Thursday, December 31, 2009
उठें और गर्मजोशी से गले लगाएं नए साल के सूरज को
-सर्वदमन पाठक
Sunday, December 27, 2009
कांग्रेस: अतीत के गौरव को संजोकर रखने की चुनौती
-सर्वदमन पाठक
Tuesday, December 22, 2009
कही- अनकही
न्याय के अंजाम तक पहुंचे वसुंधरा प्रकरण
-सर्वदमन पाठक
Thursday, December 17, 2009
जीत के जश्र के साथ हार पर आत्मचिंतन भी जरूरी
-सर्वदमन पाठक
Wednesday, December 16, 2009
कमला बुआ की जीत के निहितार्थ
-सर्वदमन पाठक
Tuesday, December 15, 2009
अथ पुलिस पिटाई कथा
-सर्वदमन पाठक
Thursday, December 10, 2009
चुनाव यज्ञ में सार्थक हिस्सेदारी करें
-सर्वदमन पाठक
Tuesday, December 8, 2009
चुनावी विकृतियों पर अंकुश जरूरी
-सर्वदमन पाठक
Friday, December 4, 2009
सियासत की गोटियां नहीं हैं गैस पीडित
सन 1984 को 2 एवं 3 दिसंबर की मध्यरात्रि भोपाल के लिये पीड़ा का सैलाब लेकर आई। इस रात को यूनियन कार्बाइड के संयंत्र से रिसी मिक गैस ने राजधानी में ऐसा वायु प्रलय मचाया कि यह झीलों का शहर आहों और आंसुओं की नदी में तब्दील हो गया। उस जानलेवा रात शहर में मौत नाच नाच कर मातम की मुनादी कर रही थी और शहर के तमाम लोग बदहवास से जान बचाने के लिए चारों तरफ भाग रहे थे। इस काली रात की सुबह हुई तो तमाम दुनिया यह जान चुकी थी कि बहुराष्टï्रीय कंपनी यूनियन कार्बाइड ने भोपाल की तकदीर में औद्योगिक त्रासदी के रूप में ऐसी भयावह इबारत लिख दी है कि जिसकी मिसाल दुनिया में नहीं मिलती। शहर के श्मसान एवं कब्रिस्तान भी मौत के आगोश में समाये बदकिस्मत लोगों के अंतिम संस्कार के लिए छोटे पड़ गए और मौत द्वारा फैलाए गए इस जाल से किसी तरह बच निकले लाखों लोगों में से बहुत से लोग आज भी ऐसी जिंदगी जीने को मजबूर हैं जो मौत से भी बदतर है। गैस त्रासदी की बरसी आते ही इन गैस पीडि़तों के घाव पर मरहम लगाने के नाम पर उन्हें मुआवजे, पुनर्वास तथा मुफ्त चिकित्सा उपलब्ध कराने जैसे कदमों की जानकारी वाले ब्रोशर जारी कर राज्य सरकारें अपनी पीठ थपथपाने की कोशिश कर लेती हैं लेकिन यक्ष प्रश्र यह है कि क्या इन गैस पीडि़तों को उनका हक मिल पाया है। इन गैस पीडि़तों को मुआवजा इस अंदाज में बांटा गया है मानो उनके आत्म सम्मान की बोली लगाई जा रही हो। आज भी अस्पतालों की अव्यवस्था इतनी भयावह है कि ये अस्पताल कई बार तो गैस पीडि़तों के यातनागृह नजर आते हैं। गैस प्रभावित बस्तियों में श्वास तथा अन्य कई गंभीर बीमारियों के कारण रेंगती जिंदगियां हर कदम पर देखी जा सकती हैं। अभी कल ही जारी हुई ईएसई की रिपोर्ट के अनुसार यूका कचरे के कारण इन बस्तियों का भूजल भी इतना जहरीला हो गया है कि आने वाली पीढिय़ों पर भी धीमी मौत का खतरा मंडराने लगा है। हम हर साल गैस कांड की बरसी पर मशाल जुलूस निकालकर और जंगी प्रदर्शन करके -डाउन विथ एंडरसन- तथा -मौत के सौदागरों को फांसी दो- जैसे नारे लगाते हैं लेकिन इस मुकदमे का यह आलम है कि गैस कांड के आरोपी मौत के सौदागर आज भी बेखौफ घूम रहे हैं। लोगों की धारणा है कि बहुराष्टï्रीय कंपनियों एवं सत्ता के बीच मिलीभगत भी इस विलंब के लिए जिम्मेदार है। इस मामले में कोई भी सरकार दूध की धुली नहीं रही है। