षता के प्रति वचनबद्धता का दावा करते नहीं थकती। वंदे मातरम दरअसल भारत का गौरवगान ही है जिसे गाते हुए क्रांतिकारी राष्टï्र की आजादी के समर में हंसते हंसते अपने प्राणों की आहुति दे दिया करते थे। लेकिन आज आजादी के इसी तराने को देश को सांप्रदायिक आधार पर बांटने के नापाक इरादों के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। लेकिन इसका दोष सिर्फ इन सांप्रदायिक ताकतों को देना उचित नहीं होगा क्योंकि पिछले दो दशक से भारतीय राजनीति में आई तब्दीली भी इसके लिए जिम्मेदार है जिसके तहत हिन्दुस्तान में रहना होगा तो वंदे मातरम कहना होगा जैसे उत्तेजना फैलाने वाले नारों की बाढ़ आ गई थी। यदि इस गीत के ऐतिहासिक संदर्भ पर नजर डालें तो बंकिम चंद चटर्जी द्वारा रचित पुस्तक आनंदमठ का यह गीत इसमें भी एक क्रांति घोष ही है। यह भी एक विडंबना ही है कि मुस्लिम लीग ने देश के विभाजन के लिए वंदे मातरम के खिलाफ जो जहरीला अभियान चलाया था, आजाद भारत में भी कुछ राष्टï्रविरोधी मानसिकता के लोग इसे अपने सियासी फायदे के लिए जारी रखने की कोशिश कर रहे हैं। सच तो यह है कि वंदे मातरम के रूप में वे ऐसे मुद्दे को उठा रहे हैं जिसका समाधान राष्टï्र की आजादी के बाद हमारे संविधान में खोज लिया गया था। राष्ट्रीय गीत के खिलाफ जो तर्क पेश किए जा रहे हैं वही तर्क कभी मुस्लिम लीग ने देश के बंटवारे की मांग के समर्थन में गढ़े थे। मुस्लिम लीग ने 1940 में औपचारिक रूप से देश के बंटवारे की मांग से कुछ पहले ही वंदेमातरम के खिलाफ अभियान छेड़ दिया था। जिन्ना ने 1937 में मुस्लिम लीग कांफ्रेेंस में देश के विभाजन के लिए जो दलीलें रखी थीं उनमें राष्ट्रीय झंडे, वंदेमातरम और हिंदी का विरोध प्रमुख था। मुसलमानों को सांप्रदायिक रूप से हिंदुओं के खिलाफ खड़ा करने की साजिश के तहत जिन्ना ने यह दुष्प्रचार किया था कि झंडा, गीत और भाषा, तीनों ही हिंदुओं के प्रतीक चिह्नï हैं, इसलिए ये मुसलमानों को अस्वीकार्य हैं। बंटवारे की नियति को टालने के लिए भारत के राजनेताओं ने वंदेमातरम के पहले दो छंदों को ही राष्ट्रीय गीत के रूप में स्वीकारने की बात की, जिनमें उन उपहारों का वर्णन था, जो प्रकृति ने भारत पर न्यौछावर किए हैं, किंतु इसके बावजूद जिन्ना की हठधर्मिता के कारण जिन्ना की देश के बंटवारे और इस्लामिक राष्ट्र की स्थापना की महत्वाकांक्षा पूरी हो गई।
राष्टï्र-विभाजन तथा अलग मुस्लिम राष्ट्र की स्थापना के बावजूद भारत ने पंथनिरपेक्ष की नीति को ही अपना सैद्धांतिक आधार बनाया और अल्पसंख्यकों के अत्यंत ही छोटे से वर्ग की असहमति को भी नजरअंदाज न करते हुए वंदेमातरम के पहले दो छंदों को ही राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकार किया। इन दो छंदों में कहीं भी ऐसा कुछ नहीं है जिससे किसी धर्म के लोगों के भावनाओं को ठेस पहुंचे लेकिन इसके बावजूद जिन्ना की विचारधारा को न केवल सीना ठोक कर आगे बढ़ाने की हिमाकत की जा रही है बल्कि छद्म धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अपनी राजनीतिक दूकान चलाने वाले लोग इस राष्टï्रघाती प्रवृत्ति पर या तो खामोश हैं या फिर उसका परोक्ष समर्थन करते नजर आ रहे हैं। वंदे मातरम हमारी मातृभूमि का गीत है, जिसमें भारत पर प्रकृति के वरदान की बात कही गई है। इसमें अनेक नदियों, हरे-भरे खेत-खलिहानों और आच्छादित वृक्षों का वर्णन है। वंदे मातरम का विरोध करने वालों से यह पूछा जाना चाहिए कि उन्हें आपत्ति किस बात पर है? सदियों से सैकड़ों भाषाओं में कवियों ने प्रकृति और अपनी मातृभूमि की स्तुति की है। क्या हमें हर कवि की रचनाओं का सांप्रदायिक आधार पर मूल्यांकन करना चाहिए? हमारे संविधान निर्माता वंदेमातरम के प्रति आम जनमानस में सम्मान से भलीभांति परिचित थे। 14 अगस्त 1947 को संविधान सभा के ऐतिहासिक सत्र की शुरुआत सुचेता कृपलानी द्वारा वंदेमातरम के पहले पद को गाने से हुई।
संविधान सभा की अंतिम बैठक 24 जनवरी 1950 को हुई। इस बैठक की शुरुआत राष्ट्रगान पर अध्यक्ष डा. राजेंद्र प्रसाद के संबोधन से हुई। राजेंद्र प्रसाद ने कहा कि जन गण मन के रूप में संकलित शब्द और संगीत भारत का राष्ट्रगान है और स्वाधीनता संघर्ष में ऐतिहासिक भूमिका निभाने वाला वंदेमातरम जन गण मन के बराबर सम्मान का अधिकारी होगा। हस्ताक्षर समारोह के बाद पूर्णिमा बनर्जी और अन्य सदस्यों ने जन गण मन गाया और फिर लक्ष्मीकांता मैत्र तथा साथियों ने वंदेमातरम का गायन किया। संविधान सभा द्वारा तय कर दिये गए इस इस मुद्दे पर किसी को भी फिर से विवाद खड़ा करने अथवा राष्ट्रीय गीत का अपमान करने की अनुमति नहीं दी जा सकती। जमीयत का रुख किसी इस्लामी देश में सही हो सकता है, लेकिन यह भारत जैसे लोकतांत्रिक देश के बुनियादी सिद्धांतों के प्रतिकूल है। प्रश्न यह है कि आज जिस तरह वंदेमातरम पर आपत्ति जताई जा रही है उसी प्रकार कल क्या जन गण मन, अशोक चक्र पर उंगली उठाई जाएगी? जो लोग सामाजिक सौहार्द और भाईचारे को बढ़ावा देने के इच्छुक हैं उन्हें इस सिलसिले को हमेशा के लिए विराम देना ही होगा क्योंकि अल्पसंख्यक अधिकारों के नाम पर चल रहे इस सिलसिले ने फिरकापरस्ती को इस ऊंचाई पर पहुंचा दिया है कि वह कुछ सेकुलर प्रतीकों तक का निरादर करने लगी हैं।

-सर्वदमन पाठक

Thursday, November 12, 2009

कौन जिम्मेदार है अनहोनी की इस संभावना के लिए

ग्वालियर हवाई अड्डे पर मध्यप्रदेश के राज्यपाल रामेश्वर ठाकुर और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह का विमान उतरने के ठीक पहले जो भयावह गफलत हुई, वह लापरवाही की पराकाष्ठïा ही कही जा सकती है। इस सनसनीखेज वाकये के अनुसार विमानतल पर विमान की लैंडिंग के ठीक पहले वहां वायुसेना के दो वाहन आ गए जिसके कारण एकबारगी तो महामहिम एवं मुख्यमंत्री की सुरक्षा दांव पर लग गई थी। इस सिलसिले में विमान के पायलट की प्रत्युत्पन्नमति की तारीफ करनी होगी जिसने रनवे के पास वाहनों को देखते ही विमान उतारने के बजाय उठा दिया और कुछ समय तक हवा में उड़ाने के बाद सुरक्षित तरीके से उसे रनवे पर उतार दिया। वायुसेनाध्यक्ष का कहना है कि उस वक्त रनवे पर दो कुत्ते कहीं से आ गए थे और उनके हटाने के लिए ये वाहन वहां पहुंचे थे। यह बात अभी रहस्य ही बनी हुई है कि आखिर इतनी कड़ी सुरक्षा के बावजूद रनवे पर ये कुत्ते कहां से आ गए लेकिन यह कोई रहस्य नहीं है कि इस खबर के आने के बाद काफी समय तक शासन- प्रशासन सांसत में रहा और प्रदेश के नागरिकों के माथे पर ंिचंता की लकीरें खिंची रहीं। सुरक्षा में भयावह चूक के इस मामले की गंभीरता इस बात से और बढ़ जाती है कि राष्टï्रपति प्रतिभा पाटिल वायुसेना के कार्यक्रम में शामिल होने के लिए वहां पहुंचने वाली थी और इस घटना के कुछ ही देर बाद राष्टï्रपति का विमान इसी विमानतल पर उतरने वाला था। सवाल यह है कि एयर ट्रेफिक कंट्रोल द्वारा अनुमति दिये जाने के बाद ही राज्यपाल एवं मुख्यमंत्री का विमान वहां उतर रहा था तो फिर उस दौरान रनवे खाली क्यों नहीं रखा गया और सुरक्षा सुनिश्चित क्यों नहीं की गई। चूंकि विमानों में महत्वपूर्ण हस्तियों के सफर करने के कारण उनकी सुरक्षा के लिए सुरक्षा की दोषरहित व्यवस्था होती है तब इतनी भारी सुरक्षा व्यवस्था के बावजूद वहां ऐन वक्त पर कुत्ते आ जाना आश्चर्यजनक ही है। इस घटना की भयावहता को देखते हुए राज्य सरकार ने जो सख्त रुख अपनाया, वह उचित ही है क्योंकि यह राज्य के संवैधानिक प्रमुख और सरकार के मुखिया की सुरक्षा में चूक से जुड़ा मामला है। दरअसल इस घटना के लिए सरसरी तौर पर वायुसेना तथा एयर ट्रेफिक कंट्रोल सीधे तौर पर जवाबदेह हैं अत: उन्हें राज्य सरकार के प्रमुख सचिव द्वारा उठाए गए मुद्दों के साथ ही तमाम उन पहलुओं की जांच करनी चाहिए जो इससे जुड़े हो सकते हैं। इसके साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि इस जांच की रिपोर्ट में दोषी पाए जाने वाले कर्मचारियों एवं अधिकारियों पर समुचित कार्रवाई हो ताकि इस तरह की घटना की पुनरावृत्ति न हो सके।

