.... तभी बन स·ेगा स्वर्णिम मध्यप्रदेश
मध्यप्रदेश इन दिनों अपना 55 वां स्थापना दिवस मना रहा है। यह पहला अवसर है जब पूरे ए· माह त· स्थापना दिवस ·ा जश्न समूचे प्रदेश में मनाया जाएगा। यह वास्तव में ए· गौरवमय अहसास है इसलिए इस·ा औचित्य स्वयंसिद्ध है ले·िन इस·े साथ ही प्रदेश ·े विघटन से उपजी पीड़ा और टीस भी जुड़ी है। दरअसल सन 1956 में हमें प्रदेश ·ी स्थापना ·े साथ ही प्रा·ृति· संपदा ·ा ऐसा खजाना मिला था जिसे देख·र अन्य राज्यों ·ो हमसे ईष्र्या होना स्वाभावि· था ले·िन राज्य ·े विघटन ने ए· झट·े में इस प्रा·ृति· संपदा ·ेए· बड़े हिस्से ·ो हमसे जुदा ·र दिया। इस·े साथ ही हमारी आय ·ा बड़ा स्रोत छत्तीसगढ़ में चला गया और शुरुआती रूप से हमें भारी आर्थि· सं·ट ·ा सामना ·रना पड़ा। उस समय चला आर्थि· बचत ·ा महाअभियान इस ह·ी·त ·ो दर्शाने ·े लिए ·ाफी है। छत्तीसगढ़ ·े रूप में अलग राज्य ·ा गठन ए· राजनीति· फैसला था। राजनीति ·ी इस शतरंज में हो स·ता है ·ि ·िसी दल ·ो फायदा और ·िसी दल ·ो नु·सान हुआ हो ले·िन इस·ी बिसात पर मध्यप्रदेश ·ो ·ाफी ·ुछ खोना पड़ा। बहरहाल अब हम इस झट·े से उबरने ·ा भरपूर प्रयास ·र रहे हैैं और वि·ास ·े ऐसे ·ीर्तिमान गढऩे ·ी ·ोशिश ·र रहे हैैं जो हमारे प्रदेश ·ो स्वर्णिम प्रदेश बना स·ें। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान सामान्य सोच से हट·र निश्चित ही ऐसा ·ुछ ·र रहे हैैं जो सामाजि· सरो·ार से संबंधित है और लोगों ·ो मन ·ी खुशहाली देता है। ·न्यादान योजना, लाड़ली लक्ष्मी योजना, जननी सुरक्षा योजना सहित ·ई योजनाएं समाज ·ो ऐसे ही भावनात्म· धरातल पर प्रभावित ·रती हंै। मध्यान्ह भोजन योजना भी इसी ·्रम मेंं रखी जा स·ती है ले·िन सिर्फ भावनात्म· खुशी ·ी इन ·ोशिशों से प्रदेश ·ी त·दीर बदलने वाली नहीं है। इस·े लिए वि·ास ·े ·ुछ ठोस ·दम जरूर उठाने होंगे। हाल में खजुराहो में हुआ इंवेस्टर्स समिट इस दिशा में ए· अच्छा महत्वा·ांक्षी ·दम माना जा स·ता है। दरअसल यह शिवराज सिंह सर·ार द्वारा चलाए जा रहे उद्योगपतियों ·े सम्मेलनों ·े सिलसिले ·ा ही ए· हिस्सा है। सर·ार ·ा दावा है ·ि इस समिट ·े जरिये मध्यप्रदेश देश ·े बड़े उद्योगपतियों ·ो राज्य में उद्योगों ·ी स्थापना ·े लिए आ·र्षित ·रने में सफल रहा है। इसमें जो अनुबंध पत्र हस्ताक्षरित हुए हैैं, उससे तो यही अहसास होता है। ले·िन जरूरत इस बात ·ी है ·ि फालोअप एक्शन भी उतना ही प्रभावी हो। तभी राज्य में बड़े पैमाने पर औद्योगि· वि·ास ·ी राज्य सर·ार ·ा ·ल्पना सफल हो स·ेगी। राज्य सर·ार उद्योगपतियों ·े पिछले सम्मेलनों ·े बाद भी ऐसे ही दावे ·रती रही है ले·िन ·ितने एमओयू उद्योगों ·े रूप में धरातल पर उतरे, यह ·ोई छिपी हुई बात नहीं है। राज्य सर·ार ·ो भी इस·ा आभास है, इसीलिए वह सफाई दे रही है ·ि इस बात ज्यादा सतर्·ता बरती गई है। वैेसे उद्योगों ·ी स्थापना ·े लिए समुचित बिजली तथा अच्छी सड़·ें सबसे बड़ी जरूरत है। अच्छा हो ·ि राज्य बिजली ·ी आत्मनिर्भरता ·े क्षेत्र में तेजी से ·ाम ·रे और इस उद्देश्य ·ो यथाशीघ्र प्राप्त ·रे। इसी तरह ऊबड़-खाबड़ सड़·ों ·े ·लं· ·ो भी प्रदेश ·े माथे से मिटाने ·े लिए उसे सं·ल्पबद्ध प्रयास ·रने होंगे। गौरतलब है ·ि पिछली ·ांग्र्रेस सर·ार ·ी हार में बिजली और सड़· ·े मुद्दे ने बड़ा रोल अदा ·िया था। पानी ·ी उपलब्धता तो वैसे प्र·ृति ·ी मेहरबानी पर ज्यादा निर्भर होती है ले·िन जलाभिषे· जैसे अभियान ·ो राज्य सर·ार ·ो नए सिरे से गति देनी होगी ता·ि पानी ·े सं·ट ·ी स्थिति ·ो यथासंभव दूर ·िया जा स·े। उम्मीद ·ी जानी चाहिए ·ि राज्य सर·ार इन सभी महत्वपूर्ण ·ार·ों ·ी तरफ पूरी पूरी तवज्जो देगी और प्रदेश ·े सभी क्षेत्रों में समान रूप से औद्योगि· विस्तार ·र राज्य में स्थायी खुशहाली ·ी नींव रखेगी और तब हम सही मायने में स्वर्णिम मध्यप्रदेश ·ी मंजिल ·ी ओर तेज ·दमों से आगे बढ़ेंगे।स्थापना दिवस समारोह में सबसे अच्छी बात यह हुई है ·ि इसमें सभी राजनीति· दलों ने अपने राजनीति· भेदभाव तथा मनोमालिन्य ·ो परे रख·र शिर·त ·ी और प्रदेश ·े वि·ास ·े लि सं·ल्प लिया। राज्य सर·ार ·ो प्रदेश ·े हित में इस राजनीति· ए·जुटता ·ो बनाए रखना होगा और आरोप प्रत्यारोपों ·ी राजनीति ·ो त्याग·र स्वर्णिम मध्यप्रदेश ·े निर्माण ·े इस अभियान मेंं सभी राजनीति· दलों ·ी साझीदारी सुनिश्चित ·रनी होगी।
-सर्वदमन पाठ·
Tuesday, November 2, 2010
Thursday, September 16, 2010
लो·तंत्र ·ा मखौल
यों तो भारत दुनिया ·ा सबसे बड़ा लो·तंत्र है और हम सभी इस·ा ढिंढोरा पीटते नहीं थ·ते ले·िन वास्तवि· यह है ·ि देश ·ी दो सबसे बड़ी राजनीति· पार्टियों में अंदरूनी लो·तंत्र धीरे धीरे लुप्त होता जा रहा है। अभी ·ुछ दिन पहले ही जिस तरह से भाजपा ·े प्रदेश अध्यक्ष ·ा चुनाव हुआ, उसमें लो·तंत्र ·ा मखौल उड़ाया गया था। प्रदेश भाजपा अध्यक्ष ·ा निर्वाचन तो महज ए· औपचारि·ता थी, दरअसल ·ेंद्रीय हाई·मान ·े आदेश से यह चुनाव हो गया और इस·े अन्य दावेदार मुंह ता·ते रह गए। अब यही प्र·्रिया ·ांग्रेस भी अपनाने जा रही है। प्रदेश भाजपा ·ी बैठ· में बा·ायदा ए· प्रस्ताव पारित ·र पार्टी ·ी राष्टï्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी ·ो यह अधि·ार दे दिया गया है ·ि वे जिस व्यक्ति ·ो पसंद ·रें, इस पद पर आसीन ·र स·ती हैं। इस·ा अर्थ यही है ·ि इस पद पर सिर्फ सोनिया गांधी ·ी मर्जी ·ा व्यक्ति ही बैठेगा भले ही दूसरे ·िसी व्यक्ति ·ी पार्टी ·े लिए ·ितनी भी महत्वपूर्ण सेवाएं क्यों न हों। सवाल यही है ·ि आखिर ये पार्टियां चुनाव ·ा यह पाखंड क्यों रचती हैं। यह चुनाव ·िसी भी रूप में नहीं है। यह तो विशुद्ध मनोनयन है तो फिर इसे चुनाव ·े बदले मनोनयन ·ा नाम ही क्यों न दिया जाए।व्याप· परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो अन्य दलों में भी इससे स्थिति ·तई भिन्न नहीं है। क्या समाजवादी पार्टी, राजद, बसपा, तृणमूल ·ांग्रेस सहित अन्य पार्टियों में भी पार्टी नेतृत्व ·ी इच्छा ·े खिलाफ ·िसी प्रदेश अध्यक्ष ·ा चुनाव हो स·ता है। इस सवाल ·ा उत्तर न·ारात्म· ही है। दरअसल होता यह है ·ि ये सभी पार्टियां दावा तो जनसेवा ·ा ·रती हैं, भले ही उसमें जाति तथा धर्म ·ा तड़·ा लगा हो, ले·िन उन·ी ·ार्यशैली ·िसी निजी ·ंपनी ·ी तरह ही हो गई है। जैसे ·िसी निजी ·ंपनी में सीएमडी ·ी इच्छा सर्वोपरि होती है, वैसे ही इन पार्टियों में भी पार्टी अध्यक्ष ·ी इच्छा ·े बिना पत्ता त· नहीं हिल स·ता। अलबत्ता आप·ो यदि चापलूसी तथा खुशामदखोरी मेें महारत हासिल है और आप इस ·ला से नेतृत्व ·ो प्रसन्न ·रने ·ी ·ला जानते हैं तो फिर आप·े लिए ·िसी भी दल में पर्याप्त संभावनाएं हैं। अभी हाल ही में सूचना ·े अधि·ार ·े तहत जो जान·ारियां सामने आई हैं, उनसे पता लगता है ·ि ये पार्टियां ·ारपोरेट ·ंपनियों ·ी तरह ही चलती हैं जिन·ा उद्देश्य धन ·माना होता है। इसी दोहरे चरित्र ·े ·ारण अच्छे लोगों ·े लिए राजनीति· दलों में गुंजायश ·ाफी ·म नजर आती है। राजनीति ·े प्रति लोगों ·ी वितृष्णा ·ो दूर ·रने और राजनीति ·ो सामाजि· परिवर्तन ·ा उप·रण बनाने ·े लिए इसे लो·तांत्रि· संस्थाओं में तब्दील ·रना वक्त ·ा त·ाजा है ता·ि इनमें वास्तवि· क्षमता वाले लोग विभिन्न स्तरों पर नेतृत्व हासिल ·र स·ें और इन·े मूल चरित्र ·ो बहाल ·र स·ें।
-सर्वदमन पाठ·
यों तो भारत दुनिया ·ा सबसे बड़ा लो·तंत्र है और हम सभी इस·ा ढिंढोरा पीटते नहीं थ·ते ले·िन वास्तवि· यह है ·ि देश ·ी दो सबसे बड़ी राजनीति· पार्टियों में अंदरूनी लो·तंत्र धीरे धीरे लुप्त होता जा रहा है। अभी ·ुछ दिन पहले ही जिस तरह से भाजपा ·े प्रदेश अध्यक्ष ·ा चुनाव हुआ, उसमें लो·तंत्र ·ा मखौल उड़ाया गया था। प्रदेश भाजपा अध्यक्ष ·ा निर्वाचन तो महज ए· औपचारि·ता थी, दरअसल ·ेंद्रीय हाई·मान ·े आदेश से यह चुनाव हो गया और इस·े अन्य दावेदार मुंह ता·ते रह गए। अब यही प्र·्रिया ·ांग्रेस भी अपनाने जा रही है। प्रदेश भाजपा ·ी बैठ· में बा·ायदा ए· प्रस्ताव पारित ·र पार्टी ·ी राष्टï्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी ·ो यह अधि·ार दे दिया गया है ·ि वे जिस व्यक्ति ·ो पसंद ·रें, इस पद पर आसीन ·र स·ती हैं। इस·ा अर्थ यही है ·ि इस पद पर सिर्फ सोनिया गांधी ·ी मर्जी ·ा व्यक्ति ही बैठेगा भले ही दूसरे ·िसी व्यक्ति ·ी पार्टी ·े लिए ·ितनी भी महत्वपूर्ण सेवाएं क्यों न हों। सवाल यही है ·ि आखिर ये पार्टियां चुनाव ·ा यह पाखंड क्यों रचती हैं। यह चुनाव ·िसी भी रूप में नहीं है। यह तो विशुद्ध मनोनयन है तो फिर इसे चुनाव ·े बदले मनोनयन ·ा नाम ही क्यों न दिया जाए।व्याप· परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो अन्य दलों में भी इससे स्थिति ·तई भिन्न नहीं है। क्या समाजवादी पार्टी, राजद, बसपा, तृणमूल ·ांग्रेस सहित अन्य पार्टियों में भी पार्टी नेतृत्व ·ी इच्छा ·े खिलाफ ·िसी प्रदेश अध्यक्ष ·ा चुनाव हो स·ता है। इस सवाल ·ा उत्तर न·ारात्म· ही है। दरअसल होता यह है ·ि ये सभी पार्टियां दावा तो जनसेवा ·ा ·रती हैं, भले ही उसमें जाति तथा धर्म ·ा तड़·ा लगा हो, ले·िन उन·ी ·ार्यशैली ·िसी निजी ·ंपनी ·ी तरह ही हो गई है। जैसे ·िसी निजी ·ंपनी में सीएमडी ·ी इच्छा सर्वोपरि होती है, वैसे ही इन पार्टियों में भी पार्टी अध्यक्ष ·ी इच्छा ·े बिना पत्ता त· नहीं हिल स·ता। अलबत्ता आप·ो यदि चापलूसी तथा खुशामदखोरी मेें महारत हासिल है और आप इस ·ला से नेतृत्व ·ो प्रसन्न ·रने ·ी ·ला जानते हैं तो फिर आप·े लिए ·िसी भी दल में पर्याप्त संभावनाएं हैं। अभी हाल ही में सूचना ·े अधि·ार ·े तहत जो जान·ारियां सामने आई हैं, उनसे पता लगता है ·ि ये पार्टियां ·ारपोरेट ·ंपनियों ·ी तरह ही चलती हैं जिन·ा उद्देश्य धन ·माना होता है। इसी दोहरे चरित्र ·े ·ारण अच्छे लोगों ·े लिए राजनीति· दलों में गुंजायश ·ाफी ·म नजर आती है। राजनीति ·े प्रति लोगों ·ी वितृष्णा ·ो दूर ·रने और राजनीति ·ो सामाजि· परिवर्तन ·ा उप·रण बनाने ·े लिए इसे लो·तांत्रि· संस्थाओं में तब्दील ·रना वक्त ·ा त·ाजा है ता·ि इनमें वास्तवि· क्षमता वाले लोग विभिन्न स्तरों पर नेतृत्व हासिल ·र स·ें और इन·े मूल चरित्र ·ो बहाल ·र स·ें।
-सर्वदमन पाठ·
Tuesday, September 14, 2010
Monday, September 13, 2010
Friday, July 16, 2010
क्या ऐसे ही बनेगा स्वर्णिम मध्यप्रदेश?
मध्यप्रदेश में इन दिनों दो मुहावरे- स्वर्णिम मध्यप्रदेश तथा राजनीतिक शुचिता सर्वाधिक चर्चित हैं। प्रदेश को खुशहाल तथा विकसित बनाने का मुख्यमंत्री का संकल्प स्वर्णिम मध्यप्रदेश के बारे में थोड़ा आश्वस्त करता है लेकिन इस दिशा में उठाए जाने वाले कदमों के अमल में प्रशासनिक स्तर पर हो रही हीलाहवाली इस आश्वस्ति को धक्का पहुंचाती है। सरकार स्वर्णिम मध्यप्रदेश के निर्माण के लिए घोषणाओं पर घोषणाएं किये जा रही है लेकिन वास्तविकता के धरातल पर परिदृश्य निराशाजनक ही है। इसी तरह राजनीतिक शुचिता मुख्यमंत्री में संकल्पशक्ति के अभाव में सिर्फ खोखला नारा बन कर रह गई है। यह आश्चर्यजनक ही है कि हम स्वर्णिम मध्यप्रदेश के इंतजार में हैं और प्रदेश की कानून व्यवस्था हमारे जीवन तथा अमन चैन के लिए खतरा बनी हुई है। हर जिले में गरीबों और कमजोरों पर दबंगों का कहर बदस्तूर जारी है। नारी उत्पीडऩ में तो राज्य ने मानो तमाम रिकार्ड ही तोड़ दिये हैं। देश में नारी उत्पीडऩ के मामले में मध्यप्रदेश अपने पड़ौसी राज्य उत्तरप्रदेश को छोड़कर अन्य प्रदेशों से आगे है जो शान की नहीं बल्कि शर्म की बात है। यह सब उस राज्य में हो रहा है जहां खुद को नारी को विशिष्टï सम्मान देने वाली भारतीय संस्कृति की झंडाबरदार पार्टी भाजपा की सरकार है। जहां तक औद्योगिक विकास का सवाल है, राज्य सरकार ने अन्य प्रदेशों तथा एनआरआई से निवेश आकर्षित करने के लिए कई सम्मेलन किये हैं लेकिन इनमें से इक्के दुक्के उद्योगपतियों ने प्रदेश मेंं अपने एमओयू पर अमल किया है। इसका परिणाम यह है कमोवेश समूचा प्रदेश आज भी औद्योगिक विकास के लिए तरस रहा है। राज्य में लाड़ली लक्ष्मी तथा जननी सुरक्षा योजनाओं जैसी कई योजनाएं महिलाओं के कल्याण के लिए बनाई गई हैं लेकिन समुचित देखरेख के अभाव तथा प्रशासनिक लापरवाही के कारण ये योजनाएं अपने उद्देश्य में कमोवेश असफल रही हैं।जबलपुर में मेडिकल यूनिवर्सिटी खोलने की घोषणा पर यदि ईमानदारी से अमल हो तो यह राज्य में दुर्दशा के भयावह दौर से गुजर रही स्वास्थ्य सेवाओं में बदलाव लाने में प्रेरणादायी भूमिका अदा कर सकता है लेकिन ऐसे बहुत सारे सवाल हैं जो इस मामले में सरकार की मंशा पर संदेह करने के लिए पर्याप्त हैं। सरकार की नीयत को जानने के लिए ज्यादा कुछ पड़ताल करने की जरूरत नहीं है। राज्य में चिकित्सा शिक्षा के बारे में सरकार कितनी गंभीर है, यह इसी से जाना जा सकता है कि राज्य में मौजूद सभी सरकारी एवं स्वशासी मेडिकल कालेजों की मान्यता लगातार बाधित होती रही है। एमबीबीएस तथा एमएस, एमडी की प्रवेश परीक्षा के समय सरकारी स्तर पर इसका तात्कालिक इलाज ढूंढ लिया जाता है और फिर अगले सत्र तक के लिए सरकार लिहाफ ओढ़ कर सो जाती है। इसका परिणाम यह होता है कि इनमें शिक्षा पाने वाले तमाम चिकित्सा छात्र अपने भविष्य को लेकर लगातार चिंतित रहते हैं। इन चिकित्सा महाविद्यालयों में शिक्षण स्टाफ तथा अन्य सुविधाओं की कमी को दूर करने के लिए सरकार द्वारा आधेअधूरे प्रयास कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली जाती है। सच तो यह है कि राज्य के सरकारी अथवा स्वशासी मेडिकल कालेजों से पिछले कुछ समय में 50 से अधिक वरिष्ठï चिकित्सक इस्तीफा देकर प्रायवेट कालेजों में जा चुके हैं और इतने ही जाने के लिए तैयार हैं लेकिन सरकार और उसके अधिकारी इससे आंखें मूंदे हुए हैं। जहां तक समग्र रूप से राज्य की स्वास्थ्य सेवाओं का सवाल है, प्रदेश के किसी भी इलाके में सरकारी स्वास्थ्य एवं चिकित्सा सेवाओं पर सरसरी निगाह डालने से ही इसकी शोचनीय स्थिति का पता लग सकता है। ग्रामीण इलाकों में तो अधिकांश सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों एवं चिकित्सा सुविधाओं का नितांत अभाव ऐसा तथ्य है जिससे स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी भी अनभिज्ञ नहीं है। इन अस्पतालों में बेचारे मरीजों को यदि धोखे से कभी डाक्टरों के दर्शन हो भी जाएं तो इस बात की गारंटी ली जा सकती है कि वहां दवाएं नहीं मिलेंगी। स्वास्थ्य विभाग इन अस्पतालों के लिए आर्थिक प्रावधानों का हवाला देकर अपना पल्ला झाड़ देता है लेकिन वहां दवाएं क्यों नहीं है, यह जवाब उनकी चुप्पी में मिल जाता है। दवाओं के लिए दी जाने वाली राशि कहां जाती है, इसकी विस्तृत तहकीकात के लिए शायद सरकार के पास वक्त नहीं है। शहरों में भी चिकित्सा सुविधा के हालात कुछ ज्यादा अलग नहीं हैं। निजी अस्पतालों में काफी अच्छी सेवा शर्तों तथा वेतन के आफर के कारण सरकारी अस्पतालों से जितनी तेजी से डाक्टर विदा हो रहे हैं, उससे भविष्य में सरकारी चिकित्सा सेवाओं में होने वाले डाक्टरों के संकट का आभास सहज ही हो जाता है। भले ही इन अस्पतालों के स्टोर में दवाएं भरी पड़ी हो, लेकिन मरीजों को ये दवाएं नसीब नहीं होतीं। ये दवाएं बाजार में बिकती जरूर देखी जा सकती हैं। यदि सरकार वास्तव में प्रदेश मेें चिकित्सा शिक्षा एवं चिकित्सा सेवाओं में सुधार के प्रति गंभीर है तो उसे प्रदेश के वर्तमान मेडिकल कालेजों एवं सरकारी अस्पतालों के ढहते ढांचे को सहारा देने की दिशा में प्रभावी कदम उठाना चाहिए। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने राज्य में एक लाख शिक्षकों की नियुक्ति की घोषणा की है। यह महज संयोग नहीं है कि सीधी में यह घोषणा ऐसे समय की गई है जब शिक्षा का अधिकार नामक उस कानून पर देश भर में बहस जारी है जिसमें शिक्षा के सर्वव्यापीकरण की कोशिश की झलक मिलती है। यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि शिक्षा का अधिकार कानून को ईमानदारी से लागू करने के लिए बड़ी संख्या में शिक्षकों की जरूरत होगी। गौरतलब है कि राज्य में शिक्षा का परिदृश्य काफी निराशाजनक है। राज्य के स्कूलों में समुचित सुविधाओं एवं योग्य शिक्षकों का खासा अभाव है और इस अभाव को दूर किये बिना राज्य में स्कूल चलें अभियान जैसी महत्वाकांक्षी मुहिम की सफलता की आशा करना बेमानी है। दरअसल सिर्फ शिक्षकों की नियुक्ति मात्र से ज्यादा कुछ नहीं होने वाला है। शिक्षकों की गुणवत्ता इससे जुड़ा ही मामला है। सवाल यह है कि प्रदेश में वर्तमान में जो शिक्षक नियुक्त हैैं, क्या वे पर्याप्त योग्य हैं और क्या सरकार उनका समुचित उपयोग कर पा रही है। विभिन्न परीक्षाओं के नतीजे इसे बेनकाब करने के लिए काफी हंै। सच तो यह है कि शिक्षकों को साल के एक बड़े हिस्से में अन्य ऐेसे कामों की जिम्मेदारी सौंप दी जाती है जिसका शिक्षा से कुछ भी लेना देना नहीं होता। नए शिक्षकों की नियुक्ति के साथ ही सरकार को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि शिक्षकों से सिर्फ शैक्षणिक कार्य ही लिया जाए और उनसे कोई बेगार न कराई जाए।इसके साथ ही स्कूलों में अन्य सुविधाएं उपलब्ध कराने की दिशा में भी सरकार सार्थक पहल करे। आजादी के त्रेसठ साल बीत जाने के बावजूद अभी तक कई स्कूलों के पास अपना कोई ऐसा भवन नहीं है जहां तमाम सुविधाएं छात्रों तथा शिक्षकों को उपलब्ध हों। कई स्कूलों में तो पेयजल तथा बाथरूम की सुविधा तक नहीं है। समुचित भवन और जरूरी सुविधाओं के अभाव में यह कल्पना कैसे की जा सकती है कि नए छात्र स्कूल जाने के लिए आकर्षित होंगे , यह एक विचारणीय प्रश्न है। शिक्षा का अधिकार कानून में यह भी प्रावधान है कि गरीब बच्चों को फीस में रियायत दी जाए और इसके लिए प्रायवेट स्कूल भी अपवाद नहीं होंगे। सरकार को सरकारी शिक्षा प्रणाली दुरुस्त करने के साथ ही प्रायवेट स्कूलों को भी इस सामाजिक उद्देश्य की सहभागिता के लिए तैयार करना चाहिए था लेकिन सरकार नेे इसकी जिम्मेदारी केंद्र पर डाल दी है और अपना पल्ला झाड़ लिया है। राज्य में भ्रष्टïाचार अवश्य ही फूल फल रहा है। राज्य के आधा दर्जन से अधिक मंत्रियों पर लोकायुक्त में मामले दर्ज हैं। कई मंत्रियों पर तो गंभीर आपराधिक मामले भी दर्ज हैं। प्रदेश भाजपा की कार्यसमिति ने अभी हाल ही में राजनीतिक शुचिता की जरूरत पर काफी जोर दिया था लेकिन एक मात्र मंत्री अनूप मिश्रा की विदाई के बाद मंत्रि मंडलीय सदस्यों के भ्रष्टïाचार का मामला ठंडे बस्ते में चला गया है। मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि सिर्फ आरोप लगने से कोई दागी थोड़ी हो जाता है। कई आला अफसर भी भ्रष्टïाचार के गंभीर आरोपों के बावजूद सरकार के कृपापात्र बने हुए हैं। प्रदेश में अपराध का ग्राफ लगातार बढ़ रहा है, औद्योगिक विकास के तमाम दावे झूठे सिद्ध हो रहे हैं, महिलाओं की जिंदगी और इज्जत दोनों ही दांव पर है। ऐसे में यही सवाल सबकी जुबान पर है कि क्या ऐसे ही बनेगा स्वर्णिम मध्यप्रदेश।