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि विभिन्न राजनीतिक दल गैस पीडि़तों के नाम पर अपनी वोट बैंक की राजनीति साधने की कोशिश में जुटे हुए हैं। गैस पीडि़तों के ध्वजवाहक होने का दावा करने वाले कुछ संगठन भी जाने-अनजाने इसमें मददगार हो रहे हैं जो गैस पीडि़तों के साथ छल के अलावा कुछ नहीं है। इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि गैस पीडि़तों के हक की लड़ाई कमजोर पड़ रही है। उम्मीद की जानी चाहिए कि गैस कांड की पच्चीसवीं बरसी पर तो कम से कम सरकार, गैसपीडि़तों के संगठन, राजनीतिक दलों सहित वे तमाम पक्ष, जो खुद को गैसपीडि़तों का मसीहा बताते नहीं थकते, आत्म विश्लेषण एवं आत्मालोचन करेंगे और ईमानदारी से संकल्प करेंगे कि वे तब तक चैन की सांस नहीं लेंगे जब तक कि गैसपीडि़तों को पूरी तरह न्याय नहीं मिल जाता।
-सर्वदमन पाठक
Tuesday, December 1, 2009
आतंकवाद का पैैैशाचिक चेहरा
-सर्वदमन पाठक
Friday, November 20, 2009
राजनीतिक शतरंज का मोहरा नहीं है किसान
-सर्वदमन पाठक
Tuesday, November 17, 2009
सेहत के सुहाने सपने और कड़वा सच
-सर्वदमन पाठक
पुलिस की भूमिका पर उठे सवाल
-सर्वदमन पाठक
Saturday, November 14, 2009
वंदे मातरम पर विवाद राष्टï्रविरोधी
राष्टï्र-विभाजन तथा अलग मुस्लिम राष्ट्र की स्थापना के बावजूद भारत ने पंथनिरपेक्ष की नीति को ही अपना सैद्धांतिक आधार बनाया और अल्पसंख्यकों के अत्यंत ही छोटे से वर्ग की असहमति को भी नजरअंदाज न करते हुए वंदेमातरम के पहले दो छंदों को ही राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकार किया। इन दो छंदों में कहीं भी ऐसा कुछ नहीं है जिससे किसी धर्म के लोगों के भावनाओं को ठेस पहुंचे लेकिन इसके बावजूद जिन्ना की विचारधारा को न केवल सीना ठोक कर आगे बढ़ाने की हिमाकत की जा रही है बल्कि छद्म धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अपनी राजनीतिक दूकान चलाने वाले लोग इस राष्टï्रघाती प्रवृत्ति पर या तो खामोश हैं या फिर उसका परोक्ष समर्थन करते नजर आ रहे हैं। वंदे मातरम हमारी मातृभूमि का गीत है, जिसमें भारत पर प्रकृति के वरदान की बात कही गई है। इसमें अनेक नदियों, हरे-भरे खेत-खलिहानों और आच्छादित वृक्षों का वर्णन है। वंदे मातरम का विरोध करने वालों से यह पूछा जाना चाहिए कि उन्हें आपत्ति किस बात पर है? सदियों से सैकड़ों भाषाओं में कवियों ने प्रकृति और अपनी मातृभूमि की स्तुति की है। क्या हमें हर कवि की रचनाओं का सांप्रदायिक आधार पर मूल्यांकन करना चाहिए? हमारे संविधान निर्माता वंदेमातरम के प्रति आम जनमानस में सम्मान से भलीभांति परिचित थे। 14 अगस्त 1947 को संविधान सभा के ऐतिहासिक सत्र की शुरुआत सुचेता कृपलानी द्वारा वंदेमातरम के पहले पद को गाने से हुई।