-सर्वदमन पाठक

Monday, November 9, 2009

बढ़ते अपराधों की चुनौती

यह महज संयोग है या नए गृहमंत्री को चुनौती देने की सोची समझी साजिश, इस पर विवाद हो सकता है लेकिन इस हकीकत से कोई इंकार नहीं कर सकता कि उमाशंकर गुप्ता के गृहमंत्री के रूप से शपथ लेने के बाद से ही भोपाल मेें अपराधों की बाढ़ सी आ गई है। बजरंग दल नेता की हत्या, पंचशील नगर के बदमाशों के बीच ताजा हिंसक झड़प और मुफ्ती के बेटे पर फायरिंग तो सिर्फ इसकी बानगी मात्र हैं। कहा जा सकता है कि अपराधियों के हौसले तो कई सालों से बुलंद हैं और अंधाधुंध अपराधों का सिलसिला इसी का प्रतिफल है, जिसे रातों रात बंद नहीं किया जा सकता। लेकिन इस बात की क्या दलील है कि भोपाल में अपराध अचानक ही बढ़ क्यों गए हैं। इस मामले में श्री गुप्ता की जवाबदेही इसलिए भी ज्यादा है क्योंकि वे भोपाल की सरजमीं पर पले बढ़े नेता हैं और उन्हें भोपाल के बाशिंदों ने चुनकर विधानसभा में भेजा है। वे भोपाल की नस नस से वाकिफ हैं और उन्हें उन तमाम कारणों और कारकों की जानकारी है जो भोपाल को अपराधियों की शरणस्थली के रूप में तब्दील करने के लिए जिम्मेदार हैं। इसी वजह से भोपालवासियों को यह उम्मीद होना स्वाभाविक है कि श्री गुप्ता के हाथों में गृह मंत्रालय का भार आने के बाद इस शहर में अमन चैन कायम हो सकेगा। शहर में अपराधों में इजाफे से उनकी इन उम्मीदों को झटका लगा है। प्रशासन की इस असफलता का ठीकरा कांग्रेस ने श्री गुप्ता के सिर पर फोडऩे की कोशिश करते हुए उनके बंगले में ही अपराधियों के छिपे होने का सनसनीखेज आरोप लगा दिया है। हालांकि यह आरोप बेबुनियाद सिद्ध हो गया है लेकिन इससे यह संकेत तो मिल ही गया है कि यदि भोपाल में अपराधियों एवं अपराध पर जल्दी से जल्दी शिकंजा नहीं कसा गया तो फिर इस मामले में सियासत का खेल और भी नीचे गिर सकता है। दरअसल नए गृहमंत्री को अपराधियों द्वारा दी जा रही चुनौती को स्वीकार कर उनपर शिकंजा कसने की चौतरफा मोर्चेबंदी करनी चाहिए। इसके लिए पुलिस को तो सख्त से सख्त से कार्रवाई के निर्देश दिये ही जाना चाहिए लेकिन इसके साथ ही दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करते हुए यह स्पष्टï संदेश देना चाहिए कि इन अपराधियों को कोई भी राजनीतिक संरक्षण बचा नहीं पाएगा।
सच तो यह है कि न केवल भोपाल बल्कि संपूर्ण प्रदेश में जघन्य अपराधों का ग्राफ काफी बढ़ा है और इस वजह से लोगों का सुख चैन छिन गया है। उन्हें अपने जीवन पर असुरक्षा की छाया मंडराती दिख रही है। इतना ही नहीं, प्रदेश में औद्योगिक विकास के लिए भी शांति पहली शर्त है। प्रदेश के नागरिकों को सुरक्षा एवं शांति का विश्वास दिलाना और औद्योगिक विकास के लिए शांति का माहौल पैदा करना राज्य सरकार की जिम्मेदारी है और अब इस दायित्व की बागडोर श्री गुप्ता के हाथों में है। उम्मीद की जानी चाहिए कि वे लोगों की उम्मीदों पर खरे उतरेंगे और प्रदेश में कानून एवं व्यवस्था का राज पुन: कायम करने में अहम भूमिका निभाएंगे।

-सर्वदमन पाठक

Thursday, November 5, 2009

सियासी मोहरा नहीं है किसान

यह किसानों का दुर्भाग्य ही है कि उनको वोट बंैक के रूप में इस्तेमाल करने वाली सरकारें सत्ता में आते ही उन्हें भूल जाती हैं। आम तौर पर प्रकृति के भरोसे रहने वाले किसानों को वैसे ही कृषि कार्य के लिए काफी मुसीबतों से गुजरना होता है, फिर सरकारों की बेरुखी से तो उनकी मुुश्किलें दुगुनी हो जाती हैं। न केवल मध्यप्रदेश बल्कि देश के कई अन्य प्रदेशों में भी इस वर्ष कई स्थानों पर बारिश औसत से कम हुई है अत: किसानों को बोहनी में ही काफी परेशानियों से गुजरना पड़ा है। इसके बाद फिर उनके सामने बीज का संकट उपस्थित हो गया। जैसे तैसे किसानों ने बुआई की तो अब खाद का संकट उनके सामने है। हालत यह है कि किसानों को समुचित मात्रा में खाद उपलब्ध नहीं हो पा रही है। इतना ही नहीं, उसे जो खाद नसीब हो रही है, वह भी नकली या असली, इस बात का कोई भरोसा नहीं है। दरअसल नकली खाद का एक पूरा रैकेट काम कर रहा है। इसके कई पक्ष हैं मसलन खाद उत्पादक अधिक से अधिक मुुनाफा कमाने के लिए नकली खाद का निर्माण करते हैं और उन्हें सरकारी अफसरों का पूरा पूरा संरक्षण प्राप्त होता है। नकली खाद उत्पादन का गोरखधंधा इसलिए बेरोकटोक चलता रहता है क्योंकि इसे सत्ता में बैठे नेताओं का भी संरक्षण होता है। इस समय प्रदेश में किसानों का सबसे बड़ा संकट यही है कि उन्हें पर्याप्त मात्रा में खाद उपलब्ध नहीं है। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि राज्य सरकार ने अपनी जरूरतों का ठीक से आकलन नहीं किया और इस वजह से केंद्र से उसे समुचित मात्रा में खाद नहीं मिल पाई। लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है। केंद्र एव राज्यों के बीच एक गर्हित राजनीतिक खेल खेला जा रहा है, जिसमें किसान मोहरा बने हुए हैं। जहां केंद्र इस खाद संकट का दोष राज्यों पर मढऩे की कोशिश कर रहा है, वहीं राज्य सरकारें इसके लिए केंद्र सरकार को जिम्मेदार ठहरा रही हैं। किसानों की पूरी अर्थव्यवस्था कृषि पर टिकी होती है अत: होना तो यह चाहिए कि किसानों को उनके कृषि कार्य के लिए हरसंभव सुविधा एवं साधन मुहैया कराये जाएं और इसमें कोई राजनीति आड़े न आए लेकिन हमारे राजनीतिक दल उनके हितों की कीमत पर भी अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने से बाज नहीं आते। सरकार एवं प्रशासन को इस मामले में सतर्कता बरतनी चाहिए कि किसानों को उनके कृषि कार्य के लिए हरसंभव सहूलियतें मिलें। इसके लिए पहले से योजना तैयार की जानी चाहिए जिससे गफलत न हो। किसानों को यदि समय पर एवं समुचित मात्रा में बिजली, बीज एवं खाद न मिले तो इसकी जिम्मेदारी तय होना चाहिए। इसके लिए जो भी प्रशासनिक अधिकारी जिम्मेदार हों, उन पर कार्रवाई की जानी चाहिए। इस संबंध में कोई भी बहानेबाजी की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। यदि किसानों को जागरूकता का परिचय देते हुए एकजुट होकर उनके साथ हो रहे अन्याय का प्रतिरोध करना चाहिए। यदि किसान जागरूक हो गए तो कोई भी सरकार उनके हितों की उपेक्षा नहीं कर सकेगी।
-सर्वदमन पाठक

Tuesday, November 3, 2009

पुलिस फिर कटघरे में

राज्य के लोगों को एक और राज्य की बसों से सफर की सुविधा नहीं मिलेगी। दरअसल अब महाराष्ट्र सरकार ने भी मध्यप्रदेश में अपनी बसें चलाने से इंकार कर दिया है। महाराष्टï्र ऐसा पहला राज्य नहीं है जिसने मध्यप्रदेश में अपनी बसें ले जाने से इंकार किया है। इसके पूर्व गुजरात तथा उप्र की बसों की भी म.प्र. से आवाजाही बंद हो चुकी है। महाराष्ट्र राज्य सड़क परिवहन निगम ने इस कदम को उठाने के लिए जो दलील दी है, वह राज्य के लिए काफी अफसोसजनक है। उसने कहा है कि मध्यप्रदेश पुलिस द्वारा परेशान किये जाने के कारण उसे अपनी बसें बंद करनी पड़ रही हैं। महाराष्टï्र परिवहन निगम का आरोप है कि प्रायवेट आपरेटरों के इशारे पर म.प्र. पुलिस यह कार्रवाई कर रही है। यह ऐसा आरोप है जो मध्यप्रदेश पुलिस के चरित्र को बेनकाब करता है। आश्चर्यजनक तो यह है कि प्रशासन ऐसे मामलों में कमोवेश चुप्पी साधे रहता है। राज्य के यातायात विभाग के प्रमुख सचिव राजन कटोच ने भी ऐसा ही कुछ रुख अख्तियार करते हुए कहा है कि उन्हें इसकी कोई जानकारी नहीं है। सवाल यह भी है कि जनता की असुविधा में इजाफे के इस मामले में राज्य सरकार क्या कार्रवाई करेगी। मध्यप्रदेश की जनसंख्यात्मक तस्वीर कुछ ऐसी है कि इन तीनों राज्यों के काफी बाशिंदे प्रदेश में आकर बसे हैं और विभिन्न तीज त्यौहारों पर वे अपने गृह राज्यों में रहने वाले अपने परिजनों तथा रिश्तेदारों के पास जाते रहते हैं। इन बसों के बंद होने से इन्हें परेशानी होना स्वाभाविक है। यह राज्य सरकार की जिम्मेदारी है कि वह राज्य के लोगों के हितों का संरक्षण करे जो कि उत्तरप्रदेश, गुजरात तथा महाराष्टï्र की परिवहन निगम की बसें मध्यप्रदेश में न चलाने के फैसले से प्रभावित हो रहे हैं। इसके लिए दो स्तरों पर कार्रवाई की जा सकती है जिसके अंतर्गत उन राज्यों की सरकारों तथा राज्य परिवहन निगमों से बात करके उन्हें इस बात का भरोसा दिलाया जाए कि राज्य की पुलिस उन्हें अनावश्यक रूप से परेशान नहीं करेगी। इससे उनकी मुख्य शिकायत दूर होने और इस समस्या का समाधान निकलनेे का मार्ग प्रशस्त होगा। लेकिन इसके साथ ही राज्य सरकार को पुलिस पर भी अंकुश लगाना चाहिए ताकि वह प्रायवेट बस आपरेटरों के हाथों में न खेले। वैसे यह कोई महाराष्टï्र परिवहन निगम की ही शिकायत नहीं है बल्कि पुलिस के चारित्रिक पतन से प्रदेश के लोग भी परेशान हैं। अपराधियों तथा अपराध पर नकेल कसने के बदले पुलिस आम तौर पर उनको संरक्षण देती और निरपराधों को परेशान करती देखी जाती है। इसके पीछे कई कारण होते हैं लेकिन इनमें सबसे बड़ा कारण यह होता है कि उनकी अपराधियों से आर्थिक साठगांठ होती है। राज्य में आजकल जो अराजकता तथा अव्यवस्था का नजारा है, उसकी वजह यही है। वक्त का तकाजा है कि प्रदेश की पुलिस के चेहरे की कालिख को दूर किया जाए और उसे चरित्रवान चेहरा दिया जाए ताकि इस तरह की शिकायतों पर विराम लग सके।
-सर्वदमन पाठक

Monday, November 2, 2009

विकास हेतु एकजुट हों

मध्यप्रदेश के स्थापना दिवस पर आयोजित समारोह में मध्यप्रदेश के सर्वांगीण विकास के लिए राजनीतिक एकजुटता का प्रदर्शन एक श्लाघनीय पहल है। यह राजनीतिक एकजुटता की पहल मुख्यमंत्री ने की और विपक्षी दलों ने इस पहल पर रचनात्मक रिस्पान्स प्रदर्शित किया। यह कोई अस्वाभाविक बात नहीं थी क्योंकि प्रदेश का विकास कोई राजनीतिक लाभ हानि जैसा संकीर्ण मुद्दा नहीं है, जिस पर राजनीति की जाए। यदि राजनीतिक दल समझते हैं कि उक्त कार्यक्रम में की गई यह पहल जनता के बीच उनकी छवि उजली करने के लिए कारगर हो सकती है भले ही इसे सिर्फ जुबानी जमा खर्च तक सीमित रखा जाए तो यह उनकी गलतफहमी है। उन्हें याद रखना चाहिए कि जनता उनकी गतिविधियों को लगातार मानीटर करती रहती है और इस बात की बारीकी से पड़ताल करती रहती है कौन सा दल उसका सच्चा हमदर्द है और कौन सा दल उसका हितैषी होने का पाखंड रचता है। दरअसल इस राजनीतिक एकजुटता की शुरुआत जितनी जल्दी से जल्दी हो सके, की जानी चाहिए क्योंकि राजनीतिक गुटबाजी के ही कारण राज्य को काफी नुकसान होता रहा है। सबसे बड़ी बात यह है कि इससे प्रदेश का विकास प्रभावित होता है। अब अवसर आ गया है कि इसकी प्रभावी ढंग से शुरुआत की जाए। ऐसे बहुत से क्षेत्र हैं जहां यह शुरुआत की जा सकती है। मसलन बिजली उत्पादन के क्षेत्र में विपक्ष एवं सरकार को एकजुट होना चाहिए ताकि इस दिशा में तेजी से कदम बढ़ाए जा सकें। यह कोई राजनीतिक गुटबाजी का विषय नहीं है लेकिन इस पर राजनीतिक गुटबाजी लगातार हावी रहती है। दिग्विजय सिंह के नेतृत्व वाली पिछली कांग्रेस सरकार बिजली संकट के कारण ही पराजित हुई थी और वर्तमान सरकार की साख भी बिजली की अपर्याप्त उपलब्धता के कारण दांव पर लगी है। अब राज्य सरकार इसके लिए कांग्रेस नीत केंद्र सरकार को जिम्मेदार ठहरा रही है जबकि कांग्रेस शिवराज सिंह सरकार पर इसके लिए दोषारोपण कर रही है। यदि केंद्र और राज्य में सत्तारूढ़ दल इस मुद्दे पर सहयोग करते हुए इसे हल करने की कोशिश करें तो शायद यह रणनीति ज्यादा कारगर होगी। राज्य में औद्योगिक विकास में भी यदि कांग्रेस एवं भाजपा के बीच एकजुटता हो तो राज्य सरकार उद्योगों के ब्लू प्रिंट तैयार करने एवं उन्हें मूर्त रूप देेने में तेजी ला सकती है जबकि केंद्र सरकार की ओर से भी उसे बिना किसी अवरोध के हरी झंडी दी जा सकती है। इस सत्ता विपक्ष सहयोग का सबसे बड़ा फायदा भ्रष्टïाचार उन्मूलन में हो सकता है। यदि सत्ता एवं विपक्ष यह ठान लेंं कि वे भ्रष्टï अफसरों और भ्रष्टï राजनीतिक नेताओं को संरक्षण नहीं देंगे तो फिर किसी की क्या मजाल कि वह प्रदेश की जनता की खून पसीने की कमाई का पैसा सार्वजनिक कल्याण के बदले अपने ऐशो आराम में खर्च कर सके। लेकिन इन सब कदमों के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति की जरूरत है। सवाल यही है कि राजनीतिक दल राज्य के जनता के हित में यह इच्छाशक्ति दिखा पाएंगे।
-सर्वदमन पाठक