-सर्वदमन पाठक
-सर्वदमन पाठक
Thursday, July 15, 2010
चिकित्सा सेवाओं में सुधार हेतु पाखंड नहीं, ईमानदार प्रयास जरूरी
मुख्यमंत्री का यह अंदाज काबिले तारीफ ही है कि प्रदेश में इन दिनों चल रहे सत्ता से जुड़े राजनीतिक विवाद से सरकार की छवि को अप्रभावित रखने के अपने सत्ता धर्म में वे पूरे मनोयोग से जुटे हुए हैं। जबलपुर में मेडिकल यूनिवर्सिटी खोलने की घोषणा इसी की एक कड़ी मानी जा सकती है। मुख्यमंत्री की इस घोषणा पर यदि ईमानदारी से अमल हो तो यह राज्य में दुर्दशा के भयावह दौर से गुजर रही स्वास्थ्य सेवाओं में बदलाव लाने में प्रेरणादायी भूमिका अदा कर सकता है लेकिन ऐसे बहुत सारे सवाल हैं जो इस मामले में सरकार की मंशा पर संदेह करने के लिए पर्याप्त हैं। सरकार की नीयत को जानने के लिए ज्यादा कुछ पड़ताल करने की जरूरत नहीं है। राज्य में चिकित्सा शिक्षा के बारे में सरकार कितनी गंभीर है, यह इसी से जाना जा सकता है कि राज्य में मौजूद सभी सरकारी एवं स्वशासी मेडिकल कालेजों की मान्यता लगातार बाधित होती रही है। एमबीबीएस तथा एमएस, एमडी की प्रवेश परीक्षा के समय सरकारी स्तर पर इसका तात्कालिक इलाज ढूंढ लिया जाता है और फिर अगले सत्र तक के लिए सरकार लिहाफ ओढ़ कर सो जाती है। इसका परिणाम यह होता है कि इनमें शिक्षा पाने वाले तमाम चिकित्सा छात्र अपने भविष्य को लेकर लगातार चिंतित रहते हैं। इन चिकित्सा महाविद्यालयों में शिक्षण स्टाफ तथा अन्य सुविधाओं की कमी को दूर करने के लिए सरकार द्वारा आधेअधूरे प्रयास कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली जाती है। सच तो यह है कि राज्य के सरकारी अथवा स्वशासी मेडिकल कालेजों से पिछले कुछ समय में 50 से अधिक वरिष्ठï चिकित्सक इस्तीफा देकर प्रायवेट कालेजों में जा चुके हैं और इतने ही जाने के लिए तैयार हैं लेकिन सरकार और उसके अधिकारी इससे आंखें मूंदे हुए हैं। जहां तक समग्र रूप से राज्य की स्वास्थ्य सेवाओं का सवाल है, प्रदेश के किसी भी इलाके में सरकारी स्वास्थ्य एवं चिकित्सा सेवाओं पर सरसरी निगाह डालने से ही इसकी शोचनीय स्थिति का पता लग सकता है। ग्रामीण इलाकों में तो अधिकांश सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों एवं चिकित्सा सुविधाओं का नितांत अभाव ऐसा तथ्य है जिससे स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी भी अनभिज्ञ नहीं है। इन अस्पतालों में बेचारे मरीजों को यदि धोखे से कभी डाक्टरों के दर्शन हो भी जाएं तो इस बात की गारंटी ली जा सकती है कि वहां दवाएं नहीं मिलेंगी। स्वास्थ्य विभाग इन अस्पतालों के लिए आर्थिक प्रावधानों का हवाला देकर अपना पल्ला झाड़ देता है लेकिन वहां दवाएं क्यों नहीं है, यह जवाब उनकी चुप्पी में मिल जाता है। दवाओं के लिए दी जाने वाली राशि कहां जाती है, इसकी विस्तृत तहकीकात के लिए शायद सरकार के पास वक्त नहीं है। शहरों में भी चिकित्सा सुविधा के हालात कुछ ज्यादा अलग नहीं हैं। निजी अस्पतालों में काफी अच्छी सेवा शर्तों तथा वेतन के आफर के कारण सरकारी अस्पतालों से जितनी तेजी से डाक्टर विदा हो रहे हैं, उससे भविष्य में सरकारी चिकित्सा सेवाओं में होने वाले डाक्टरों के संकट का आभास सहज ही हो जाता है। भले ही इन अस्पतालों के स्टोर में दवाएं भरी पड़ी हो, लेकिन मरीजों को ये दवाएं नसीब नहीं होतीं। ये दवाएं बाजार में बिकती जरूर देखी जा सकती हैं। यदि सरकार वास्तव में प्रदेश मेें चिकित्सा शिक्षा एवं चिकित्सा सेवाओं में सुधार के प्रति गंभीर है तो उसे जबलपुर में चिकित्सा विश्वविद्यालय खोलने के साथ ही प्रदेश के वर्तमान मेडिकल कालेजों एवं सरकारी अस्पतालों के ढहते ढांचे को सहारा देने की दिशा में प्रभावी कदम उठाना चाहिए।
-सर्वदमन पाठक
-सर्वदमन पाठक
Wednesday, July 7, 2010
अब गैसपीडि़तों के भावनात्मक शोषण की त्रासदी
भोपाल गैस त्रासदी का न्याय अपने आप में एक त्रासदी है और हजारों मौतों और लाखों की जिंदगी भर की पीड़ा का सबब बने इस त्रासद कांड से भोपाल के सीने पर जो असहनीय चोट लगी थी, इस फैसले ने उन घावों को कुरेद कर रख दिया है लेकिन अब कुछ राजनीतिक दलों एवं मीडिया के एक समूह द्वारा गैस पीडि़तों की पीड़ा को अपने स्वार्थ के लिए भुनाने का एक सोचा समझा प्रयास किया जा रहा है, उसे गैस पीडि़तों के भावनात्मक शोषण के अलावा और कोई नाम नहीं दिया जा सकता। इसमें कोई शक नहीं है कि हत्यारी यूनियन कार्बाइड के अध्यक्ष वारेन एंडरसन को जिन परिस्थितियों में भोपाल से जाने दिया गया, उसमें तत्कालीन केंद्र एवं राज्य सरकार तथा सरकार की नाक के नीचे बैठे राज्य व जिला प्रशासन के अफसरों की नापाक सांठगांठ जिम्मेदार थी और उन्हें इसके लिए जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए लेकिन भारत में यूका के कर्ताधर्ता अधिकारियों को, जो खालिस भारतीय नस्ल के थे , बचाने के लिए इसका इस्तेमाल करना कहां तक उचित है? इस बात पर विश्वास करने का पर्याप्त कारण हैं कि एंडरसन पर छिड़े घमासान में उन सभी तथ्यों को जानबूझकर भुलाया जा रहा है, जो इस भयावह त्रासदी के लिए जिम्मेदार थे। आखिर केशव महेंद्रा सहित उन तमाम लोगों को जो इस नरसंहार में दोषी थे, सिर्फ दो वर्ष की सजा दिये जाने और उस पर भी चंद मिनटों में जमानत मिल जाने की न्यायिक त्रासदी को हम इतनी आसानी से क्यों भुला बैठे हैं? हम इस फैसले के खिलाफ अपील के लिए दबाव बनाने के अपने संकल्प से क्यों भटक रहे हैं? एंडरसन के मामले में अर्जुन सिंह तथा राजीव गांधी के नाम उछलने के बाद तो जैसे भाजपा को मुुंह मांगी मुराद मिल गई है और वह इसे राजनीतिक वैतरिणी के रूप में इस्तेमाल कर रही है। कैलाश विजयवर्गीय तथा कमल पटेल पर लगे गंभीर आरोपों तथा कानून व्यवस्था कायम रखने में नाकामी से घिरी शिवराज सरकार अब एंडरसन के मामले पर ऐसा चक्रव्यूह रच देना चाहती है जिसमें महाभारत की पौराणिक कथा के विपरीत अर्जुन ऐसे उलझ जाएं कि बाहर ही न निकल सकें। इसी व्यूहरचना के तहत भाजपा ने प्रदेशव्यापी धरना प्रदर्शन का भी आयोजन किया है। लेकिन ऐसे बहुत सारे रहस्य हैं जो यदि उजागर हो जाएं तो भाजपा की यह हंसी काफूर हो सकती है। मसलन यूनियन कार्बाइड को कीटनाशक बनाने का लायसेंस सखलेचा सरकार ने दिया था। जब अर्जुन सिंह कथित रूप से एंडरसन को देश से सुरक्षित बाहर निकालने का ताना बाना बुन रहे थे, तब भाजपा ने इसका कितना विरोध किया था और उस समय की कांग्रेस सरकार से भाजपा की मिलीभगत के कारण क्या उसका विरोध भोथरा नहीं हो गया था? लेकिन यह समय राजनीतिक चालों- कुचालों का नहीं, गैसपीडि़तों की भावनाओं पर मरहम लगाने के लिए गैस त्रासदी के वास्तविक जवाबदेहों को उनके किये की समुचित सजा दिलाने का है और उम्मीद की जानी चाहिए कि राज्य की सरकार एवं विपक्ष इस हकीकत को समझेगा और इसके अनुरूप अपनी आगे की कार्रवाई तय करेगा।
- सर्वदमन पाठक
- सर्वदमन पाठक
मान्यताओं के सांचे में औरत की छटपटाहट
मैत्रेयी पुष्पा
आजकल कुछ लेखिकाएं जुनून के स्तर पर महिला स्वातंत्र्य के बारे में बात कर देती हैं यह कहना है हमारे प्रसिद्ध साहित्यकार का, जो हैं तो गांधी भक्त, लेकिन देश की आधी दुनिया के बारे में विचार करते हुए पुराने रीति-रिवाजों यानी रूढिय़ों की वकालत करते हैं। मेरी स्मृति में उनका चेहरा अपने बुझे-बुझे रूप में ताजा हो जाता है और वह समय वह दिन साकार हो उठता है, जब खचाखच भरे सभागार में मुझे अपनी बातें कहने का मौका एक साहित्यिक मंच पर दिया गया था। विषय था हिंदी साहित्य और परिवर्तन की दिशाएं जाहिर है स्त्रियों के लिए बदलाव की जो लहर साहित्य में उठी है, उसे रेखांकित करना था। साथ ही जिन आख्यानों और इतिहास सम्मत कथाओं को औरत के बलिदान के रूप में सराहा गया है, उस पर भी अपना मत देना था। लोकाचारों पर बात करनी थी। क्या सचमुच औरतों में आजादी पाने का जुनून नहीं होना चाहिए? साम्राज्यवादियों, सामंतों और शासकों की फितरत में गुलाम पालने का जज्बा न होता तो गुलामों में भी मुक्ति का जुनून पैदा नहीं होता। कसावट जितनी ज्यादा होती है, छटपटाहट उतनी ही तीव्र होती जाती है। मुश्किल यह है कि इस छटपटाहट को वर्चस्ववादी पुरुषों ने औरत की हिमाकत माना है। घुटन को व्यक्त करना उसकी सहिष्णुता पर बदनुमा दाग की तरह वाचाल करार दिया जाता है। ऐसा न होता तो भारतीय स्त्रियों की दुनिया आंदोलनों की तीखी लपटें न खड़ी करती। मुश्किल यह है कि जो नीति-नियम स्त्री के लिए बनाए गए थे, जो स्त्री-धर्म औरत को बताया गया है, वह हम औरतों के लिए काबिले बर्दाश्त नहीं है। मगर हम यह भी जानते हैं कि पुराने नीति-नियमों पर इनकार में सिर हिलाना हमारी गुस्ताखी होगी। संस्कृति का अस्वीकार हमारा अपराध माना जाएगा। परिवर्तन की दिशाओं पर बोलते हुए मेरे सामने इतिहास की प्रचलित कथा के वे पन्ने खुले पड़े थे जिनके ऊपर लिखी इबारत हम औरतों के लिए काबा काशी की आयतें और मंत्र हैं। चित्तौडग़ढ़ का ऐतिहासिक किस्सा रानी पद्मिनी का जीवन वृत्तांत और उसकी मृत्यु कथा रामायण और गीता की तरह स्त्रियों के संसार में अपना पवित्र और कारगर मुकाम बनाए हुए है। अलाउद्दीन का आक्रमण, चित्तौडग़ढ़ की विजय की तमन्ना और रानी पद्मिनी को अपने हरम में शामिल करने की आरजू ने राजा रतनसेन को मुगल बादशाह की कैद बख्शी। अब रानी पद्मिनी से आमना-सामना होना था। सबको पता है कि रानी पद्मिनी ने अपनी सखियों के साथ जौहर व्रत किया था और लपटों में समाकर अपनी इहलीला समाप्त की थी। बचपन में कल्याण पत्रिका का नारी विशेषांक देखा था। जिसमें देखी थी जलती हुई रानी पद्मिनी की तस्वीर। तब मेरे बाल मन में सवाल जागा था-अपने आप कोई जलता है? मां ने कहा था-अपने आप नहीं, मर्यादा के लिए जलती हैं पद्मिनी और सखियां और सती कहलाती हैं। मैंने मंच से अपनी मनोव्यथा दर्ज की थी ऐसा इतिहास जो स्त्री को भस्म होने के लिए मिसालें पेश करे, अब हमें औरत जात पर कलंक लगता है। रानी पद्मिनी के जौहर-व्रत को हटा देंगे। हम उन पन्नों से जो हमें सती हो जाने की सीख देते हैं। क्या हो जाता अगर अलाउद्दीन हमला कर देता? यही कि रानी पद्मिनी को अपने काबू में कर लेता! क्या रानी में लडऩे की कूवत नहीं थी? वह लाचार थी या कायर? शस्त्रागार से भरा हुआ चित्तौड़ का किला दहशत के मारे राख हो गया। औरतों के हौसले खाक में मिल गए और हमारा समाज है कि आज तक हमें उस जौहर की मिसाल देकर हमें रानी पद्मिनी बनाना चाहता है। हमारे भीतर पुरुषों की पौराणिक और ऐतिहासिक मान्यताओं ने भीषण जहर भर दिए हैं कि हम पुरुष की छाया मात्र से अपवित्र हो जाने के डर से खुद को सिकोड़ते जाते हैं। सिकुड़ा हुआ व्यक्ति आगे चलने के लिए किस हिम्मत पर तैयार हो? मैं तो बस यही मानती हूं कि पद्मिनी को जलकर नहीं, लड़कर मरना था या जीना था, लेकिन स्त्रियों का इतिहास तो उन पुरुष प्रवरों ने बताया है जो अपने घर की औरतों की स्वस्थ सांसों से भी डर जाते हैं। उनकी गलती भी क्या है? वे तहेदिल से सती प्रथा के समर्थक जो हैं। गांधी कहें तो कहते रहें कि जब तक देश में स्त्रियों की स्वतंत्रता नहीं आएगी, तब तक हमारी आजादी पूरी नहीं। जाहिर है कि आजादी के लिए जुनून चाहिए। जुनून न हो तो आदमी कीड़े-मकोड़ों की तरह मर जाए। वफादार होना, वफा के वास्ते जीना किसका मकसद नहीं होता, लेकिन जब वफा के नाम पर कमजोर, कायर और किंकर्तव्यविमूढ़ होने का आदेश पितृसत्तात्मक तबके से आए तो ऐसी वफादारी से तौबा करना हमारा हक है और यह भूमिका अब साहित्य निभाएगा। परिवर्तन की लहर में कुत्ते जैसी वफादारी किनारे कर दी जाएगी, जो महज पेट भरने के लिए रोटी और तन ढंकने वाले कपड़े के लिए औरत आजन्म करती रहती है। हमने पन्ना धाय की कहानी पढ़ी है-राजा से सेवक की वफादारी की ऐसी कथा जिसमें किसी सवाल के लिए जगह नहीं। पन्ना धाय ने राजा के भाई की दुश्मनी राजकुमार पर नहीं टूटने दी, शमशीर की धार के नीचे अपने बेटे को सुला दिया। राजकुमार बच गया, दासी-पुत्र भावी- गुलाम कल गुलामी करता, आज ही काम आ गया। पन्ना बहादुर थी या डरपोक? क्यों छीन लिया एक मां ने अपने बेटे से जिंदगी का अधिकार? क्यों मजबूर हुई वह चुपचाप उस हत्या को देखने के लिए? सब कुछ राजतंत्र के लिए हुआ, क्योंकि राजतंत्र के ऐसे विधि-विधान न लिखे जाएं तो वह जीवित कैसे रहे? ऐसी राजव्यवस्थाओं को चलाने के लिए एक नहीं अनेक लेखक अपना पुरजोर समर्थन देते दिखते हैं तो स्त्रियों का तबका हतप्रभ रह जाता है। कितना चालाक है कलम के सिपाहियों का अभिजात्य समूह कि मुद्दे वही उठाता है जो औरत की जड़ें काटते हैं। अपने ऋषि-मुनियों की पुराण-वेत्ताओं की तरह विरुदावलि गाता है और श्लोक मंत्र बोलकर हमें डराता है कि हमारे लिए जो तय किया गया है, वह पत्थर की लकीर सरीखा है, लेकिन हम भी कहे बिना नहीं मानते कि जो नीतियां, जो निर्धारित धर्म की नियमावलियां और लोकाचारों की विधियां हमें रास नहीं आतीं, हम उन्हें बदलेंगे। उदाहरण के तौर पर पारिवारिक संबंधों को ले सकते हैं जिनमें हमको प्यार-प्रीति का मोम बनाकर घुला लिया जाता है। अब तक यह नई बात कोर्ट-कचहरियों की मार्फत सामने नहीं आई थी कि पिता की संपत्ति में बेटी का भी अधिकार होगा, जबकि हम औरतों के जीवन में पितृ संपदा से खारिज होने का मलाल सदा से ही रहा है। ऐसा क्यों है? जिस आंगन में जन्म लिया है, उस पर भाई का हक है, बहन का नहीं। यह कायदा किसने बताया? मैं मानती हूं कि पिता के घर बेटी विदा होते समय बेसहारा मजलूम और अजनबी की तरह दूसरे यानी पति के घर में प्रवेश करती है। माता-पिता दुखित तो दिखते हैं, लेकिन उससे ज्यादा वे संतुष्ट होते हैं-परायी अमानत गई, जिम्मेदारी टली, गंगा नहाने का वक्त आ गया। जैसी भावनाओं के साथ बेटी की झोली में सांत्वना के टुकड़े डालते जाते हैं। तुम हमारी बेटी हो, दोनों कुल की लाज निभाओगी। इज्जत बचाकर रहोगी। पिता के घर से जा रही हो, अब यहां बुलाने पर ही आना। बिना बुलाये जाने पर अपमान होता है। रक्षाबंधन भाई की ओर से आश्वस्त करने का त्यौहार है कि हम तुम्हारी रक्षा करेंगे। कितने झूठे हैं ये दावे! भेंट उपहार और नेग दस्तूर में दिए गए कुछ नोट या सिक्के बिना धार के हथियार की तरह लड़की के हकों को काट डालते हैं। पूछने का मन करता है पिता की संपत्ति में बेटी का हक खा-पचाकर आप किन दस्तूरों की दुहाई देते हैं? बहन अगर अपना हिस्सा जायदाद में मांगती है तो आप की भृकुटि क्यों तन जाती है? क्या बहन की जगह एक भाई ही हो तो दूसरा भाई यहां नेग दस्तूरों का प्रस्ताव रखकर उसके संपत्ति के अधिकार को काट सकता है? भाई अपने भाई के हाथ में राखी बांधकर, भाईदूज का टीका करके, बच्चों के जन्म पर उपहार लेकर हिस्से की जायदाद हमेशा के लिए छोड़ सकता है? नहीं न। फिर बहन से जड़ से कटने वाले त्याग की उम्मीद क्यों की जाती है? इस सवाल के जवाब में हमारे साहित्यकार बंधु फरमाते हैं कि मैं पारस्परिक संबंधों को कचोटने वाली बात केवल इसलिए कह रही हूं कि सनसनी पैदा हो। अगर किसी को मेरी बात स्वतंत्रता के दावे में मजबूत लगती है तो भी इसका गलत असर पड़ेगा-हमारे साहित्यिक चिंतक ऐसी चिंता में धैर्य खो बैठे और संदर्भ खो दिए। पूछना तो यह भी है कि भावनात्मक पक्ष से जुड़े लोकाचार यदि प्रेम का माध्यम हैं तो हकों की कटाई में यह क्यों शामिल हैं? बहन से प्रेम क्या उसका हिस्सा मारकर ही निभाया जा सकता है? यदि ऐसा है तो प्रेम नहीं, यह सौदा है। इस सौदे को बड़ी चालाकी से चलाया जाता रहा है। अपनी सोच-समझ के लिए यदि हमारे तथाकथित आका स्वतंत्र हैं तो समय आ गया है कि हम भी अपनी समझदारी को दर्ज करें। गुलाबी ब्रिगेड हो या शराबबंदी के पक्ष में निकले स्त्री-दस्ते, निश्चित ही यह परिवर्तन की चाह में उठे हैं। वरन दाता और दारू का चलन तो सर्वमान्य होकर चलता है, इसलिए औरतों द्वारा किया गया हर दावा थोथा लगता है। क्या करें वे भी हमारे तर्क सुनने की आदत नहीं, सिर को धड़ से अलग करने के इरादे कंठस्थ हैं। ऐसे लोगों ने ही हजारों साल थोथी परंपराओं को जीवित रखा। असलियतें खुलती हैं, मगर ये अपनी लफ्फाजी से बाज नहीं आते। सामंती व्यवस्था जड़ ही नहीं होती, बेशर्म भी होती है। औरतों को तो हर शासक व्यवस्था को चुनौती देनी है, क्योंकि परिवर्तन का सार यही है। (लेखिका जानी-मानी साहित्यकार हैं)