संविधान सभा की अंतिम बैठक 24 जनवरी 1950 को हुई। इस बैठक की शुरुआत राष्ट्रगान पर अध्यक्ष डा. राजेंद्र प्रसाद के संबोधन से हुई। राजेंद्र प्रसाद ने कहा कि जन गण मन के रूप में संकलित शब्द और संगीत भारत का राष्ट्रगान है और स्वाधीनता संघर्ष में ऐतिहासिक भूमिका निभाने वाला वंदेमातरम जन गण मन के बराबर सम्मान का अधिकारी होगा। हस्ताक्षर समारोह के बाद पूर्णिमा बनर्जी और अन्य सदस्यों ने जन गण मन गाया और फिर लक्ष्मीकांता मैत्र तथा साथियों ने वंदेमातरम का गायन किया। संविधान सभा द्वारा तय कर दिये गए इस इस मुद्दे पर किसी को भी फिर से विवाद खड़ा करने अथवा राष्ट्रीय गीत का अपमान करने की अनुमति नहीं दी जा सकती। जमीयत का रुख किसी इस्लामी देश में सही हो सकता है, लेकिन यह भारत जैसे लोकतांत्रिक देश के बुनियादी सिद्धांतों के प्रतिकूल है। प्रश्न यह है कि आज जिस तरह वंदेमातरम पर आपत्ति जताई जा रही है उसी प्रकार कल क्या जन गण मन, अशोक चक्र पर उंगली उठाई जाएगी? जो लोग सामाजिक सौहार्द और भाईचारे को बढ़ावा देने के इच्छुक हैं उन्हें इस सिलसिले को हमेशा के लिए विराम देना ही होगा क्योंकि अल्पसंख्यक अधिकारों के नाम पर चल रहे इस सिलसिले ने फिरकापरस्ती को इस ऊंचाई पर पहुंचा दिया है कि वह कुछ सेकुलर प्रतीकों तक का निरादर करने लगी हैं।
-सर्वदमन पाठक
Thursday, November 12, 2009
कौन जिम्मेदार है अनहोनी की इस संभावना के लिए
-सर्वदमन पाठक
Monday, November 9, 2009
बढ़ते अपराधों की चुनौती
सच तो यह है कि न केवल भोपाल बल्कि संपूर्ण प्रदेश में जघन्य अपराधों का ग्राफ काफी बढ़ा है और इस वजह से लोगों का सुख चैन छिन गया है। उन्हें अपने जीवन पर असुरक्षा की छाया मंडराती दिख रही है। इतना ही नहीं, प्रदेश में औद्योगिक विकास के लिए भी शांति पहली शर्त है। प्रदेश के नागरिकों को सुरक्षा एवं शांति का विश्वास दिलाना और औद्योगिक विकास के लिए शांति का माहौल पैदा करना राज्य सरकार की जिम्मेदारी है और अब इस दायित्व की बागडोर श्री गुप्ता के हाथों में है। उम्मीद की जानी चाहिए कि वे लोगों की उम्मीदों पर खरे उतरेंगे और प्रदेश में कानून एवं व्यवस्था का राज पुन: कायम करने में अहम भूमिका निभाएंगे।
-सर्वदमन पाठक
Thursday, November 5, 2009
सियासी मोहरा नहीं है किसान
-सर्वदमन पाठक
Tuesday, November 3, 2009
पुलिस फिर कटघरे में
-सर्वदमन पाठक
Monday, November 2, 2009
विकास हेतु एकजुट हों
-सर्वदमन पाठक
Sunday, November 1, 2009
अब तो हो यह 'सपना प्रदेशÓ अपना प्रदेश
-मदनमोहन जोशी
सपनों को सच करने की जिम्मेदारी
आज जब मप्र अपना स्थापना दिवस मना रहा है तो उसके सामने कमोबेश वही सवाल हैं जो हमारी पूरी हिंदी पट्टी को मथ रहे हैं। जिन्हें बीमारू राज्य कहा जा रहा है। विकास का सवाल आज की राजनीति में सबसे अहम है। मप्र की जनता के सामने इस समय सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह किस तरह से नई सदी में अपना चेहरा और चमकदार बनाए। मध्यप्रदेश या कोई भी राज्य सिर्फ अपने इतिहास और विरासत पर गर्व करता हुआ खड़ा नहीं रह सकता। गांवों में फैल रही बेचैनी, शहरों में बढ़ती भीड़, पलायन के किस्से, आदिवासियों और भूमिहीनों के