Sunday, November 1, 2009

अब तो हो यह 'सपना प्रदेशÓ अपना प्रदेश

श्रीलाल शुक्ल ने अपने चर्चित उपन्यास 'राग दरबारीÓ में व्यंग्य किया है कि भारत की शिक्षा प्रणाली गांव की उस कुतिया की तरह है जिसे हर कोई दुलत्ती मारते हुए आगे बढ़ जाता है। इसमें अगर वे इतना और जोड़ देते कि इस कुतिया को कामधेनु बनाया जा सकता है बशर्ते हममें दृढ़ इच्छाशक्ति हो, हमारी प्राथमिकताओं में शिक्षा सबसे ऊपर हो, तो एक बेहद सटीक सूत्र बुना जा सकता है। मध्यप्रदेश की विडम्बना भी कमोवेश ऐसी ही रही है और कुछ हद तक अब भी है। मध्यप्रदेश के विकास के साथ इतनी गुत्थियां, इतनी चुनौतियां, इतनी विसंगतियां, इतनी पहेलियां, गुंथी हुई हैं कि उसे अगले कुछ वर्षों में अग्रणी राज्यों की पंक्ति में खड़ा करना उतना ही मुश्किल है जितना शिव का धनुष उठाना। यह संयोग ही कहा जाएगा कि शिव नामधारी राजनेता ने इस चुनौती को आगे बढ़कर स्वीकार करने का साहस जुटाया है। अपनी छवि और क्षमता में निरंतर परिष्कार का पुट बढ़ाते हुए शिवराज सिंह ने इस मोर्चे पर अपनी भवितव्यता को ही दाव पर लगा दिया है। वे अहर्निश अलख जगाते हुए हर उस सूत्र, हर उस सूझ को खंगालने में जुटे हैं जो विराट संभावनाओं के द्वार पर खड़े इस प्रदेश को 'बीमारूÓ राज्यों की उस अभिशप्त सूची से जल्द से जल्द उबार सकें जो अपने जन्म के समय से ही उस पर चस्पी है। बेशक सकारात्मक उपलब्धियों का ग्राफ निरंतर ऊंचा उठता जा रहा है, कालिमा घट रही है लालिमा बढ़ रही है मगर वह रोमांचक परिकल्पना कोई तिरेपन साल बाद अभी भी मृगतृष्णा बनी हुई है जिससे प्रेरित होकर राज्य पुनर्गठन आयोग ने इस राज्य को आने वाले वर्षों में देश की एक अत्यंत सशक्त इकाई निरूपित करते हुए उसकी अपार नैसर्गिक संपदा का गुणगान किया था। बकौल उसके, ''यह बहुत ही समृद्ध कृषि उत्पादन वाला राज्य होगा, क्योंकि इसमें शामिल होंगे गेहूं और चावल पैदा करने वाले विस्तृत क्षेत्र। इसके साथ ही इसमें समृद्ध खनिज भंडार हैं और साथ ही नदियों की होगी अपार जल राशि जिसके दोहन से सिंचाई के साथ ही विद्युत उत्पादन की ऐसी संरचना तैयार होगी जो न सिर्फ उसे तीव्र प्रगति के पथ पर आरूढ़ करेगा, बल्कि सारे देश का एक मजबूत आधार स्तंभ भी बनाएगा।ÓÓ अपनी पृथक-पृथक इकाइयों के साथ आपस में विलीन होने वाले राज्य ऐसे दैत्याकार सूबे की कल्पना से कांप उठे थे। इन आशंकाओं की तरफ न आयोग ने ध्यान दिया और न भारत सरकार ने। तमाम आपत्तियों का आयोग के पास ले देकर सिर्फ एक जवाब था - ''मध्यवर्ती भारत में एक सुसम्बद्ध, सशक्त और समर्थ इकाई होने के लाभ लंबे समय में इतने विशाल सिद्ध होंगे कि हमें नये मध्यप्रदेश के निर्माण की सिफारिश करने में कतई कोई झिझक नहीं है।ÓÓ यह अलग बात है कि जब पं. जवाहरलाल नेहरू ने इस नये प्रदेश का नक्शा देखा तो हैरत भरे अंदाज में बोल उठे- यह क्या अजीब-सा प्रागैतिहासिक जीव-जंतु बना डाला! इतिहास और भूगोल की इस मिली-जुली साजिश का नतीजा यह हुआ कि राजनीतिक और प्रशासनिक रूप से बेमेल ऐसे इलाके एक झंडे के तले आ गए जो एक-दूसरे के लिए प्राय: अजनबी थे। तब के नेता और अफसरों को देखकर लगता था जैसे भोपाल में शंकर की बारात आ गई हो। किसी भी नई शुरुआत के लिए प्रारंभिक दौर बेहद महत्वपूर्ण होता है। उस दौरान जो बीज बोये जाते हैं, वे बुनियादी संस्कारों का हिस्सा हो जाते हैं । जैसा कि स्वाभाविक था, पहले इस नये प्रदेश ने क्षेत्रीयता के ढेरों जहरीले दंश झेले, राजनीतिक गुटबाजियों के बारूदी विस्फोटों से आसमान थर्राया और तात्कालिक राजनीतिक लाभों की खातिर योजनाओं के बनते-बिगड़ते घरौंदों के बीच विकास की टूटी-फूटी वर्णमाला ने आकार लिया। एक व्यंग्यकार ने तब एक जुमला उछाला था - इस प्रदेश को बनना था विनायक और बन गया बंदर! इसका यह मतलब हर्गिज नहीं कि प्रदेश पर बदकिस्मती की घनी घटाओं पर हमेशा बिजलियां ही कड़कती रही। क्षितिज पर कई सुनहरी रेखाएं भी उभरीं। सेवाओं का एकीकरण, डॉ. कैलाशनाथ काटजू के भगीरथी प्रयासों से चम्बल बांध का निर्माण, भोपाल में हेवी इलेक्ट्रिकल्स कारखाने की स्थापना आदि मंगलाचरण की कुछ ऐसी चमकदार उपलब्धियां हैं जिनकी कीर्ति गाथाएं आज भी तमाम क्षेपकों के बीच उजले पृष्ठों पर अंकित हैं। लंबे स्याह दौर की जकडऩ के कारण प्रदेश की पहचान गड्ड-मड्ड होती गई। कभी उसे 'डकैतों, डायमंडों और डिफेक्टरोंÓ का प्रदेश कहा गया तो कभी उसकी राजनीति को साजिश और शिष्टाचार की संज्ञा दी गई। एक दौर ऐसा भी आया जब धमाकेदार नुस्खे तलाशने के लिए कुछ मुख्य मंत्रियों ने 'थिंक टेकÓ का गठन किया मगर साथ ही राजनीति के 'सेप्टिक टेंकÓ भी पालते रहे। ऐसे माहौल में अच्छी से अच्छी सफलता की गाथाओं को भी वह विश्वसनीयता हासिल नहीं हो पाती है जिसकी वे हकदार होती हैं। राजनीति का अतिरेक और उससे जुड़ी विकृतियां सारे भारत की भयावह सच्चाई है। मध्यप्रदेश भी अगर इससे ग्रस्त रहा है तो इस पर विलाप करने से कुछ खास हासिल होने वाला नहीं है। हिंदी के प्रख्यात साहित्यकार अज्ञेय के एक उपन्यास का शीर्षक है - 'नदी के द्वीप ।Ó इसी तर्ज पर यह कहा जा सकता है कि हमने जो भी सफलताएं अर्जित की हैं या जो आगे भी अर्जित की जाने वाली हैं, उन्हें 'गटर के द्वीपÓ कहना अधिक सटीक होगा। राजनीतिक और सामाजिक बुराइयों के बीच से ही रास्ता बनाते हुए हमें अपनी उपलब्धियों के शिखर रचने होंगे, सफलताओं के द्वीप-समूह खड़े करने होंगे, यही हमारी संभावनाओं के सिंहद्वार हैं। मध्यप्रदेश कितना संकल्पवान हुआ है, यह तो आने वाला समय बताएगा, मगर इसके शब्दकोष में दो शब्द अपना सम्मोहन अभी भी बरकरार रखे हुए हैं। इनमें से एक है संवेदनशीलता और दूसरा स्वप्नदर्शिता। इस प्रदेश के कर्णधारों ने आधी सदी से भी ज्यादा समय तक इतने सपने पाले और परोसे हैं कि इसे अगर भारत का 'सपना प्रदेशÓ कहा जाए तो शायद अतिशयोक्ति नहीं होगी। शिवराज सिंह ने हाल में लीक से हटकर कुछ ऐसे उद्गार व्यक्त किए हैं जिनसे उन्होंने यह संदेश देने की कोशिश की है कि वे सपनों का संकल्पों से इस कदर अभिषेक करेंगे कि वे वरदानों में रूपांतरित हों और वह भी कम से कम समय में। उनके कार्यकाल के शेष चार वर्ष में अगर मध्यप्रदेश भारत के अग्रणी राज्यों की पंक्ति में शामिल हो जाता है तो यकीनन यह कामयाबी किसी वशीकरण या करिश्मे से कम नहीं होगी। जमीन से जुड़े नेता और ''छोरा नर्मदा किनारे वालाÓÓ जैसे आत्मीय संबोधन से विभूषित होने के नाते शिवराज इस हकीकत से पूरी तरह वाकिफ हैं कि जन मानस में वादों के क्रियान्वयन की कसौटी अब काफी कड़क होती जा रही है। यह भोले विश्वासों और मीठे मुगालतों का समय नहीं है। पहले चुनावी वादे झुनझुना माने जाते थे। लोग सुनते थे और भूल जाते थे। मगर चुनाव-दर-चुनाव जागरूकता इस कदर बढ़ती जा रही है कि लुभावने वादे आशाओं के उन्मेष से भी आगे जाकर उम्मीदों के उन्माद में बदलने लगे हैं। इसे देखकर कुछ विचारवान नेता यहां तक कहने लगे हैं कि जब हम जनता के बीच जाते हैं तो कभी-कभी ऐसा लगता है कि वह हमारे पीछे नहीं चल रही है, बल्कि हमारा 'पीछाÓ कर रही है! यह खतरे की एक ऐसी घंटी है जिसकी अनसुनी नहीं की जा सकती। ऐसी सूरत में सबसे ज्यादा जरूरी यह है कि जितनी जल्दी हो शासक और शासित के बीच की दूरी मिटे, पारस्परिक विश्वास के सूत्र मजबूत हों। यह तभी संभव है जब जनता विकास और प्रशासन से जुड़े हर उस फैसले, हर उस प्रक्रिया से जीवंतता के साथ जुड़े जो उसकी नियति ही नहीं, बल्कि दैनंदिन जिंदगी से वास्ता रखती है। यही शिवराज के विकास दर्शन की केंद्रीय धुरी है। हमारी मौजूदा व्यवस्था की एक बड़ी खामी यह है कि सरकार और जनता के बीच राजनीतिक कार्यकर्ता के अलावा तरह-तरह के दंदी-फंदी-नंदी, परिजन, नाते-रिश्तेदार आ जाते हैं। इनमें से कुछ राजनीति में आगे बढऩे के रास्ते तलाशते हैं तो