आजकल कुछ लेखिकाएं जुनून के स्तर पर महिला स्वातंत्र्य के बारे में बात कर देती हैं यह कहना है हमारे प्रसिद्ध साहित्यकार का, जो हैं तो गांधी भक्त, लेकिन देश की आधी दुनिया के बारे में विचार करते हुए पुराने रीति-रिवाजों यानी रूढिय़ों की वकालत करते हैं। मेरी स्मृति में उनका चेहरा अपने बुझे-बुझे रूप में ताजा हो जाता है और वह समय वह दिन साकार हो उठता है, जब खचाखच भरे सभागार में मुझे अपनी बातें कहने का मौका एक साहित्यिक मंच पर दिया गया था। विषय था हिंदी साहित्य और परिवर्तन की दिशाएं जाहिर है स्त्रियों के लिए बदलाव की जो लहर साहित्य में उठी है, उसे रेखांकित करना था। साथ ही जिन आख्यानों और इतिहास सम्मत कथाओं को औरत के बलिदान के रूप में सराहा गया है, उस पर भी अपना मत देना था। लोकाचारों पर बात करनी थी। क्या सचमुच औरतों में आजादी पाने का जुनून नहीं होना चाहिए? साम्राज्यवादियों, सामंतों और शासकों की फितरत में गुलाम पालने का जज्बा न होता तो गुलामों में भी मुक्ति का जुनून पैदा नहीं होता। कसावट जितनी ज्यादा होती है, छटपटाहट उतनी ही तीव्र होती जाती है। मुश्किल यह है कि इस छटपटाहट को वर्चस्ववादी पुरुषों ने औरत की हिमाकत माना है। घुटन को व्यक्त करना उसकी सहिष्णुता पर बदनुमा दाग की तरह वाचाल करार दिया जाता है। ऐसा न होता तो भारतीय स्त्रियों की दुनिया आंदोलनों की तीखी लपटें न खड़ी करती। मुश्किल यह है कि जो नीति-नियम स्त्री के लिए बनाए गए थे, जो स्त्री-धर्म औरत को बताया गया है, वह हम औरतों के लिए काबिले बर्दाश्त नहीं है। मगर हम यह भी जानते हैं कि पुराने नीति-नियमों पर इनकार में सिर हिलाना हमारी गुस्ताखी होगी। संस्कृति का अस्वीकार हमारा अपराध माना जाएगा। परिवर्तन की दिशाओं पर बोलते हुए मेरे सामने इतिहास की प्रचलित कथा के वे पन्ने खुले पड़े थे जिनके ऊपर लिखी इबारत हम औरतों के लिए काबा काशी की आयतें और मंत्र हैं। चित्तौडग़ढ़ का ऐतिहासिक किस्सा रानी पद्मिनी का जीवन वृत्तांत और उसकी मृत्यु कथा रामायण और गीता की तरह स्त्रियों के संसार में अपना पवित्र और कारगर मुकाम बनाए हुए है। अलाउद्दीन का आक्रमण, चित्तौडग़ढ़ की विजय की तमन्ना और रानी पद्मिनी को अपने हरम में शामिल करने की आरजू ने राजा रतनसेन को मुगल बादशाह की कैद बख्शी। अब रानी पद्मिनी से आमना-सामना होना था। सबको पता है कि रानी पद्मिनी ने अपनी सखियों के साथ जौहर व्रत किया था और लपटों में समाकर अपनी इहलीला समाप्त की थी। बचपन में कल्याण पत्रिका का नारी विशेषांक देखा था। जिसमें देखी थी जलती हुई रानी पद्मिनी की तस्वीर। तब मेरे बाल मन में सवाल जागा था-अपने आप कोई जलता है? मां ने कहा था-अपने आप नहीं, मर्यादा के लिए जलती हैं पद्मिनी और सखियां और सती कहलाती हैं। मैंने मंच से अपनी मनोव्यथा दर्ज की थी ऐसा इतिहास जो स्त्री को भस्म होने के लिए मिसालें पेश करे, अब हमें औरत जात पर कलंक लगता है। रानी पद्मिनी के जौहर-व्रत को हटा देंगे। हम उन पन्नों से जो हमें सती हो जाने की सीख देते हैं। क्या हो जाता अगर अलाउद्दीन हमला कर देता? यही कि रानी पद्मिनी को अपने काबू में कर लेता! क्या रानी में लडऩे की कूवत नहीं थी? वह लाचार थी या कायर? शस्त्रागार से भरा हुआ चित्तौड़ का किला दहशत के मारे राख हो गया। औरतों के हौसले खाक में मिल गए और हमारा समाज है कि आज तक हमें उस जौहर की मिसाल देकर हमें रानी पद्मिनी बनाना चाहता है। हमारे भीतर पुरुषों की पौराणिक और ऐतिहासिक मान्यताओं ने भीषण जहर भर दिए हैं कि हम पुरुष की छाया मात्र से अपवित्र हो जाने के डर से खुद को सिकोड़ते जाते हैं। सिकुड़ा हुआ व्यक्ति आगे चलने के लिए किस हिम्मत पर तैयार हो? मैं तो बस यही मानती हूं कि पद्मिनी को जलकर नहीं, लड़कर मरना था या जीना था, लेकिन स्त्रियों का इतिहास तो उन पुरुष प्रवरों ने बताया है जो अपने घर की औरतों की स्वस्थ सांसों से भी डर जाते हैं। उनकी गलती भी क्या है? वे तहेदिल से सती प्रथा के समर्थक जो हैं। गांधी कहें तो कहते रहें कि जब तक देश में स्त्रियों की स्वतंत्रता नहीं आएगी, तब तक हमारी आजादी पूरी नहीं। जाहिर है कि आजादी के लिए जुनून चाहिए। जुनून न हो तो आदमी कीड़े-मकोड़ों की तरह मर जाए। वफादार होना, वफा के वास्ते जीना किसका मकसद नहीं होता, लेकिन जब वफा के नाम पर कमजोर, कायर और किंकर्तव्यविमूढ़ होने का आदेश पितृसत्तात्मक तबके से आए तो ऐसी वफादारी से तौबा करना हमारा हक है और यह भूमिका अब साहित्य निभाएगा। परिवर्तन की लहर में कुत्ते जैसी वफादारी किनारे कर दी जाएगी, जो महज पेट भरने के लिए रोटी और तन ढंकने वाले कपड़े के लिए औरत आजन्म करती रहती है। हमने पन्ना धाय की कहानी पढ़ी है-राजा से सेवक की वफादारी की ऐसी कथा जिसमें किसी सवाल के लिए जगह नहीं। पन्ना धाय ने राजा के भाई की दुश्मनी राजकुमार पर नहीं टूटने दी, शमशीर की धार के नीचे अपने बेटे को सुला दिया। राजकुमार बच गया, दासी-पुत्र भावी- गुलाम कल गुलामी करता, आज ही काम आ गया। पन्ना बहादुर थी या डरपोक? क्यों छीन लिया एक मां ने अपने बेटे से जिंदगी का अधिकार? क्यों मजबूर हुई वह चुपचाप उस हत्या को देखने के लिए? सब कुछ राजतंत्र के लिए हुआ, क्योंकि राजतंत्र के ऐसे विधि-विधान न लिखे जाएं तो वह जीवित कैसे रहे? ऐसी राजव्यवस्थाओं को चलाने के लिए एक नहीं अनेक लेखक अपना पुरजोर समर्थन देते दिखते हैं तो स्त्रियों का तबका हतप्रभ रह जाता है। कितना चालाक है कलम के सिपाहियों का अभिजात्य समूह कि मुद्दे वही उठाता है जो औरत की जड़ें काटते हैं। अपने ऋषि-मुनियों की पुराण-वेत्ताओं की तरह विरुदावलि गाता है और श्लोक मंत्र बोलकर हमें डराता है कि हमारे लिए जो तय किया गया है, वह पत्थर की लकीर सरीखा है, लेकिन हम भी कहे बिना नहीं मानते कि जो नीतियां, जो निर्धारित धर्म की नियमावलियां और लोकाचारों की विधियां हमें रास नहीं आतीं, हम उन्हें बदलेंगे। उदाहरण के तौर पर पारिवारिक संबंधों को ले सकते हैं जिनमें हमको प्यार-प्रीति का मोम बनाकर घुला लिया जाता है। अब तक यह नई बात कोर्ट-कचहरियों की मार्फत सामने नहीं आई थी कि पिता की संपत्ति में बेटी का भी अधिकार होगा, जबकि हम औरतों के जीवन में पितृ संपदा से खारिज होने का मलाल सदा से ही रहा है। ऐसा क्यों है? जिस आंगन में जन्म लिया है, उस पर भाई का हक है, बहन का नहीं। यह कायदा किसने बताया? मैं मानती हूं कि पिता के घर बेटी विदा होते समय बेसहारा मजलूम और अजनबी की तरह दूसरे यानी पति के घर में प्रवेश करती है। माता-पिता दुखित तो दिखते हैं, लेकिन उससे ज्यादा वे संतुष्ट होते हैं-परायी अमानत गई, जिम्मेदारी टली, गंगा नहाने का वक्त आ गया। जैसी भावनाओं के साथ बेटी की झोली में सांत्वना के टुकड़े डालते जाते हैं। तुम हमारी बेटी हो, दोनों कुल की लाज निभाओगी। इज्जत बचाकर रहोगी। पिता के घर से जा रही हो, अब यहां बुलाने पर ही आना। बिना बुलाये जाने पर अपमान होता है। रक्षाबंधन भाई की ओर से आश्वस्त करने का त्यौहार है कि हम तुम्हारी रक्षा करेंगे। कितने झूठे हैं ये दावे! भेंट उपहार और नेग दस्तूर में दिए गए कुछ नोट या सिक्के बिना धार के हथियार की तरह लड़की के हकों को काट डालते हैं। पूछने का मन करता है पिता की संपत्ति में बेटी का हक खा-पचाकर आप किन दस्तूरों की दुहाई देते हैं? बहन अगर अपना हिस्सा जायदाद में मांगती है तो आप की भृकुटि क्यों तन जाती है? क्या बहन की जगह एक भाई ही हो तो दूसरा भाई यहां नेग दस्तूरों का प्रस्ताव रखकर उसके संपत्ति के अधिकार को काट सकता है? भाई अपने भाई के हाथ में राखी बांधकर, भाईदूज का टीका करके, बच्चों के जन्म पर उपहार लेकर हिस्से की जायदाद हमेशा के लिए छोड़ सकता है? नहीं न। फिर बहन से जड़ से कटने वाले त्याग की उम्मीद क्यों की जाती है? इस सवाल के जवाब में हमारे साहित्यकार बंधु फरमाते हैं कि मैं पारस्परिक संबंधों को कचोटने वाली बात केवल इसलिए कह रही हूं कि सनसनी पैदा हो। अगर किसी को मेरी बात स्वतंत्रता के दावे में मजबूत लगती है तो भी इसका गलत असर पड़ेगा-हमारे साहित्यिक चिंतक ऐसी चिंता में धैर्य खो बैठे और संदर्भ खो दिए। पूछना तो यह भी है कि भावनात्मक पक्ष से जुड़े लोकाचार यदि प्रेम का माध्यम हैं तो हकों की कटाई में यह क्यों शामिल हैं? बहन से प्रेम क्या उसका हिस्सा मारकर ही निभाया जा सकता है? यदि ऐसा है तो प्रेम नहीं, यह सौदा है। इस सौदे को बड़ी चालाकी से चलाया जाता रहा है। अपनी सोच-समझ के लिए यदि हमारे तथाकथित आका स्वतंत्र हैं तो समय आ गया है कि हम भी अपनी समझदारी को दर्ज करें। गुलाबी ब्रिगेड हो या शराबबंदी के पक्ष में निकले स्त्री-दस्ते, निश्चित ही यह परिवर्तन की चाह में उठे हैं। वरन दाता और दारू का चलन तो सर्वमान्य होकर चलता है, इसलिए औरतों द्वारा किया गया हर दावा थोथा लगता है। क्या करें वे भी हमारे तर्क सुनने की आदत नहीं, सिर को धड़ से अलग करने के इरादे कंठस्थ हैं। ऐसे लोगों ने ही हजारों साल थोथी परंपराओं को जीवित रखा। असलियतें खुलती हैं, मगर ये अपनी लफ्फाजी से बाज नहीं आते। सामंती व्यवस्था जड़ ही नहीं होती, बेशर्म भी होती है। औरतों को तो हर शासक व्यवस्था को चुनौती देनी है, क्योंकि परिवर्तन का सार यही है। (लेखिका जानी-मानी साहित्यकार हैं)
सरकार ही नहीं संगठन पर भी चले राजनीतिक शुचिता का अभियान
भाजपा कार्यसमिति की बैठक इस मायने में एक सार्थक मोड़ की गवाह बनी है कि इसमें राजनीतिक शुचिता की काफी जोर शोर से हिमायत की गई। कांग्र्रेस की चौतरफा आलोचना के स्थायी भाव को छोड़ कर यदि इसकी अन्य महत्वपूर्ण बातों पर गौर किया जाए तो यही निष्कर्ष निकलेगा कि काफी समय बाद पार्टी ने नैतिकता के पैमाने को खुद पर लागू करने की जरूरत महसूस की। पार्टी ने उन नेताओं की संगठन तथा सरकार से किनाराकशी करने की सलाह दी जिनके कारण पार्टी की छवि खराब हो रही है। इनमें भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे मंत्री तो हैैं ही, अन्य गंभीर आरोपों से घिरे मंत्री भी हैैं। इसका अनुकूल परिणाम भी सामने आया है और अनूप मिश्रा ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया है जिसे मंजूर भी कर लिया गया है। वैसे यह दोहरा पैमाना राजनीति की परंपरा बन गया है कि यदि प्रतिद्वंदी पार्टी का नेता हो, तो उसपर आरोप लगते ही नैतिकता के आधार पर इस्तीफे की मांग की जाती है और यदि खुद की पार्टी का नेता भ्रष्टाचार या गंभीर अपराधों में भी लिप्त हो तो आरोप सिद्ध होने तक उसे निरपराध मानते हुए इस आधार पर पद पर बने रहने की दलील दी जाती है। इस दोहरे मापदंड के बीच यह इस्तीफा एक मिसाल अवश्य माना जा सकता है क्योंकि उनके इस्तीफे की कोई कानूनी बाध्यता नहीं है। ऐसी ही आशा अन्य मंत्रियों से भी की जाती है कि वे निर्दोष सिद्ध होने तक तक पद छोड़ दें। लेकिन यक्ष प्रश्न यही है कि भाजपा तमाम राजनीतिक मजबूरियों के बावजूद राजनीतिक शुचिता के पैमाने पर क्या खरी उतर सकेगी जो कार्यकारिणी की बैठक का प्रमुख एजेंंडा बनकर उभरा है। बैठक में एक तरह से मुख्यमंत्री को पार्टी की हरी झंडी मिल गई है कि वे दागी मंत्रियों पर कार्रवाई कर पार्टी की छवि को उज्जवल करें। अब मुख्यमंत्री की संकल्पशक्ति पर पूरा मामला आ टिका है। कोई भी सरकार कितनी भी जन हितकारी योजनाओं एवं कार्यक्रमों की रूपरेखा बना ले और उन पर अमल करने की कितनी भी कवायद कर ले लेकिन भ्रष्टाचार से उन सब पर पानी फिर जाता है अत: मुख्यमंत्री को अपनी इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए राजनीतिक शुचिता की पार्टी की इच्छा को अमलीजामा पहनाना चाहिए। लेकिन सिर्फ इतने से ही काम नहीं चलेगा। राज्य में कानून व्यवस्था की आज जो दयनीय स्थिति है, वह किसी से छिपी नहीं है। पार्टी के नेताओं एवं कार्यकर्ताओं की प्रशासन एवं पुलिस के कामकाज में दखलंदाजी इसका एक अहम कारण है। अत: राजनीतिक शुचिता का अभियान सिर्फ मंत्रिमंडल पर ही नहीं बल्कि संगठनात्मक स्तर पर भी चलना चाहिए और प्रशासनिक दखलंदाजी से पुलिस के कामकाज को प्रभावित करने वाले नेताओं एवं कार्यकर्ताओं पर भी कार्रवाई की जानी चाहिए तभी प्रदेश में नई राजनीतिक संस्कृति का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा और प्रदेश के लोग इस नए बदलाव से आश्वस्त हो सकेंगेेे।
-सर्वदमन पाठक
-सर्वदमन पाठक
बीमार अस्पताल, बेहाल मरीज
मध्यप्रदेश देश का हृदय प्रदेश है और स्वाभाविक रूप से यह अपेक्षा की जाती है कि यह प्रदेश राज्य के वर्तमान एवं भविष्य के प्रति अधिक संवेदनशील होगा। कहते हैैं कि बच्चे हमारा भविष्य, हमारा कल हैैं। गत दिवस घटी कुछ घटनाएं यह संकेत करती हैैं कि प्रदेश अपने इस कल के प्रति समुचित चिंता तथा समुचित संवेदनशीलता के प्रदर्शन मेंं नाकाम रहा है। विदिशा के कुरवाई अस्पताल में एक गर्भवती महिला के प्रसव की जिम्मेदारी न निभाने का मसला हो, या फिर भोपाल के दो अस्पतालों मेंं बच्चा वार्ड में लगी आग अथवा बिजली गुल रहने का मामला, इन सभी घटनाओं से यही संकेत मिलता है। ये हादसे क्रमश: जेपी अस्पताल तथा सुल्तानिया अस्पताल में हुए जिनमें से जेपी अस्पताल में शार्ट सर्किट से लगी आग ने बच्चा वार्ड(सिक न्यू बार्न केयर यूनिट) को अपनी चपेट में ले लिया और सारे वार्ड में धुआं भर जाने से स्थिति चिंताजनक हो गई। उस समय इस बच्चा वार्ड में 17 बच्चे भर्ती थे। यदि आनन फानन में 11 बच्चों को उनकी मां के हवाले नहीं किया गया होता और तीन अपेक्षाकृत गंभीर बच्चों को प्रायवेट वार्ड में शिफ्ट नहीं किया जाता तो वहां इन नवजात शिशुओं का जीवन खतरे में पड़ सकता था। उधर सुल्तानिया अस्पताल में जेनरेटर में विस्फोट होने से आग लग गई और पूरा अस्पताल कई घंटे तक अंधेरे में डूबा रहा। ऐसे ही अंधेरे मेंं बच्चों का इलाज चलता रहा। अस्पताल प्रबंधन के मुताबिक केबिल फटने से यह नौबत आई। लेकिन इसे सिर्फ हादसे मानकर उपेक्षित कर देना कतई उचित नहीं होगा क्योंकि रखरखाव में कमी भी इस हादसों के लिए जिम्मेदार है। और यह रखरखाव जिस प्रबंधन की जिम्मेदारी है, उन्हें इन हादसों की जवाबदेही से कतई मुक्त नहीं किया जा सकता। जब भोपाल में जहां पूरी सरकार तथा उसके आला अफसर मौजूद रहते हैं, उनकी नाक के नीचे ऐसे हादसे हो सकते हैं तो फिर अन्य जिलों के दूरदराज इलाकों में अस्पतालों के रखरखाव की क्या स्थिति होगी, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है। इन अस्पतालों में डाक्टरों एवं चिकित्सा सुविधाओं की कमी भी किसी से छिपी नहीं है। राज्य सरकार जब तब यह दावे करती रही है कि वह राज्य के लोगों की जिंदगी तथा सेहत को सर्वोच्च प्राथमिकता देती है लेकिन उक्त घटनाएं उसके दावों को झुठलाती नजर आती हैं। संभव है कि स्वास्थ्य एवं चिकित्सा विभाग का समुचित सहयोग सरकार को न मिलने से यह स्थिति बनी हो लेकिन यदि वह अपने ही विभागों से समुचित क्षमता के साथ काम नहीं ले पाती तो इसके लिए राज्य सरकार खुद ही जिम्मेदार है। राज्य सरकार को उक्त हादसों पर सख्त रुख अपनाना चाहिए और इनकी पूरी पूरी छानबीन कराना चाहिए ताकि इन घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो सके क्योंकि राज्य के लोगों की सेहत की रक्षा करना राज्य सरकार की बुनियादी जिम्मेदारी है।
-सर्वदमन पाठक
-सर्वदमन पाठक
Thursday, July 1, 2010
आतंकवाद की फैलती विषबेल
भाजपा केंद्र की कांग्रेस नीत सरकार पर यह आरोप लगाती रही है कि वह आतंकवाद पर अंकुश लगाने में असफल रही है लेकिन सच तो यह है कि भाजपा शासित राज्य सरकारें खुद भी आतंकवाद की विषबेल को फैलने से रोकने में नाकाम रही हैं। मध्यप्रदेश के शाजापुर जिले में 13 आतंकवादियों की धरपकड़ इस बात का स्पष्टï प्रमाण है। इन आतंकवादियों के पास से काफी उत्तेजक आतंकवादी साहित्य तथा सीडी मिली है जिससे यह सिद्ध होता है कि वे इस क्षेत्र में लोगों ं को धार्मिक रूप से भड़काने की साजिश के तहत शाजापुर आये थे। ये सभी आतंकवादी उत्तरप्रदेश से आए थे जहां के कई जिले आजकल आतंकवाद की नर्सरी के रूप में जाने जाते हैं। गौरतलब है कि शाजापुर का नाम हाल की कई बड़ी आतंकवादी वारदातों मेें आता रहा है। अक्षरधाम मंदिर पर हमला, मालेगांव बम ब्लास्ट तथा हैदराबाद बम ब्लास्ट के तार शाजापुर से जुड़े पाये गए थे। दरअसल सिर्फ शाजापुर ही नहीं बल्कि प्रदेश में मालवा क्षेत्र पिछले कई सालों से आतंकवादियों की शरणस्थली के रूप में बदनाम रहा है और इस क्षेत्र में सिमी के नेटवर्क की मौजूदगी कोई छिपी हुई बात नहीं रही है। अतीत में पकड़े गए सफदर नागौरी जैसे सिमी से जुड़े कई कुख्यात आतंकवादी इस क्षेत्र में सक्रिय रहे हैं। शाजापुर में अन्य प्रदेशों के आतंकवादियों का ठहरना इस बात की पुष्टिï करता है कि इस क्षेत्र को आतंकवादी काफी हद तक निरापद मानते हैं। इतना ही नहीं, मालेगांव बम ब्लास्ट जैसे घटनाओं से जरिए देश प्रदेश की शांति भंग करने का साजिश रचने के आरोपी भी मालवा क्षेत्र से ही पकड़े जा चुके हैं। राज्य सरकार बार बार यह घोषणा करती है कि वह प्रदेश से आतंकवादी गतिविधियों का सफाया करने के लिए कृतसंकल्प है लेकिन आतंकवादियों की मौजूदगी को उजागर करने वाली घटनाएं यही बताती हैं कि आज भी प्रदेश में ऐेसे तत्व मौजूद हैं जो आतंकवाद का जहर लोगों के दिलो दिमाग में बोने की साजिश में लगे हुए हैं और प्रदेश सरकार उन्हें खोज निकालने तथा सींखचों के पीछे भेजने में पूरी तरह सफल नहीं रही है। स्वाभाविक रूप से ये आतंकवाद के स्लीपिंग सेल के रूप में जहां तहां रह रहे हैं और अपने आतंकवादी मंसूबों को अंजाम देने के लिए अनुकूल वक्त के इंतजार में हैं। इन्हें यदि आतंकवाद का टाइम बम कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसमें कोई शक नहीं है कि राज्य सरकार आतंकवाद के सफाये का इरादा रखती है और इस दिशा में सरकार ने छिटपुट कार्रवाई भी की है लेकिन इस जंग में निरंतरता का अभाव स्पष्टï रूप से परिलक्षित होता है। यदि राज्य सरकार प्रदेश में आतंकवाद को जड़ मूल से खत्म करना चाहती है तो उसे इसके खिलाफ निर्णायक जंग छेडऩी होगी। -सर्वदमन पाठक
Tuesday, June 29, 2010
भोपाल गैस त्रासदी फैसला : देर भी अंधेर भी