संघर्ष से हम आंखेें नहीं मूंद सकते। आजादी के बाद के ये साल इस विशाल भूभाग में बहुत कुछ बदलते दिखे। किंतु इस समय के प्रश्न बेहद अलग हैं। विकास के मोर्चे पर कुछ नहीं हुआ कहना बेमानी होगा, किंतु इन प्रयासों के बावजूद अगर हम प्राथमिक शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी और बिजली के मोर्चे पर अपना आकलन करें तो तस्वीर बहुत साफ हो जाएगी। मध्यप्रदेश को शांति का टापू कहे जाने के बावजूद विकास के तमाम मानकों पर हमारी हालत पतली है। यह द्वंद शायद इसलिए कि लंबे समय तक प्रयास तो किए गए आम आदमी को इस प्रक्रिया का हिस्सा बनने से रोके रखा गया। प्रशासन की संवेदनशीलता, राजनीतिज्ञों की नैतिकता, राज्य के लोगों की विकास में हिस्सेदारी कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिस पर साफ दिल से बात होनी ही चाहिए। राज्य के सामने सबसे बड़ी चुनौती क्या है, किन प्रश्नों पर राज्य को प्राथमिकता के साथ जूझना चाहिए ये ऐसे सवाल हैं जिनसे टकराने का साहस हम नहीं करते। नौकरशाही जिस तरह से सत्ता और समाज की शक्तियों का अनुकूलन करती है वह बात भी चिंता में डालने वाली है। राजनीति नेतृत्व की अपनी विवशताएं और सीमाएं होती हैं। चुनाव-दर-चुनाव और उसमें जंग जीतने की जद्दोजहद राजनीति के नियामकों को इतना बेचारा बना देती है कि वे सही मुद्दों से जूझने के बजाय इन्हीं में काफी ताकत खर्च कर चुके होते हैं।
मप्र अपने आकार और प्रकार में अपनी स्थापना के समय से ही बहुत बड़ा था। सन् 2000 में छत्तीसगढ़ अलग होने के बाद मप्र के सामने अलग तरह की चुनौतियां खड़ी हुईं। जिसमें बिजली से लेकर आर्थिक संसाधनों की बात सामने थी। बावजूद इसके इसका आकार आज भी बहुत बड़ा है। सो प्रशासनिक नियंत्रण से साथ-साथ नीचे तक विकास कार्यक्रमों का पहुंचना एक बड़ी चुनौती होती है। मप्र एक ऐसा राज्य है जहां की योजनाओं को राष्ट्रीय स्तर पर सराहना मिली है। बावजूद इसके शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर काम किए जाने की जरूरत है। आज के दौर की चुनौतियों के मद्देनजर श्रेष्ठï मानव संसाधन का निर्माण एक ऐसा काम है जो हमारे युवाओं को बड़े अवसर दिलवा सकता है। इसके लिए शहरी क्षेत्रों के अलावा ग्रामीण क्षेत्रों के स्कूलों के लिए हम क्या कर सकते हैं यह सोचना बहुत जरूरी है। यह सोचने का विषय है कि लोग सरकारी स्कूलों में अपने बच्चों को भेजने से परहेज क्यों करने लगे हैं। ऐसे में यहां से निकल रही पीढ़ी का भविष्य क्या है। इसी तरह उच्चशिक्षा में हो रहा बाजारीकरण एक बड़ी चुनौती है। हमारे सरकारी शिक्षण तंत्र का ध्वस्त होना कहीं इरादतन निजी क्षेत्रों के लिए दिया जा रहा अवसर तो नहीं है। यही हालात स्वास्थ्य के क्षेत्र में हैं। बुंदेलखंड और वहां के प्रश्न आज राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा के केंद्र में हैं। पानी का संकट लगभग पूरे राज्य के अधिकांश इलाकों का संकट है। शहरों और अधिकतम मध्यवर्ग को केंद्र में रखकर किया जा रहा विकास एक सामाजिक संकट सरीखा बन गया है। मप्र