कुछ महज दलाली करते हैं। शिवराज सरकार ने इस दुष्चक्र से निजात दिलाने के लिए कुछ निहायत ही कल्पनाशील शुरुआतें की हैं। इनमें प्रमुख है - जन सुनवाई की एक सुव्यवस्थित, विस्तृत शृंखला। यह जन सुनवाई नियमित रूप से विभिन्न प्रशासनिक स्तरों पर की जा रही है। इसके तहत कोई भी व्यक्ति सीधे अपनी शिकायतें लेकर जा सकता है और उसका समाधान करा सकता है। संबंधित अफसरों की उपस्थिति इस काम के लिए अनिवार्य कर दी गई है। सुरक्षा के बढ़ते ताम-झाम के कारण सत्ता और जन के बीच संवाद के दायरे भी काफी समय से लगातार सिमटते जा रहे हैं। संवाद या तो दलगत दायरे तक सीमित हैं या सरकार की गोपनीय गुफाओं में कैद हैं। शिवराज ने इस बंधे बंधाये ढर्रे को तोड़ा है। अपने निवास पर समाज और जनता के अलग-अलग वर्गों को आमंत्रित कर खुली पंचायतों का एक नायाब तरीका अपनाकर उन्होंने पारस्परिक संवाद के जरिये गुत्थियों के सीधे समाधान खोजने का एक नायाब फार्मूला अपनाया है। मुख्यमंत्री के सामने खुलकर अपनी बात कहने का जिन्हें भी यह अवसर मिला है, वे इससे गदगद हैं। उन्हें मुख्यमंत्री की महिमामय मेजबानी भी मिली है और काफी कुछ मुरादें भी पूरी हुई हैं। इस शृंखला में नित नई कडिय़ां जुड़ती जा रही हैं। जाहिर है, जैसे-जैसे यह सिलसिला आगे बढ़ेगा, श्यामला हिल्स स्थित मुख्यमंत्री का सत्ता-साकेत नयी उम्मीदों के सूर्योदय के रूप में जाना जाने लगेगा। हम अपनी वर्षों पुरानी व्यवस्थाओं के पिरामिड रातों-रात ढहा नहीं सकते। परन्तु उनमें ताजा हवा के झोंके ला सकते हैं। इसमें कोई कोर-कसर क्यों छोड़ी जाए? लालफीताशाही के खात्मे के लिए इस किस्म के गैर रस्मी तरीकों के कितने उत्साहवद्र्धक लाभ हो सकते हैं, इसे इन प्रयोगों ने बखूबी दिखा दिया है। सत्ताधीशों के लिए आम आदमी से हरसंभव तरीके से जुडऩा इसलिए भी खास तौर से लाजिमी हो गया है, क्योंकि स्थानीय शासन संस्थाएं, जिनमें विभिन्न शहर, निकाय और पंचायतें आती हैं, काफी हद तक भीड़ तंत्र का शिकार हो चुकी हैं। जिन संस्थाओं को संविधान में ऐतिहासिक संशोधनों के जरिये लोकतंत्र के भवन में भूतल का दर्जा दिया गया था, वे मलबे में तब्दील हो रही हैं। विधान सभाएं भी अपनी बेहद निर्णायक भूमिका के प्रति समुचित न्याय नहीं कर पा रही हैं। राजनीतिक दलों के तौर-तरीके तो जग जाहिर हैं। उन्होंने जनता को अपनी राजनीति का ईंधन तो बहुत बनाया है, लेकिन उन्हें इंजन नहीं बनने दिया है। यदि शिवराज सिंह जनता की सुसुप्त रचनात्मक क्षमता के दोहन के प्रबल पक्षधर के रूप में उभरकर सामने आए हैं तो इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि वे जनोन्मुखी व्यवस्था के जबरदस्त हिमायती हैं और उसे उसकी अंतिम परिणति तक पहुंचाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। समाज के विभिन्न वर्गों के सुझावों को आमंत्रित करने की दिशा में भी उनकी पहल कुछ कम महत्वपूर्ण नहीं है। इसके लिए वेबसाइट जैसे माध्यमों का सहारा लिया गया है। लोकतंत्र की वास्तविक शक्ति लोक है। जहां भी उसकी उपस्थिति जितनी प्रभावी, जितनी व्यापक होगी, लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के झरने दूर-दूर तक जाएंगे और हरीतिमा को सींचेंगे। इन तमाम वर्षों में प्रशासन तंत्र का आकार-प्रकार इतने अनाप-शनाप ढंग से बढ़ा है कि देश में विशेषत: हिन्दी क्षेत्रों में समाज घट रहा है, राज बढ़ रहा है। यह असंतुलन लोकतंत्र के लिए घातक है। शिवराज सिंह का दृढ़ विश्वास है कि समाज की व्यवस्थाओं, उसके अंग-प्रत्यंगों के सक्रिय होने पर ही चहुंमुखी विकास का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। मध्यप्रदेश के पिछड़ेपन के कई कारण हैं और यह सब इसके बावजूद हैं कि यहां एक से एक अच्छे मुख्यमंत्री रहे हैं, किन्तु वे केन्द्रीय नेतृत्व के प्रति दास्यभाव के कारण इतने दब्बू रहे हैं कि उसके सामने दृढ़ता से अपने प्रदेश के हितों से जुड़े दावे नहीं ठोक सके। सच तो यह है कि मध्यप्रदेश केन्द्र का बंधक राज्य रहा है। दूसरे, विकास की रणनीति भी तत्कालिक राजनीतिक लाभों और क्षेत्रीय खींच-तान पर ही अधिकतर टिकी रही। मध्यप्रदेश इस अर्थ में भी अजीबोगरीब है कि जहां अन्य राज्यों में घटनाएं घटित होती हैं, म.प्र. में विस्फोटित होती हैं। ऐसे उदाहरण मौजूद हैं जब तीन चैथाई बहुमत हासिल करने के बाद भी मुख्यमंत्री को अपनी कुर्सी खोनी पड़ी। बहरहाल अब जो दौर आया है उसमें राजनीति का अच्छा या बुरा होना किसी प्रदेश के विकास की एकमात्र मुख्य शर्त नहीं रह गई है। प्रगति की असल कुंजी है - उद्यम की संस्कृति, ज्ञान विज्ञान के क्षितिजों का विस्तार, आगे बढऩे की उमंग। काफी समय तक उद्यम की संस्कृति के ध्वजाधारी मध्यप्रदेश में बाहर के प्रदेशों से आए लोग रहे हैं। अभी भी इनकी काफी तादाद है। हालांकि यह राहत का विषय है कि इनमें से अधिकांश ने अपने पुराने प्रादेशिक बाने उतारकर स्वयं को मध्यप्रदेशीय मानना प्रारंभ कर दिया है। मध्यप्रदेश के प्रारंभिक दो-तीन दशकों में यहां प्राय: हर क्षेत्र में बाहरी राज्यों से आए इतने चेहरों का घटाटोप उमड़ा कि शिखर पदों पर मध्यप्रदेश की माटी से जुड़ी प्रतिभाओं को खोजना मुश्किल हो गया था। परिस्थितियां अब बदल रही हैं। धरती पुत्रों में भी आकाश छूने की चाहत तेजी से बढ़ रही है। यदि शिक्षा की उच्च गुणवत्ता की हम अब भी गारंटी दे सकें तो राज्य में अमध्यप्रदेशीयता से कहीं अधिक मध्यप्रदेशीयता की धारा बलवती होगी और अपनी स्थापना के समय से पहचान के जिस संकट को यह प्रदेश झेल रहा है, उससे उसे कालांतर में निजात मिल सकती है। तब 'सपना प्रदेशÓ और 'अपना प्रदेशÓ एकाकार हो जाएंगे। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने हाल में 'मध्य प्रदेश बनाओÓ तथा 'अपना मध्यप्रदेशÓ जैसे जो प्रेरक नारे उछाले हैं, उसके लिए मध्यप्रदेशीयता की मजबूत आधारशिला रखना आवश्यक है। इससे अपने हाथों अपनी नियति संवारने का जज्बा केवल बढ़ेगा ही नहीं, छलांग भरेगा। इस अमृत-बिंदु से प्रदेश से अंतरंग जुड़ाव का एक सशक्त सिलसिला चल पड़ेगा। अपनत्व की अनुभूति गहरी होते ही सामाजिक व आर्थिक अभिशापों के विरुद्ध धर्म युद्ध की सुविचारित शुरुआत हो सकेगी। यदि देश में बंगाली, आंध्राइट, तमिलियन, महाराष्ट्रियन, केरलाइट, पंजाबी, हरियाणवी, बिहारी और यूपियन, उत्तर प्रदेशीयद्ध जैसे ढेरों पहचान चिह्न अपनी प्रखर प्रादेशिकता के साथ प्रचलन में हैं, तो 'एम पी-यनÓ या मध्यप्रदेशीय जैसी कोई पृथक पहचान स्थापित करने से हम आखिर कब तक परहेज करेंगे? अपनी विशिष्ट अस्मिता को लेकर कब तक लुंज पुंज बने रहेंगे? एक बार यह पहचान अपना कवच-कुंडल हो जाए तो इससे मध्यप्रदेश को 'अपना प्रदेशÓ मानने की मानसिकता बलवती होगी, साथ ही जिस सकारात्मक पहचान के संकट से मुक्ति पाने के लिए हम छटपटाते रहे हैं, उस पर भी पटाक्षेप करने में मदद मिल सकेगी। विश्व बैंक के एक विशेषज्ञ दल ने वर्षों पहले कहा था कि भारत के अन्य राज्य जहां बीसवीं सदी के सूबे हैं, वहीं मध्यप्रदेश का भाग्योदय इक्कीसवीं सदी में होगा। इस दल का मंतव्य था कि मध्यप्रदेश 21वीं सदी का राज्य इस मायने में है कि जब अन्य राज्य अपने प्राकृतिक संसाधनों का अधिकतर या पूरी तरह दोहन कर चुके होंगे, तब मध्यप्रदेश संभवत: अकेला ऐसा राज्य होगा, जिसके पास अनछुए नैसर्गिक स्त्रोतों के नायाब और बेशुमार भण्डार होंगे। मध्यप्रदेश जब अपनी नदियों को बांधना शुरू करेगा, तब तक कितने ही राज्यों के बांध बूढ़े हो चुके होंगे। देर से यात्रा शुरू करने के भी अपने कुछ लाभ हो सकते हैं। आज हम इसी पायदान पर खड़े हैं। यह वह दौर होगा जब यह प्रदेश अपने मुकुट में एक-एक कर इतने बेशकीमती मोती जड़ेगा कि देश में इसकी कुछ वैसी ही चमकदार पहचान बन सकेगी जिसके लिए वह लंबे अरसे से तरस रहा है।
-मदनमोहन जोशी