से करीब ढाई दशक पहले हंसती गाती जिंदगी से सराबोर झीलों के शहर को आंसुओं के समुंदर में तब्दील कर देने वाली यूका मिक गैस रिसन त्रासदी के फैसले से भोपाल में गुस्से की लहर सी दौड़ गई है। यह फैसला भोपालवासियों को हत्प्रभ एवं निराश करने वाला और उसके घावों पर नमक छिड़कने वाला है। पंद्रह हजार से अधिक लोगों को मौत की नींद सुला देने और लाखों लोगों को मौत से भी बदतर जिंदगी जीने के लिए मजबूर कर देने वाली विश्व की इस भयावहतम औद्योगिक दुर्घटना में आरोपी बनाए गए मौत के सौदागर पच्चीस साल के लंबे इंतजार के बाद दो साल की मामूली सजा पाएं और सिर्फ पच्चीस मिनट में जमानत पर मुक्त कर दिये जाएं, यह तो त्रासदी की पीड़ा से कराहती भोपाल की जनता की भावनाओं के साथ न्याय के नाम पर किया गया क्रूर मजाक ही है। जिन आरोपियों के हाथ हजारों लोगों के खून से रंगे हों, जिनकी वजह से लाखों लोगों की जिंदगी दोजख सी बन गई हो, जिन्हें फांसी देने की बददुआ गैस त्रासदी की हर बरसी पर गूंजती रहती हो, उन्हें इस फैसले से मिली राहत भोपालवासियों के लिए शर्म का सबब बन गई है, लेकिन यह दुनिया भर के उन तमाम लोगों के लिए भी किसी शर्मनाक हादसे से कम नहीं है, जिन्होंने खुद आगे बढ़कर भोपाल के गैसपीडि़तों की लड़ाई में समर्थन ही नहीं शिरकत भी की थी। लेकिन इसके लिए अदालत को दोषी मानना उसके साथ नाइंसाफी ही होगी, क्योंकि बहुराष्ट्रीय कंपनी यूका के साथ पर्दे के पीछे केंद्र सरकार एवं उसके जरिये सीबीआई की घृणित मिलीभगत ही भोपाल के लोगों को इंसाफ से वंचित करने के लिए जिम्मेदार है। ऐतिहासिक घटनाक्रम इस बात का गवाह है कि दुर्घटना के बाद मूलत: इस कंपनी के खिलाफ 304( पार्ट 2) के तहत मुकदमा कायम किया गया था, जिसमें आरोपियों को आजन्म कारावास का प्रावधान था, लेकिन सीबीआई ने कंपनी पर लगाई गई मूल धारा को बदलकर धारा 304(ए) कर दिया, जिसके बाद न्यायालय के हाथ बंध गए क्योंकि नई धारा के तहत दो साल से ज्यादा की सजा का प्रावधान ही नहीं था। चूंकि यह विश्वास करना मुश्किल है कि सीबीआई केंद्र सरकार के इशारे के बिना यह जुर्रत कर सकती है इसलिए यह निष्कर्ष स्वाभाविक ही है कि बहुराष्ट्रीय कंपनी के साथ केंद्र की साठगांठ का इस फैसले में अहम रोल रहा है। यह साठगांठ भोपाल के गैस पीडि़तों को मिलने वाले मुआवजे में कटौती के रूप में भी सामने आई है। ठ्ठ शेष पृष्ठï 9 परतिस पर केंद्रीय कानून मंत्री का यह बयान गैसपीडि़तों को व्यंगबाण जैसा लगता है जिसमें वह कहते हैैं कि भोपाल में न्याय दफन हो गया है।यह फैसला मौत के सौदागरों को उनके किये की पूरी पूरी सजा दिलाने की गैसपीडि़तों की न्यायपूर्ण इच्छा का गला घोंटता है और इस फैसले को गैस पीडि़तों ने ऊंची अदालत में चुनौती देने का जो निर्णय लिया है, वह इस बात का परिचायक है कि गैसपीडि़त न्याय की इस लड़ाई को तार्किक परिणति तक पहुंचाने के लिए कृतसंकल्प हैं। यूनियन कार्बाइड के खिलाफ इंसाफ की इस जंग में कामयाबी इसलिए भी जरूरी है ताकि बहुराष्ट्रीय कंपनियों तथा उन्हें संरक्षण देने वाली विश्व की बड़ी शक्तियों के हाथों राष्टï्रीय हितों को गिरवी रखने वाली सरकारों एवं उनके ध्वजवाहक नेताओं को बेनकाब किया जा सके और देश को इस दुष्चक्र से मुक्ति दिलाई जा सके। बहरहाल गैसपीडि़तों के पीठ पर बहुराष्टï्रीय कंपनियों के साथ साजिश रचकर जिन जयचंदी ताकतों ने छुरा भोंका है, भोपाल शायद उन्हें कभी माफ नही कर सकेगा।-सर्वदमन पाठक
मध्याह्नï भोजन में छिपकली!
प्रदेश में आंगनबाड़ी के बच्चों को दिये जाने वाले भोजन में किस कदर जानलेवा लापरवाही बरती जाती है, सतना में हुई घटना इस बात की ही गवाही देती है। इस घटना के तहत सतना की एक आंगनबाड़ी में पढऩे वाले बच्चों को दूषित और संभवत: विषाक्त खीर परोस दी गई जिससे उन्हें अस्पताल में भर्ती करना पड़ा था। आंगनबाड़ी की बच्चियों द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार इस खीर को बनाने में इस कदर लापरवाही बरती गई कि खीर में एक छिपकली पक गई और इसी खीर को बच्चों को परोस दिया गया। इसका हश्र यह हुआ कि बच्चों को जान के लाले पड़ गए और अस्पताल में भरती करने पर ही इन बच्चों पर से यह संकट टल सका। ऐसी ही एक घटना श्योपुर जिले में हुई जहां दूषित पोहा आंगनबाड़ी के बच्चों को परोस दिया गया और इससे बीमार हुए कुछ बच्चों का एक निजी चिकित्सालय में उपचार किया गया तब उनकी हालत में सुधार हो सका। दूषित भोजन आंगनबाड़ी में परोसे जाने के मामले अन्य आंगनबाड़ी में भी सामने आए हैैं। ये मामले विरले नहीं है बल्कि पिछले वर्षों में जब तब मध्यान्ह भोज में दूषित एवं विषाक्त खाना परोसे जाने की शिकायतें आती रही हैैं। गांवों एवं दूरदराज के इलाकों मेंं तो ये शिकायतें आम ही हैैं लेकिन राजधानी एवं उसके आसपास के स्कूल एवं आंगनबाडिय़ों में भी इस तरह की कई खबरें अखबारों एवं न्यूज चैनलों की सुर्खियां बनी हैैं जहां प्रदेश सरकार एवं प्रशासन के आला अफसर सतत मौजूद रहते हैैं। कमोवेश हर बार ऐसी घटनाएं सामने आने पर जांच की घोषणा की जाती है और जांच की औपचारिकता भी की जाती है लेकिन फिर इनकी रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है और ये घटनाएं नए सिरे से होने लगती है। इसका एक बड़ा कारण यह है कि या तो मध्यान्ह भोजन योजना से जुड़े लोगों को राजनीतिक नेताओं एवं प्रशासनिक अधिकारियों का संरक्षण प्राप्त होता है या फिर उन्हें बचाने के लिए नेता एवं अफसर सक्रिय हो जाते हैैं। लेकिन मध्यान्ह भोजन में धांधली एक सामाजिक अपराध ही है और इसे इसी नजर से देखा जाना चाहिए। सरकार को ऐसी घटनाओं पर काफी सख्त रुख अपनाना चाहिए और इन घटनाओं की गहराई से जांच करा कर उनमें उत्तरदायी व्यक्तियों पर कठोर कार्रवाई करना चाहिए क्योंकि ऐसी घटनाओं से सरकारी योजनाओं के प्रति लोगों में भरोसा घटता है। जब तक सरकार मध्यान्ह भोजन में गड़बड़ी करने वालों पर ऐसे दंड की कार्रवाई नहीं करता जो अन्य लोगों के लिए भी नजीर बने तब तक इन पर अंकुश लगना नामुमकिन ही होगा और सरकार इस योजना की नाकामी के दायरे में आती रहेगी।-सर्वदमन पाठक
जरूरत है ऐसे और धमाकों की?
भोपाल के मोतिया तालाब मार्ग पर अवैध रूप से बनाई गई एक इमारत की दो मंजिलों को उड़ाने के लिए किया गया धमाका जिस तरह से मीडिया की सुर्खियों में है, उससे यह भ्रम होना स्वाभाविक है कि यह नगर निगम की भारी भरकम उपलब्धि है। लेकिन वास्तविकता कुछ और है। वैसे एक अपुष्टï सी खबर यह भी है कि इस बिल्डिंग के मालिक से नगर निगम अधिकारियों का सौदा नहीं पट पाया क्योंकि नगर निगम की गतिविधियों से दूर से वाकिफ लोगों को भी पता है कि यहां पैसे से कोई भी काम कराया जा सकता है। लोग इस घटना पर चुटकियां लेते हुए सुने जा सकते हैं कि शायद अधिकारियों की मांग कुछ ज्यादा रही होगी और इमारत के मालिक को यह कल्पना नहीं रही होगी कि नगर निगम उसकी बिल्डिंग की ही ऊपरी मंजिलों को धराशायी कर देगा। बहरहाल यदि नगर निगम ने अवैध निर्माण के खिलाफ इतना दुस्साहसिक कदम उठाया है तो वह बधाई एवं सराहना का पात्र है लेकिन क्या नगर निगम इस बात का स्पष्टï आश्वासन दे सकता है कि यह कार्रवाई अपने अंजाम तक पहुंचने तक लगातार जारी रहेगी। यह ऐसी शुरुआत है जिसे अंजाम पहुंचाना भोपाल के विकास ही नहीं, पर्यावरण के लिए भी जरूरी है। गौरतलब है कि करीब डेढ़-दो दशक पहले सिद्दीक हसन तालाब नंबर 2 का अस्तित्व हुआ करता था और बरसात की ऋतु में तो इसमें उठती लहरें वहां से गुजरने वाले लोगों को आनंदित करती थीं लेकिन भूमाफियाओं ने साजिश के तहत इसमें जल कुंभी उगाकर इसके अस्तित्व को ही खत्म कर दिया और फिर इस तालाब को पूरकर उसमें इमारतें बना दी तथा भारी भरकम दामों में उन्हें बेच दिया। इससे इस क्षेत्र के पर्यावरण को जो क्षति पहुंची है, वह अपूरणीय ही है। नगर निगम एक्ट 1956 के तहत नदी, तालाब, कुए बावडिय़ों जैसे जल स्रोतों को सार्वजनिक संपत्ति माना गया है। इसके बावजूद सिद्दीक हसन तालाब की इस खामोश मौत पर राज्य सरकार एवं नगर निगम की सोची समझी चुप्पी उनके इरादों को शक के दायरे में खड़ा करती है। जहां तक अवैध निर्माण की बात है, न केवल इस क्षेत्र में बल्कि पूरे शहर में ही पिछले कुछ समय से अवैध निर्माण की बाढ़ आ गई है और नगर निगम की आंखों में बंधी पट्टïी खुलने का नाम ही नहीं लेती। दरअसल शहर में इन अवैध निर्माणकर्ताओं का हौसला इसलिए बढ़ गया है क्योंकि इन्हें कहीं न कहीं सरकार तथा सत्तारूढ़ दल से जुड़े नेताओं तथा कुछ भ्रष्टï नौकरशाहों का उन्हें संरक्षण प्राप्त है। इतना ही नहीं, कुछ मामलों में तो खुद राज्य के मंत्री एवं विधायक ही सीधे या परोक्ष रूप से अवैध कालोनियों के निर्माण मेंं लिप्त हैं। मसलन कोलार क्षेत्र में सत्तारूढ़ दल के एक विधायक द्वारा बड़े पैमाने पर कोलार बांध के निकट अवैध निर्माण किया जा रहा है। यह सिर्फ एक बानगी है जो यही संकेत देती है कि भोपाल शहर में इस तरह के अवैध निर्माण अंधाधुंध तरीके से जारी हैं और अभी तक तो उन पर कोई सिलसिलेवार कार्रवाई नहीं की जा सकी है। ऐसे में सवाल यही है कि क्या ऐसे विधायकों तथा नेताओं से टकराने और उनके अवैध निर्माण को तोडऩे का साहस नगर निगम में है। इस मामले में राज्य सरकार को भी उसके उत्तरदायित्व से मुक्त नहीं किया जा सकता क्योंकि अवैध रूप से निर्माणाधीन भवनों तथा कालोनियों का काला कारोबार राजनीतिक हस्तक्षेप को समाप्त किये नहीं रोका जा सकता और राज्य सरकार की इच्छा शक्ति के बिना यह संभव नहीं है। खुद मुख्यमंत्री की एक ईमानदार राजनीतिज्ञ के रूप में प्रतिष्ठïा है अत: उम्मीद की जानी चाहिए कि वे इस दुष्चक्र को तोडऩे के लिए पर्याप्त इच्छाशक्ति का परिचय देंगे और भोपाल के विकास में सार्थक नेतृत्व प्रदान करेंगे।
सर्वदमन पाठक
सर्वदमन पाठक
Friday, February 5, 2010
मध्यप्रदेश में भी चलाया जाएभ्रष्टïाचार के खिलाफ ब्रह्मïास्त्रअपनी ईमानदार छवि के लिए पहचाने जाने वाले प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने देश के विकास और खुशहाली को निगल रहे भ्रष्टïाचार पर अपना ब्रह्मïास्त्र चला दिया है। मंत्रियों एवं मुख्यमंत्रियों को लिखे तदाशय के पत्र में उन्होंने इस सिलसिले में जो उपाय सुझाए हैं, वे मंत्री स्तरीय भ्रष्टïाचार के खिलाफ एक सशक्त मोर्चेबंदी माने जा सकते हैं और यदि बिना किसी राजनीतिक पूर्वाग्रह के इसका शब्दश: पालन किया जाए तो भ्रष्टïाचार नियंत्रण में यह एक दूरगामी कदम सिद्ध हो सकता है। उन्होंने सभी मंत्रियों- मुख्यमंत्रियों से उनकी तथा उनके सगे संबंधियों की चल अचल संपत्ति व व्यावयायिक हितों का खुलासा करने के लिए कहा है। लायसेंस, परमिट और लीज कबाडऩे में जुटे रहने वाले व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के साथ साठगांठ के मामले में अतीत में कई मंत्री भी दागदार रहे हैं। इस दृष्टिï से ऐसे प्रतिष्ठïानों से ताल्लुक न रखने की प्रधानमंत्री की सलाह भी काफी वजन रखती है। उपहार के जरिये भ्रष्टïाचार की फल फूल रही परंपरा पर प्रभावी अंकुश लगाने की गरज से उन्होंने इन मंत्रियों- मुख्यमंत्रियों को लगे हाथों यह नायाब सलाह भी दे डाली है कि वे अपने करीबी रिश्तेदारों को छ$ोड़कर अन्य किसी से भी तोहफे कबूल न करें। इसके साथ ही मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में कई आला अफसरों पर आयकर के छापों से केंद्र ने यह संकेत भी दिया है कि भ्रष्टïाचारी नौकरशाहों की भी अब खैर नहीं है। प्रधानमंत्री की इस सार्थक पहल ने अन्य राज्यों के लिए एक ऐसी मिसाल पेश की है जो अन्य राज्यों के लिए भी अनुकरणीय हो सकती है। मध्यप्रदेश जैसे राज्य में जहां पिछली तथा वर्तमान सरकारों के कई कद्दावर मंत्रियों तक पर भ्रष्टïाचार के गंभीर आरोप लग चुके हैं, ऐसी प्रभावी मुहिम वक्त का तकाजा है। प्रधानमंत्री की तरह राज्य के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की ईमानदार छवि एवं निष्कंटक नेतृत्व ऐसी मुहिम में उनकी ताकत बन सकता है। शिवराज सिंह प्रधानमंत्री के इस पत्र की ही तर्ज पर राज्य में मंत्रियों के भ्रष्टïाचार पर नकेल कसने की प्रभावी कवायद करें तो जहां एक ओर उनकी सरकार के जनकल्याणकारी कार्यों को गति मिलेगी वहीं उनके नेतृत्व में जनविश्वास बढ़ेगा। शर्त यही है कि इस मुहिम के लिए बिना किसी भेदभाव के चलाया जाए। उसके लिए बाकायदा एक सुनियोजित रणनीति बनाई जानी चाहिए और उसपर प्रभावी तरीके से अमल किया जाए। इस रणनीति के शुरुआती चरण में मंत्रियों एवं उनके करीबी रिश्तेदारों की चल अचल संपत्ति की समयबद्ध घोषणा अनिवार्य की जाए और उनका मूल्यांकन भी किया जाए। लेकिन इसके साथ ही उन तमाम माध्यमों पर भी पाबंदी लगाई जानी चाहिए जिनके जरिये मंत्री बेशुमार दौलत हासिल कर कुछ ही समय में समृद्धि के झूले में झूलने लगते हैं। बिना नौकरशाहों के सहयोग के मंत्रियों के भ्रष्टïाचार की कल्पना नहीं की जा सकती क्योंकि रातोंरात संपन्नता की मंत्रियों की महत्वाकांक्षाओं को रास्ता यही नौकरशाह दिखाते हैं। नौकरशाहों की आलीशान कोठियां और व्यवसायों में इनकी हिस्सेदारी की छानबीन से यह आसानी से सिद्ध हो सकता है कि भ्रष्टïाचार के इस खेल में वे भी उतने ही बड़े खिलाड़ी हंै। इसलिए भ्रष्टï नौकरशाहों की जांच एवं उनपर समुचित कार्रवाई सरकार एवं प्रशासन दोनों के आचरण के शुद्धीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है। सिर्फ सरकार के भरोसे राज्य में भ्रष्टïाचार मुक्त शासन की कल्पना नहीं की जा सकती। इसके लिए सत्तारूढ़ पार्टी को भी आगे आना होगा और उन सभी मंत्रियों को यह साफ संकेत देना होगा कि यदि उन्होंने अपने तौर तरीके नहीं बदले तो उनका राजनीतिक केरियर अंधकार में पड़ सकता है।हमें यह खुशफहमी हो सकती है कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और हम अपने वोटों की ताकत से सरकारें चुनने और उनके जरिये देश की तकदीर बदलने की ताकत रखते हैं लेकिन त्रासद तथ्य यही है कि हम चुनाव तक हमारी गणेश परिक्रमा करने वाले ये नेता सत्ता पाते ही हम मतदाताओं को भूल जाते हैं और विकास की मद में स्वीकृत होने वाली अधिकांश राशि भ्रष्टïाचार के जरिये इनकी तिजोरियों में जमा होती रहती है। परिणाम यह होता है कि हम विकास एवं खुशहाली को तरसते हुए अपनी किस्मत को कोसते रहते हैं। भ्रष्टïाचार की बहती गंगा में डुबकी लगाने वालों में सरकारी मंत्री या सत्तारुढ़ दल के विधायक व नेता ही नहीं बल्कि आला अफसर भी पूरे श्रद्धाभाव से शामिल होते हैं। देश प्रदेश के सार्थक विकास के लिए सरकार के आचरण को संदेह के दायरे से मुक्त करना प्रकारांतर से लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करना ही है। उम्मीद की जानी चाहिए कि केंद्र सरकार की तरह राज्य सरकार भी भ्रष्टïाचार मुक्ति के यज्ञ में अपनी हिस्सेदारी का परिचय देगी।
-सर्वदमन पाठक
-सर्वदमन पाठक
Thursday, February 4, 2010
सिर्फ चिंता नहीं बल्कि कार्रवाई से मिटेगा भ्रष्टïाचार
यह कोई रहस्य नहीं है कि सरकारों द्वारा आम तौर पर तो जनता के हितों की रक्षा की कसमें खाई जाती हैं और सरकारी नीतियों एवं कार्यक्रमों में इसका भरपूर दिखावा भी किया जाता है कि उनका उद्देश्य सिर्फ आम आदमी का कल्याण ही है लेकिन वास्तविकता यह है कि भ्रष्टïाचार के कारण इन कार्यक्रमों के लिए निर्धारित बजट का काफी छोटा हिस्सा ही इसमें इस्तेमाल हो पाता है और बाकी हिस्से की राशि नौकरशाहों तथा जनप्रतिनिधियों द्वारा बंदरबांट कर ली जाती है। इसका स्वाभाविक परिणाम यही होता है कि मंत्री, विधायक तथा सत्ता से जुड़े तमाम नेताओं के साथ ही आला अफसरों की तिजोरियां भ्रष्टïाचार की इस धनराशि से लगातार भरती रहती हैं और वे संपन्नता की जिंदगी जीते हैं जबकि प्रदेश की आम जनता विकास के लाभ से वंचित रहती है और बदहाली एवं कंगाली का जीवन जीना उसकी मजबूरी होती है। भाजपा के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी ने अपने भोपाल दौरे के दौरान नगरीय निकायों के निर्वाचित पदाधिकारियों के सम्मेलन में जनप्रतिनिधियों द्वारा किये जाने वाले भ्रष्टïाचार पर चिंता जता कर इसी समस्या की ओर संकेत किया है। उन्होंने इन जनप्रतिनिधियों को इस मामले में आगाह करते हुए कहा कि वे यदि खुद भ्रष्टï होंगे तो वे अन्यों के भ्रष्टाचार पर अंकुश नहीं लगा पाएंगे। इस सम्मेलन में अन्य प्रादेशिक कद्दावर भाजपा नेताओं ने चिंता की इस बहती गंगा में हाथ धोकर यह दिखाने का भरपूर प्रयास किया कि वे खुद नैतिकता के कितने बड़े हिमायती हैं। इस सम्मेलन में निष्ठïा एवं सेवा का पाठ भी इन जनप्रतिनिधियों को भरपूर पढ़ाया गया। यह फिलहाल भविष्य के गर्भ में है कि आड़वाणी के इस भाषण से ये जनप्रतिनिधि नैतिकता एवं जनसेवा के लिए किस हद तक संकल्पबद्ध होते हैं और राज्य की भाजपा सरकार भ्रष्टाचार पर आड़वाणी की इस ंिचंता को खुद कितनी गंभीरता से लेती है लेकिन केंद्र सरकार ने शायद आड़वाणी की चिंता को कहीं ज्यादा संजीदगी से ले लिया है। जहां तक नौकरशाही का सवाल है, केंद्र सरकार ने उनके भ्रष्टïाचार को नियंत्रित करने का काम शुरू कर दिया है। अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों के लिए केंद्र सरकार ने अचल संपत्ति का ब्योरा देना अनिवार्य कर दिया है। लेकिन भ्रष्टïाचार के नियंत्रण के लिए यह एक छोटा सा कदम है। दरअसल इसमें अन्य अधिकारियों तथा राजनीतिक नेताओं के भ्रष्टïाचार पर अंकुश लगाना बहुत ही जरूरी है। केंद्र सरकार को हर मंत्री एवं सांसद की संपत्ति का वार्षिक ब्योरा सरकारी वेबसाइट पर उपलब्ध कराने की पहल करनी चाहिए। इस मामले में राज्य की भाजपा सरकार को भी अपनी जवाबदेही निभानी होगी और यह सिद्ध करना होगा कि वह सिर्फ जुबानी जमाखर्च नहीं करती बल्कि ठोस कदम भी उठाती है। गौरतलब है कि पहले यह प्रावधान था कि राज्य के मंत्रियों को अपनी संपत्ति का वार्षिक ब्योरा प्रस्तुत करना होगा लेकिन शिवराज सिंह के पिछले कार्यकाल में इस प्रावधान को शिथिल कर दिया गया था। अब राज्य सरकार को इस प्रावधान को सख्ती से लागू करना चाहिए ताकि वह इस मामले में पारदर्शिता का दावा कर सके। भाजपा यदि वास्तव में जनविश्वास की कसौटी पर खरी उतरना चाहती है तो उसे राजनीति में नैतिकता एवं ईमानदारी के लिए संकल्पबद्धता दिखानी होगी ताकि जन कल्याण के लिए बनाये जाने वाले कार्यक्रमों का लाभ जनता को मिल सके।
-सर्वदमन पाठक
-सर्वदमन पाठक
Wednesday, February 3, 2010
कही-अनकही
इनका कहना है-
शिवसेना की यह थ्योरी खतरनाक है कि मुंबई सिर्फ महाराष्टिï्रयनों की है। देश की यह आर्थिक राजधानी सभी की है और सभी भारतवासियों को मुंबई में रहने और वहां काम करने का हक है। आईपीएल में भाग लेने वाले आस्ट्रेलियाई एवं पाकिस्तानी खिलाडिय़ों को शिवसेना की धमकी के परिप्रेक्ष्य में उन्हें केंद्र पूर्ण सुरक्षा की गारंटी देता है।पी चिदंबरम, केंद्रीय गृहमंत्री..........................................