जैसे संवेदनशील राज्य को इस प्रश्न पर भी सोचने की जरूरत है। अपनी प्राकृतिक विरासतों को सहेजने की चिंता भी इसी से जुड़ी है। यह प्रसन्नता की बात है कि जीवनदायिनी नर्मदा के बारे में अब कुछ गंभीरता दिखने लगी है। अमृतलाल बेगड़ और अनिल दवे के प्रयासों से समाज का ध्यान भी इस ओर गया है। मध्यप्रदेश में पंचायतों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए राज्य सरकार खुद आगे आई, यह एक बहुत ही सकारात्मक संकेत है। अब आवश्यकता इस बात की है कि इन सभी महिला-पुरुष प्रतिनिधियों का गुणात्मक और कार्यात्मक विकास किया जाए। क्योंकि जानकारी के अभाव में कोई भी प्रतिनिधि अपने समाज या गांव के लिए कारगर साबित नहीं हो सकता। जनप्रतिनिधियों के नियमित प्रशिक्षण कार्यक्रम और गांव के प्रतिनिधियों के प्रति प्रशासनिक अधिकारियों की संवेदनात्मक दृष्टि का विकास बहुत जरूरी है। सरकार ने जब एक अच्छी नियति से पंचायती राज को स्वीकार किया है तब यह भी जरूरी है कि वह अपने संसाधनों के सही इस्तेमाल के लिए प्रतिनिधियों को प्रेरित भी करे। राज्य में बड़ी संख्या में आदिवासी समाज के लोग हैं उनके प्रश्न और चिंताएं अलग हैं। हमें उनका भी सोचना होगा। महिलाओं के साथ अत्याचार और उत्पीडऩ के मामले में भी मप्र का रिकार्ड बहुत बेहतर नहीं है। साथ ही सामंतशाही के बीज भी अभी कुछ इलाकों में पसरे हुए दिखते हैं। नक्सलवाद की चुनौती भी कुछ क्षेत्रों में मौजूद है। उस पर अब केंद्र सरकार का भी ध्यान गया है। ऐसे बहुत से प्रश्नों से टकराना और दो-दो हाथ करना सिर्फ हमारे सत्ताधीशों की नहीं हमारी भी जिम्मेदारी है। सामाजिक शक्तियों की एकजुटता और प्रभावी होना भी जरूरी है, क्योंकि वही राजसत्ता पर नियंत्रण कर सकती है। इससे अंतत: लोकतंत्र सही मायनों में प्रभावी होगा। भाजपा और उसके नेता शिवराज सिंह चौहान पर राज्य की जनता ने लगातार भरोसा जताते हुए बड़ी जिम्मेदारी सौंपी है। विरासत में मिली इन तमाम चुनौतियों की तरफ देखना और उनके जायज समाधान खोजना किसी भी राजसत्ता की जिम्मेदारी है। मुख्यमंत्री को इतिहास की इस घड़ी में यह अवसर मिला है कि वे इस वृहतर भूगोल को उसकी तमाम समस्याओं के बीच एक नया आयाम दे सकें। सालों-साल से न्याय और विकास की प्रतीक्षा में खड़े मप्र की सेवा के हर क्षण का रचनात्मक उपयोग करें। बहुत चुनौतीपूर्ण और कंटकाकीर्ण मार्ग होने के बावजूद उन्हें इन चुनौतियों को स्वीकार करना ही होगा, क्योंकि सपनों को सच करने की जिम्मेदारी मध्यप्रदेश के भूगोल और इतिहास दोनों ने उन्हें दी है। जाहिर है वे इन चुनौतियों से भागना भी नहीं चाहेंगे। अब जबकि मप्र की राजनीति में युवा चेहरों के हाथ में कमान है, हमें अपने तंत्र को ज्यादा संवेदनशील, ज्यादा बेहतर, ज्यादा मानवीय और सरोकारी बनाने की कोशिशें करनी चाहिए। स्थापना दिवस का यही संकल्प राज्य के माथे पर सौभाग्य का टीका साबित होगा।
-संजय द्विवेदी
Wednesday, October 28, 2009
मराठी सियासत के नए ध्वजवाहक राज
-सर्वदमन पाठक
Tuesday, October 27, 2009
पुलिस हिरासत में मौत?