सपनों को सच करने की जिम्मेदारी

मध्यप्रदेश यानी वह राज्य जो भारत का हृदय प्रदेश तो है ही परंपरा, संस्कृति और संस्कारों से रसपगा एक क्षेत्र है जहां सौहार्द और सौजन्यता स्वभाव में ही घुल-मिल गई है। अभाव, उपेक्षा और राजनीति ने भी इस स्वभाव पर कोई प्रभाव नहीं डाला है और मप्र आज भी देश के सामने एक ऐसे उदाहरण के रूप में जिसके पास कहने को बहुत कुछ है। अपनी विरासत, सनातन परंपरा और सौहार्र्द को समेटे यह भूमि आज भी इसलिए लोगों के आकर्षण का केंद्र है। इतना ही नहीं, मध्य प्रदेश अपने विशाल आकार में कई प्रकार की संस्कृति, स्वभाव, बोलियों, लोकाचारों का प्रवक्ता है।
आज जब मप्र अपना स्थापना दिवस मना रहा है तो उसके सामने कमोबेश वही सवाल हैं जो हमारी पूरी हिंदी पट्टी को मथ रहे हैं। जिन्हें बीमारू राज्य कहा जा रहा है। विकास का सवाल आज की राजनीति में सबसे अहम है। मप्र की जनता के सामने इस समय सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह किस तरह से नई सदी में अपना चेहरा और चमकदार बनाए। मध्यप्रदेश या कोई भी राज्य सिर्फ अपने इतिहास और विरासत पर गर्व करता हुआ खड़ा नहीं रह सकता। गांवों में फैल रही बेचैनी, शहरों में बढ़ती भीड़, पलायन के किस्से, आदिवासियों और भूमिहीनों के संघर्ष से हम आंखेें नहीं मूंद सकते। आजादी के बाद के ये साल इस विशाल भूभाग में बहुत कुछ बदलते दिखे। किंतु इस समय के प्रश्न बेहद अलग हैं। विकास के मोर्चे पर कुछ नहीं हुआ कहना बेमानी होगा, किंतु इन प्रयासों के बावजूद अगर हम प्राथमिक शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी और बिजली के मोर्चे पर अपना आकलन करें तो तस्वीर बहुत साफ हो जाएगी। मध्यप्रदेश को शांति का टापू कहे जाने के बावजूद विकास के तमाम मानकों पर हमारी हालत पतली है। यह द्वंद शायद इसलिए कि लंबे समय तक प्रयास तो किए गए आम आदमी को इस प्रक्रिया का हिस्सा बनने से रोके रखा गया। प्रशासन की संवेदनशीलता, राजनीतिज्ञों की नैतिकता, राज्य के लोगों की विकास में हिस्सेदारी कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिस पर साफ दिल से बात होनी ही चाहिए। राज्य के सामने सबसे बड़ी चुनौती क्या है, किन प्रश्नों पर राज्य को प्राथमिकता के साथ जूझना चाहिए ये ऐसे सवाल हैं जिनसे टकराने का साहस हम नहीं करते। नौकरशाही जिस तरह से सत्ता और समाज की शक्तियों का अनुकूलन करती है वह बात भी चिंता में डालने वाली है। राजनीति नेतृत्व की अपनी विवशताएं और सीमाएं होती हैं। चुनाव-दर-चुनाव और उसमें जंग जीतने की जद्दोजहद राजनीति के नियामकों को इतना बेचारा बना देती है कि वे सही मुद्दों से जूझने के बजाय इन्हीं में काफी ताकत खर्च कर चुके होते हैं।
मप्र अपने आकार और प्रकार में अपनी स्थापना के समय से ही बहुत बड़ा था। सन् 2000 में छत्तीसगढ़ अलग होने के बाद मप्र के सामने अलग तरह की चुनौतियां खड़ी हुईं। जिसमें बिजली से लेकर आर्थिक संसाधनों की बात सामने थी। बावजूद इसके इसका आकार आज भी बहुत बड़ा है। सो प्रशासनिक नियंत्रण से साथ-साथ नीचे तक विकास कार्यक्रमों का पहुंचना एक बड़ी चुनौती होती है। मप्र एक ऐसा राज्य है जहां की योजनाओं को राष्ट्रीय स्तर पर सराहना मिली है। बावजूद इसके शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर काम किए जाने की जरूरत है। आज के दौर की चुनौतियों के मद्देनजर श्रेष्ठï मानव संसाधन का निर्माण एक ऐसा काम है जो हमारे युवाओं को बड़े अवसर दिलवा सकता है। इसके लिए शहरी क्षेत्रों के अलावा ग्रामीण क्षेत्रों के स्कूलों के लिए हम क्या कर सकते हैं यह सोचना बहुत जरूरी है। यह सोचने का विषय है कि लोग सरकारी स्कूलों में अपने बच्चों को भेजने से परहेज क्यों करने लगे हैं। ऐसे में यहां से निकल रही पीढ़ी का भविष्य क्या है। इसी तरह उच्चशिक्षा में हो रहा बाजारीकरण एक बड़ी चुनौती है। हमारे सरकारी शिक्षण तंत्र का ध्वस्त होना कहीं इरादतन निजी क्षेत्रों के लिए दिया जा रहा अवसर तो नहीं है। यही हालात स्वास्थ्य के क्षेत्र में हैं। बुंदेलखंड और वहां के प्रश्न आज राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा के केंद्र में हैं। पानी का संकट लगभग पूरे राज्य के अधिकांश इलाकों का संकट है। शहरों और अधिकतम मध्यवर्ग को केंद्र में रखकर किया जा रहा विकास एक सामाजिक संकट सरीखा बन गया है। मप्र जैसे संवेदनशील राज्य को इस प्रश्न पर भी सोचने की जरूरत है। अपनी प्राकृतिक विरासतों को सहेजने की चिंता भी इसी से जुड़ी है। यह प्रसन्नता की बात है कि जीवनदायिनी नर्मदा के बारे में अब कुछ गंभीरता दिखने लगी है। अमृतलाल बेगड़ और अनिल दवे के प्रयासों से समाज का ध्यान भी इस ओर गया है। मध्यप्रदेश में पंचायतों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए राज्य सरकार खुद आगे आई, यह एक बहुत ही सकारात्मक संकेत है। अब आवश्यकता इस बात की है कि इन सभी महिला-पुरुष प्रतिनिधियों का गुणात्मक और कार्यात्मक विकास किया जाए। क्योंकि जानकारी के अभाव में कोई भी प्रतिनिधि अपने समाज या गांव के लिए कारगर साबित नहीं हो सकता। जनप्रतिनिधियों के नियमित प्रशिक्षण कार्यक्रम और गांव के प्रतिनिधियों के प्रति प्रशासनिक अधिकारियों की संवेदनात्मक दृष्टि का विकास बहुत जरूरी है। सरकार ने जब एक अच्छी नियति से पंचायती राज को स्वीकार किया है तब यह भी जरूरी है कि वह अपने संसाधनों के सही इस्तेमाल के लिए प्रतिनिधियों को प्रेरित भी करे। राज्य में बड़ी संख्या में आदिवासी समाज के लोग हैं उनके प्रश्न और चिंताएं अलग हैं। हमें उनका भी सोचना होगा। महिलाओं के साथ अत्याचार और उत्पीडऩ के मामले में भी मप्र का रिकार्ड बहुत बेहतर नहीं है। साथ ही सामंतशाही के बीज भी अभी कुछ इलाकों में पसरे हुए दिखते हैं। नक्सलवाद की चुनौती भी कुछ क्षेत्रों में मौजूद है। उस पर अब केंद्र सरकार का भी ध्यान गया है। ऐसे बहुत से प्रश्नों से टकराना और दो-दो हाथ करना सिर्फ हमारे सत्ताधीशों की नहीं हमारी भी जिम्मेदारी है। सामाजिक शक्तियों की एकजुटता और प्रभावी होना भी जरूरी है, क्योंकि वही राजसत्ता पर नियंत्रण कर सकती है। इससे अंतत: लोकतंत्र सही मायनों में प्रभावी होगा। भाजपा और उसके नेता शिवराज सिंह चौहान पर राज्य की जनता ने लगातार भरोसा जताते हुए बड़ी जिम्मेदारी सौंपी है। विरासत में मिली इन तमाम चुनौतियों की तरफ देखना और उनके जायज समाधान खोजना किसी भी राजसत्ता की जिम्मेदारी है। मुख्यमंत्री को इतिहास की इस घड़ी में यह अवसर मिला है कि वे इस वृहतर भूगोल को उसकी तमाम समस्याओं के बीच एक नया आयाम दे सकें। सालों-साल से न्याय और विकास की प्रतीक्षा में खड़े मप्र की सेवा के हर क्षण का रचनात्मक उपयोग करें। बहुत चुनौतीपूर्ण और कंटकाकीर्ण मार्ग होने के बावजूद उन्हें इन चुनौतियों को स्वीकार करना ही होगा, क्योंकि सपनों को सच करने की जिम्मेदारी मध्यप्रदेश के भूगोल और इतिहास दोनों ने उन्हें दी है। जाहिर है वे इन चुनौतियों से भागना भी नहीं चाहेंगे। अब जबकि मप्र की राजनीति में युवा चेहरों के हाथ में कमान है, हमें अपने तंत्र को ज्यादा संवेदनशील, ज्यादा बेहतर, ज्यादा मानवीय और सरोकारी बनाने की कोशिशें करनी चाहिए। स्थापना दिवस का यही संकल्प राज्य के माथे पर सौभाग्य का टीका साबित होगा।
-संजय द्विवेदी

Wednesday, October 28, 2009

मराठी सियासत के नए ध्वजवाहक राज

राज ठाकरे महाराष्टï्र विधानसभा चुनाव में न केवल मराठी हितों के नए ध्वजवाहक के रूप में उभरे हैं बल्कि उन्होंने इस मामले में बाल ठाकरे की विरासत को शिवसेना के हाथ से पूरी तरह हथिया लिया है। इन चुनाव के परिणाम बताते हैं कि मुंबई महानगर में राज ठाकरे की पार्टी महाराष्टï्र नवनिर्माण सेना दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है जबकि यह मराठी बहुल क्षेत्र शिवसेना का गढ़ रहा है। इतना ही नहीं, मुंबई के आसपास के क्षेत्रों में भी शिवसेना को जबर्दस्त आघात लगा है। यों तो उनकी पार्टी मनसे को कुल 13 सीटों पर ही जीत हासिल हुई है और किंग मेकर बनने का उनका सपना पूरा नहीं हो सका है लेकिन उनकी सबसे बड़ी सफलता यही है कि उनमें लोग बाल ठाकरे का अक्स देख रहे हैं। इसकी झलक पिछले लोकसभा चुनाव में भी देखने को मिली थी जब उनके दल को मिले वोट- प्रतिशत के कारण भाजपा- शिवसेना गठबंधन न केवल मुंबई की सभी सीटें खो बैठा था बल्कि उसे समूचे महाराष्टï्र में भी भारी नुकसान उठाना पड़ा था। मनसे के गठन के बाद से ही राज का एक सूत्री कार्यक्रम मराठी भाषियों में घर कर बैठी अन्याय एवं उपेक्षा की भावना को राजनीतिक रूप से भुनाना था और इसके लिए उन्होंने तमाम तरह के टोटके किये। मसलन जया बच्चन के एक समारोह में हिन्दी में भाषण देने के मामले में अमिताभ बच्चन की फिल्मों के बहिष्कार का आह्वïान करने वाले राज ने अपने कदम तभी वापस खींचे जब जया और अमिताभ बच्चन ने माफी मांग ली। बिहारियों के प्रमुख पर्व छठ पूजा को ड्रामा बताकर उन्होंने भले ही बिहारियों तथा उनके तमाम नेताओं विशेषत: लालू यादव की नाराजी मोल ले ली हो लेकिन यह उनका रणनीतिक कदम ही था जिसका उद्देश्य मराठी मानुष की सहानुभूति हासिल करना था। इतना ही नहीं, वे बिहारियों के खिलाफ हिंसक आंदोलन छेडऩे तक बाज नहीं आए जिसके लिए उन्हें गिरफ्तार भी होना पड़ा।इतिहास साक्षी है कि मराठी बहुल इस राज्य में मराठियों के साथ होने वाले अन्याय के प्रतिकार के नाम पर बाल ठाकरे ने शिवसेना का गठन किया था और अपने आग्नेय तेवर के कारण वे मराठी हितों के सबसे बड़े रक्षक के रूप में उभरे थे लेकिन हाल के वर्षों में शिवसेेना ने अपना रुख एवं स्वर बदल लिया और मराठी हितों की रक्षा के स्थान पर हिंदू हितों की रक्षा की आवाज बुलंद करनी शुरू कर दी। इससे मराठियों में शिवसेना के प्रति निराशा का भाव पैदा होना स्वाभाविक था। इस बीच बाल ठाकरे की राजनीतिक विरासत को लेकर शिवसेना में नेतृत्व की जो खींचतान मची उसमें बाजी उद्धव ठाकरे के हाथ रही और इसकी प्रतिक्रियास्वरूप राज ठाकरे ने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना नामक अलग पार्टी का गठन किया और मराठियों की कथित उपेक्षा के खिलाफ उग्र आंदोलन छेड़ दिया जिसका परिणाम यह हुआ कि मराठी मानुष जो कभी दिलो जान से बाल ठाकरे के नेतृत्व में आस्था रखते थे, राज ठाकरे के प्रति आकर्षित हो गए। बाल ठाकरे के पुत्र और शिवसेना के कार्यकारी अध्यक्ष उद्धव ठाकरे को अपने ही चचेरे भाई राज ठाकरे से जो चुनौती मिली, वह कतई अस्वाभाविक नहीं थी क्योंकि राज ठाकरे के पास नेतृत्व क्षमता नैसर्गिक ही थी।14 जून 1968 को जन्मे राज ठाकरे, जिनका बचपन का नाम स्वराज था, मराठी संस्कृति एवं मराठी हितों के प्रति अपनी अटूट प्रतिबद्धता के साथ ही अपने सामाजिक सरोकार के कारण शिवसेना में भी अपनी खास पहचान रखते थे। उन्होंने पूर्व में पुणे की पहाडिय़ों में शहरी गतिविधियों के खिलाफ आंदोलन चलाया था जिसका उद्देश्य इसके पर्यावरण की रक्षा करना था। इसी दिशा में आगे बढ़ते हुए उन्होंने 2003 में 76 लाख पेड़ लगाने का संकल्प लिया हालांकि यह लक्ष्य पूरा नहीं हो सका। 14 जून 1996 को उन्होंने शिव उद्योग सेना का गठन किया जिसका उद्देश्य मराठियों को स्वरोजगार दिलाना था। उनके साथ कई विवाद भी जुड़े रहे हैं। मसलन उन्होंने पार्टी की आर्थिक हालत को सुधारने के लिए 1996 में अंधेरी स्पोट्र्स कांप्लेक्स में माइकल जेक्सन का कंसर्ट कराया था जो काफी विवादास्पद रहा। इसी तरह किनी हत्याकांड में उनके और उनके समर्थकों पर भी आरोप लगे थे लेकिन बाद में वे उससे मुक्त हो गए। 21 जुलाई 2005 को उन्होंने शिवसेना के नेता व पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर जोशी के पुत्र उन्मेष के साथ मिलकर कोहिनूर मिल नं. 3 की 5 एकड़ भूमि का 421 करोड़ में सौदा किया जिसमें वे विवादों के दायरे में आए। बाल ठाकरे से राज का दोहरा रिश्ता है। वे बाल ठाकरे के छोटे भाई श्रीकांत ठाकरे के पुत्र हैं वहीं बाल ठाकरे की पत्नी से राज का मौसी का रिश्ता भी रहा है। अपने पिता की तरह ही वे भी कार्टूनिस्ट तथा पेंटर हैं। जब उनसे पूछा गया कि वे राजनीति में न होते तो क्या होते तो राज का उत्तर था कि वे पहले डिस्ने कार्टून नेटवर्क में काम करने के इच्छुक रहे हैं। भले ही उनका यह सपना पूरा नहीं हो सका हो लेकिन उन्होंने महाराष्टï्र की राजनीति में अपनी महत्वाकांक्षाओं के लिए भावनात्मक विभाजन की ऐसी रेखाएं खींच दी हैं जिससे वे संभवत: प्रदेश में अपना कद बढ़ाने में सफल हो जाएं लेकिन महाराष्ट्र एवं विशेषत: मुंबई की विशिष्ट पहचान जरूर खतरे में पड़ जाएगी।
-सर्वदमन पाठक