मुंबई सभी भारतवासियों की है। समूचा भारत सभी भारतवासियों का है और वे कहीं भी जाकर अपनी आजीविका कमा सकते हैं। हमारी भाषा, जाति, उपजाति अथवा जनजाति अलग अलग हो सकती है लेकिन हम सभी भारतमाता के पुत्र हैं। यह धारणा गलत है कि बाहरी लोगों के कारण महाराष्टï्र में नौकरियां कम हो गई हैं और इसका समाधान अवश्य निकाला जाना चाहिए लेकिन इसका यह समाधान कतई नहीं है कि बाहरी लोगों यहां आने से रोक दिया जाए।
मोहन भागवत, सरसंघचालक, राष्टï्रीय स्वयंसेवक संघ
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मुंबई मराठी मानुस की है। राष्टï्रीय स्वयंसेवक संघ महाराष्टï्र की राजधानी के बारे में कोई दखलंदाजी न करे और हमें देशभक्ति एवं राष्टï्रीय एकता का पाठ न पढ़ाये। मुंबई के 92 के दंगों के दौरान हिंदुओं की रक्षा शिवसेना ने ही की थी, उस समय संघ कहां था।उद्धव ठाकरे, कार्यकारी अध्यक्ष शिवसेना
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लोग क्या सोचते हैं?
यह विचार ही अलगाववादी सोच का प्रतीक है कि मुंबई सिर्फ मराठियों की है। दरअसल मुंबई देश का ही एक हिस्सा है और संविधान के अनुसार देश के अन्य हिस्सों की तरह मुंबई में भी किसी भी देशवासी को रहने और आजीविका कमाने का हक है। आजकल विश्व में सबसे खूबसूरत एव समृद्ध शहरों में शुमार मुंबई के वर्तमान स्वरूप के निर्माण में सिर्फ मुंबईवासियों ही नहीं बल्कि देश के विभिन्न हिस्सों से आने वाले भारतीयों की मेधा तथा खून पसीने का भी काफी बड़ा योगदान है। शिवसेना अपने स्थापनाकाल से ही वोटों की राजनीति के कारण खुद को मराठियों के सबसे बड़े हितरक्षक के रूप में प्रचारित करती रही है लेकिन अब परिस्थतियां बदल चुकी हैं और शिवसेना को शायद यह अंदाजा नहीं है कि मुंबई का जनसंख्यात्मक स्वरूप इतना बदल गया है कि सिर्फ मराठियों के हित की बात करने से उसे राजनीतिक हानि के अलावा और कुछ हासिल होने वाला नहीं है। इतना ही नहीं, अब उनके ही भतीजे के नेतृत्व में बनी महाराष्टï्र नवनिर्माण सेना भी शिवसेना की ही तर्ज पर मराठी वोट बैंक की राजनीति कर रही है जिसकी वजह से इस वोट बैंक में भी खासा विभाजन हो चुका है। शिवसेना को यदि अपने राजनीतिक उत्कर्ष को पुन: प्राप्त करना है तो उसे अब सर्वग्राही राजनीति करनी होगी तभी वह मुंबई सहित महाराष्टï्र में अपनी राजनीतिक पताका फहरा सकेगी अत: मुंबई,महाराष्टï्र एवं समूचे राष्टï्र ही नहीं बल्कि खुद के हित में शिवसेना को अपना नजरिया बदलना चाहिए और मुंबई के सिलसिले में अपनी उक्त हठधर्मिता को छोड़ देना चाहिए।
शिवसेना की यह थ्योरी खतरनाक है कि मुंबई सिर्फ महाराष्टिï्रयनों की है। देश की यह आर्थिक राजधानी सभी की है और सभी भारतवासियों को मुंबई में रहने और वहां काम करने का हक है। आईपीएल में भाग लेने वाले आस्ट्रेलियाई एवं पाकिस्तानी खिलाडिय़ों को शिवसेना की धमकी के परिप्रेक्ष्य में उन्हें केंद्र पूर्ण सुरक्षा की गारंटी देता है।पी चिदंबरम, केंद्रीय गृहमंत्री..........................................
मुंबई सभी भारतवासियों की है। समूचा भारत सभी भारतवासियों का है और वे कहीं भी जाकर अपनी आजीविका कमा सकते हैं। हमारी भाषा, जाति, उपजाति अथवा जनजाति अलग अलग हो सकती है लेकिन हम सभी भारतमाता के पुत्र हैं। यह धारणा गलत है कि बाहरी लोगों के कारण महाराष्टï्र में नौकरियां कम हो गई हैं और इसका समाधान अवश्य निकाला जाना चाहिए लेकिन इसका यह समाधान कतई नहीं है कि बाहरी लोगों यहां आने से रोक दिया जाए।
मोहन भागवत, सरसंघचालक, राष्टï्रीय स्वयंसेवक संघ
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मुंबई मराठी मानुस की है। राष्टï्रीय स्वयंसेवक संघ महाराष्टï्र की राजधानी के बारे में कोई दखलंदाजी न करे और हमें देशभक्ति एवं राष्टï्रीय एकता का पाठ न पढ़ाये। मुंबई के 92 के दंगों के दौरान हिंदुओं की रक्षा शिवसेना ने ही की थी, उस समय संघ कहां था।उद्धव ठाकरे, कार्यकारी अध्यक्ष शिवसेना
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लोग क्या सोचते हैं?
यह विचार ही अलगाववादी सोच का प्रतीक है कि मुंबई सिर्फ मराठियों की है। दरअसल मुंबई देश का ही एक हिस्सा है और संविधान के अनुसार देश के अन्य हिस्सों की तरह मुंबई में भी किसी भी देशवासी को रहने और आजीविका कमाने का हक है। आजकल विश्व में सबसे खूबसूरत एव समृद्ध शहरों में शुमार मुंबई के वर्तमान स्वरूप के निर्माण में सिर्फ मुंबईवासियों ही नहीं बल्कि देश के विभिन्न हिस्सों से आने वाले भारतीयों की मेधा तथा खून पसीने का भी काफी बड़ा योगदान है। शिवसेना अपने स्थापनाकाल से ही वोटों की राजनीति के कारण खुद को मराठियों के सबसे बड़े हितरक्षक के रूप में प्रचारित करती रही है लेकिन अब परिस्थतियां बदल चुकी हैं और शिवसेना को शायद यह अंदाजा नहीं है कि मुंबई का जनसंख्यात्मक स्वरूप इतना बदल गया है कि सिर्फ मराठियों के हित की बात करने से उसे राजनीतिक हानि के अलावा और कुछ हासिल होने वाला नहीं है। इतना ही नहीं, अब उनके ही भतीजे के नेतृत्व में बनी महाराष्टï्र नवनिर्माण सेना भी शिवसेना की ही तर्ज पर मराठी वोट बैंक की राजनीति कर रही है जिसकी वजह से इस वोट बैंक में भी खासा विभाजन हो चुका है। शिवसेना को यदि अपने राजनीतिक उत्कर्ष को पुन: प्राप्त करना है तो उसे अब सर्वग्राही राजनीति करनी होगी तभी वह मुंबई सहित महाराष्टï्र में अपनी राजनीतिक पताका फहरा सकेगी अत: मुंबई,महाराष्टï्र एवं समूचे राष्टï्र ही नहीं बल्कि खुद के हित में शिवसेना को अपना नजरिया बदलना चाहिए और मुंबई के सिलसिले में अपनी उक्त हठधर्मिता को छोड़ देना चाहिए।
Monday, February 1, 2010
शिवराज की प्रशंसनीय पहल
मध्यप्रदेश अपनी नैर्सिर्गक संपदा तथा सांस्कृतिक वैविध्य के लिए विशेष पहचान रखता है। लेकिन यह भी सच है कि इसी वैविध्य को क्षुद्र राजनीतिक लाभ के लिए कुछ राजनीतिक नेताओं एवं दलों ने जब तब इस्तेमाल किया है जबकि यह प्रदेश की अनेकता एवं एकता का माध्यम बनना चाहिए था। इस सिलसिले में गणतंत्र दिवस से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह द्वारा शुरू कई मध्यप्रदेश बनाओ यात्रा काफी महत्वपूर्ण मानी जा सकती है। उनका यह अभियान प्रदेश की एकजुटता एवं समृद्धि को पारस्परिक रूप से गूंथने का प्रयास ही है। इस मामले में यात्रा की शुरुआत के लिए स्थान का चयन भी काफी सूझबूझ भरा है। मंडला का अपना एक गौरवशाली इतिहास है। इसकी मिट्टïी में आजादी की सुगंध घुली हुई है। गढ़ मंडले की रानी दुर्गावती की बहादुरी की गाथाएं यहां के पत्थरों पर अंकित हैं। गोंड़ राजाओं का यह राज्य उनके ऐतिहासिक वैभव का परिचायक है। लेकिन इस क्षेत्र में वैगा जनजाति की काफी बड़ी आबादी है। किसी भी प्रदेश को उसका सांस्कृतिक स्वाभिमान तथा सांस्कृतिक एकजुटता ही समृद्धि की राह पर ले जाती है। मुख्यमंत्री ने मध्यप्रदेश बनाओ यात्रा में इन्हीं उपादानों को अपना जरिया बनाया है। उन्होंने मध्यप्रदेश की संस्कृति की अजस्र धारा की प्रतीक जीवनदायिनी नर्मदा के उद्गम तीर्थ अमरकंटक पर मां नर्मदे की पूजा अर्चना कर इसे अनूठी शुरुआत दी और लोकतंत्र की भावना के अनुरूप जनता को विभिन्न निर्माण एवं विकास कार्यों में सीधी भागीदारी का आमंत्रण दिया। इस मौके पर नर्मदा को प्रदूषण मुक्त करने के अभियान में उन्होंने भागीदारी की और अमरकंटक विकास प्राधिकरण बनाने की घोषणा की। उन्होंने जब यह आव्हान किया कि जनता को खुद अपने परिवार, गांव और प्रदेश की जरूरत समझ कर उसमें आगे आकर सहयोग करना होगा तो वे प्रकारांतर से इस अभियान को लोकतंत्र का यज्ञ बनाने की ही पहल कर रहे थे। स्वच्छता, पर्यावरण, नशामुक्ति, जल संचय जैसे आम आदमी के दूरगामी हित के कार्यों में उन्होंने जनता से सक्रिय भागीदारी करने का आव्हान किया जो लोकतंत्र में उनकी गहन आस्था को ही दर्शाता है। लेकिन साथ ही प्रदेश को भूमाफिया सहित सभी प्रकार के माफियाओं से निजात दिलाने एवं वर्ष 2013 तक प्रदेश के सभी गांवों को बारहमासी सड़कों से जोडऩे जैसे उनके संकल्पों ने यह भी जताया कि सरकार खुद भी मध्यप्रदेश बनाओ अभियान में अपनी जिम्मेदारी से पीछे हटने वाली नहीं है। मुख्यमंत्री का यह अभियान एक अच्छी शुरुआत है जिसे यदि सुदृढ़ कदमों के साथ आगे बढ़ाया जाए तो यह प्रदेश के विकास में दूरगामी भूमिका निभा सकता है लेकिन सवाल यही है कि क्या नौकरशाही एवं समूची सरकार इसमें अपनी भूमिका समुचित तरीके से निभाएगी और क्या सरकार इस पर समुचित नियंत्रण रख पाएगी। - सर्वदमन पाठक
बिना जवाबदेही का लोकतंत्र कैसा?
देश आज गणतंत्र दिवस की साठवीं सालगिरह मना रहा है। यह ऐसा अवसर है जब हम सभी देशवासी यह अहसास करके खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं कि हमारा राष्टï्र पूरी तरह से आजाद है। हमारी संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली ने हमें वह ताकत दी है कि हम अपने जनप्रतिनिधियों, अपनी सरकार को खुद ही चुन सकते हैं और उनके जरिये देश की तकदीर रच सकते हैं। यह हमारा अधिकार है लेकिन इसके साथ ही कुछ अहम जिम्मेदारियां भी जुड़ी हुई हैं। दरअसल हम ही देश के वास्तविक भाग्यनियंता हैं लेकिन हमने अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह समुचित तरीके से नहीं किया है और आज का निराशाजनक परिदृश्य इसी की परिणति है। संविधान की मंशा यही है कि हम ऐसे जनप्रतिनिधियों का चयन करें जो देश को खुशहाली की ओर ले जाएं लेकिन विडंबना यह है कि हम ऐसे लोगों को संसद एवं विधानसभाओं में चुनकर भेजते रहे हैं जो देश और देशवासियों के हितों को भूलकर अपना स्वार्थ साधते रहे हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि उनकी तिजोरियां भरती रहीं, वे, उनके परिजन एवं उनके करीबी तमाम सुविधाएं एवं सुख भोगते रहे लेकिन आम आदमी, जिसका देश के संसाधनों तथा विकास के लाभों पर पहला हक था, बदहाली की जिंदगी जीता रहा। हम अपनी गलतियों के दुष्परिणामों को लगातार भोगते रहे हैं लेकिन फिर भी हमने अपनी गलतियों से कोई सबक नहीं लिया। यदि हमें अपने देश की तकदीर बदलनी है तो फिर हमें अपनी ताकत को पहचानना होगा और राष्टï्र के सच्चे नागरिक के रूप मेें अपनी भूमिका के बारे में नए सिरे से आत्मचिंतन करना होगा। हमें यह तय करना होगा कि ऐसे लोगों के हाथ में राष्टï्र की बागडोर न आये जो अपनी करतूतों से राष्ट्र के हितों पर ही कुठाराघात करने में न हिचकें। आम आदमी की खुशहाली के साथ ही अन्य पैमानों पर भी हमें अपने जनप्रतिनिधियों के दायित्वों एवं कर्तव्यों की छानबीन करनी होगी। दरअसल देश किसी भूभाग का ही नाम नहीं है बल्कि यह एक एक समुच्चय का नाम है। जिस तरह किसी व्यक्ति का व्यक्तित्व होता है,उसी तरह राष्टï्र का भी व्यक्तित्व होता है। यही कारण है कि समूचे राष्टï्र की संवेदनाओं में अनेकता के बावजूद एकरूपता होती है। जाति, धर्म, संप्रदाय के नाम पर इस एकरूपता को ठेस पहुंचाना भी राष्टï्रीय हितों पर कुठाराघात ही है। जो जनप्रतिनिधि राष्टï्रजनों की आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करने के साथ ही राष्टï्र की एकजुटता एवं अखंडता के लिए भी मन वचन कर्म से प्रतिबद्ध हों, वही अवाम की पहली पसंद होने चाहिए। आज जब आतंकवाद तथा महंगाई जैसे संकटों से जूझ रहे है तब अपनी इन जिम्मेदारियों का निर्वाह हमारे लिए वक्त का तकाजा ही है।
-सर्वदमन पाठक
-सर्वदमन पाठक
कही-अनकही
शरद पवार, केंद्रीय कृषिमंत्री का कहना है-
मूल्य नीति पर निर्णय करने वाला मैं अकेला व्यक्ति नहीं हूं। कीमतों पर नीतिगत फैसला मंत्रिमंडल में सामूहिक रूप से लिया जाता है जिसमें प्रधानमंत्री भी शामिल होते हैं। हालांकि कृषि उत्पादों की मूल्य वृद्धि से किसानों को फायदा ही होता है।
क्या कहना चाहते हैं पवार?
मूल्यवृद्धि को लेकर राजनीतिक दलों एवं मीडिया द्वारा सिर्फ उन पर निशाना साधना उचित नहीं है क्योंकि परामर्श की पूरी प्रक्रिया के बाद ही मूल्य बढ़ाने का फैसला लिया जाता है और विशेषज्ञ समिति की सिफारिशों के आधार पर केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा लिए जाने वाले इन फैसलों में खुद प्रधानमंत्री भी शामिल होते हैं। हालांकि उनका मानना है कि कृषि उत्पादों में मूल्यवृद्धि से किसान लाभान्वित होते हैं।
क्या सोचते हैं लोग?
यह कोई संयोग नहीं है कि इधर पवार विभिन्न कृषि उत्पादों के मूल्यों में वृद्धि की भविष्यवाणी करते हैं और उधर बाजार में इनके दामों में उछाल आ जाता है। दाल, चीनी तथा गेहूं में हुई असाधारण मूल्यवृद्धि इसका प्रमाण है। अब उन्होंने दूध के मूल्य बढऩे की भविष्यवाणी कर दी है और इस तरह बच्चों के इस भोजन के भी महंगे होने का संकेत दे दिया है। यह आश्चर्यजनक ही है कि वे इस मूल्यवृद्धि को किसानों के हित में करार देकर इसका औचित्य सिद्ध करने की कोशिश कर रहे हैं। उनके इस रुख से यही प्रतीत होता है कि वे लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी के लिए उपयोगी वस्तुओं की अंधाधुंध मूल्यवृद्धि को गलत नहीं मानते। वास्तविकता यह है कि सुरसा के मुंह की तरह बढ़ रहे दामों से आम आदमी जितना परेशान आज है, उतना कभी नहीं रहा। इससे किसानों को लाभ होने के पवार के दावे का खोखलापन इसी तथ्य से उजागर होता है कि किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला पिछले साल भी पहले की तरह ही जारी रहा है।यह भी अजीब विरोधाभास है कि पवार मूल्यवृद्धि के मामले में तो ज्योतिषी बन जाते हैं लेकिन जब उनसे पूछा जाता है कि मूल्य कब घटेंगे तो वे मासूमियत के साथ कह देते हैं कि वे ज्योतिषी नहीं हैं। हकीकत यह है कि उनकी मूल्यवृद्धि संबंधी भविष्यवाणी से देश के व्यापारियों की महंगाई बढ़ाने की प्रवृत्ति को सरकार की ओर से अचानक बढ़ावा मिल जाता है और कीमतों में उछाल इसी प्रवृत्ति का ही परिणाम होता है। सरकार को अपने ही मंत्री की मूल्यवृद्धि संबंधी बयानबाजी और उसके फलस्वरूप बढऩे वाली कीमतों से राष्टï्रव्यापी विरोध का सामना करना पड़ रहा है। अत: सरकार को चाहिए कि वह कृषिमंत्री पवार को, जिनके बयान मूल्यवृद्धि के लिए उत्प्रेरक का काम कर रहे हैं, नियंत्रित करे और यदि यह संभव न हो तो उनसे मुक्ति पा ले।
प्रस्तुति: सर्वदमन पाठक
मूल्य नीति पर निर्णय करने वाला मैं अकेला व्यक्ति नहीं हूं। कीमतों पर नीतिगत फैसला मंत्रिमंडल में सामूहिक रूप से लिया जाता है जिसमें प्रधानमंत्री भी शामिल होते हैं। हालांकि कृषि उत्पादों की मूल्य वृद्धि से किसानों को फायदा ही होता है।
क्या कहना चाहते हैं पवार?