-सर्वदमन पाठक
Friday, October 23, 2009
कही- अनकही
राज ठाकरेअध्यक्ष, महाराष्टï्र नवनिर्माण सेना
क्या कहना चाहते हैं राज ठाकरे?
शिवसेना-भाजपा गठबंधन की पराजय विपक्ष की प्रभावी भूमिका निभाने में उसकी असफलता के कारण ही हुई है और सरकार विरोधी वोटों के बंटवारे के जरिये कांग्रेस राकांपा को पुन: सत्ता में आने में मदद करने का मनसे पर लगाया जा रहा आरोप पूरी तरह निराधार है। दरअसल शिवसेना- भाजपा गठबंधन के प्रति जनता का अविश्वास उसकी हार का सबसे बड़ा कारण है।
क्या सोचते हैं लोग?
मराठी मानुष के हितों की रक्षा के लिए ही शिवसेना का गठन किया गया था और इस प्रक्रिया में बाल ठाकरे महाराष्टï्र में मराठी मानुष के सबसे बड़े हित-रक्षक बनकर उभरे थे लेकिन पिछले कुछ वर्षों में उनके इस तेवर में थोड़ी शिथिलता आ गई है। बाल ठाकरे के उत्तराधिकारी की लड़ाई में शिवसेना की कमान उद्धव ठाकरे को सौंपे जाने के बाद राज ठाकरे ने नई पार्टी मनसे का गठन कर इसे कट्टर मराठी समर्थक चेहरा देने की भरसक कोशिश की है। स्वाभाविक रूप से इसी कारण शिवसेना के मराठी वोट बैंक का विभाजन हो गया और सत्तारूढ़ गठबंधन को इससे जीत में मदद मिली लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि जबर्दस्त एंटी इंकम्बेन्सी के बावजूद भाजपा शिवसेना प्रदेश के वोटरों को अपनी ओर आकर्षित करने में बुरी तरह असफल रही है और अपनी इस नाकामी के लिए विपक्ष के रूप में उसकी प्रभावक्षीणता भी कम जिम्मेदार नहीं है। अच्छा यही होगा कि विपक्ष अब आत्मचिंतन करे कि आखिर वह सरकार की तमाम नाकामियों के बावजूद लगातार तीन विधानसभा चुनाव कैसे हार गई। वक्त के तकाजे के अनुरूप रणनीति में बदलाव ही उसकी दुर्गति को दूर कर सकता है, क्षुद्र दोषारोपण नहीं।
Thursday, October 22, 2009
हादसे से सबक लें
-सर्वदमन पाठक
आतंक पर अंकुश वक्त का तकाजा
-सर्वदमन पाठक
Tuesday, October 20, 2009
आंध्र प्रदेश, पश्चिमी बंगाल, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ तथा महाराष्ट्र में कहर बरपा कर देने वाले लाल आतंक नक्सलवाद ने अब मध्यप्रदेश में भी अपनी दस्तक दे दी है। बालाघाट जिले में 50 नक्सलवादियों के दाखिल होने की खबर इसका स्पष्टï संकेत है। यह खबर कोई कागजी अनुमान पर नहीं बल्कि पुलिस को मिले निश्चित सुराग पर आधारित है। इससे यह शक पुख्ता होता जा रहा है कि मध्यप्रदेश जो काफी पहले से नक्सलवादियों के रोडमेप में था, अब उनके ठिकानों में तब्दील होने जा रहा है। स्वाभाविक रूप से ये नक्सलवादी छत्तीसगढ़ तथा पड़ौसी राज्यों में सख्ती बरते जाने के बाद बालाघाट में घुसपैठ कर चुके हैं। वैसे मध्यप्रदेश में नक्सलवादियों की हलचल पहली बार