Tuesday, October 27, 2009

पुलिस हिरासत में मौत?

संवैधानिक प्रावधान के अनुसार तो पुलिस पर लोगों की जान माल की रक्षा की जिम्मेदारी होती है लेकिन वह बार बार इसके ठीक विपरीत आचरण करती नजर आती है। राज्य सरकार की नाक के नीचे राजधानी भोपाल में पुलिस हिरासत में मौत की खबर इसी हकीकत को रेखांकित करती है। इस त्रासद हादसे के चश्मदीद गवाहों के बयान पर गौर करें तो यही बात स्पष्टï रूप से उभर कर सामने आती है कि पुलिस ने दो बेगुनाह युवकों को लूट के इल्जाम में धर दबोचा और अपराध कबूल करवाने के लिए उनकी इस बेरहमी से पिटाई की कि बाद में एक युवक ने दम तोड़ दिया। अपनी परंपरा के अनुसार अब पुलिस यह कहानी गढऩे में जुटी है कि उसने तो पूछताछ के बाद ही उसे छोड़ दिया था और वह अपनी मौत मर गया। इसके लिए पुलिस उन तमाम हथकंडों का इस्तेमाल कर रही है जिसके लिए वह जानी जाती है। मसलन मृतक युवक के साथी पर दबाव बनाया जा रहा है कि वह पुलिस द्वारा गढ़ी जा रही कहानी की तस्दीक कर दे। अन्य चश्मदीदों पर भी दबाव की पुलिसिया रणनीति अपनाई जा रही है। एसपी ने खुद डीजी को पत्र लिखकर इसकी न्यायिक जांच कराने की सिफारिश की है लेकिन संभावना यही है कि इसकी प्रशासनिक जांच की घोषणा कर इस घटना से उठे जन आक्रोश को शांत कर दिया जाए और पुलिस की दोषमुक्ति का रास्ता भी साफ कर दिया जाए क्योंकि यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि प्रशासनिक जांच आम तौर पर पुलिस को बरी करने के सरकारी तौर तरीके के तौर पर ही जानी जाती रही है। पुलिस हिरासत में मौत का यह कोई पहला मामला नहीं है। दरअसल पुलिस हिरासत में मौत आए दिन अखबारों एवं प्रिंट मीडिया की सुर्खियों में रहती है और पुलिस उसके बाद कमोवेश ऐसी ही कहानी गढ़ती नजर आती है जैसी कि इस मामले में गढ़ी गई है। न्यायालय कई बार ऐसे निर्देश दे चुकी है कि पुलिस अपनी कार्यशैली में चारित्रिक बदलाव लाए ताकि उसका चेहरा मानवीय नजर आए और लोग भय खाने और उससे दूर भागने के बदले उसे सहयोग करें लेकिन पुलिस आज भी उतनी ही खूंखार नजर आती है जितनी कि वह पहले थी। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि पुलिस आज अपराधियों से गठजोड़ जैसी चारित्रिक गिरावट और खूंखार चेहरे के कारण अपराधों की रोकथाम वाली एजेंसी की अपनी पहचान खो बैठी है और आम तौर पर अपराधियों की तरह ही व्यवहार करती नजर आती है। एक बेगुनाह को शारीरिक यंत्रणा देकर मौत के घाट उतार देना ऐसे ही अपराध की श्रेणी में आता है। ऐसे अपराध को प्रश्रय देना या इसमें शामिल अपराधियों को बचाने के प्रयास करना भी उससे कम बड़ा अपराध नहीं है। अत: इसकी निष्पक्ष जांच होनी चाहिए और दोषी पुलिसकर्मियों को उनके किये की सजा अवश्य मिलनी चाहिए । उन्हें जांच के जरिये बचाने का कोई भी प्रशासनिक अथवा सरकारी प्रयास नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन पुलिस के चेहरे पर लगी अमानवीयता की कालिख तो तभी दूर होगी जब पुलिस के आचरण में आवश्यक सुधार किया जाए और उन्हें मानवीयता के सांचे में ढाला जाए। देश की शीर्ष अदालत ने कभी कहा था कि पुलिस बल अपराधियों का संगठित गिरोह बन गया है। देखना यही है कि पुलिस अपने इस बदनुमां धब्बे को धोने और अपनी कर्तव्यपरायण छवि बहाल करने के लिए कोई संकल्पशीलता का परिचय देती है या सब कुछ यों ही चलता रहता है।
-सर्वदमन पाठक

Friday, October 23, 2009

कही- अनकही

महाराष्टï्र में अच्छी सरकार देने में कांग्रेस-राकांपा गठबंधन जितना असफल रहा है, प्रभावी विपक्ष की भूमिका निभाने में भाजपा शिवसेना गठबंधन उससे कहीं ज्यादा असफल रहा है। अब मेरी पार्टी मनसे बताएगी कि अच्छा विपक्ष क्या होता है और विधानसभा में सरकार के गलत कार्यों का कड़ा प्रतिरोध कैसे किया जाता है।
राज ठाकरेअध्यक्ष, महाराष्टï्र नवनिर्माण सेना
क्या कहना चाहते हैं राज ठाकरे?
शिवसेना-भाजपा गठबंधन की पराजय विपक्ष की प्रभावी भूमिका निभाने में उसकी असफलता के कारण ही हुई है और सरकार विरोधी वोटों के बंटवारे के जरिये कांग्रेस राकांपा को पुन: सत्ता में आने में मदद करने का मनसे पर लगाया जा रहा आरोप पूरी तरह निराधार है। दरअसल शिवसेना- भाजपा गठबंधन के प्रति जनता का अविश्वास उसकी हार का सबसे बड़ा कारण है।
क्या सोचते हैं लोग?
मराठी मानुष के हितों की रक्षा के लिए ही शिवसेना का गठन किया गया था और इस प्रक्रिया में बाल ठाकरे महाराष्टï्र में मराठी मानुष के सबसे बड़े हित-रक्षक बनकर उभरे थे लेकिन पिछले कुछ वर्षों में उनके इस तेवर में थोड़ी शिथिलता आ गई है। बाल ठाकरे के उत्तराधिकारी की लड़ाई में शिवसेना की कमान उद्धव ठाकरे को सौंपे जाने के बाद राज ठाकरे ने नई पार्टी मनसे का गठन कर इसे कट्टर मराठी समर्थक चेहरा देने की भरसक कोशिश की है। स्वाभाविक रूप से इसी कारण शिवसेना के मराठी वोट बैंक का विभाजन हो गया और सत्तारूढ़ गठबंधन को इससे जीत में मदद मिली लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि जबर्दस्त एंटी इंकम्बेन्सी के बावजूद भाजपा शिवसेना प्रदेश के वोटरों को अपनी ओर आकर्षित करने में बुरी तरह असफल रही है और अपनी इस नाकामी के लिए विपक्ष के रूप में उसकी प्रभावक्षीणता भी कम जिम्मेदार नहीं है। अच्छा यही होगा कि विपक्ष अब आत्मचिंतन करे कि आखिर वह सरकार की तमाम नाकामियों के बावजूद लगातार तीन विधानसभा चुनाव कैसे हार गई। वक्त के तकाजे के अनुरूप रणनीति में बदलाव ही उसकी दुर्गति को दूर कर सकता है, क्षुद्र दोषारोपण नहीं।

Thursday, October 22, 2009

हादसे से सबक लें

भोपाल का प्रतिष्ठित नानके पेट्रोल पंप गत दिवस आग की लपटों में जलकर स्वाहा हो गया। यह घटना इतने आकस्मिक रूप से घटी कि देखते ही देखते यह पेट्रोल पंप राख के ढेर में तब्दील हो गया और कोई भी युक्ति इस अनहोनी को टाल नहीं सकी। यह आग इतनी भयावह थी कि इसमें पेट्रोल टैंक के साथ ही लगभग आधा दर्जन वाहन भी जल गए और आधा दर्जन फायर ब्रिगेड पौन घंटे तक जूझने के बाद ही इस आग पर काबू पा सके। गनीमत यह रही कि इस आग से पेट्रोल पंप के आसपास के आवासों तथा उनमें रहने वाले लोगों को कोई क्षति नहीं पहुंची। लेकिन इस दुर्घटना ने यह सवाल उछाल दिया है कि क्या इस पेट्रोल पंप पर सुरक्षा के पर्याप्त सुरक्षा प्रबंध थे और क्या भोपाल में पेट्रोल पंपों के लिए पर्याप्त सुरक्षा मानक पूरे किये गये हैं।जहां तक नानके पेट्रोल पंप में हुई अग्रि दुर्घटना का सवाल है, यह तो व्यापक जांच के बाद ही पता चल पाएगा लेकिन फिर भी शुरुआती जानकारी के अनुसार इसमें भी सुरक्षा के समुुचित प्रबंध नहीं थे। यह पंप अपनी गुणवत्ता के लिए कभी काफी प्रतिष्ठित रहा है लेकिन इस पंप में सुरक्षा के सिलसिले में खामियां थीं। पंप में जिस तरह से अर्थिंग की व्यवस्था होनी थी, वह नहीं की गई थी। व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो भोपाल में कमोवेश सभी पेट्रोल पंप असुरक्षित हैं क्योंकि इनकी सुरक्षा के मापदंड पूरे करने के नाम पर सिर्फ कागजी खानापूरी की गई। मसलन पेट्रोल पंप बस्ती से थोड़ा दूर रहना चाहिए लेकिन भोपाल में जितने भी पेट्रोल पंप हैं उनमें से संभवत: इक्का दुक्का पेट्रोल पंपों में इस मापदंड का पालन किया गया है। इसी तरह पेट्रोल पंप पर किसी भी अग्रि दुर्घटना से निपटने के लिए वहां नौ किलोग्राम क्षमता के फोम वाले कम से कम 10 अग्रि शमन यंत्र मौजूद रहना चाहिए और इसके अलावा 50 लीटर फोम से भरी ट्राली की मौजूदगी भी सुरक्षा शर्तों में शामिल है लेकिन कभी भी इसकी छानबीन की जरूरत महसूस नहीं की जाती कि पेट्रोल पंपों के मालिक इन शर्तों का पालन कर रहे हैं या नहीं। जब प्रशासन ही इस बात की परवाह नहीं करता कि पेट्रोल पंपों में सुरक्षा शर्तों का पालन हो तो फिर पेट्रोल पंप संचालक भी इसमें स्वाभाविक रूप से ढील दे देते हैं हालांकि यह ढील उनके लिए कभी भी नुकसानदेह हो सकती है।नानके पेट्रोल पंप पर हुए हादसे को इस मामले में एक सबक के तौर पर लिया जाना चाहिए और प्रशासनिक अधिकारियों एवं पेट्रोल कंपनियों के अफसरों को विभिन्न पेट्रोल पंपों पर गहन छानबीन कर यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनमें किसी भी हादसे से निपटने के लिए पर्याप्त सुरक्षा प्रबंध हों और जो पंप संचालक इन सुरक्षा मापदंडों का पालन न करें उनका पेट्रोल पंप का लायसेंस रद्द करने की कार्रवाई की जाए क्योंकि उनकी लापरवाही कभी भी नागरिकों के जान माल के लिए खतरा बन सकती है।
-सर्वदमन पाठक