मूल्यवृद्धि को लेकर राजनीतिक दलों एवं मीडिया द्वारा सिर्फ उन पर निशाना साधना उचित नहीं है क्योंकि परामर्श की पूरी प्रक्रिया के बाद ही मूल्य बढ़ाने का फैसला लिया जाता है और विशेषज्ञ समिति की सिफारिशों के आधार पर केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा लिए जाने वाले इन फैसलों में खुद प्रधानमंत्री भी शामिल होते हैं। हालांकि उनका मानना है कि कृषि उत्पादों में मूल्यवृद्धि से किसान लाभान्वित होते हैं।
क्या सोचते हैं लोग?
यह कोई संयोग नहीं है कि इधर पवार विभिन्न कृषि उत्पादों के मूल्यों में वृद्धि की भविष्यवाणी करते हैं और उधर बाजार में इनके दामों में उछाल आ जाता है। दाल, चीनी तथा गेहूं में हुई असाधारण मूल्यवृद्धि इसका प्रमाण है। अब उन्होंने दूध के मूल्य बढऩे की भविष्यवाणी कर दी है और इस तरह बच्चों के इस भोजन के भी महंगे होने का संकेत दे दिया है। यह आश्चर्यजनक ही है कि वे इस मूल्यवृद्धि को किसानों के हित में करार देकर इसका औचित्य सिद्ध करने की कोशिश कर रहे हैं। उनके इस रुख से यही प्रतीत होता है कि वे लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी के लिए उपयोगी वस्तुओं की अंधाधुंध मूल्यवृद्धि को गलत नहीं मानते। वास्तविकता यह है कि सुरसा के मुंह की तरह बढ़ रहे दामों से आम आदमी जितना परेशान आज है, उतना कभी नहीं रहा। इससे किसानों को लाभ होने के पवार के दावे का खोखलापन इसी तथ्य से उजागर होता है कि किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला पिछले साल भी पहले की तरह ही जारी रहा है।यह भी अजीब विरोधाभास है कि पवार मूल्यवृद्धि के मामले में तो ज्योतिषी बन जाते हैं लेकिन जब उनसे पूछा जाता है कि मूल्य कब घटेंगे तो वे मासूमियत के साथ कह देते हैं कि वे ज्योतिषी नहीं हैं। हकीकत यह है कि उनकी मूल्यवृद्धि संबंधी भविष्यवाणी से देश के व्यापारियों की महंगाई बढ़ाने की प्रवृत्ति को सरकार की ओर से अचानक बढ़ावा मिल जाता है और कीमतों में उछाल इसी प्रवृत्ति का ही परिणाम होता है। सरकार को अपने ही मंत्री की मूल्यवृद्धि संबंधी बयानबाजी और उसके फलस्वरूप बढऩे वाली कीमतों से राष्टï्रव्यापी विरोध का सामना करना पड़ रहा है। अत: सरकार को चाहिए कि वह कृषिमंत्री पवार को, जिनके बयान मूल्यवृद्धि के लिए उत्प्रेरक का काम कर रहे हैं, नियंत्रित करे और यदि यह संभव न हो तो उनसे मुक्ति पा ले।
प्रस्तुति: सर्वदमन पाठक
Friday, January 22, 2010
शिवराज का हाकी-प्रेम
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह आजकल हाकी-प्रेम में गिरफ्तार हैं। अभी चंद दिन पहले ही राष्टï्रीय हाकी में खिलाडिय़ों के बगावती तेवर से उमड़े संकट को दूर करने के लिए उन्होंने आर्थिक मदद की पेशकश की थी और अब महिला हाकी खिलाडिय़ों की नाराजी ने उन्हें फिर मदद का मौका उपलब्ध करा दिया है। उन्होंने भी इसका फायदा उठाते हुए अब महिला हाकी टीम के लिए आर्थिक सहायता की घोषणा कर दी है। कभी राष्टï्रीय खेल के रूप में प्रतिष्ठिïत हाकी के पुनरुद्धार की यह पहल निश्चित ही काबिले तारीफ है और इसके लिए मुख्यमंत्री को बधाई दी जानी चाहिए। सच तो यह है कि क्रिकेट की चमक दमक और उसकी आक्रामक मार्केटिंग के सामने देश में अन्य खेलों की पूछ परख कम हो गई है। इस तथ्य का प्रमाण यह है कि जहां क्रिकेट खिलाड़ी करोड़ों और अरबों में खेल रहे हैं वहीं हाकी खिलाडिय़ों को अपनेे वेतन तथा भत्ते को लेकर शिविर के बहिष्कार जैसा अतिरेकपूर्ण कदम उठाने को विवश होना पड़ रहा है। हाकी इंडिया के पदाधिकारियों का व्यवहार हालात को और भयावह बना रहा है। यह तो कलमाडी की समझदारी तथा मध्यप्रदेश सहित कई सरकारों एवं कारपोरेट घरानों के सहायता के आफर का कमाल था कि खिलाडिय़ों के तेवर नरम पड़े और खिलाड़ी कामनवेल्थ खेल के शिविर में शामिल होने को तैयार हो गए। अब महिला हाकी खिलाडिय़ों की बगावत पर भी शिवराज सिंह का दिल पिघल गया है और उन्होंने मदद की पेशकश कर दी है। मध्यप्रदेश को शिवराज की इन पेशकश के कारण देश में जो वाहवाही मिल रही है, वह भी इस अच्छी सोच का ही प्रतिसाद कहा जा सकता है। कलमाडी पूर्व में शिवराज ंिसंह को हाकी के सहायता की पेशकश के लिए धन्यवाद दे चुके हैं। लोगों की अपेक्षा है कि शिवराज ंिसंह अब इस मामले में जुबानी जमाखर्च से आगे बढ़ें और इस सहायता की पेशकश को ठोस रूप प्रदान करें तो शायद उन्हें लोगों की ज्यादा दुआएं मिलेंगी। चर्चा यह है कि मायावती सहित विभिन्न सरकारों एवं कारपोरेट घरानों ने अपनी सहायता राशि के चैक भी हाकी इंडिया को दे दिये हैं लेकिन मध्यप्रदेश का सहायता राशि का चेक हाकी इंडिया तक नहीं पहुंच पाया है। शिवराज सरकार यदि वास्तव में यह चाहती है कि देश की हाकी एक बार विश्व में अपनी साख कायम करे और पुन: हाकी का स्वर्णयुग लौटे तो वह इस दिशा मेें अपनी भूमिका अदा करते हुए यह सुनिश्चित करे कि सहायता राशि का चेक शीघ्रातिशीघ्र जारी हो और हाकी इंडिया तक पहुंच जाए ताकि वह अपने खिलाडिय़ों से किये गए वेतन तथा भत्ते संबंधी वायदों को पूरा कर सके। इसके साथ ही शिवराज सिंह भोपाल की हाकी के भी उन्नयन के लिए इसमें दखल करें। हमारे उपमहाद्वीप में भोपाली शैली की हाकी खेली जाती है लेकिन हाकी के मक्का कहे जाने भोपाल में सिर्फ सियासत के कारण यह खेल ह्रïास की ओर है। यदि भोपाल की हाकी का उद्धार किया जाना है तो इसके लिए सबसे पहले हाकी में चलने वाली क्षुद्र सियासत को रोकना वक्त का तकाजा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि मुख्यमंत्री इस मामले में भी अपनी भूमिका निभाएंगे।
-सर्वदमन पाठक
-सर्वदमन पाठक
Wednesday, January 20, 2010
धरने पर मंत्री
किसी मंत्री द्वारा अपनी ही सरकार की नाकामी के खिलाफ आवाज उठाने के साहस का प्रदर्शन एक असाधारण घटना है लेकिन पारस जैन ने यह साहस कर दिखाया है। उज्जैन की एक नजदीकी सड़क की दुर्दशा से कुपित पारस जैन ने धरने पर बैठकर सनसनी फैला दी। उन्हें यह गुस्सा इसलिए आया क्योंकि एक जैन मुनि को खराब सड़क के कारण तकलीफ उठानी पड़ी। मंत्री की इस नाराजी से घबराये संबंधित विभागीय अधिकारियों ने फौरन ही इस सड़क को दुरुस्त करने के लिए कवायद शुरू कर दी है और संभव है जल्द ही यह सड़क पूरी तरह दुरुस्त हो जाए और मंत्री का गुस्सा शांत हो जाए। यह उनकी धार्मिक निष्ठïा ही थी जिसके कारण एक जैन मुनि के कष्टïों पर उनके मन को ठेस लगी और वे धरने पर बैठने के लिए भावनात्मक रूप से विवश हो गए। हमारा देश धर्म प्रधान देश है और यह घटना इस बात का प्रमाण है कि हमारी र्धािर्मक आस्थाएं हमारे लिए सर्वोपरि हैं। उक्त मंत्री भी इस मामले में अपवाद नहीं हैं। अत: मंत्री के उक्त कदम को नाटक की संज्ञा देना कतई उचित नहीं है। लेकिन जहां तक सड़कों का सवाल है, सड़कें तो पूरे प्रदेश की ही खस्ताहाल हैं और आम आदमी को उन पर प्रतिदिन गुजरते हुए कितनी ही तकलीफों का सामना करना पड़ता है। भोपाल की सड़कें इस दुर्दशा का जीता जागता प्रमाण हैं। राजधानी के मोहल्ले तो आजकल ऐसे लगते हैं मानो वे राजधानी नहीं बल्कि दूर दराज इलाके में स्थित किसी देहात का हिस्सा हों। सड़कों पर होने वाली जानलेवा दुर्घटनाओं के लिए सड़कों की दुर्दशा भी काफी हद तक जिम्मेदार है। इतना ही नहीं, टूटी फूटी सड़कें प्रदेश के विकास को भी प्रतिकूल रूप से प्रभावित करती हैं। कालांतर में इससे लोगों में खुशहाली लाने के राज्य सरकार के वायदे भी प्रभावित होते हैं। यह कोई रहस्य नहीं है कि सड़कों की बदहाली के लिए सरकार ही जवाबदेह है जिसका कि उक्त मंत्री भी एक हिस्सा हैं। सवाल यह है कि उक्त मंत्री क्या कभी सड़कों के कारण आम जनता को होने वाले कष्टïों से भी इतने व्यथित हुए हैं। दलील दी जा सकती है कि मंत्रिमंडल सामूहिक जिम्मेदारी के तहत कार्य करता है और किसी मंत्री द्वारा धरने जैसा कदम उठाकर अपनी ही सरकार को धर्मसंकट में डालना इस सामूहिक जिम्मेदारी की अवहेलना है। लेकिन इसके साथ ही जनता के कष्टïों का निवारण भी तो सरकार की सामूहिक जिम्मेदारी है। क्या कभी तमाम मंत्री आम जनता कोबदहाल सड़कों से होने वाले कष्टïों से निजात दिलाने के लिए ऐसी ही संकल्पबद्धता दिखाते हैं जैसी कि पारस जैन ने एक जैन मुनि के कष्टïों को महसूस करते हुए दिखाई है। यह भी तो आखिर जन-धर्म ही है फिर ये जनता के रहनुमा उनकी तकलीफों की अनदेखी कैसे कर सकते हैं। होना तो यह चाहिए कि सुविधाजनक सड़कों के निर्माण द्वारा प्रदेश की परिवहन एवं यातायात व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए राज्य सरकार अभियान चलाए ताकि प्रदेश के औद्योगीकरण का मार्ग प्रशस्त हो सके।
-सर्वदमन पाठक
-सर्वदमन पाठक
Tuesday, January 19, 2010
राहुल का मिशन यूथ
युवाओं की हिस्सेदारी के जरिये देश की राजनीति में सार्थक बदलाव लाने के अपने राष्टï्रव्यापी अभियान के नवीनतम पड़ाव में राहुल गांधी ने मध्यप्रदेश के युवाओं को अपनी सादगी एवं साफगोई से अभिभूत कर दिया। प्रदेश के तमाम बड़े शहरों के युवाओं से रूबरू होते हुए उन्होंने विभिन्न सवालों एवं शंकाओं के जो भी उत्तर दिये उनमें इतनी पारदर्शिता थी कि युवा उनके शब्दों के जरिये उनके दिल में झांक सकते थे। उनके बयानों में किसी राजनीतिज्ञ की धूर्ततापूर्ण वाकपटुता नहीं बल्कि आम हिंदुस्तानी के मन में पल रही बेचैनी ही झलक रही थी। उन्होंने यह स्वीकारने में कोई गुरेज नहीं किया कि गांधी नेहरू परिवार का सदस्य होने के कारण वे शार्टकट से ही ऐसी राजनीतिक बुलंदियों पर पहुंच सके हैं, जो सामान्य तरीके से राजनीति में दाखिल होने वाले युवाओं के लिए संभव नहीं होती। राहुल गांधी ने अपने इस दौरे में प्रदेश के युवाओं को यह संदेश देने की पुरजोर कोशिश की कि सियासत की बुराइयों के लिए सिर्फ वर्तमान राजनीतिक ढांचे एवं वर्तमान राजनीतिज्ञों को कोसने से कुछ नहीं होगा बल्कि युवकों को खुद ही राजनीति में आकर इन विकृतियों को दूर करने के संकल्पबद्ध प्रयास करने होंगे। जब एक छात्र ने उनसे पूछा कि उन्हें राजनीति में आने से क्या फायदा होगा तो उन्होंने राजनीति के अपने नजरिये को स्पष्टï करते हुए कहा कि मेरी सियासत में व्यक्तिगत फायदे के लिए स्थान नहीं है। राहुल ने जहां एक ओर यह स्वीकार किया कि उनकी पार्टी भी कुछ गलत लोगों को चुनाव में टिकिट दे देती है वहीं दूसरी ओर उन्होंने यह कहकर युवाओं के दिल को झकझोर दिया कि आखिर ऐसे प्रत्याशियों को पराजित कर आप अपनी लोकतांत्रिक जिम्मेदारी क्यों नहीं निभाते।उन्होंने युवाओं को राजनीति में आने की खुली दावत देते हुए कहा कि अच्छे एवं प्रतिभाशाली युवकों के लिए युवक कांग्रेस के दरवाजे खुले हुए हैं और उन्हें इसके लिए किसी सहारे की कोई जरूरत नही है। दरअसल अब युवक कांग्रेस में मनोनयन से पद भरने का युग खत्म हो चला है और चुनाव प्रक्रिया नियमित कर दी गई है जिसके कारण पार्टी में शामिल होने वाले नए युवाओं को भी उच्च पदों पर पहुंचने का मौका मिल सके। एनएसयूआई एवं युवक कांग्रेस में अपराधियों को मौजूदगी पर उन्होंने दो टूक कहा कि उनकी कोशिश तो यही है कि अब कम से कम कांग्रेस में अपराधियों को प्रवेश न मिल पाए। उन्होंने अपने मध्यप्रदेश दौरे में अपने ईमानदारी भरे बयानों से युवकों के दिल में जगह बनाने में कुछ कामयाबी अवश्य हासिल की है हालांकि युवाओं के कांग्रेस से जुड़ाव की उनकी मुहिम की सफलता कांग्रेस की खुद की छवि ,कार्यशैली और उसके नेतृत्व में चल रही केंद्र सरकार की उपलब्धियों पर भी निर्भर करेगी।
-सर्वदमन पाठक
-सर्वदमन पाठक
Monday, January 18, 2010
युवा राजनीति के सुपरस्टार राहुल गांधी
राहुल गांधी इन दिनों देश की युवा राजनीति के सुपरस्टार बनकर उभरे हैं। उन्होंने अपनी अनूठी राजनीतिक शैली से देश की राजनीति की दिशा एवं दशा बदलने की जो संकल्पबद्धता प्रदर्शित की है, उसकी वजह से वे देश के लोगों के दिल में अपने लिए विशिष्टï जगह बनाने में सफल हुए हैं। देश को करीब से समझने के अपने भारत दर्शन अभियान के तहत राहुल अमेठी और रायबरेली से निकलकर बुंदेलखंड की सूखी धरती, छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों, सांप्रदायिकता से झुलसते उड़ीसा और कर्नाटक, भाजपा के दुर्ग गुजरात, वाम मोर्चे के गढ़ प.बंगाल के अलावा मध्यप्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, राजस्थान, केरल, तमिलनाडु सब जगह गए। कभी दलित के घर में रोटी खाई, तो कभी किसी गरीब की झोपड़ी में रात बिताई। राहुल के इन कामों का देश के कुछ प्रमुख नेताओं ने मजाक उड़ाने में कोर कसर नहीं छोड़ी। किसी ने उन्हें बच्चा कहा तो किसी ने उनके नहाने के साबुन तक पर कटाक्ष किया, लेकिन राहुल अपनी अग्निपरीक्षा में खरे उतरे और खामोशी से जनता के दिल में गहरे उतरते चले गए।राहुल गांधी ने हर मोर्चे पर कमोवेश यह भरोसा जगाया कि वे अपने करिश्मे से कांग्रेस को नई चमक और नए तेवर दे सकते हैं जिससे कालांतर में एक बार फिर कांग्रेस देश के कोने कोने में खुद को स्थापित कर सकती है।दरअसल गरीबों के इर्द गिर्द अपनी सियासी व्यूहरचना की। उन्होंने इनके दुख दर्द में हिस्सेदारी को अपनी राजनीति का प्रमुख उपकरण बनाया। यह देश की राजनीति की उस परंपरागत शैली से बिल्कुल अलग था जो चुनाव में येन केन प्रकारेण वोट कबाड़कर कुर्सी हासिल करने और फिर अपने स्वार्थ में डूब जाने के लिए ही जानी जाती है। राजनीतिक विरोधियों ने इसे पावर्टी टूरिज्म की संज्ञा तक दे डाली लेकिन यह वास्तविकता की ओर पीठ कर चलने जैसी कवायद ही थी क्योंकि देश में चारों ओर राहुल के जज्बे की तारीफ हो रही है।राजनीतिक नजरिये में बदलाव की इस पहल का चौतरफा परिणाम सामने आ रहा है। उत्तरप्रदेश में जहां कांग्रेस पराभव के चरम पर पहुंच चुकी थी, राहुल के दौरों और समाज के निचले तबके से तादात्म्य स्थापित करने के प्रयासों के कारण कांग्रेस को यह अहसास हो चला है कि उसके पुराने दिन लौट सकते हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में उनकी चौतरफा मोर्चेबंदी के कारण ही कांग्रेस सपा जैसी पार्टियों के साथ आकर खड़ी हो गई दिखती है। उप्र की मुख्यमंत्री मायावती तो राहुल के दौरों से इतनी घबरा गई हैं कि उनके पूर्व निर्धारित दौरों तक में सरकार ने जब तब अवरोध खड़े करने की कोशिश की है। यही हाल बिहार का है जहां कांग्रेस की दुर्गति के लिए जिम्मेदार लालू यादव के साथ अपना गठबंधन भंग कर राहुल ने पार्टी को अपनी दम पर चुनाव मैदान में उतारा। इसका परिणाम यह हुआ कि अब कांग्रेस वहां अपना खोया हुआ आत्मविश्वास पुन: हासिल कर चुकी है। पंजाब एवं मध्यप्रदेश में भी लोकसभा चुनाव में राहुल फैक्टर का असर साफ नजर आया जहां कई बुजुर्ग नेताओं को कांग्रेस के युवा प्रत्याशियों को पराजित कर दिखाया।राहुल गांधी का यह करिश्मा कोई आकस्मिक घटना नहीं है। उन्होंने राजनीति में अभी तक का सफर पुख्ता कदमों से तय किया है। 19 जून 1970 को जन्मे तथा मार्डन स्कूल नई दिल्ली, दून स्कूल में अपनी स्कूली शिक्षा और उसके बाद हार्वर्ड विश्वविद्यालय, रालिन्स कालेज फ्लोरिडा, ट्रिनिटी कालेज केम्ब्रिज से उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले राहुल ने राजनीति में हड़बड़ी में कदम नहीं उठाए। कुछ समय तक प्रसिद्ध मेनेजमेंट गुरु माइकल पोर्टर में सेवाएं देने वाले श्री राहुल गांधी ने जनवरी 2004 तक राजनीति में प्रवेश के सवालो को नकारते रहे लेकिन अपनी मां एवं कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के साथ विभिन्न सभाओं एवं फोरम पर शिरकत कर देश के राजनीतिक तेवर का जायजा लेते रहे। फिर माहौल को अपने अनुकूल पाकर मार्च 2004 में सबको चौंकाते हुए उन्होंने अमेठी से लोकसभा चुनाव लडऩे का ऐलान कर दिया और अपनी बहन प्रियंका के सहयोग से यह चुनाव एक लाख से अधिक वोटों से जीतने में कामयाब रहे। तभी उन्हें कांग्रेस में प्रमुख भूमिका दिये जाने की मांग उठने लगी थी लेकिन उन्होंने कांग्रेस की कार्यशैली से पूरी तरफ वाकिफ होने और कांग्रेस कार्यकर्ताओं का विश्वास अर्जित करने के बाद ही 24 सितंबर 2007 को कांग्रेस महासचिव का पद संभाला। यह कोई रहस्य नहीं है कि वे खुद मंत्री पद स्वीकारने का प्रधानमंत्री का आग्रह अस्वीकार कर चुके हैं। इससे यह बात साफ हो ही जाती है कि उनमें भी अपनी मां सोनिया गांधी की तरह ही पदलिप्सा लेशमात्र नहीं है। यह बात अलग है कि देश उन्हें नए नेता के रूप में देख रहा है। उनकी सोच यही रही है कि राजनीति मेें युवाओं को बढ़ावा दिये जाने से ही राजनीतिक वातावरण सुधर सकेगा और उन्होंने इसे कार्य रूप में भी परिणित कर दिखाया। उन्होंने समूचे देश में युवा एवं प्रतिभावान लोगों के सहारे कांग्रेस को आगे ले जाने का बीड़ा उठाया है। ज्योतिरादित्य सिंधिया, जतिन प्रसाद एवं सचिन पायलट जैसे युवा नेता राहुल गांधी की टीम का हिस्सा हैं जो साफ सुथरी एवं ईमानदार छवि के लिए जाने जाते हैं। उनकी युवा शक्ति पर आधारित तथा गरीबों के दुख दर्द को महसूस करने एवं उन्हें दूर करने का जज्बा रखने वाली राजनीति का जादू निश्चित ही देश पर बखूबी चल रहा है लेकिन राहुल के नेतृत्व के आगे चुनौतियां भी कम नहीं हैं। देश में सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती महंगाई उनकी सबसे बड़ी चुनौती है। भारत के पड़ौसियों की बदनीयती भरी नीतियों विशेषत: आतंकवाद से समुचित तरीके से न निपट पाने के कारण भी देश के लोगों में आक्रोश बढ़ रहा है। क्या राहुल गांधी अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर महंगाई पर नियंत्रण तथा आतंकवाद पर शिकंजा कसने के लिए सरकार को प्रेरित कर पाएंगे। उनकी सफलता इस सवाल के उत्तर पर भी काफी हद तक तय करेगी।
-सर्वदमन पाठक
-सर्वदमन पाठक
Friday, January 15, 2010
नगरीय चेतना की प्रशंसनीय पहल
मध्यप्रदेश के सभी नगर निगम क्षेत्रों में नागरिकों का कर्तव्य चार्टर लागू किये जाने की पहल इस बात का प्रमाण है कि शिवराज सरकार तमाम राजनीतिक दबाव के बावजूद इन बड़े नगरों में नगरीय चेतना विकसित करने के प्रति संकल्पबद्ध है। नगरों के बिगड़ते माहौल के कारण आज यह जरूरी हो गया है कि लोग एक नागरिक के रूप में अपनी जिम्मेदारी का अहसास करें और इस चार्टर के जरिये यह उद्देश्य पूरा हो सकता है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि जितनी तेजी से शहरों का औद्योगीकरण हो रहा है, उतनी ही तेजी से ग्र्रामों से शहरों की ओर जनसंख्या का स्थानांतरण भी हो रहा है। एक ओर तो उद्योगों में तेजी से हो रहे इजाफे से शहरों का पर्यावरण बिगड़ रहा है और दूसरी ओर शहरी आबादी पर ग्र्रामीण आबादी के बढ़ते दबाव के कारण शहरों में गुणात्मक परिवर्तन भी आ रहा है। ग्र्रामों में ऐसी कई सुविधाओं का अभाव होता है, जिनके बिना शहरों का काम ही नहीं चल सकता। ग्र्रामों में गगनचुंबी अïट्टालिकाएं नहीं होतीं, आबादी का घनत्व काफी कम होता है और खुली जगह काफी ज्यादा होती है जिसके कारण वे सीमित जगह में अपनी गुजर बसर नहीं कर सकते। उनकी जीवन शैली भी ऐसे ही वातावरण से तादात्म्य स्थापित कर लेती है लेकिन शहरों में आने पर उन्हें बिल्कुल ही अलग परिस्थितियों से रूबरू होना पड़ता है। इन परिस्थितियों में खुद को ढालने की चुनौती उनके सामने होती है। एक वर्ग अवश्य ही ऐसा होता है जो अपने को शहरों के अनुरूप ढाल लेता है लेकिन इन स्थानांतरित लोगों की एक बड़ी आबादी इतनी जल्दी एवं इतनी कुशलता से नई परिस्थितियों के अनुरूप नहीं ढल पाती जिसके कारण शहरों में एक तरह का असंतुलन उत्पन्न हो जाता है। नगरीय चेतना का यह अभाव शहरों में सांस्कृतिक विकृतियों को जन्म देता है। यातायात एवं परिवहन नियमों की अनदेखी शहर की एक बड़ी समस्या है। इसके अलावा अस्वच्छता भी शहरों की एक बड़ी समस्या है। दरअसल शहरों की आबादी लगातार बढऩे से इतने बड़े पैमाने पर वेस्टेज निकलता है कि धीरे धीरे शहर गंदगी के ढेर में तब्दील होते जा रहे हैैं। अत: शहरों में स्वच्छता के लिए सख्त प्रावधान वक्त का तकाजा है। उक्त चार्टर में अस्वच्छता पर जो दंड के प्रावधान किये जा रहे हैैं, वे इसी उद्देश्य से प्रेरित हैैं। इस दृष्टि से यह एक प्रशंसनीय पहल है लेकिन इसमें कुछ प्रावधान ऐसे भी हैैं जिनसे यह संकेत मिलता है कि नगर निगमों की कई जिम्मेदारियों को भी नागरिकों के सिर मढ़ा जा रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि लोगों में नगरीय चेतना जगाने में यह चार्टर मील का पत्थर साबित होगा और लोग शहरों को स्वच्छ एवं सेहतमंद बनाने के लिए खुद इस चार्टर का समर्थन करेंगे लेकिन इसे नगर निगमों की जवाबदेही को शिथिल करने का बहाना नहीं माना चाहिए ताकि इसकी सार्थकता का लोगों को अहसास हो सके।
-सर्वदमन पाठक
-सर्वदमन पाठक
Wednesday, January 13, 2010
देशहित के खिलाफ है हाकी का विवाद
क्या कहते हैं हाकी इंडिया के अध्यक्ष एके मट्टू
हाकी इंडिया के पास खिलाडियों को देने के लिए पैसे नहीं हैं जबकि खिलाडियों के लिए पैसा देश से बडा हो गया है। खिलाड़ी लालची हो गये हैं। उन्हें देशहित में खेलना चाहिए। यदि 48 घंटों के अंदर उन्होंने अपना बहिष्कार वापस नहीं किया तो उन्हें निलंबित भी किया जा सकता है।
क्या कहना चाहते हैं वे?