नहीं हुई है। छत्तीसगढ़ तथा महाराष्टï्र के नक्सल प्रभावित इलाके से सटा होने के कारण बालाघाट में जब तब नक्सलवादियों की हलचलों की जानकारी मिलती रही है। कुछ माह पूर्व ही ऐसे समाचार मिले थे कि नक्सलवादी इन क्षेत्रों के बैठकें लेकर उन्हें अपने रंग में रंगने की कोशिश कर रहे हैं। जिले के सीमावर्ती क्षेत्रों में नक्सलवादियों द्वारा आगजनी तथा हिंसा की छुटपुट खबरें तो कई बार सुनी गई हैं लेकिन इन पर प्रशासन ने उतनी तवज्जो नहीं दी जितनी कि अपेक्षित थी। दरअसल प्रदेश में कांग्रेस सरकार के शासनकाल में उनके आतंक को शासन-प्रशासन काफी हद तक नजरंदाज करता रहा। उनके खिलाफ जो भी कार्रवाई उस समय की गई, वह महज औपचारिकता ही थी। इसका परिणाम यह हुआ कि उनके हौसले बुलंद होते गये और इसकी परिणति राज्य के मंत्री लिखीराम कांवरे की हत्या जैसी भयावह वारदात में हुई। इसके बाद सरकार को अपनी गलती का अहसास हुआ और उसने नक्सलवाद के खिलाफ सख्त रुख अख्तियार किया। यह कहना गलत नहीं होगा कि सरकार तमाम कोशिशों के बावजूद नक्सलवाद को पूरी तरह काबू करने में असफल रही है और उसका सबसे बड़ा कारण यही है कि आम तौर पर वे ग्रामीणों तथा आदिवासियों के शोषण के खिलाफ संघर्ष की बात करके उन्हें भरोसे में ले लेते हैं और ये उनकी ढाल बन जाते हैं। संभव है कि पहले कभी नक्सलवाद सरकारी अफसरों एवं जमींदारों के शोषण के खात्मे के लक्ष्य को हासिल करने के लिए सशस्त्र संघर्ष का जरिया रहा हो, हालांकि यह भी लोकतांत्रिक सिद्धांतों के खिलाफ है, लेकिन अब तो इसमें अपराधी तत्वों का समावेश हो गया है और यह आतंक फैलाकर जबरिया वसूली करने के साथ ही तमाम तरह के अपराधियों के शरणस्थल के रूप में तब्दील हो गया है। भोपाल में कुछ साल पहले जिन नक्सलवादियों की धरपकड़ की गई थी, उनके पास से बरामद दस्तावेज से बंदूक बनाने की फेक्टरी के सबूत मिले थे। मध्यप्रदेश में अभी हाल ही में शहडोल में कुछ नक्सलवादियों को गिरफ्तार किया गया था और उन्होंने प्रदेश में नक्सलवादी गतिविधियों के बारे में कुछ सुराग भी दिये थे। हो सकता है कि नक्सलवादियों की बालाघाट में घुसपैठ प्रदेश में नक्सलवाद के विस्तार की उनकी रणनीति का ही एक हिस्सा हो। इस संभावना के मद्देनजर राज्य सरकार द्वारा एक सुविचारित रणनीति के तहत नक्सलवाद पर अंकुश लगाने की मुहिम छेड़ी जाए। नक्सलवाद पर शिकंजा कसने केेेेेे लिए राज्यों के साथ मिलकर केंद्र द्वारा छेड़ी जाने वाली संयुक्त कार्रवाई में मध्यप्रदेश भी हिस्सेदारी के लिए पहल करे तो इस दिशा में एक सार्थक कदम होगा।
-सर्वदमन पाठक
Monday, October 19, 2009
कब्रबिज्जू नहीं, कद्रदान बनिये
रोशनी पर सभी का बराबर हक
-सर्वदमन पाठक