आतंक पर अंकुश वक्त का तकाजा

यह कोई रहस्य नहीं है कि प्रदेश का मालवा अंचल काफी समय से अपराधियों की शरणस्थली में तब्दील हो गया है। इतना ही नहीं, आतंकवाद के तार भी इस क्षेत्र से जुड़े पाए गए हैं। एटीएस एवं सीबीआई द्वारा विभिन्न आतंकवादी वारदातों के सिलसिले में यहां मारे जा रहे छापे इसका जीता जागता प्रमाण हैं। इन छापों का संबंध मडगांव बम विस्फोट से है जिसमें कथित रूप से सनातन संस्था का हाथ बताया जाता है। इसके पहले भी यहां ऐसे अन्य विस्फोटों के सिलसिले में यहां जांच पड़ताल एवं धरपकड़ की जा चुकी है जिसका वास्ता कुछ हिंदू संस्थाओं से है। इसमें चिंतनीय तथ्य यह है कि राज्य की सत्तारूढ़ पार्टी से जुड़े लोगों से इस मामले में पूछताछ हुई है। मसलन गत दिवस जिन लोगों को पूछताछ के दायरे में लिया गया है, उनमें मध्यप्रदेश के एक मंत्री का करीबी राजनीतिक कार्यकर्ता भी शामिल बताया जाता है। वैसे इस क्षेत्र में हो रही आतंकवाद विरोधी कार्रवाइयों को सिर्फ सांप्रदायिक चश्मे से देखना उचित नहीं है। पूर्व में इस क्षेत्र में सिमी से जुड़े कार्यकर्ताओं को भी पकड़ा गया था जिनमें सिमी के कई शीर्ष पदाधिकारी शामिल थे। इसके भी पहले मुंबई बम कांड के सुराग इस क्षेत्र से जुड़े पाए गए थे। दरअसल यह क्षेत्र पिछले कुछ सालों में सांप्रदायिक घृणा एवं विद्वेष की राजनीति का शिकार हो गया है और क्षेत्रीय परिदृश्य इसे ही अभिव्यक्त करता है। लेकिन इसके लिए सिर्फ राजनीति ही नहीं बल्कि प्रशासन भी कम जिम्मेदार नहीं है। पिछले लगभग पौने दो दशक से यदि मालवा अंचल सांप्रदायिक विद्वेष की भट्टïी में जलता रहा है तो उसका एक बड़ा कारण यह भी है कि प्रशासन राजनीतिक आकाओं अथवा माफिया सरगनाओं के सामने शरणागत होकर अपने वास्तविक कर्तव्य को ही तिलांजलि दे बैठा और इसी वजह से उसने समाज के इन अपराधियों पर शिकंजा कसने में कोई खास रुचि नहीं दिखाई। जब भी उन सामाजिक अपराधियों पर कार्रवाई हुई तो उसके पीछे भी प्रशासनिक अफसरों की कर्तव्य परायणता नहीं, बल्कि राजनीतिक इच्छाशक्ति ही ही काम कर रही थी, भले ही इसमें वैचारिक पूर्वाग्रह का भी हाथ हो। यह सच है कि इन दिनों देश में जो आतंकवादी वारदातेें हो रही हैं, उनके पीछे पड़ौसी देश द्वारा निर्यातित आतंकवाद जिम्मेदार है और इन आतंकवादी वारदातों के कारण ही देश में सांप्रदायिक भावनाएं भड़क रही है लेकिन आतंकवाद को किसी धर्म अथवा संप्रदाय विशेष से जोड़कर नहीं देखा जा सकता। आतंकवादी सिर्फ आतंकवादी होते हैं, वे हिंदू, मुसलमान, सिख या ईसाई नहीं होते अत: सरकार को भी उससे इसी नजरिये से निपटना चाहिए। जहां तक मध्यप्रदेश की बात है, इसे इसकी फितरत के कारण शांति का टापू भी कहा जाता है। सांप्रदायिक विद्वेष एवं उसके फलस्वरूप होने वाली हिंसा से इसकी यह पहचान तो खतरे में पड़ती ही है, इसके विकास पर भी काफी बुरा असर पड़ता है अत: इस वातावरण में बदलाव वक्त का तकाजा है और इसके लिए राज्य सरकार एवं प्रशासन को ठोस कदम उठाना चाहिए ताकि प्रदेश एवं विशेष तौर पर मालवा अंचल के लिए सुकून से रह सकें एवं प्रदेश के विकास में अपनी अहम हिस्सेदारी कर सकें।
-सर्वदमन पाठक

Tuesday, October 20, 2009

नक्सलवाद पर अंकुश जरूरी
आंध्र प्रदेश, पश्चिमी बंगाल, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ तथा महाराष्ट्र में कहर बरपा कर देने वाले लाल आतंक नक्सलवाद ने अब मध्यप्रदेश में भी अपनी दस्तक दे दी है। बालाघाट जिले में 50 नक्सलवादियों के दाखिल होने की खबर इसका स्पष्टï संकेत है। यह खबर कोई कागजी अनुमान पर नहीं बल्कि पुलिस को मिले निश्चित सुराग पर आधारित है। इससे यह शक पुख्ता होता जा रहा है कि मध्यप्रदेश जो काफी पहले से नक्सलवादियों के रोडमेप में था, अब उनके ठिकानों में तब्दील होने जा रहा है। स्वाभाविक रूप से ये नक्सलवादी छत्तीसगढ़ तथा पड़ौसी राज्यों में सख्ती बरते जाने के बाद बालाघाट में घुसपैठ कर चुके हैं। वैसे मध्यप्रदेश में नक्सलवादियों की हलचल पहली बार नहीं हुई है। छत्तीसगढ़ तथा महाराष्टï्र के नक्सल प्रभावित इलाके से सटा होने के कारण बालाघाट में जब तब नक्सलवादियों की हलचलों की जानकारी मिलती रही है। कुछ माह पूर्व ही ऐसे समाचार मिले थे कि नक्सलवादी इन क्षेत्रों के बैठकें लेकर उन्हें अपने रंग में रंगने की कोशिश कर रहे हैं। जिले के सीमावर्ती क्षेत्रों में नक्सलवादियों द्वारा आगजनी तथा हिंसा की छुटपुट खबरें तो कई बार सुनी गई हैं लेकिन इन पर प्रशासन ने उतनी तवज्जो नहीं दी जितनी कि अपेक्षित थी। दरअसल प्रदेश में कांग्रेस सरकार के शासनकाल में उनके आतंक को शासन-प्रशासन काफी हद तक नजरंदाज करता रहा। उनके खिलाफ जो भी कार्रवाई उस समय की गई, वह महज औपचारिकता ही थी। इसका परिणाम यह हुआ कि उनके हौसले बुलंद होते गये और इसकी परिणति राज्य के मंत्री लिखीराम कांवरे की हत्या जैसी भयावह वारदात में हुई। इसके बाद सरकार को अपनी गलती का अहसास हुआ और उसने नक्सलवाद के खिलाफ सख्त रुख अख्तियार किया। यह कहना गलत नहीं होगा कि सरकार तमाम कोशिशों के बावजूद नक्सलवाद को पूरी तरह काबू करने में असफल रही है और उसका सबसे बड़ा कारण यही है कि आम तौर पर वे ग्रामीणों तथा आदिवासियों के शोषण के खिलाफ संघर्ष की बात करके उन्हें भरोसे में ले लेते हैं और ये उनकी ढाल बन जाते हैं। संभव है कि पहले कभी नक्सलवाद सरकारी अफसरों एवं जमींदारों के शोषण के खात्मे के लक्ष्य को हासिल करने के लिए सशस्त्र संघर्ष का जरिया रहा हो, हालांकि यह भी लोकतांत्रिक सिद्धांतों के खिलाफ है, लेकिन अब तो इसमें अपराधी तत्वों का समावेश हो गया है और यह आतंक फैलाकर जबरिया वसूली करने के साथ ही तमाम तरह के अपराधियों के शरणस्थल के रूप में तब्दील हो गया है। भोपाल में कुछ साल पहले जिन नक्सलवादियों की धरपकड़ की गई थी, उनके पास से बरामद दस्तावेज से बंदूक बनाने की फेक्टरी के सबूत मिले थे। मध्यप्रदेश में अभी हाल ही में शहडोल में कुछ नक्सलवादियों को गिरफ्तार किया गया था और उन्होंने प्रदेश में नक्सलवादी गतिविधियों के बारे में कुछ सुराग भी दिये थे। हो सकता है कि नक्सलवादियों की बालाघाट में घुसपैठ प्रदेश में नक्सलवाद के विस्तार की उनकी रणनीति का ही एक हिस्सा हो। इस संभावना के मद्देनजर राज्य सरकार द्वारा एक सुविचारित रणनीति के तहत नक्सलवाद पर अंकुश लगाने की मुहिम छेड़ी जाए। नक्सलवाद पर शिकंजा कसने केेेेेे लिए राज्यों के साथ मिलकर केंद्र द्वारा छेड़ी जाने वाली संयुक्त कार्रवाई में मध्यप्रदेश भी हिस्सेदारी के लिए पहल करे तो इस दिशा में एक सार्थक कदम होगा।
-सर्वदमन पाठक