हाकी इंडिया के पास कोष की इतनी अधिक कमी है कि वह अपने खिलाडिय़ों को उनके वेतन भत्ते तक देने की स्थिति में नहीं है लेकिन खिलाडिय़ों द्वारा इस मांग को लेकर हाकी इंडिया के खिलाफ बगावती तेवर अपना लेना और विश्व कप की तैयारी के लिए लगाए गए प्रशिक्षण शिविर का बहिष्कार कर देना कतई उचित नहीं है। खिलाडिय़ों का यह रवैया खेल के हित में नहीं है। इससे खेल से जुड़ी हमारी राष्टï्रीय प्रतिष्ठïा को क्षति पहुंच रही है जो किसी भी आर्थिक लाभ-हानि से ऊपर है।
क्या सोचते हैं लोग? हाकी इंडिया के अध्यक्ष का यह बयान उनके पद की गरिमा के अनुरूप नहीं है। यदि देश की प्रतिष्ठïा के लिए जी जान लगाकर खेलने वाले हाकी खिलाड़ी अपने उन वेतन भत्तों तक के लिए मोहताज हैं जो कि उनका हक है तो इसके लिए हाकी इंडिया अपनी जवाबदेही से कैसे बच सकती है। यदि हाकी इंडिया ïूके पास खिलाडिय़ों को देने के लिए पैसा नहीं है तो इसके लिए हाकी इंडिया की बदइंतजामी और अक्षमता को ही दोष दिया जा सकता है, खिलाडिय़ों को नहीं। यह आश्चर्यजनक है कि एक ओर तो खिलाड़ी अपनी ओर से अपने खर्च पर ही विश्व कप में खेलने की पेशकश कर रहे हैं और दूसरी ओर खेल इंडिया धमकी की भाषा का इस्तेमाल करते हुए उन्हें 48 घंटों के अंदर बहिष्कार वापस लेने, वरना निलंबन झेलने की चेतावनी दे रही है। क्रिकेट को धर्म तथा क्रिकेट खिलाडिय़ों को भगवान मानने वाले देश में अन्य खेलों विशेषत: हाकी के प्रति हमारे कारपोरेट जगत एवं सरकारों के सौतेले रवैये की यह पराकाष्ठïा ही है कि इसके खिलाडिय़ों के वेतन भत्ते के लिए संघ के पास पैसे नहीं है। हाकी के पराभव के लिए हमारा यह रवैया भी काफी हद तक जिम्मेदार है। यदि हम एक बार फिर हाकी के स्वर्णयुग की ओर लौटना चाहते हैं तो हमें हाकी के प्रति हमारे रुख पर यथाशीघ्र आत्मचिंतन करना चाहिए और इसके पुनरुत्थान के लिए समुचित संसाधन जुटाने के लिए संकल्पबद्ध होना चाहिए। इस दिशा में शिवराज सिंह चौहान की राष्टï्रीय हाकी को गोद लेने की पेशकश अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू है और उम्मीद की जानी चाहिए कि अन्य संस्थाएं भी ऐसे ही प्रस्ताव लेकर आगे आएंगी।
सर्वदमन पाठक
हाकी इंडिया के पास खिलाडियों को देने के लिए पैसे नहीं हैं जबकि खिलाडियों के लिए पैसा देश से बडा हो गया है। खिलाड़ी लालची हो गये हैं। उन्हें देशहित में खेलना चाहिए। यदि 48 घंटों के अंदर उन्होंने अपना बहिष्कार वापस नहीं किया तो उन्हें निलंबित भी किया जा सकता है।
क्या कहना चाहते हैं वे?
हाकी इंडिया के पास कोष की इतनी अधिक कमी है कि वह अपने खिलाडिय़ों को उनके वेतन भत्ते तक देने की स्थिति में नहीं है लेकिन खिलाडिय़ों द्वारा इस मांग को लेकर हाकी इंडिया के खिलाफ बगावती तेवर अपना लेना और विश्व कप की तैयारी के लिए लगाए गए प्रशिक्षण शिविर का बहिष्कार कर देना कतई उचित नहीं है। खिलाडिय़ों का यह रवैया खेल के हित में नहीं है। इससे खेल से जुड़ी हमारी राष्टï्रीय प्रतिष्ठïा को क्षति पहुंच रही है जो किसी भी आर्थिक लाभ-हानि से ऊपर है।
क्या सोचते हैं लोग? हाकी इंडिया के अध्यक्ष का यह बयान उनके पद की गरिमा के अनुरूप नहीं है। यदि देश की प्रतिष्ठïा के लिए जी जान लगाकर खेलने वाले हाकी खिलाड़ी अपने उन वेतन भत्तों तक के लिए मोहताज हैं जो कि उनका हक है तो इसके लिए हाकी इंडिया अपनी जवाबदेही से कैसे बच सकती है। यदि हाकी इंडिया ïूके पास खिलाडिय़ों को देने के लिए पैसा नहीं है तो इसके लिए हाकी इंडिया की बदइंतजामी और अक्षमता को ही दोष दिया जा सकता है, खिलाडिय़ों को नहीं। यह आश्चर्यजनक है कि एक ओर तो खिलाड़ी अपनी ओर से अपने खर्च पर ही विश्व कप में खेलने की पेशकश कर रहे हैं और दूसरी ओर खेल इंडिया धमकी की भाषा का इस्तेमाल करते हुए उन्हें 48 घंटों के अंदर बहिष्कार वापस लेने, वरना निलंबन झेलने की चेतावनी दे रही है। क्रिकेट को धर्म तथा क्रिकेट खिलाडिय़ों को भगवान मानने वाले देश में अन्य खेलों विशेषत: हाकी के प्रति हमारे कारपोरेट जगत एवं सरकारों के सौतेले रवैये की यह पराकाष्ठïा ही है कि इसके खिलाडिय़ों के वेतन भत्ते के लिए संघ के पास पैसे नहीं है। हाकी के पराभव के लिए हमारा यह रवैया भी काफी हद तक जिम्मेदार है। यदि हम एक बार फिर हाकी के स्वर्णयुग की ओर लौटना चाहते हैं तो हमें हाकी के प्रति हमारे रुख पर यथाशीघ्र आत्मचिंतन करना चाहिए और इसके पुनरुत्थान के लिए समुचित संसाधन जुटाने के लिए संकल्पबद्ध होना चाहिए। इस दिशा में शिवराज सिंह चौहान की राष्टï्रीय हाकी को गोद लेने की पेशकश अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू है और उम्मीद की जानी चाहिए कि अन्य संस्थाएं भी ऐसे ही प्रस्ताव लेकर आगे आएंगी।
सर्वदमन पाठक
Tuesday, January 12, 2010
भेदभाव पर हिंसा
करोंद मंडी मेें दुकानों के लिए प्लाटों की नीलामी को लेकर व्यापारियों में सुलग रही असंतोष की आग आखिर सोमवार को भड़क ही उठी। नीलामी को लेकर व्यापारियों की हड़ताल के दौरान हुए पथराव और पुलिस लाठीचार्ज से समूचे मंडी क्षेत्र तथा उसके आसपास के क्षेत्रों में जबर्दस्त अफरातफरी मच गई। व्यापारियों में इस भेदभावपूर्ण नीलामी को लेकर कितना गुस्सा था, इसका अंदाजा इससे ही लगाया जा सकता है कि उन्होंने दो दर्जन दोपहिया वाहनों तथा कई चार पहिया वाहनों को आग के हवाले कर दिया, इतना ही नहीं, सरकार के प्रतिनिधि के रूप में वहां पहुंचे पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष बाबूलाल भानपुरा पर भी अपना गुस्सा निकालते हुए उनके ऊपर पथराव किया गया और उनकी कार को आग लगा दी गई। इस आक्रोश की आंच से पुलिसकर्मी भी नहीं बचे जिनमें से एक तो गंभीर हालत में अस्पताल में भर्ती कराया गया है। दरअसल इसे प्रशासनिक विवेकहीनता की पराकाष्ठïा ही कहा जा सकता है जिसकी परिणति इस व्यापक हंगामे में हुई। आखिर ऐसा क्या कारण था कि प्रशासन ने अनाज व्यापारियों के लिए तो प्लाट की कीमत 22 रुपए प्रति वर्गफुट तय की लेकिन सब्जी व्यापारियों के लिए यह कीमत 251 रुपए प्रति वर्गफुट तय की गई। प्रशासन की दलील है कि अनाज व्यापारियों को प्लाटों की नीलामी एवं सब्जी व्यापारियों को प्लाटों की नीलामी के बीच के अंतराल में इनका बाजार मूल्य काफी बढ़ गया है। सवाल यह उठता है कि प्रशासन ने दोनों ही वर्ग के व्यापारियों के लिए पहले ही सुनियोजित तरीके से एक साथ नीलामी कराने का फैसला क्यों नहीं लिया और साथ साथ यह नीलामी क्यों नहीं कराई ताकि दोनों व्यापारियों को कम रेट पर प्लाट उपलब्ध हो जाते। प्लाटों की नीलामी में एक ओर तो उनकी क्षमता का ध्यान नहीं रखा गया और दूसरी ओर अब उनके स्वाभाविक दावे की अनदेखी की जा रही है। व्यापारियों का दावा है कि प्रशासन ने यह चाल कुछ बाहरी व्यापारियों को लाभ पहुंचाने के लिए चली है। अंदरूनी सूत्र बताते हैं कि यह नीलामी सिर्फ वर्तमान सब्जी व्यापारियों तक सीमित नहीं है बल्कि इसमें बेरोजगारों तथा अन्य लोगों को भी नीलामी में लाभ पहुंचाने की कोशिश की जा रही है। इस मामले में शर्तें भी इतनी सख्त कर दी गई हैं कि उनकी व्यावहारिकता पर सवालिया निशान लग गया है। संभवत: अन्य लोगों को लाभ पहुंचाने के लिए ही प्रशासन ने इतने हठ का परिचय दिया कि यह जानते हुए भी कि व्यापारी काफी गुस्से में हैं और इस मामले में आरपार के संघर्ष का मन बना चुके हैं, उसने हंगामे के पहले नीलामी रोकने की समझदारी नहीं दिखाई। सरकार को इस हंगामे से कुछ सबक सीखना चाहिए और अपनी हठधर्मिता छोड़कर सब्जी व्यापारियों का विश्वास हासिल करना चाहिए तभी इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाना चाहिए अन्यथा किसी भी अनहोनी की पूरी जिम्मेदारी उसी पर होगी।
-सर्वदमन पाठक
-सर्वदमन पाठक
Friday, January 8, 2010
कही -अनकही
क्या कहते हैं अमर सिंह
मैंने स्वास्थ्य संबंधी कारणों से समाजवादी पार्टी के तमाम पदों से इस्तीफा दे दिया है और इसमें कोई राजनीति नहीं है। दरअसल लोकसभा चुनाव में पार्टी का प्रचार कर मैंने गलती की है, मैंने अपने ही जीवन से खिलवाड़ किया है। अब मैं तनावमुक्त जीवन जीना चाहता हूं। मैं अब इस्तीफा वापिसी का मुलायम सिंह का अनुरोध नहीं मानूंगा।
क्या कहना चाहते हैं वे?
समाजवादी पार्टी पर मुलायम सिंह के परिजनों का कब्जा तथा उनके इशारे पर पार्टी में हो रहा अपमान उनके लिए असहनीय है और वे किसी भी हालत में अपने इस अपमान को बर्दाश्त करने वाले नहीं है। यह इस्तीफा इसी की अभिव्यक्ति है। अब गेंद मुलायम सिंह के पाले में है। वैसे उन्होंने यह घोषणा अवश्य की है कि वे इस्तीफा वापस नहीं लेंगे। लेकिन पहले की तरह वे एक बार फिर अपना इस्तीफा वापस से सकते हैं बशर्ते कि पार्टी में मुलायम सिंह यादव अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर उनका सम्मान बहाल कर सकें।
क्या कहते हंै लोग?
दरअसल देश की राजनीति में अमर ंिसंह को गंभीरता से नहीं लिया जाता। इतने लंबे राजनीतिक जीवन के बाद भी जन नेता के रूप में उनकी कोई पहचान नहीं है बल्कि उनके विरोधी तो उन पर राजनीतिक दलाल होने का आरोप लगाते नहीं थकते। समाजवादी पार्टी में भी उनकी भूमिका पूंजीपतियों और पार्टी के बीच सेतु की ही रही है और इसके कारण पार्टी का समाजवादी चरित्र भी काफी हद तक शिथिल हुआ है। पार्टी के वर्तमान हालात के लिए इसे भी कम जिम्मेदार नहीं माना जा सकता। राज बब्बर, आजम खां एवं बेनी प्रसाद वर्मा जैसे कद्दावर नेता भी अमर सिंह के कारण ही पार्टी छोडऩे पर मजबूर हुए। इसके साथ ही यह भी सच है कि पार्टी पर इन दिनों मुलायम सिंह यादव के परिजनों का ही कब्जा हो गया है जो अमर सिंह के तौर तरीकों को पसंद नहीं करते। इसी वजह से पार्टी में उनके रसूख में भारी गिरावट आई है। अमर सिंह का इस्तीफा उनकी प्रेशर टेक्टिक्स का ही हिस्सा हो सकता है ताकि पार्टी में वे पुनप्र्रतिष्ठिïत हो सकें। मुलायम सिंह का उनके प्रति जो साफ्ट कार्नर है उसे देखते हुए एक बार फिर उनकी यह चाल कामयाब हो सकती है बशर्ते कि उनमें परिवार-मोह जुनून की हद तक न पहुंच गया हो।
-सर्वदमन पाठक
मैंने स्वास्थ्य संबंधी कारणों से समाजवादी पार्टी के तमाम पदों से इस्तीफा दे दिया है और इसमें कोई राजनीति नहीं है। दरअसल लोकसभा चुनाव में पार्टी का प्रचार कर मैंने गलती की है, मैंने अपने ही जीवन से खिलवाड़ किया है। अब मैं तनावमुक्त जीवन जीना चाहता हूं। मैं अब इस्तीफा वापिसी का मुलायम सिंह का अनुरोध नहीं मानूंगा।
क्या कहना चाहते हैं वे?
समाजवादी पार्टी पर मुलायम सिंह के परिजनों का कब्जा तथा उनके इशारे पर पार्टी में हो रहा अपमान उनके लिए असहनीय है और वे किसी भी हालत में अपने इस अपमान को बर्दाश्त करने वाले नहीं है। यह इस्तीफा इसी की अभिव्यक्ति है। अब गेंद मुलायम सिंह के पाले में है। वैसे उन्होंने यह घोषणा अवश्य की है कि वे इस्तीफा वापस नहीं लेंगे। लेकिन पहले की तरह वे एक बार फिर अपना इस्तीफा वापस से सकते हैं बशर्ते कि पार्टी में मुलायम सिंह यादव अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर उनका सम्मान बहाल कर सकें।
क्या कहते हंै लोग?