Monday, October 19, 2009

कब्रबिज्जू नहीं, कद्रदान बनिये

भारत ऐसा देश है जहां जिंदा लोगों से ज्यादा मुर्दों की चर्चा होती है, उन्हें लेकर वैचारिक टकराव होता है, राजनीतिक रस्साकशी होती है, किसी इतिहास पुरूष की मूर्ति तोड़ी जाती है तो किसी धर्म ग्रंथ का पन्ना नोंचा जाता है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बावजूद कृतियों पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है । मूलत: इतिहास जीवी होने के कारण हम वर्तमान की चुनौतियों को सीधे स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं । इसके विपरीत दुनिया के अधिकांश देशों ने अतीत के तमाम बोझ को उतार फेंका है । उनके लिये वर्तमान ही सर्वस्व है । यही वजह है कि पश्चिम का कोई विचारक विचारधाराओं के अंत की घोषणा करता है तो दूसरा इतिहास के अंत की उद्भावना उछालता है । इतिहास का रथ ऐसे दावे-प्रतिदावों को रौंदता हुआ आगे बढ़ता रहा है । इतिहास एक निहायत ही उलझी हुई गुत्थी है, अनगिनत टुकड़ों में बंटी पहेली है, अपने-अपने चश्मे से काल खंडों को देखने, नायकों व खलनायकों को आंकने की प्रक्रिया है, समय के साये के पीछे भागने की मृगतृष्णा है जो विचारधारा के साथ बंधने पर कुदृष्टि की शक्ल अख्तियार कर वितंडावाद को बढ़ावा देती है । कुछ लोग तो महज चकल्लस के खातिर भी समय-असमय इतिहास एवं पुराणों से जुड़ा कोई भी मुद्दा गरमा देते हैं । इतिहास के साथ यह विसंगति प्रारंभ से है कि वह अपनेे समय के राजा-महाराजाओं व बादशाहों और सम्राटों के हाथों की कठपुतली रहा है । अत: उसे सच्ची-झूठी गाथाओं का पुलिंदा कहा जाता है । जिसका राज होता है, इतिहास उसके पीछे चलता है । जब केन्द्र में भाजपा सत्ता में थी तब इतिहासकारों का एक ऐसा जत्था उठ खड़ा हुआ जिसने पांच हजार साल के विराट भारतीय इतिहास के अनेक चरणों को सांस्कृतिक श्रेष्ठता का स्वर्णकाल घोषित कर हिन्दू दृष्टि व परंपरा का खुलकर प्रशस्ति किया । दूसरी ओर वामपंथी और उनके धर्म निरपेक्षतावादी हमसफर हिंदू दृष्टि को संकीर्ण, दकियानूस, कालातीत बताते हुये उसके अंतर्विरोधों पर लंबे समय से प्रहार करते रहे हैं । इतिहास लेखन में ये दोनों धाराएं आपस में टकराती रही हैं । इसके नतीजतन स्कूलों के पाठ्यक्रमों को बार-बार बदला गया है । इतिहास के बारे में यह कथन काफी मशहूर है कि जिस तरह युद्ध का मामला पूरी तरह सेनापतियों के हवाले नहीं किया जा सकता उसी प्रकार इतिहास लेखन पर भी पेशेवर इतिहासज्ञों का एकाधिकार स्वीकार नहीं किया जा सकता । इसलिये अकादमिक इतिहासकारों के साथ ही गैर अकादमिक मगर अध्ययनशील लोग भी इतिहास के यक्ष प्रश्नों से जूझते हैं तथा कभी-कभी ऐसी कालजयी कृतियां समाज को सौंप देते हैं जिनसे हमारी समझ के क्षितिज विस्तृत हो जाते हैं । स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी जन नायक और आधुनिक भारत के निर्माता पं. जवाहरलाल नेहरू की पुस्तक 'डिस्कवरी ऑफ इंडियाÓ इसी श्रेणी में आती है । उन्होंने जेल में रहते हुये यह ग्रंथ लिखा था । इसी तरह लोकमान्य इतिहास की आर्यों के मूल स्थान संबंधी मान्यताएं और 'गीता रहस्यÓ जैसी अनमोल कृति भी कारावास की अनूठी देन हैं । नेहरू तो उस विरली श्रेणी में आते हैं, जिन्होंने इतिहास केवल लिखा ही नहीं, बल्कि इतिहास रचा भी । अपनी बौद्धिक ऊंचाई, गहरी भाव भूमि व मोहक भंगिमाओं के बल पर न सिर्फ गांधीजी के सबसे चहेते हो गये बल्कि भारतीय जनता के भी सबसे लाड़ले नेता साबित हुये । जब स्वाधीन भारत में सत्ता के नेतृत्व का सवाल उठा तो बगैर किसी विरोध के उन्हें देश की बागडोर सौंप दी गयी । हालांकि इस स्थापना को लेकर देश में आम सहमति है कि अगर सरदार पटेल प्रधानमंत्री की कुर्सी पर होते तो भारत कहीं अधिक सशक्त राष्टï्र के रूप में उभरता । सरदार ज्यादा समय तक जीवित नहीं रहे । उनके परिदृश्य से हटते ही नेहरू का सरकार और पार्टी पर एकाधिकार कायम हो गया । साथ ही चल पड़ा व्यक्ति पूजा का सिलसिला, जो सीधे लोकतंत्र की आत्मा पर आघात पहुंचाता है तथा जिसकी चपेट में कई छोटे और बड़े दल आ गये हैं । इन तमाम बिन्दुओं पर काफी कुछ लिखा जा चुका है, किन्तु जिसे लेकर सबसे ज्यादा दहकते द्वंद्व हुये हैं वह है - भारत विभाजन में गांधी, जिन्ना, पं. नेहरू और पटेल की भूमिका । यह सही है कि जिन्ना ने अपने सार्वजनिक जीवन की शुरूआत धर्मनिरपेक्षता के साथ की थी । जब यह पाया कि कांग्रेस में नेतृत्व के शीर्ष स्तर पर पहुंचना मुमकिन नहीं है तो घोर मौका परस्त बनकर मुस्लिम लीग का दामन थाम लिया, उसके नेतृत्व को पीछे खिसकाकर सर्वेसर्वा हो गये । पाकिस्तान का नारा उछालकर मुस्लिम समाज में सांप्रदायिक अलगाव की जबरदस्त ज्वाला धधका दी । अंग्रेजों के लिये भारत को खंडित करने का इससे बेहतर मौका और क्या हो सकता था ? उनकी तरफ से कुछ ऐसी कूटनीतिक चालें चली गयीं कि लपटें और तेज हो गयीं । कांग्रेसी नेताओं ने विभाजन को टालने की हर संभव कोशिश की । गांधीजी ने यहां तक कहा दिया कि जिन्ना एकीकृत भारत के प्रधान मंत्री बन जाएं मगर उसे बांटे नहीं । सरदार पटेल ने गांधीजी पर दबाव डाला कि ऐसी आत्मघाती बातें नहीं करें । उधर नेहरू पर यह आरोप लगता रहा है कि वे लार्ड माउंटबेटन के इतने प्रभाव में थे कि बंटवारे के सुझाव पर तत्परतापूर्वक अपनी मुहर लगा दी । इन सब मुद्दों को लेकर बहसें होती रही हैं इसमें एक अजीबोगरीब आयाम कोई दो वर्ष पूर्व उस समय जुड़ गया जब भाजपा के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवानी ने जिन्ना की प्रशंसा करते हुये उसे खुल्लमखुल्ला धर्मनिरपेक्षतावादी कह दिया । इसे लेकर राजनीतिक भूचाल आ गया । नाराज संघ के निर्देश पर भाजपा का अध्यक्ष पद छोडऩा पड़ा । इसे दुस्साहस कहा जाए या अकादमिक उन्मेष कि हाल में भाजपा के वरिष्ठ नेता व पूर्व विदेश मंत्री जसवंतसिंह ने भारत विभाजन को लेकर एक भरा-पूरा ग्रंथ प्रकाशित कर दिया । उसमें उसी जिन्ना राग को गूंथ दिया जिसके कारण आडवानी को दंडित होना पड़ा था । इस बार पार्टी और संघ दोनों के तेवर और अधिक कड़े हो गये और बिना ''अपील, दलील और वकीलÓÓ के जसवंतसिंह को पार्टी से बाहर कर दिया गया । अभिव्यक्ति के स्वतंत्रता के पक्षधरों ने जसवंत का जरूर साथ दिया । उनका कहना था कि अकादमिक मामले अकादमिक स्तर पर ही निबटाये जाने चाहिये, तर्क का जवाब तर्क से दिया जाना चाहिये । राजनीति को इससे अलग-थलग रखा जाना चाहिये । मगर भाजपा उन्हें क्षमा करने को तैयार नहीं हुई । इस सारे प्रकरण में फिर भी यह सवाल तो उठता ही है कि जो दोहरी भूमिका को अंजाम देते हैं, राजनीति में सक्रिय रहते हैं और लेखन में भी प्रवृत्त रहना चाहते हैं, उन्हें क्या ऐसे विवादों में पडऩा चाहिये जो तरह-तरह के तनावों में जी रहे देश की चेतना को एक और विवाद में झोंक दे । इस मामले में मौलाना आजाद से सबक सीखा जाना चाहिये जिन्होंने अपने सीने में दबाये अप्रिय प्रसंगों को अपनी मौत के तीस साल बाद उजागर करने की हिदायत दी थी । भारत विभाजन को लेकर चाहे गांधी को गुनहगार घोषित किया जाए या नेहरू और पटेल को कोसें, असल जिम्मेवार तो जिन्ना ही थे, इसपर दो राय कैसे हो सकती हैं? जिन्ना ने नफरत का एक ऐसा तूफान खड़ा कर दिया कि उसकी शर्तों को मानने के अलावा कोई चारा ही नहीं था । इसलिये भारत विभाजन का दोषी कौन, यह बहस बेमतलब है । सच तो यह है कि हम अपने इतिहास पुरूषों व जन नायकों के कद्रदान न होकर कब्रबिज्जू हो गये हैं । जिस तरह कब्रबिज्जू कब्रस्तान में दफनायी गयीं लाशों को कुतरने की फिराक में लगा रहता है, वैसे ही हम भी अपने इतिहास पुरूषों की छवियों पर खरौंचें पैदा करते रहते हैं, उनकी कमियों के तिल को ताड़ बनाने का प्रयास करते हैं । गांधी जैसे युग पुरूष पर कीचड़ उछालने से बड़ी क्या कोई और बेतुकी बात हो सकती है? उनकी महानता उतनी ही निर्विवाद है जितनी सागर की गहराई व हिमालय की ऊंचाई । हमारी आज की राजनीति और इतिहास के छुद्र लेखक कभी गांधी को आंबेडकर से लड़ाते हैं, कभी नेहरू की पटेल से कुश्ती कराते हैं, कभी जिन्ना के जिन्न के पीछे पड़ जाते हैं । जितना ये नेता अपने जीवन काल में नहीं लड़े उससे ज्यादा उन्हें अब 'लड़ायाÓ जा रहा है । इतिहास में जब तक सनसनीखेज मसाला ढूंढने, सुर्खियां बटोरने की दुष्प्रपृत्ति रहेगी तब तक मरने के बाद भी हम अपने महापुरूषों को, चैन से सोने नहीं देंगे । किसी ने सही कहा है - ''जिनके नाम इतिहास में दर्ज नहीं हैं, वे सचमुच सौभाग्यशाली हैं। मदनमोहन जोशी वरिष्ठ पत्रकार

रोशनी पर सभी का बराबर हक

दीपावली बेशक एक ऐसा पर्व है जिसके पीछे कुछ परंपराएं एवं कथाएं जुड़़ी हैं लेकिन सच तो यह है कि मन के आंगन में खुशियों के दीप जलानेेे का ही नाम दीपावली है। इसके लिए यह कतई जरूरी नहीं है कि आप किसी धर्म विशेष के अनुयायी हों या फिर एक खास विधि से इसे मनाएं। यह लक्ष्मी पूजन का पर्व है और यह प्रतीकात्मक रूप से समृद्धि की कामना को दर्शाता है। यह कहा जाता है कि लक्ष्मी जी देवों एवं दानवों के बीच किये गये समुद्र मंथन में निकली थीं और देवों को उनकी कृपा हासिल हुई थी। हम भी अपनी समृद्धि के मामले में समुद्र मंथन की प्रक्रिया से लगातार गुजरते रहते हैं और हमारी समृद्धि का उद्देश्य जितना पावन होता है, हम पर लक्ष्मी की कृपा उतनी ही ज्यादा होती है। प्रकारांतर से यह त्यौहार लक्ष्मी की उपासना का पर्व तो है ही, हमारे आंगन द्वारे, हमारे आवास के साथ ही हमारे तन मन को उजाले से जगमग करने का भी अवसर है। व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो लक्ष्मी पूजन की परंपरा वाला यह देश अमेरिका जैसी विश्व की सबसे बड़ी ताकत का दीवाला निकाल देने वाली विश्वव्यापी मंदी के बावजूद आर्थिक रूप से कोई खास प्रभावित नहीं हुआ। वह अपनी बचत की आदत के कारण दीवाली का जश्र उतने ही उत्साह और निष्ठïा से मना रहा है जैसा कि पारंपरिक रूप से मनाता आया है। यह जश्र हमारे आंतरिक उल्लास का परिचायक है जो किसी भी हालत में बरकरार रहता है। इन दिनों हमारे आटोमोबाइल तथा इलेक्ट्रानिक उद्योगों सहित संपूर्ण औद्योगिक क्षेत्र में आया उछाल का माहौल इसकी कहानी खुद ही बयान करता है। हमारे बाजारों में उपभोक्ताओं की भीड़ उमड़ रही है तो हमारे उद्योगपति भी इस चुनौती का सामना करने के लिए कमर कस चुके हैं। यह औद्योगिक उफान इसी तथ्य को रेखांकित करता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था औद्योगिक देशों के आर्थिक हड़कंप से कमोवेश मुक्त रहकर अपनी मुश्किलों का निदान खोजने में सफल रही है। वैसे इस हकीकत से इंकार नहीं किया जा सकता कि यह स्थिति हाल में उभरे नव धनाढ्य वर्ग के कारण बनी है। लेकिन एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है जो आर्थिक रूप से अपेक्षाकृत विपन्न हुआ है। यह असंतुलन सरकार की नीतियों के कारण धीरे धीरे खतरनाक रूप धारण करता जा रहा है। इस असंतुलन के दूर करने के लिए समुचित प्रयास किया जाना वक्त का तकाजा है। सभी को खुशियों की सौगात मिले, दीपावली पर यह संकल्प लिया जाना जरूरी है। हमारे पड़ौस या हमारी बस्ती के कुछ घरों में दिया तक न जले और कुछ प्रासाद एवं गगनचुंबी अट्टïालिकाएं रोशनी से नहाते रहें, यह हमारी मानवता को भी चुनौती है। हम यदि समृद्धि के सातवें आसमान में सैर कर रहे हैं तो यह हमारा सौभाग्य और कर्म का मिला जुला लेखा जोखा हो सकता है लेकिन हमें दूसरों के जीवन में पसरे अंधेरे को भी दूर करने का प्रयास करना चाहिए, इतना ही नहीं, हम अपने मन में घर किये कलुष एवं वैमनस्य के अंधेरेे को भी निकाल बाहर करें, तभी हमारा दीपावली मनाना सार्थक हो सकेगा।
-सर्वदमन पाठक