दरअसल देश की राजनीति में अमर ंिसंह को गंभीरता से नहीं लिया जाता। इतने लंबे राजनीतिक जीवन के बाद भी जन नेता के रूप में उनकी कोई पहचान नहीं है बल्कि उनके विरोधी तो उन पर राजनीतिक दलाल होने का आरोप लगाते नहीं थकते। समाजवादी पार्टी में भी उनकी भूमिका पूंजीपतियों और पार्टी के बीच सेतु की ही रही है और इसके कारण पार्टी का समाजवादी चरित्र भी काफी हद तक शिथिल हुआ है। पार्टी के वर्तमान हालात के लिए इसे भी कम जिम्मेदार नहीं माना जा सकता। राज बब्बर, आजम खां एवं बेनी प्रसाद वर्मा जैसे कद्दावर नेता भी अमर सिंह के कारण ही पार्टी छोडऩे पर मजबूर हुए। इसके साथ ही यह भी सच है कि पार्टी पर इन दिनों मुलायम सिंह यादव के परिजनों का ही कब्जा हो गया है जो अमर सिंह के तौर तरीकों को पसंद नहीं करते। इसी वजह से पार्टी में उनके रसूख में भारी गिरावट आई है। अमर सिंह का इस्तीफा उनकी प्रेशर टेक्टिक्स का ही हिस्सा हो सकता है ताकि पार्टी में वे पुनप्र्रतिष्ठिïत हो सकें। मुलायम सिंह का उनके प्रति जो साफ्ट कार्नर है उसे देखते हुए एक बार फिर उनकी यह चाल कामयाब हो सकती है बशर्ते कि उनमें परिवार-मोह जुनून की हद तक न पहुंच गया हो।
-सर्वदमन पाठक
Wednesday, January 6, 2010
निर्लज्जता की पराकाष्ठïा
यह साल गुजरते गुजरते भी ऐसी घटना का साक्षी बन गया जो निर्लज्जता की पराकाष्ठïा ही थी। देश के बहुचर्चित राजनीतिक नेता तथा आंध्र प्रदेश के राज्यपाल नारायण दत्त तिवारी राज्य के ही एक स्थानीय चैनल द्वारा किये गए स्टिंग आपरेशन में कुछ नाजनीनों के साथ निर्वस्त्र अवस्था में पकड़े गए। चैनल पर इसकी क्लिपिंग कुछ देर तक दिखाई जाती रही और बदनामी के छींटे पर पड़ते रहे। कुछ समय बाद भले ही अदालती आदेश के बाद उक्त चैनल ने इस क्लिपिंग का प्रसारण बंद कर दिया लेकिन इससे राज्यपाल पद की प्रतिष्ठïा जो आघात लगा है उसकी भरपाई होना काफी मुश्किल है। वैसे यह पहला अवसर नहीं है जब राज्यपाल के पद पर उंगलियां उठी हैं। राज्य सरकार से टकराव को लेकर तो कई बार राज्यपाल विवादों में रहे हैं। कुछ मामलों में चारित्रिक कारणों को लेकर भी राज्यपाल संदेह के दायरे में रहे हैं लेकिन नारायण दत्त तिवारी का मामला सबसे शर्मनाक है। इस घटना की गंभीरता इस हकीकत को देखते हुए और बढ़ जाती है कि श्री तिवारी काफी बुलंद राजनीतिक शख्सियत के रूप में जाने जाते रहे हैं। वे चार बार उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे हैं और एक बार तो वे प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचते पहुंचते रह गए थे। उन्होंने दावा किया है कि इस क्लिपिंग में कोई सच्चाई नहीं है और ये उनको फंसाने के लिए रचा गया एक फिल्मी नाटक था। उनका कहना है कि वे इसे अदालत में चुनौती देने का मन बना रहे हंै लेकिन अभी तक उन्होंने यह कदम नहीं उठाया है। उनके काफी करीबी व्यक्ति का इस मामले में हाथ बताया जाता है जो उनकी नस नस से वाकिफ है। वैसे उन पर चारित्रिक आरोप कोई पहली बार नहीं लगे हैं, बल्कि पहले भी उनके चरित्र को लेकर उंगलियां उठती रही हैं।यही कारण है कांग्रेस पार्टी ने भी उनका बचाव करने में कोई रुचि नहीं दिखाई और उन्हें आनन फानन में यह संकेत दे दिया कि राजभवन से विदा लेने के अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं है। राजभवन से रुखसत होने के बाद भी उनकी निंदा और चटखारों का दौर जारी है। इस विशेष मामले की सच्चाई को तो तकनीकी तरीके से ही परखा जा सकता है लेकिन आम तौर पर राज्यपालों से जुड़ा विवाद कयासों पर आधारित होता है, उसका सबसे बड़ा कारण यही है कि राजभवन की गतिविधियों में पारदर्शिता नहीं होती। बहरहाल इस तरह की घटनाओं के मद्देनजर यह वक्त का तकाजा ही है कि राजभवन की गतिविधियों को पारदर्शी बनाया जाए। आजकल राजभवन जिस तरह से पूर्वाग्रहपूर्ण राजनीति में लिप्त हो जाते हैं या उसके शिकार हो जाते हैं, उसे देखते हुए तो यह निहायत जरूरी हो गया है।
-सर्वदमन पाठक
-सर्वदमन पाठक
जनहित के प्रति प्रतिबद्धता शिवराज सरकार की सबसे बड़ी चुनौती
नए साल के आगाज के साथ ही शिवराज सरकार जन विश्वास की कसौटी पर खरे उतरने के लिए कुछ ज्यादा ही सचेत हो गई है। सत्ता के चाल, चरित्र और चेहरे को और साफ सुथरी छवि प्रदान करने की कोशिशों में अचानक आई तेजी इस हकीकत को ही बयां करती है। इस सिलसिले को शुरू करते हुए मुख्यमंत्री ने साल के शुरुआती दिनों में ही आनन फानन में विभिन्न विभागों के कार्यकलापों की समीक्षा की और तमाम आला अफसरों को यह संदेश देने की कोशिश की कि जनता के हित के खिलाफ कोई भी प्रशासनिक ढिलाई बर्दाश्त नहीं की जाएगी। अब पार्टी की शीर्ष पंक्ति के नेता वेंकैया नायडू इसी सिलसिले में मंत्रियों की क्लास लेने की तैयारी में हैं। यह सही है कि ईमानदार शासन एवं प्रशासन राज्य की बेहतरी के लिए जरूरी है और इस दृष्टिï से यह कवायद स्वागत योग्य है लेकिन यह भी उतना ही सच है कि मुख्यमंत्री अथवा नायडू के ये प्रयास तभी परवान चढ़ सकते हैं जब मंत्रियों एवं आला अफसरों में भी इन प्रयासों का सार्थक असर हो। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि मुख्यमंत्री की ईमानदार छवि के कारण ही भाजपा राज्य में दुबारा सत्ता में लौटी है और इसी विश्वसनीयता को बनाए रखने के लिए उनमें जनहित की नीतियों एवं कार्यक्रमों को अमलीजामा पहनाने के लिए समुचित बदलाव लाने का संकल्प साफ झलकता है। उक्त मुहिम इसी की परिचायक है लेकिन सवाल यही है कि क्या उनके पास ऐसे मंत्रियों एवं अफसरों की टीम मौजूद है जिनमें भी ऐसी ही ईमानदारी और संकल्पबद्धता हो। फिलहाल तो नौकरशाही की जो तस्वीर नजर आती है, वह प्रशासनिक दृष्टिï से ज्यादा उत्साहजनक नहीं है। अफसरों एवं प्रशासनिक अमले में फैला भ्रष्टïाचार ऐसा रोग है जो राज्य को सेहत को बेहतर बनाने तथा इसे खुशहाली का टानिक देने की सरकार की तमाम कोशिशों को निगल रहा है और इसके बावजूद सरकारी आंकड़ेबाजी से सरकार को भ्रमित किया जा रहा है।अफसरों की समीक्षा बैठक भर से काम चलने वाला नहीं है बल्कि जब तक ईमानदार अफसरों को पुरस्कृत करने तथा बेईमान अफसरों को दंडित करने का अभियान नहीं चलेगा तब तक राज्य की प्रगति में बेईमान अफसरशाही रोड़ा बनी रहेगी।प्रशासन से सरकार के कार्यक्रमों के क्रियान्वयन को सुनिश्चित कराने के लिए मंत्रियों में प्रशासनिक क्षमता तथा ईमानदारी का होना पहली शर्त है। यदि वल्लभ भवन में मंत्रियों की उपस्थिति पर नजर डाली जाए तो यह बात साफ हो जाती है कि अधिकांश मंत्री तो इस प्रशासनिक मुख्यालय में तभी आते हैं जब उनके किसी परिचित, रिश्तेदार या राजनीतिक साथी, सहयोगी की फाइलें निपटानी होती हैं। फिर वे आला अफसरों पर नियंत्रण कैसे करेंगे। इतना ही नहीं, कई बार तो मंत्रियों एवं आला अफसरों में भ्रष्टïाचार के मामले मेें मिलीभगत होती है। कौन नहीं जानता कि कई मंत्रियों पर पिछले वर्षों में भ्रष्टïाचार के गंभीर आरोप लग चुके हैं और उनमें से अधिकांश आज मंत्रिमंडल में हैं। क्या सरकार एवं सत्तारूढ़ पार्टी ऐसे मंत्रियों पर नकेल कसने के लिए तैयार है ताकि जनता के प्रति जवाबदेह ईमानदार शासन -प्रशासन का मार्ग प्रशस्त हो सके।
-सर्वदमन पाठक
-सर्वदमन पाठक
Tuesday, January 5, 2010
अस्पताल पर बदनुमा धब्बा
भोपाल मेमोरियल अस्पताल एवं शोध संस्थान के भीतर भोपाल विश्वविद्यालय की शोध छात्रा के साथ सामूहिक बलात्कार इस प्रतिष्ठिïत संस्था के माथे पर एक बदनुमा दाग ही है। इस बलात्कार में संस्था के एक डाक्टर की भी संलिप्तता सामने आई है जो इस घटना का सबसे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण पहलू है। वैसे तो यह संस्थान गैसपीडि़तों को उच्चस्तरीय इलाज उपलब्ध कराने के लिए बनाया गया था और इसकी देखरेख सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश की अध्यक्षता में गठित न्यास द्वारा की जाती है लेकिन पिछले लंबे समय से यह अस्पताल विवादों के घेरे में रहा है। इस अस्पताल में डाक्टरों का उच्चस्तरीय स्टाफ तो अब कुछ ही विभागों में बचा है जबकि अन्य विभागों में लोगों को अपेक्षानुरूप इलाज न मिलने की शिकायतें आम होती जा रही हैं। अब नि:शुल्क चिकित्सा का गैसपीडितों का अधिकार भी शिथिल हो गया है क्योंकि इसमें प्रायवेट मरीजों का इलाज भी होने लगा है। यहां की सुरक्षा व्यवस्था अवश्य ही इतनी सख्त बना दी गई थी कि गैसपीडि़त मरीजों को बहुधा परेशानी हो जाती थी लेकिन इसके बावजूद इस मामले में संस्थान को समझौता गवारा नहीं था। इस घटना के बाद दोषरहित सुरक्षा व्यवस्था का यह भरम भी टूट गया है। जो सुरक्षाकर्मी मरीजों एवं उनके परिजनों से प्रवेश के लिए तमाम तरह की पूछताछ करते हैं, उन्हीं सुरक्षाकर्मियों ने उक्त छात्रा एवं उसके साथ आने वाले पुरुष को कैसे कैंपस में प्रवेश करने दिया, यह बात समझ से परे है। सवाल यह भी है कि इस महिला को शराब पिलाकर उसके साथ सामूहिक दुष्कृत्य किया गया फिर भी इन सुरक्षा कर्मियों को भनक क्यों नहीं लगी। यह घटना जिस तरह से हुई है, उससे यह संदेह होना स्वाभाविक है कि यह कहीं इस उच्च सुरक्षा वाले क्षेत्र में चल रहे किसी सेक्स रैकेट का हिस्सा तो नहीं है। यदि ऐसा है तो फिर वहां न्यास की कार्यक्षमता पर यह एक प्रश्र चिन्ह ही है। क्या न्यास के कर्ताधर्ता बता सकते हैं कि यहां ऐसे डाक्टर की नियुक्ति कैसे हुई जो आगे चलकर संस्था के लिए बदनामी का सबब बन सकता था। क्या नियुक्ति के समय अभ्यर्थियों का समुचित चरित्र सत्यापन सुनिश्चित किया जाता है। दरअसल नियुक्तियों की जिम्मेदारी तो न्यास की ही है फिर वे इसकी जवाबदेही से कैसे बच सकते हैं। इस बात में कितनी सच्चाई है, यह तो अस्पताल प्रबंधन ही बता सकता है लेकिन यह शिकायत आम है कि इस अस्पताल में आजकल असामाजिक तत्वों का खासा दखल हो गया है और ये असामाजिक तत्व इस प्रतिष्ठिïत अस्पताल के वातावरण को दूषित कर रहे हैं। यह घटना भी ऐसे ही वातावरण की परिणति हो सकती है। यदि अस्पताल प्रबंधन इसकी प्रतिष्ठïा की पुनस्र्थापना के प्रति तनिक भी चिंतित है तो उसे तत्काल इस घटना की तह में जाने हेतु समुचित जांच बैठानी चाहिए और इसके लिए दोषी तमाम लोगों पर कार्रवाई करनी चाहिए। अस्पताल को ऐसे वातावरण से मुक्त करने के लिए कारगर उपाय किये जाने चाहिए जो इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जिम्मेदार हैं। साथ ही उन तमाम कर्मचारियों एवं डाक्टरों की सेवाएं समाप्त की जानी चाहिए जिनके अतीत पर संदेह की जरा भी छाया है।
- सर्वदमन पाठक
- सर्वदमन पाठक
भ्रष्टाचार: और नहीं, अब और नहीं
सन् 2009 बीत चुका है और 2010 का आगाज हो चुका है। नया सूरज उम्मीदों का नया सवेरा लेकर आया है। पिछला साल कई मायनों में मिश्रित संभावनाओं से भरपूर रहा। एक ओर तो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह अपनी ओर से प्रशासन में सक्षमता, ईमानदारी एवं पारदर्शिता लाने के लिए सतत प्रयासरत रहे और इस दिशा में तेज कदम बढ़ाने के लिए उन्होंने जब जब विभिन्न विभागों की समीक्षा कर उनकी कार्यशैली में सुधार लाने की कोशिश की वहीं यह भी सच है कि कमोवेश उनका प्रयास एकाकी ही रहा। उन्हें प्रशासन की ओर सेे समुुचित सहयोग मिलना तो दूर, असहयोग का ही सामना करना पड़ा। इसका सबसे बड़ा कारण यही था कि प्रशासन की खुद की कार्यशैली दोषपूर्ण है। दरअसल यह बात जगजाहिर है कि नौकरशाही में भ्रष्टïाचार का बोलबाला है और इसे छिपाने के लिए ऐसी कार्यशैली आवरण का काम करती है। यही नौकरशाही प्रशासनिक पारदर्शिता की दिशा में मुख्यमंत्री द्वारा उठाये जाने वाले तमाम प्रयासों को नाकाम करती रहती है एवं नौकरशाही के इस कुत्सित कारोबार में अधिकांश प्रशासनिक अमले की मिलीभगत रहती है। लेकिन इसके लिए सिर्फ नौकरशाही को जिम्मेदार मानना गलत है क्योंकि राजनीतिक नेताओं के न्यस्त स्वार्थ भी भ्रष्टï नौकरशाही के लिए मददगार होते हैं। नए साल में सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि प्रशासनिक पारदर्शिता को कैसे सुनिश्चित किया जाए। प्रशासनिक पारदर्शिता सफल सरकार की सबसे बड़ी निशानी है। जन कल्याण से जुड़ी नीतियों एवं कार्यक्रमों के अमल को सुनिश्चित करने के लिए प्रशासनिक पारदर्शिता सबसे पहली शर्त है। आम तौर पर होता यह है कि जन कल्याण के कार्यक्रमों के लिए आवंटित धनराशि का बड़ा हिस्सा नौकरशाह, अफसर प्रशासनिक अमला और नेता डकार जाते हैं और कार्यशैली में पारदर्शिता न होने के कारण अधिकारी फर्जी आंकड़ों से जनता और सरकार को इसकी सफलता के बारे में भरमाने में सफल हो जाते हैं। मुख्यमंत्री खुद ऐसी पृष्ठïभूमि से आये हैं जहां दिली ईमानदारी काफी मायने रखती है और मुख्यमंत्री के रूप में भी उन्होंने अपनी इस दिली ईमानदारी को बरकरार रखा है। लोगों से वायदे करने और उन्हें निभाने में भी वे ईमानदारी के साथ ही प्रयास करते हैं लेकिन उन्हें इस तरह का तंत्र एवं कार्यशैली विकसित करनी होगी जिससे उनकी यह आकांक्षा संपूर्ण शासन- प्रशासन में प्रतिबिंबित हो सके। विडंबना यह है कि प्रशासन में इसका नितांत अभाव परिलक्षित होता है।यक्ष प्रश्र यही है कि आखिर वे कौन से उपाय हैं जो कि मुख्यमंत्री को प्रशासनिक पारदर्शिता के लिए उठाने चाहिए। इसमें सबसे पहला उपाय तो यही हो सकता है कि मुख्यमंत्री खुद ऐसे विश्वसनीय आला अफसरों की टीम बनाएं जिनकी ईमानदारी एवं कार्यनिष्ठïा असंदिग्ध हो और यह टीम प्रशासन की मानीटरिंग करे। खुद मुख्यमंत्री इस टीम से जब तब वास्तविक स्थिति की जानकारी लेते रहें और जरूरत के मुताबिक प्रशासनिक ढांचे में परिवर्तन करते रहें लेकिन सिर्फ इसी से बात नहीं बनने वाली है। इसके लिए योग्य अफसरों को प्रोत्साहित एवं पुरस्कृत करना और भ्रष्टï एवं गैरजवाबदेह अफसरों को दंडित करना भी जरूरी है ताकि प्रशासन में स्पष्टï रूप से यह संदेश जाए कि इस सरकार में सिर्फ ईमानदार अफसरों की ही पूछ परख होगी और भ्रष्टï अफसरों को उनकी करनी का फल भुगतना होगा। इस उपाय के अलावा मुख्यमंत्री को सरकार एवं नौकरशाही को जवाबदेह बनाने के लिए राजनीतिक कदम भी उठाने होंगे। कोई भी प्रशासन जब तक अपनी मनमानी नही कर सकता जब तक कि उसके पीछे राजनीतिक विरादरी का संरक्षण न हो। इसमें कोई शक नहीं है कि प्रदेश के कई प्रभावशाली राजनीतिक नेता जिनमें मंत्रियों, विधायकों एवं सांसदों के अलावा सत्ता एवं विपक्ष में बैठी राजनीतिक पार्टियों के संगठन से जुड़े नेता भी शामिल हैं, अपने फायदे के लिए प्रशासनिक अफसरों के साथ गलबहियां करते हैं और इसलिए भ्रष्टïाचार के बावजूद ये आला अफसर और उनसे जुड़ा सरकारी अमला सुरक्षित रहता है। यदि उनके ऊपर से यह राजनीतिक संरक्षण हट जाए तो स्वाभाविक रूप से उनमें यह भय उत्पन्न हो जाएगा कि या तो उन्हें अपना तौर तरीका बदलना होगा अन्यथा सरकार उन्हें बदलने में देरी नहीं लगाएगी। विशेषत: मंत्रियों पर सरकार को इस मामले में नकेल लगाना होगा। प्रदेश में कई मंत्रियों पर भ्रष्टïाचार के गंभीर आरोप हैं और ये मंत्री अपने स्वार्थ की खातिर नौकरशाही से गंठजोड़ करें तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। मुख्यमंत्री ने पिछले चुनाव के बाद मंत्रियों के रिपोर्ट कार्ड की अच्छी शुरुआत की थी लेकिन यह योजना संभवत: अमल में नहीं आ पाई। इस कारण मंत्रियों पर किसी तरह की जवाबदेही तय नहीं हो पाई। अब नए साल में इस योजना को प्रभावी ढंग से लागू करने का संकल्प मुख्यमंत्री को लेना चाहिए और इस मामले में पार्टी को उनका सहयोग करना चाहिए। सत्तारूढ़ दल के उन मंत्रियों एवं विधायकों पर कड़ी नजर रखी जानी चाहिए जो भ्रष्टïाचार के मामले में संदेह के घेरे में हैं। मुख्यमंत्री के लिए यह सबसे अच्छा विकल्प है कि न केवल वे खुद इनके आर्थिक संसाधनों पर नजर रखें बल्कि उनकी आयकर विवरणी पर भी सतर्क निगाह रखी जाए। यदि पार्टी उनकी चौकसी के लिए कोई आंतरिक व्यवस्था करे तो और भी बेहतर होगा।इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि आजकल राजनीति सेवा के बदले सुविधा का जरिया हो गई है और अन्य राजनीतिक दलों की तरह भाजपा भी इसका शिकार हो चुकी है। इसी वजह से भाजपा सरकारों के प्रभावी मंत्री भी भ्रष्टïाचार के आरोपों में घिर गए हैं। लेकिन मप्र में सबसे अच्छी बात यही है कि मुख्यमंत्री इस मामले में निष्कलंक हैं और उनमें ऐसे मंत्रियों पर अंकुश लगाने के लिए समुचित मनोबल और इच्छाशक्ति दोनों ही हैं। उम्मीद है कि मुख्यमंत्री इसका प्रयोग कर सरकार एवं प्रशासन की जवाबदेही तय करेंगे और उन्हें पारदर्शी बनाएंगे। पार्टी को भी इस विकृति को दूर करने के लिए कुछ कड़वी दवा का इस्तेमाल करना होगा और इन संदिग्ध मंत्रियों को चुनाव में न उतारने का कड़ा फैसला करना होगा ताकि जन हित की कसौटी पर भाजपा खरी उतर सके।
-सर्वदमन पाठक
-सर्वदमन पाठक
Monday, January 4, 2010
क्या कहते हंै आमिर खान
यह धारणा निर्मूल है कि थ्री ईडियट के लेखन के श्रेय को लेकर छिड़ी जंग फिल्म की पब्लिसिटी का हिस्सा है जिसका उद्देश्य बाक्स आफिस पर फिल्म की अधिक से अधिक कमाई सुनिश्चित करना है।आमिर खान, प्रमुख अभिनेता, थ्री ईडियट्स क्या आशय है उनका?
आमिर यह कहना चाहते हैं कि उक्त फिल्म दर्शकों को आकर्षित करने की अद्भुत क्षमता के कारण ही बाक्स आफिस पर अत्यधिक कमाई में सफल हो रही है। जहां तक चेतन भगत के उपन्यास पर इसके आधारित होने को लेकर उठे विवाद का सवाल है, यह महज एक संयोग ही है। यह चेतन भगत का खुद का पब्लिसिटी स्टंट है जिसने इस मामले को हवा दे दी है।
क्या सोचते हैं लोग?
फिल्म के रिलीज होने के साथ ही चेतन भगत का विवाद में कूद पडऩा कोई संयोग नहीं हो सकता क्योंकि उन्हें फिल्म प्रोड्यूसर विधु विनोद चोपड़ा अनुबंधित कर चुके थे और चेतन भगत इस अनुबंध के दस लाख रुपए में से नौ लाख रुपए वे ले भी चुके हैं। चैनल पर चेतन भगत तथा विधु विनोद चोपड़ा के बीच जिस नाटकीय अंदाज में यह विवाद सामने आया उससे यही लगता है कि इस नाटक का बखूबी मंचन किया गया है जबकि चेतन भगत बार बार यही कह रहे हैं कि उन्हें चोपड़ा से कुछ भी नहीं चाहिए। यह पहला अवसर नहीं है जब फिल्म प्रसारित होने के ऐन पहले अथवा उसके आसपास ऐसे विवाद सामनेे आए हों और बाद में छानबीन करने पर यही तथ्य सामने आया कि इनमें से अधिकांश विवाद फिल्म की पब्लिसिटी के मकसद से छेड़े गए थे। अत: यदि भविष्य में यही निष्कर्ष निकले तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है। वैसे फिल्म के दर्शकों की निष्पक्ष राय यही है कि चेतन भगत के उपन्यास की पटकथा पर यह फिल्म काफी हद तक आधारित है और इसके बावजूद उन्हें पर्याप्त श्रेय न दिया जाना उनके प्रति अन्याय ही है। लेकिन यदि वे अपेक्षानुरूप आक्रामक नहीं नजर आते तो फिर इससे लोगों को दाल में काला नजर आना स्वाभाविक ही है।
-सर्वदमन पाठक
आमिर यह कहना चाहते हैं कि उक्त फिल्म दर्शकों को आकर्षित करने की अद्भुत क्षमता के कारण ही बाक्स आफिस पर अत्यधिक कमाई में सफल हो रही है। जहां तक चेतन भगत के उपन्यास पर इसके आधारित होने को लेकर उठे विवाद का सवाल है, यह महज एक संयोग ही है। यह चेतन भगत का खुद का पब्लिसिटी स्टंट है जिसने इस मामले को हवा दे दी है।
क्या सोचते हैं लोग?
फिल्म के रिलीज होने के साथ ही चेतन भगत का विवाद में कूद पडऩा कोई संयोग नहीं हो सकता क्योंकि उन्हें फिल्म प्रोड्यूसर विधु विनोद चोपड़ा अनुबंधित कर चुके थे और चेतन भगत इस अनुबंध के दस लाख रुपए में से नौ लाख रुपए वे ले भी चुके हैं। चैनल पर चेतन भगत तथा विधु विनोद चोपड़ा के बीच जिस नाटकीय अंदाज में यह विवाद सामने आया उससे यही लगता है कि इस नाटक का बखूबी मंचन किया गया है जबकि चेतन भगत बार बार यही कह रहे हैं कि उन्हें चोपड़ा से कुछ भी नहीं चाहिए। यह पहला अवसर नहीं है जब फिल्म प्रसारित होने के ऐन पहले अथवा उसके आसपास ऐसे विवाद सामनेे आए हों और बाद में छानबीन करने पर यही तथ्य सामने आया कि इनमें से अधिकांश विवाद फिल्म की पब्लिसिटी के मकसद से छेड़े गए थे। अत: यदि भविष्य में यही निष्कर्ष निकले तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है। वैसे फिल्म के दर्शकों की निष्पक्ष राय यही है कि चेतन भगत के उपन्यास की पटकथा पर यह फिल्म काफी हद तक आधारित है और इसके बावजूद उन्हें पर्याप्त श्रेय न दिया जाना उनके प्रति अन्याय ही है। लेकिन यदि वे अपेक्षानुरूप आक्रामक नहीं नजर आते तो फिर इससे लोगों को दाल में काला नजर आना स्वाभाविक ही है।
-सर्वदमन पाठक
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